श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २०
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड
अध्याय २० भद्रा तथा मित्रविन्दा द्वारा श्रीकृष्ण की भार्या बनने की कथा का वर्णन
है।
श्रीगरुडमहापुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) विंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran Brahmakand chapter 20
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड बीसवां अध्याय
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २०
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २० का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २०
अध्यायः २० श्रीगरुडमहापुराणम्
श्रीकृष्ण उवाच ।
या पूर्वसर्गे नलसंज्ञस्य वीन्द्र
पुत्री भूत्वा विष्णुपत्नी सकामा ।
प्रदक्षिणं भ्रमणं वै चकार गुणेन
भद्रा भद्रसंज्ञा बभूव ॥ ३,२०.१
॥
कन्याभावे संस्थितां भद्रसंज्ञां
पिता नलस्त्वब्रवीत्तां स पश्यन् ।
भद्रे किमर्थं गात्रपीडां करोषि फलं
हि तन्नन्दिनि मे वदस्व ॥ ३,२०.२
॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे
पक्षिराज ! पूर्वजन्म में विष्णुपत्नी ने ही नल की पुत्री के रूप में भद्रा नाम से
शरीर धारण किया था। जो परम विष्णुभक्त थी, वह
सभी प्रकार के भद्र गुणों से सम्पन्न थी, इसी कारण उसका भद्रा
यह नाम पड़ा था। वह कन्या भगवान् कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये नित्य
उन्हें प्रणाम - निवेदन और उनकी प्रदक्षिणा किया करती थी । कन्याभाव में स्थित
अपनी भद्रा नामक पुत्री की वैसी कठिन तपस्या देखकर पिता नल ने कहा कि 'हे नन्दिनी ! पुत्री ! भद्रे ! किसलिये तुम अपने शरीर को कष्ट दे रही हो
ऐसा करने से तुम्हें कौन सा फल मिल जायगा, उसे मुझे बताओ ।'
भद्रोवाच ।
शृणुत्वं मे तात नमस्क्रियादेः फलं
वक्तुं का समर्था भवेच्च ॥ ३,२०.३
॥
तथाप्यहं तव वक्ष्यामि तात
यथाशक्त्या शृणु सम्यग्घिताय ।
सदा हरिमर्म नाथो दयालुरहं हरेस्तव
दासानुदासी ।
मां पाहि विष्णोस्तव वन्दे पदे
इत्युक्त्वा प्रणामं चाकरोद्दण्डरूपम् ॥ ३,२०.४ ॥
हरेः प्रणामं त्विति कर्तव्यशून्यं
व्यर्थं तमाहुर्ज्ञानिनस्तच्छृणु त्वम् ।
रमेश मध्वेश सरस्वतीशेत्येवं
वदन्प्रणमेद्विष्णुदेवम् ॥ ३,२०.५
॥
यथा प्रसन्नो वन्दनाद्देवद्देव
स्तथा न तुष्टः पूजनात्कर्मतश्च ।
यथा नामस्मरणाद्वन्दनाद्वा
पापान्नियच्छेतु तथा न चान्यैः ॥ ३,२०.६
॥
भद्रा बोली - हे तात! आप मेरे पिता
हैं,
