श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०  "उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध दसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय १०

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

प्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै ध्रुवः ।

उपयेमे भ्रमिं नाम तत्सुतौ कल्पवत्सरौ ॥ १ ॥

इलायामपि भार्यायां वायोः पुत्र्यां महाबलः ।

पुत्रं उत्कलनामानं योषिद् रत्‍नमजीजनत् ॥ २ ॥

उत्तमस्त्वकृतोद्वाहो मृगयायां बलीयसा ।

हतः पुण्यजनेनाद्रौ तन्मातास्य गतिं गता ॥ ३ ॥

ध्रुवो भ्रातृवधं श्रुत्वा कोपामर्षशुचार्पितः ।

जैत्रं स्यन्दनमास्थाय गतः पुण्यजनालयम् ॥ ४ ॥

गत्वोदीचीं दिशं राजा रुद्रानुचरसेविताम् ।

ददर्श हिमवद्द्रोण्यां पुरीं गुह्यकसंकुलाम् ॥ ५ ॥

दध्मौ शङ्‌खं बृहद्‍बाहुः खं दिशश्चानुनादयन् ।

येनोद्विग्नदृशः क्षत्तः उपदेव्योऽत्रसन्भृशम् ॥ ॥ ६ ॥

ततो निष्क्रम्य बलिन उपदेवमहाभटाः ।

असहन्तः तन्निनादं अभिपेतुरुदायुधाः ॥ ७ ॥

स तान् आपततो वीर उग्रधन्वा महारथः ।

एकैकं युगपत्सर्वान् अहन् बाणैस्त्रिभिस्त्रिभिः ॥ ८ ॥

ते वै ललाटलग्नैस्तैः इषुभिः सर्व एव हि ।

मत्वा निरस्तमात्मानं आशंसन्कर्म तस्य तत् ॥ ९ ॥

तेऽपि चामुममृष्यन्तः पादस्पर्शमिवोरगाः ।

शरैरविध्यन् युगपद् द्विगुणं प्रचिकीर्षवः ॥ १० ॥

ततः परिघनिस्त्रिंशैः प्रासशूलपरश्वधैः ।

शक्त्यृष्टिभिर्भुशुण्डीभिः चित्रवाजैः शरैरपि ॥ ११ ॥

अभ्यवर्षन् प्रन्प्रकुपिताः सरथं सहसारथिम् ।

इच्छन्तः तत्प्रतीकर्तुं अयुतानां त्रयोदश ॥ १२ ॥

औत्तानपादिः स तदा शस्त्रवर्षेण भूरिणा ।

न एवादृश्यताच्छन्न आसारेण यथा गिरिः ॥ १३ ॥

हाहाकारस्तदैवासीत् सिद्धानां दिवि पश्यताम् ।

हतोऽयं मानवः सूर्यो मग्नः पुण्यजनार्णवे ॥ १४ ॥

नदत्सु यातुधानेषु जयकाशिष्वथो मृधे ।

उदतिष्ठद् रथस्तस्य नीहारादिव भास्करः ॥ १५ ॥

धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्वहन् ।

अस्त्रौघं व्यधमद्‍बाणैः घनानीकमिवानिलः ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए।

महाबली ध्रुव की दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर हिमालय की घाटी में यक्षों से भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे।

विदुर जी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओं को गुँजा दिया। उस शंखध्वनि से यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भय से कातर हो उठीं।

वीरवर विदुर जी! महाबलवान् यक्षवीरों को वह शंखनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर के बाहर निकल आये और ध्रुव पर टूट पड़े। महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमें से प्रत्येक को तीन-तीन बाण मारे। उन सभी ने जब अपने-अपने मस्तकों में तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य होगी। वे ध्रुव जी के इस अद्भुत पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। फिर जैसे सर्प किसी के पैरों का आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुव के इस पराक्रम को न सहकर उन्होंने भी उनके बाणों के जवाब में एक ही साथ उनसे दूने- छः-छः बाण छोड़े। यक्षों की संख्या तेरह अच्युत (1,30,000) थी। उन्होंने ध्रुव जी का बदला लेने के लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथी के सहित उन पर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणों की वर्षा की।