भला मैं आपको क्या बता सकती हूँ । भगवान् को नमस्कार आदि क्रियाओं के
फल को बताने में कौन समर्थ हो सकता है ? फिर भी आप सुनें- 'हे तात ! करुणानिधान भगवान् विष्णु ही सदा मेरे स्वामी रहे हैं। मैं हरि के
दासों की भी दासी हूँ । ' हे विष्णो! मैं आपके चरणों में
प्रणाम करती हूँ । मेरी रक्षा करें, ऐसा कहती हुई भद्रा ने
दण्डवत्- रूप में भूमि पर गिरकर अपने स्वामी नारायण को प्रणाम किया । पुनः भद्रा
कहने लगी। हे तात! भगवान् विष्णु को नित्य - निरन्तर प्रणाम करना चाहिये। जिस
प्रकार वन्दना करने से वे देव प्रसन्न होते हैं, उस प्रकार
वे पूजन करने से प्रसन्न नहीं होते । हे तात! नाम स्मरण अथवा प्रणाम - निवेदन तथा
वन्दन करने से जिस प्रकार से पाप से मुक्ति हो जाती है, उस
प्रकार से अन्य साधनों से नहीं होती ।
देहं तु ये पोषयन्त्येव तात हरेः
प्रणामैः शून्यभूतं च पुष्टम् ।
तदेवमाहुर्व्यर्थमेवेति तात
तत्पोषकाणां नरके दुः खमाहुः ॥ ३,२०.७
॥
यमोऽपि तं तत्र उलूखले तु निधाय
पिष्टं सुखलैः करोति ।
यो वा परं न करोत्येव तात
प्रदक्षिणं देवदेवस्य विष्णोः ॥ ३,२०.८
॥
तस्यैव पादौ तलयन्त्रे निधाय यमश्च
नित्यं प्रकरोति पिष्टम् ।
एषां जिह्वा हरिकृष्णेति नाम न
वक्ति नित्यं व्यर्थभूतां वदन्ति ॥ ३,२०.९
॥
तेषां जिह्वा यमलोके यमस्तु
निष्कास्य पिष्टं प्रकरोति नित्यम् ।
हे तात! भगवान् विष्णु को प्रणाम -
निवेदन किये बिना जो लोग शरीर का पोषण करते हैं, उनका वह शरीर - पोषण व्यर्थ ही है। ऐसे लोगों को नरक में महान् दुःख भोगना
पड़ता है। जो देवश्रेष्ठ भगवान् विष्णु की प्रदक्षिणा नहीं करता उसे यमराज अत्यन्त
त्रास देते हैं। जिनकी जिह्वा 'हरि', 'कृष्ण'
इस प्रकार से भगवान्के मङ्गलमय नामों का नित्य कीर्तन नहीं करती है,
ज्ञानीजनों द्वारा उस जिह्वा को व्यर्थ ही कहा गया है।
काशीनिवासेन च किं प्रयोजनं किं वा
प्रयागे मरणेन तात ॥ ३,२०.१० ॥
किं वा रणाग्रे मरणेन सौख्यं किं वा
मखादेः समनुष्ठितेन ।
समस्ततीर्थेष्वटनेन किं
किमधीतशास्त्रेण सुतीक्ष्णबुद्ध्या ॥ ३,२०.११
॥
येषां जिह्वाग्रे हरिनामैव नास्ति
येषां गात्रैर्नमनं नापि विष्णोः ।
येषां पद्भ्यां नास्ति हरेः
प्रदक्षिणं तेषां सर्वं व्यर्थमाहुर्महान्तः ॥ ३,२०.१२ ॥
हे तात! काशी में निवास करने अथवा
प्रयाग में मरने से क्या लाभ ! अथवा युद्ध में वीरगति प्राप्त करने से अथवा
यज्ञादि का अनुष्ठान करने से क्या लाभ है! समस्त तीर्थों में भ्रमण करने से अथवा
शास्त्र के अध्ययन से किस प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है ?
जिनकी जिह्वा के अग्रभाग पर हरिनाम नहीं है, जिनके
शरीर से भगवान् विष्णु को नमन नहीं किया गया है, जिनके पैरों
ने भगवान् विष्णु की प्रदक्षिणा नहीं की है, ऐसे लोगों का सब
कुछ करना व्यर्थ ही है? ऐसा महान् लोगों का कहना है।
हर्यर्पणाद्रिहितं नाम
कस्मात्प्रदक्षिणं नमनं चाहुरर्घ्यम् ।
अतो विष्णोर्नमनं कार्यमेव
हरेर्नामस्मरणं तात कार्यम् ॥ ३,२०.१३
॥
जन्म ह्येतद्दुर्लभं नश्वरं तु यथा
जलस्थं तत्तथैव ।
नो विस्वासं कुरु गात्रे त्वदीये
जीवेष्वपि स्वः परश्चेति तात ॥ ३,२०.१४
॥
सद्यः कृतं नमनं न त्वदीयं सद्यः
कृतं स्मरणं न त्वदीयम् ।
कदा प्राप्स्ये मरणं तन्न जाने न
विश्वासं कुरु गात्रे महात्मन् ॥ ३,२०.१५
॥
अतः हे तात! भगवान् विष्णु को नमन
करना और उन्हें निरन्तर स्मरण रखना ही प्राणी का वास्तविक कार्य है। निश्चित ही यह
मनुष्य - जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, किंतु दुर्लभ
होने पर भी वैसे ही नश्वर है, जैसे जल में स्थित बुलबुला
होता है । हे तात! इस नश्वर शरीर का कोई भरोसा नहीं है, अतः
जो समय प्राप्त है उसमें भगवान् को नमस्कार, वन्दन आदि करते
रहना चाहिये। हे पिताजी! आप भी ऐसा ही करें।
एतच्छ्रुत्वा नलो वीन्द्र
पुत्रीवाक्यं सुनिर्मलम् ।
नमस्कारं च कृतवान्यथाशक्त्या
प्रदक्षिणम् ॥ ३,२०.१६ ॥
सापि प्रदक्षिणं चक्रे नमस्कारं सदा
हरेः ।
एवं बहुदिनं कृत्वा ध्यात्वा
नारायणं परम् ॥ ३,२०.१७ ॥
कलेवरं च तत्याज मरणे हरिचिन्तया ।
हे पक्षिराज ! पुत्री के ऐसे निर्मल
वचनों को सुनकर श्रद्धा समन्वित हो पिता नल ने भगवान् विष्णु को नमस्कार किया और
यथाशक्ति उनकी प्रदक्षिणा की । तदनन्तर पुनः वह भद्रा भगवान् को प्राप्त करने की
इच्छा से उन्हीं के ध्यान में निमग्न हो गयी, इसी
में उसका नश्वर शरीर भी कब शान्त हो गया, इसका उसे भान ही
नहीं रहा ।
मत्पितुर्वसुदेवस्य भगिन्या उदरे खग
॥ ३,२०.१८ ॥
कैकेयीति च नाम्ना सा
त्वभवद्भद्रसंज्ञका ।
यस्माद्भद्रगुणैर्युक्ता भद्रा सा
भद्रनामिका ॥ ३,२०.१९ ॥
तस्यात्मजैश्च कैकेयैः पञ्चभिः
खगसत्तम ।
प्रत्याहृतामिमां भद्रां
प्राप्तवान् खगसत्तम ॥ ३,२०.२० ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिश्रेष्ठ!
पुनः मेरे पिता वसुदेव की बहिन के उदर से कैकेयी इस नाम से उस भद्रा नामवाली कन्या
ने जन्म लिया। भद्र गुणों से युक्त होने के कारण वह उस जन्म में भी भद्रा नाम से
ही प्रसिद्ध हुई और उसे मैंने प्राप्त किया।
वक्ष्येहं मित्रविन्दायाः
पाणिग्रहणकारणम् ।
सावधानमना भूत्वा शृणु पक्षीन्द्र
सत्तम ॥ ३,२०.२१ ॥
यान्पूर्वसर्गेप्यवृणोन्निकामतो
ह्यग्नीषोमान्नामिका मित्रविन्दा ।
मित्रं हरिं प्राप्तुकामा सदैक
तत्रोपायं चिन्तयामासदेवी ॥ ३,२०.२२