इस भीषण शस्त्रवर्षा से ध्रुव जी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी वर्षा से पर्वत का। उस समय जो सिद्धगण आकाश में स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे- आज यक्ष सेनारूप समुद्र में डूबकर यह मानव-सूर्य अस्त हो गया। यक्ष लोग अपनी विजय की घोषणा करते हुए युद्ध क्षेत्र में सिंह की तरह गरजने लगे। इसी बीच में ध्रुव जी का रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो गया, जैसे कुहरे में से सूर्य भगवान् निकल आते हैं। ध्रुव जी ने अपने दिव्य धनुष की टंकार करके शत्रुओं के दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणों की वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रों को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।

तस्य ते चापनिर्मुक्ता भित्त्वा वर्माणि रक्षसाम् ।

कायान् आविविशुस्तिग्मा गिरीन् अशनयो यथा ॥ १७ ॥

भल्लैः सञ्छिद्यमानानां शिरोभिश्चारुकुण्डलैः ।

ऊरुभिर्हेमतालाभैः दोर्भिर्वलयवल्गुभिः ॥ १८ ॥

हारकेयूरमुकुटैः उष्णीषैश्च महाधनैः ।

आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहराः ॥ १९ ॥

हतावशिष्टा इतरे रणाजिराद्

     रक्षोगणाः क्षत्रियवर्यसायकैः ।

प्रायो विवृक्णावयवा विदुद्रुवुः

     मृगेन्द्रविक्रीडितयूथपा इव ॥ २० ॥

अपश्यमानः स तदाततायिनं

     महामृधे कञ्चन मानवोत्तमः ।

पुरीं दिदृक्षन्नपि नाविशद् द्विषां

     न मायिनां वेद चिकीर्षितं जनः ॥ २१ ॥

इति ब्रुवंश्चित्ररथः स्वसारथिं

     यत्तः परेषां प्रतियोगशङ्‌कितः ।

शुश्राव शब्दं जलधेरिवेरितं

     नभस्वतो दिक्षु रजोऽन्वदृश्यत ॥ २२ ॥

(अनुष्टुप्)

क्षणेनाच्छादितं व्योम घनानीकेन सर्वतः ।

विस्फुरत्तडिता दिक्षु त्रासयत् स्तनयित्‍नुना ॥ २३ ॥

ववृषू रुधिरौघासृक् पूयविण्मूत्रमेदसः ।

निपेतुर्गगनादस्य कबन्धान्यग्रतोऽनघ ॥ २४ ॥

ततः खेऽदृश्यत गिरिः निपेतुः सर्वतोदिशम् ।

गदापरिघनिस्त्रिंश मुसलाः साश्मवर्षिणः ॥ २५ ॥

अहयोऽशनिनिःश्वासा वमन्तोऽग्निं रुषाक्षिभिः ।

अभ्यधावन् गजा मत्ताः सिंहव्याघ्राश्च यूथशः ॥ २६ ॥

समुद्र ऊर्मिभिर्भीमः प्लावयन् सर्वतो भुवम् ।

आससाद महाह्रादः कल्पान्त इव भीषणः ॥ २७ ॥

एवंविधान्यनेकानि त्रासनान्यमनस्विनाम् ।

ससृजुस्तिग्मगतय आसुर्या माययासुराः ॥ २८ ॥

ध्रुवे प्रयुक्तामसुरैः तां मायामतिदुस्तराम् ।

निशम्य तस्य मुनयः शमाशंसन् समागताः ॥ २९ ॥

उनके धनुष से छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसों के कवचों को भेदकर इस प्रकार उनके शरीरों में घुस गये, जैसे इन्द्र के छोड़े हुए वज्र पर्वतों में प्रवेश कर गये थे।

विदुर जी! महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकों से, सुनहरी तालवृक्ष के समान जाँघों से, वलयविभूषित बाहुओं से, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगड़ियों से पटी हुई वह वीरों के मन को लुभाने वाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुव जी के बाणों से प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्धक्रीड़ा में सिंह से परास्त हुए गजराज के समान मैदान छोड़कर भाग गये।

नरश्रेष्ठ ध्रुव जी ने देखा कि उस विस्तृत रणभूमि में अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई; किन्तु वे पुरी के भीतर नहीं गये। ये मायावी क्या करना चाहते हैं, इस बात का मनुष्य को पता नहीं लग सकता। सारथि से इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथ में बैठे रहे तथा शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गये। इतने में ही उन्हें समुद्र की गर्जना के समान आँधी का भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओं में उठती हुई धूल भी दिखायी दी। एक क्षण में ही सारा आकाश मेघमाला से घिर गया। सब ओर भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकने लगी।