॥
हरिप्राप्तौ साधनाः संति तेषु
मुख्यं कचिच्चिन्तयामास देवी ।
तेषां मध्ये श्रवणं श्रेष्ठमाहुः
पुराणानां सात्त्विकानां सदापि ॥ ३,२०.२३
॥
विष्णोरुत्कर्षो वर्तते यत्र
वायोस्तथोत्कर्षः सज्जनानां पुराणे ।
श्राद्धं सदा विष्णुबुद्ध्या सदैव
नान्यच्छ्राव्यं साधनं तत्र चैव ॥ ३,२०.२४
॥
यस्मिन्दिने श्रवणं नास्ति
विष्णोस्तेषां जन्म व्यर्थमाहुः कथायाम् ।
स्नान जपः पञ्चयज्ञं व्रतं च इष्टापूर्ते
कृच्छ्रचान्द्रो च दत्तम् ॥ ३,२०.२५
॥
सर्वं व्यर्थं वैष्णवानां च दीक्षा
कथां विना सम्यगनुष्ठितां वै ।
श्रीकृष्ण ने गरुड से पुनः कहा- हे
गरुड ! जिस प्रकार मित्रविन्दा का विवाह हुआ, अब
मैं उसे बताता हूँ। मित्रविन्दा हरि की सदैव प्रिय रही है । पूर्वजन्म में हरि को
मित्ररूप में प्राप्त करने की इच्छा करनेवाली वह देवी सदा उनके विषय में चिन्तन
करती रहती थी कि किस उपाय से भगवान् विष्णु को प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि
उन्हें प्राप्त करने के बहुत से उपाय हैं, पर श्रेष्ठतम उपाय
कौन हो सकता है वह ऐसा विचार करने लगी। उसने निश्चय किया कि सभी साधनों में
श्रेष्ठ साधन है 'सात्त्विक पुराणों में वर्णित भगवान्की
कथाओं का श्रवण करना'। जो व्यक्ति भगवान् विष्णु की कथा का
श्रवण नहीं करता उसका जन्म लेना व्यर्थ है जिसने भगवान् विष्णु के गुणानुवाद का
कीर्तन करनेवाले भागवत पुराण को नहीं सुना, उसका जीवन व्यर्थ
है, इसलिये सदा हरिकथा का श्रवण करना चाहिये ।
यैर्न श्रुतं भागवतं पुराणं
ससंप्रदायैर्गुरुभिः संयुतैश्च ॥ ३,२०.२६
॥
यैर्न श्रुतं भागवतं पुराणं यैर्न
श्रुतं ब्रह्मकाण्डं पुराणम् ।
तेषां जन्म
व्यर्थमाहुर्ममहान्तस्तस्माच्छ्राव्या हरिवार्ता सदैव ॥ ३,२०.२७ ॥
न यत्र गोविन्दकथामहानदी न यत्र
नारायणपादसंश्रयः ।
न यत्र विष्णोः सततं वचोस्ति न
संवसेत्तत्क्षणमात्रं कथञ्चित् ॥ ३,२०.२८
॥
हे तात ! जहाँ भगवान् विष्णु से
सम्बन्धित कथारूपी महानदी प्रवाहित नहीं होती तथा जहाँ नारायण के चरणाम्बुजों का
आश्रय नहीं है और जहाँ मुख से भगवान् विष्णु का नाम स्मरण नहीं होता,
वहाँ किसी प्रकार से क्षणमात्र भी नहीं रहना चाहिये।
यस्मिन् ग्रामे भागवतं न शास्त्रं न
वर्तते भागवता रसज्ञाः ।
यस्मिन् गृहे नास्ति गीतार्थसारः
यस्मिन् ग्रामे नाम सहस्रकं वा ॥ ३,२०.२९
॥
तयो रसज्ञा यत्र न सन्ति तत्र न
संवसेत्क्षणमात्रं कथञ्चित् ।
यस्मिन् दिने दिव्यकथा च विष्णोर्न
वास्ति जन्तोस्तस्य चायुर्वृथैव ॥ ३,२०.३०
॥
'जिस गाँव में भागवतशास्त्र की
चर्चा नहीं होती और न जहाँ भागवत के रस को जाननेवाले ही होते हैं, साथ ही जिस घर में भगवान् विष्णु के द्वारा कही गयी गीता के अर्थों का
निष्कर्ष जाननेवाले नहीं हैं अथवा जिस ग्राम में भगवान् की सहस्रनामावली
(विष्णुसहस्रनाम ) - की चर्चा नहीं होती अथवा जहाँ उन दोनों (गीता और
विष्णुसहस्रनाम ) - के रसों का ज्ञान रखनेवाले नहीं हैं वहाँ क्षणमात्र भी किसी
प्रकार से नहीं रहना चाहिये अथवा मनुष्य के जीवन में जिस दिन भगवान् विष्णु की
दिव्य कथा का श्रवण नहीं होता है, उस दिन उस प्राणी की आयु
व्यर्थ हो जाती है।
गर्भे गते नात्र विचार्यमस्ति
तन्मन्यते दुर्लभं मर्त्यलोके ।
कर्णं कल्पैर्भूषितं सुंदरं च न
सुंदरं चाहुरार्या रसज्ञाः ॥ ३,२०.३१
॥
विष्णोः कथाख्याभरणैश्च युक्तं तदेव
कर्णं सुंदरं चाहुरार्याः ।
तस्मात्सदा भागवतार्थसारं शृण्वन्ति
ये सततं वाचयन्ति ॥ ३,२०.३२ ॥
तेषां जन्म स्वस्थमाहुर्महान्तो
महत्फलं चास्ति तथैव तेषाम् ।
सोष्णीषकञ्चुकयुताश्च हरेः कथां वै
शृण्वन्ति येपि च पठन्ति सदैव मर्त्याः ॥ ३,२०.३३ ॥
सर्वेपि ते पूजनीया हि लोके न वै
शिश्रे चोदरे चैव सक्ताः ।
ये दाक्षिण्यादर्थलोभाद्वदन्ति सदा
पुराणं भगवत्तत्त्वसारम् ॥ ३,२०.३४
॥
प्रच्छादयन्ते तत्त्वगोप्यानि ये तु
तेषां गतिः सूर्यसूनुः सदैव ।
ये धर्मकाण्डे कर्मकाण्डे सदैव
उत्पादयन्ते सुरुचिं तत्र नित्यम् ॥ ३,२०.३५
॥
मौल्येन ये कथयेयुः पुराणं तेषां
गतिः सूर्य सुनः सदैव ।
मौल्येन ये भागवतं पुराणं शृण्वन्ति
वै हरिशास्त्रार्थतत्त्वम् ॥ ३,२०.३६
॥
मौल्येन वेदाध्ययनं प्रकुर्वते
तेषां गतिः सूर्यसूनुः सदैव ।
यदृच्छया प्राप्तधनेन ये तु
संतुष्टास्ते ह्यत्र योग्याः सदैव ॥ ३,२०.३७
॥
धनार्जने ये
त्वतितृष्णाभियुक्तास्तेषां न वै भागवतेधिकारः ।
मत्वा लोके हरिरेवति
नित्यमन्तर्यामी नास्ति तदन्य ईशः ॥ ३,२०.३८
॥
एवं सदा ये प्रविचिन्तयन्ति
योगक्षेमं बिभृयाद्विष्णुरेषाम् ।
सद्वैष्णवानामशुभं नास्ति नास्ति
प्रदृश्यते संशयज्ञानरूपात् ॥ ३,२०.३९
॥
रसपारखी विद्वान् स्वर्णादि से
निर्मित आभूषणों से विभूषित कानों को सुन्दर नहीं कहते,
भगवान् विष्णु की मङ्गलमयी कथाओं से पूरित कानों को ही सुन्दर बताते
हैं । इस कारण से जो लोग सर्वदा भागवत के अर्थतत्त्व का श्रवण करते हैं और निरन्तर
उसका वाचन करते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है, ऐसा श्रेष्ठ जनों का कहना है । संसार में हरि सर्वत्र व्याप्त हैं,
वे ही नित्य हैं, अन्तर्यामी हैं ऐसा समझते
हुए जिनके द्वारा सदा भलीभाँति प्रभु का चिन्तन किया जाता है, उनके योगक्षेम का वहन वे विष्णु स्वयं ही करते हैं ऐसे भक्तों का [ कभी]
अशुभ नहीं होता है।
कर्मानुसारेण हरिर्ददाति फलं
शुभानामशुभस्य चैव ।
अतस्तदर्थं नैव यत्नं च
कुर्याद्धनार्थं वै हरितत्त्वे च कुर्यात् ॥ ३,२०.४० ॥
भगवान् हरि शुभ-अशुभ फल कर्मानुसार