निष्पाप विदुर जी! उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी और ध्रुव जी के आगे आकाश से बहुत-से धड़ गिरने लगे। फिर आकाश में एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओं में पत्थरों की वर्षा के साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे। उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्र की तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रों से आग की चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं। प्रलयकाल के समान भयंकर समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों से पृथ्वी को सब ओर से डूबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जना के साथ उनकी ओर बढ़ रहा है। क्रूरस्वभाव असुरों ने अपनी आसुरी माया से ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरों के मन काँप सकते थे। ध्रुव जी पर असुरों ने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियों ने आकर उनके लिये मंगल कामना की।

मुनय ऊचुः -

औत्तानपाद भगवान् तव शार्ङ्‌गधन्वा

     देवः क्षिणोत्ववनतार्तिहरो विपक्षान् ।

यन्नामधेयमभिधाय निशम्य चाद्धा

     लोकोऽञ्जसा तरति दुस्तरमङ्‌ग मृत्युम् ॥ ३० ॥

मुनियों ने कहा ;- उत्तानपादनन्दन ध्रुव! शरणागत-भयभंजन सारंगपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओं का संहार करे। भगवान् का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९  "ध्रुव का वर पाकर घर लौटना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९        

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ९        

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध नौवां अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय ९

मैत्रेय उवाच -

ते एवमुत्सन्नभया उरुक्रमे

     कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम् ।

सहस्रशीर्षापि ततो गरुत्मता

     मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ॥ १ ॥

स वै धिया योगविपाकतीव्रया

     हृत्पद्मकोशे स्फुरितं तडित्प्रभम् ।

तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्य

     बहिःस्थितं तदवस्थं ददर्श ॥ २ ॥

तद्दर्शनेनागतसाध्वसः क्षितौ

     अवन्दताङ्‌गं विनमय्य दण्डवत् ।

दृग्भ्यां प्रपश्यन् प्रपिबन्निवार्भकः

     चुम्बन्निवास्येन भुजैरिवाश्लिषन् ॥ ३ ॥

स तं विवक्षन्तमतद्विदं हरिः

     ज्ञात्वास्य सर्वस्य च हृद्यवस्थितः ।

कृताञ्जलिं ब्रह्ममयेन कम्बुना

     पस्पर्श बालं कृपया कपोले ॥ ४ ॥

स वै तदैव प्रतिपादितां गिरं

     दैवीं परिज्ञातपरात्मनिर्णयः ।

तं भक्तिभावोऽभ्यगृणादसत्वरं

     परिश्रुतोरुश्रवसं ध्रुवक्षितिः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने से देवताओं का भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोक को चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़ पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये। उस समय ध्रुव जी तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान् की बिजली के समान देदीप्यमान जिस मूर्ति का अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान् के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा। प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे। वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मन की बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। ध्रुव जी भविष्य में अविचल पद प्राप्त करने वाले थे। इस समय शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे।

ध्रुव उवाच -

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां

     संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।

अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्

     प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥ ६ ॥

एकस्त्वमेव भगवन् इदमात्मशक्त्या

     मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।

सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्‍गुणेषु

     नानेव दारुषु विभावसुवद्विभासि ॥ ७ ॥

त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं

     सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः ।

तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं

     विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥ ८ ॥

नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते

     ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः ।

अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्यम्

     इच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नॄणाम् ॥ ९ ॥

या निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म

     ध्यानाद्‍भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात् ।

सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्

     किं त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ॥ १० ॥

ध्रुव जी ने कहा ;- प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरी अन्तःकरण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ।

भगवन्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अन्तर्यामीरूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणों में उनके अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में स्थित होकर अनेक रूप भासते हैं- ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में भासती है।

नाथ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबन्धो! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है? प्रभो! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगे जाने वाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है। नाथ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है, उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है।

भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्‌गो

     भूयादनन्त महतां अमलाशयानाम् ।

येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं

     नेष्ये भवद्‍गुणकथामृतपानमत्तः ॥ ११ ॥

ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यं

     ये चान्वदः सुतसुहृद्‍गृहवित्तदाराः ।

ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द

     सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्‌गाः ॥ १२ ॥

तिर्यङ्‌नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य

     मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम् ।

रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं

     नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः ॥ १३ ॥

कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृह्णन्

     शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्‌के ।

यन्नाभिसिन्धुरुहकाञ्चन लोकपद्म

     गर्भे द्युमान्भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥ १४ ॥

त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा

     कूटस्थ आदिपुरुषो भगवान् त्र्यधीशः ।

यद्‍बुद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या

     द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥ १५ ॥

यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति

     विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।

तद्‍ब्रह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्यम्

     आनन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥ १६ ॥

सत्याशिषो हि भगवन् तव पादपद्मम्

     आशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः ।

अप्येवमर्य भगवान्परिपाति दीनान्

     वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ॥ १७ ॥

अनन्त परमात्मन्! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा।

कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगन्ध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं- वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते।

अजन्मा परमेश्वर! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जनता हूँ; इससे परे जो आपका परमस्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है।

भगवन्! कल्प का अन्त होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

प्रभो! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्वर हैं। आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थति के लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं। आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ। भगवन्! आप परमानन्द मूर्ति हैं- जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभाव से आपका निरन्तर भजन करते रहते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करते उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं।

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

अथाभिष्टुत एवं वै सत्सङ्‌कल्पेन धीमता ।

भृत्यानुरक्तो भगवान् प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १८ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जब शुभ संकल्प वाले मतिमान् ध्रुव जी ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवानुवाच -

वेदाहं ते व्यवसितं हृदि राजन्यबालक ।

तत्प्रयच्छामि भद्रं ते दुरापं अपि सुव्रत ॥ १९ ॥

नान्यैरधिष्ठितं भद्र यद्‍भ्राजिष्णु ध्रुवक्षिति ।

यत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ॥ २० ॥

मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ।

धर्मोऽग्निः कश्यपः शुक्रो मुनयो ये वनौकसः ।

चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारकाः ॥ २१ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो।

भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढी के चारों ओर दँवरी के बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहने वाले अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ।

प्रस्थिते तु वनं पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः ।

षट्त्रिंशद्‌ वर्षसाहस्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रियः ॥ २२ ॥

त्वद्‍भ्रातर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन्मनाः ।

अन्वेषन्ती वनं माता दावाग्निं सा प्रवेक्ष्यति ॥ २३ ॥

इष्ट्वा मां यज्ञहृदयं यज्ञैः पुष्कलदक्षिणैः ।

भुक्त्वा चेहाशिषः सत्या अन्ते मां संस्मरिष्यसि ॥ २४ ॥

ततो गन्तासि मत्स्थानं सर्वलोकनमस्कृतम् ।

उपरिष्टादृषिभ्यस्त्वं यतो नावर्तते गतः ॥ २५ ॥

यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वन को चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। तेरी इन्द्रियों की शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायेगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल में प्रवेश कर जायेगी। यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्त में मेरा ही स्मरण करेगा। इससे तू अन्त में सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निजधाम को जायेगा, वहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है।

मैत्रेय उवाच -

इत्यर्चितः स भगवान् अतिदिश्यात्मनः पदम् ।

बालस्य पश्यतो धाम स्वं अगाद् गरुडध्वजः ॥ २६ ॥

सोऽपि सङ्‌कल्पजं विष्णोः पादसेवोपसादितम् ।

प्राप्य सङ्‌कल्पनिर्वाणं नातिप्रीतोऽभ्यगात्पुरम् ॥ २७ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदान कर भगवान् श्रीगरुड़ध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये। प्रभु की चरण सेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुव जी का संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गये।

विदुर उवाच -

सुदुर्लभं यत्परमं पदं हरेः

     मायाविनस्तत् चरणार्चनार्जितम् ।

लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना

     कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥ २८ ॥

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यत्न दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है। ध्रुव जी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा?