ही देते हैं, इसलिये धनप्राप्ति के लिये कोई
यत्न नहीं करना चाहिये । प्रयत्न तो हरितत्त्व की प्राप्ति के लिये ही करना उचित
है।
अतः स्नात्वा दिव्यमन्त्रं जपित्वा
विसर्जयित्वा विष्णुनिर्माल्यगन्धम् ।
शुचिर्भूत्वा भागवतं पुराणं
संश्रावयेत्सर्ववेत्तापि नित्यम् ॥ ३,२०.४१
॥
कर्मानुसारेण धनार्जनं च वेदार्जनं
शास्त्रसमार्जनं च ।
भविष्यति श्रवणं चापि
विष्णोरत्यादराच्छ्रवणं दुर्घटं च ॥ ३,२०.४२
॥
अत्यादराद्भागवतस्य
सारमास्वादयेद्दुर्घटं मर्त्यलोके ।
आस्वाद्य तद्भागवतं
पुराणमानन्दबाष्पैर्युक्तता दुर्घटा च ॥ ३,२०.४३ ॥
श्रुत्वा तत्त्वा नां निर्णयं धारणं
च सुदुर्घटं चाहुरार्याः समस्तम् ।
श्रुत्वा तत्त्वानां धारणानन्तरं च
कामक्रुधोर्जारणं दुर्घटं च ॥ ३,२०.४४
॥
श्रुत्वा तत्त्वानां धारणानं तरं त
तथा योगे दुर्घटं संगतं च ॥ ३,२०.४५
॥
श्रुत्वा तत्त्वानां धारणानन्तरं च
कामक्रुधोर्जारणं दुर्घटं च ।
एते दोषा ज्ञानपूतानपीह कुर्वन्ति
संदेहयुतान्सदैव ॥ ३,२०.४६ ॥
अतो ह्यहं श्रवणं सत्कथायाः सदा
करिष्ये नात्र विचार्यमस्ति ।
तेनाप्यहं हरिनामाभिवाञ्छा
निश्चित्य चित्तं श्रवणे वै चकार ।
आदेहमेवं श्रवणं च कृत्वा त्यक्त्वा
देहं भूतले संप्रजाता ॥ ३,२०.४७ ॥
इसी कारण हे तात! मैं भी सदैव
भगवान् की सत्कथाओं का श्रवण किया करती हूँ । पूर्वकाल में मैंने भगवान् की कथा का
श्रवण किया था और फिर शरीर का परित्यागकर आपकी पुत्री के रूप में पृथ्वी पर मैंने
जन्म लिया है ।
निवस्तुं वसुदेवस्य भगिन्या उदरे खग
।
सुमित्रा संज्ञकायां च जाता वै
मित्रविन्दिका ॥ ३,२०.४८ ॥
श्रवणेन हरिं मित्रं प्राप्ता सा
मित्रविन्दिका ।
अतः सा मित्रविन्देति संज्ञया
संबभूव ह ॥ ३,२०.४९ ॥
स्वयंवरे मित्रविन्दा राज्ञां मध्ये
तु भामिनी ।
ममांसे व्यसृजन्मालां तां गृहीत्वा
खगेश्वर ।
विधूय नृपतीन्सर्वान्पुरीं प्राप्ताः
खगेश्वर ॥ ३,२०.५० ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे पक्षिन् ! उस
मित्रविन्दा ने पृथ्वी पर रहने के लिये वसुदेव की बहिन के उदर में सुमित्रा नाम से
जन्म लिया। भागवतकथा के श्रवण से ही वह भगवान् विष्णु को मित्र के रूप में प्राप्त
कर सकी है। इसी कारण उसका मित्रविन्दा यह नाम पड़ा है। हे खगराज ! स्वयंवर में
अनेक राजाओं के मध्य भामिनी उस मित्रविन्दा ने मेरे गले में जयमाला डाल दी और मैं
समस्त राजाओं को परास्त कर मित्रविन्दा को साथ लेकर अपनी पुरी आ गया।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे भद्राकृतभगवत्पतित्वप्रापकतपश्चर्यादिनिरूपणं
नाम विंशोध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय 21
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