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

मातुः सपत्‍न्या वाग्बाणैः हृदि विद्धस्तु तान् स्मरन् ।

नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्तिं तस्मात् तापमुपेयिवान् ॥ २९ ॥

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- ध्रुव जी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसी से उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चाताप हुआ।

ध्रुव उवाच -

समाधिना नैकभवेन यत्पदं

     विदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरेतसः ।

मासैरहं षड्‌भिरमुष्य पादयोः

     छायामुपेत्यापगतः पृथङ्‌मतिः ॥ ३० ॥

(अनुष्टुप्)

अहो बत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत ।

भवच्छिदः पादमूलं गत्वा याचे यदन्तवत् ॥ ३१ ॥

मतिर्विदूषिता देवैः पतद्‌भिः असहिष्णुभिः ।

यो नारदवचस्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तमः ॥ ३२ ॥

दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नदृक् ।

तप्ये द्वितीयेऽप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहृद्रुजा ॥ ३३ ॥

मयैतत्प्रार्थितं व्यर्थं चिकित्सेव गतायुषि ।

प्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।

भवच्छिदमयाचेऽहं भवं भाग्यविवर्जितः ॥ ३४ ॥

स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान् मानो मे भिक्षितो बत ।

ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधनः ॥ ३५ ॥

ध्रुव जी मन-ही-मन कहने लगे- अहो! सनकादि उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया।

अहो! मुझ मन्दभाग्य की मुर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटने वाले प्रभु के पादपद्मों में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की! देवताओं को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की। यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायुपुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा।

मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ। जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मुर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्चपदादि ही माँगे हैं।

मैत्रेय उवाच -

न वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयो

     रजोजुषस्तात भवादृशा जनाः ।

वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेऽर्थमात्मनो

     यदृच्छया लब्धमनःसमृद्धयः ॥ ३६ ॥

(अनुष्टुप्)

आकर्ण्यात्मजमायान्तं सम्परेत्य यथाऽऽगतम् ।

राजा न श्रद्दधे भद्रं अभद्रस्य कुतो मम ॥ ३७ ॥

श्रद्धाय वाक्यं देवर्षेः हर्षवेगेन धर्षितः ।

वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥ ३८ ॥

सदश्वं रथमारुह्य कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।

ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च पर्यस्तोऽमात्यबन्धुभिः ॥ ३९ ॥

शङ्‌खदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभिः ।

निश्चक्राम पुरात् तूर्णं आत्मजाभीक्षणोत्सुकः ॥ ४० ॥

सुनीतिः सुरुचिश्चास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते ।

आरुह्य शिबिकां सार्धं उत्तमेनाभिजग्मतुः ॥ ४१ ॥

तं दृष्ट्वोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।

अवरुह्य नृपस्तूर्णं आसाद्य प्रेमविह्वलः ॥ ४२ ॥

परिरेभेऽङ्‌गजं दोर्भ्यां दीर्घोत्कण्ठमनाः श्वसन् ।

विष्वक्सेनाङ्‌घ्रिसंस्पर्श हताशेषाघबन्धनम् ॥ ४३ ॥

अथाजिघ्रन् मुहुर्मूर्ध्नि शीतैर्नयनवारिभिः ।

स्नापयामास तनयं जातोद्दाममनोरथः ॥ ४४ ॥

अभिवन्द्य पितुः पादौ आशीर्भिश्चाभिमन्त्रितः ।

ननाम मातरौ शीर्ष्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणीः ॥ ४५ ॥

सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।

परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्‍गदया गिरा ॥ ४६ ॥

यस्य प्रसन्नो भगवान् गुणैर्मैत्र्यादिभिर्हरिः ।

तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥ ४७ ॥

उत्तमश्च ध्रुवश्चोभौ अन्योन्यं प्रेमविह्वलौ ।

अङ्‌गसङ्‌गाद् उत्पुलकौ अस्रौघं मुहुरूहतुः ॥ ४८ ॥

सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योऽपि प्रियं सुतम् ।

उपगुह्य जहावाधिं तदङ्‌गस्पर्शनिर्वृता ॥ ४९ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं-जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते।

इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बात पर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ। परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी। इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ। वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लाने वाले को एक बहुमूल्य हार दिया। राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे। उनकी दोनों रानियाँ- सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं।

ध्रुव जी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे। राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलने वाले ठंडे-ठंडे[1] आँसुओं से उन्हें नहला दिया।

तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुव जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया। छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से चिरंजीवी रहोऐसा आशीर्वाद दिया। जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिस पर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं।

इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अंगों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमांच हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी। ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ।

पयः स्तनाभ्यां सुस्राव नेत्रजैः सलिलैः शिवैः ।

तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहुः ॥ ५० ॥

तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्ट्या ते पुत्र आर्तिहा ।

प्रतिलब्धश्चिरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ॥ ५१ ॥

अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान् प्रणतार्तिहा ।

यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्युः सुदुर्जयम् ॥ ५२ ॥

लाल्यमानं जनैरेवं ध्रुवं सभ्रातरं नृपः ।

आरोप्य करिणीं हृष्टः स्तूयमानोऽविशत्पुरम् ॥ ५३ ॥

तत्र तत्रोपसङ्‌कॢप्तैः लसन् मकरतोरणैः ।

सवृन्दैः कदलीस्तम्भैः पूगपोतैश्च तद्विधैः ॥ ५४ ॥

चूतपल्लववासःस्रङ्‌ मुक्तादामविलम्बिभिः ।

उपस्कृतं प्रतिद्वारं अपां कुम्भैः सदीपकैः ॥ ५५ ॥

प्राकारैः गोपुरागारैः शातकुम्भपरिच्छदैः ।

सर्वतोऽलङ्‌कृतं श्रीमद् विमानशिखरद्युभिः ॥ ५६ ॥

मृष्टचत्वररथ्याट्ट मार्गं चन्दनचर्चितम् ।

लाजाक्षतैः पुष्पफलैः तण्डुलैर्बलिभिर्युतम् ॥ ५७ ॥

ध्रुवाय पथि दृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रियः ।

सिद्धार्थाक्षतदध्यम्बु दूर्वापुष्पफलानि च ॥ ५८ ॥

उपजह्रुः प्रयुञ्जाना वात्सल्यादाशिषः सतीः ।

शृण्वन् तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्‍भवनं पितुः ॥ ५९ ॥

महामणिव्रातमये स तस्मिन् भवनोत्तमे ।

लालितो नितरां पित्रा न्यवसद् दिवि देववत् ॥ ६० ॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।

आसनानि महार्हाणि यत्र रौक्मा उपस्कराः ॥ ६१ ॥

यत्र स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

मणिप्रदीपा आभान्ति ललनारत्‍नसंयुताः ॥ ६२ ॥

उद्यानानि च रम्याणि विचित्रैरमरद्रुमैः ।

कूजद्विहङ्‌गमिथुनैः गायन्मत्तमधुव्रतैः ॥ ६३ ॥

वाप्यो वैदूर्यसोपानाः पद्मोत्पलकुमुद्वतीः ।

हंसकारण्डवकुलैः जुष्टाश्चक्राह्वसारसैः ॥ ६४ ॥

उत्तानपादो राजर्षिः प्रभावं तनयस्य तम् ।

श्रुत्वा दृष्ट्वाद्‍भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ॥ ६५ ॥

वीक्ष्योढवयसं तं च प्रकृतीनां च सम्मतम् ।

अनुरक्तप्रजं राजा ध्रुवं चक्रे भुवः पतिम् ॥ ६६ ॥

आत्मानं च प्रवयसं आकलय्य विशाम्पतिः ।

वनं विरक्तः प्रातिष्ठद् विमृशन्नात्मनो गतिम् ॥ ६७ ॥

वीरवर विदुर जी! वीरमाता सुनीति के स्तन उसके नेत्रों से झरते हुए मंगलमय आनन्दाश्रुओं से भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा। उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी! आपका लाल बहुत दिनों से खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करने वाला है। बहुत दिनों तक भूमण्डल की रक्षा करेगा। आपने अवश्य ही शरणागत भयभंजन श्रीहरि की उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करने वाले धीरपुरुष परमदुर्जय मृत्यु को भी जीत लेते हैं

विदुर जी! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे। नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे। द्वार-द्वार पर दीपक के सहित जल के कलश रखे हुए थे-जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लकड़ियों से सुसज्जित थे। जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे। नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सडकों को झाड़-बुहारकर उन पर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं।

ध्रुव जी राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुव जी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया। वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजी के लाड़-प्यार सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवता लोग रहते हैं। वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था। उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे। उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिसमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था। उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीड़ा करते रहते थे।

राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उन पर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवराज्याभिषेक वर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