श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ६
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ६ वृषोत्सर्ग की महिमा में राजा वीरवाहन की कथा,
देवर्षि नारद के पूर्वजन्म के इतिहास वर्णन में सत्संगति और
भगवद्भक्ति का माहात्म्य, वृषोत्सर्ग के प्रभाव से राजा
वीरवाहन को पुण्यलोक की प्राप्ति का वर्णन है।
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ६
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ६
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 6
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प छटवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) षष्ठोऽध्यायः
गरुड उवाच ।
अपि साधनयुक्तस्य तीर्थदानरतस्य च ।
अकृते तु वृषोत्सर्गे परलोकगतिर्न
हि ॥ २,६.१ ॥
तस्मात्कृष्ण वृषोत्सर्गः कर्तव्य
इति मे श्रुतम् ।
किं फलं वृषयज्ञस्य पुरा केन कृतो
हरे ॥ २,६.२ ॥
अनड्वान् कीदृशः प्रोक्तः कस्मिन्
काले विशेषतः ।
को विधिस्तस्य निर्दिष्टः सर्वं मे
कृपया वद ॥ २,६.३ ॥
गरुड ने कहा- हे प्रभो! जो तीर्थ
सेवन और दान में निरन्तर लगा है तथा अन्य साधनों से भी सम्पन्न है,
उसे भी वृषोत्सर्ग किये बिना परलोक में सगति नहीं प्राप्त होती।
इसलिये मनुष्य को वृषोत्सर्ग अवश्य करना चाहिये। ऐसा मैंने आपसे सुन लिया। इस
वृषोत्सर्ग का फल क्या है? प्राचीन समय में इस यज्ञ को किसने
किया? इसमें किस प्रकार का वृष होना चाहिये? विशेष रूप से इस कार्य को किस समय करना चाहिये और इसको करने की कौन-सी
विधि बतायी गयी है? यह सब बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
इतिहासं महापुण्यं प्रवक्ष्यामि
खगेश्वर ।
ब्रह्मपुत्रेण यत्प्रोक्तं राजानं
वीरवाहनम् ॥ २,६.४ ॥
विराधनगरे राजा वीरवाहननामकः ।
धर्मात्मा सत्यसन्धश्च वदान्यो
विप्रतुष्टिकृत् ॥ २,६.५ ॥
स कदाचिद्वनं वीरो महात्माखेटकं गतः
।
किञ्चित्प्रष्टुमनास्तार्क्ष्य
वसिष्ठस्याश्रमं ययौ ॥ २,६.६ ॥
नमस्कृत्य मुनिं तत्र
कृतासनपरिग्रहः ।
पश्रयावनतो राजा पप्रच्छ ऋषिसंसदि ॥
२,६.७ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश्वर मैं
उस महापुण्यशाली इतिहास का वर्णन कर रहा हूँ, जिसका
वर्णन ब्रह्मा के पुत्र महर्षि वसिष्ठ ने राजा वीरवाहन से किया था।
प्राचीन समय की बात है,
विराधनगर में वीरवाहन नामक एक धर्मात्मा, सत्यवादी,
दानशील और विप्रों को संतुष्ट करनेवाले राजा रहते थे। किसी समय वे
शिकार खेलने के लिये वन में गये। कुछ पूछने की जिज्ञासा से वे वसिष्ठमुनि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ आसन
ग्रहण कर विनम्रता से झुके हुए राजा ने ऋषियों की संसद में मुनि को नमस्कार करके
पूछा।
राजोवाच ।
मुने मया कृतो धर्मो यथाशक्ति
प्रयत्नतः ।
यमस्य शासनं श्रुत्वा बिभेमि नितरां
हृदि ॥ २,६.८ ॥
यमञ्च यमदूतांश्च निरयान्
घोरदर्शनान् ।
न पश्यामि महाभाग तथा वद दयानिधे ॥
२,६.९ ॥
राजा ने कहा- हे मुने! मैंने
यथाशक्ति प्रयत्नपूर्वक अनेक धार्मिक कृत्य किये हैं,
फिर भी यमराज के कठोर शासन को सुनकर मैं हृदय में बहुत ही भयभीत
हूँ। हे कृपानिधान! महाभाग! ऋषिवर! मुझे यम यमदूत और देखने में अतिशय भयंकर
लगनेवाले नरकलोकों को न देखना पड़े, ऐसा कोई उपाय बताने की
कृपा करें।
वसिष्ठ उवाच ।
धर्मा बहुविधा राजन् वर्ण्यन्ते
शास्त्रकोविदैः ।
सूक्ष्मत्वान्न विजानन्ति
कर्ममार्गविमोहिताः ॥ २,६.१० ॥
दानं तीर्थं तपो यज्ञाः संन्यासः
पैतृको महः ।
धर्मेषु गृह्यमाणेषु वृषोत्सर्गो
विशेषितः ॥ २,६.११ ॥
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि
गयां व्रजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा
वृषमुत्सृजेत् ॥ २,६.१२ ॥
ब्रह्महत्यादिपापानि
ज्ञानाज्ञानकृतानि च ।
नीलोद्वाहेन शुध्येत्तु
समुद्रप्लवनेन वा ॥ २,६.१३ ॥
एकादशाहे राजेन्द्र यस्य
नोत्सूज्यते वृषः ।
प्रेतत्वं निश्चलं तस्य कृतैः
श्राद्धैस्तु किं भवेत् ॥ २,६.१४
॥
यथाकथञ्चित्कर्तव्यस्तीर्थे वा
पत्तनेऽथ वा ।
वसिष्ठ ने कहा- हे राजन्!
शास्त्रवेत्ता अनेक प्रकार के धर्मों का वर्णन करते हैं,
किंतु कर्ममार्ग से विमोहित जन सूक्ष्मतया उनको नहीं जानते। दान,
तीर्थ, तपस्या, यज्ञ,
संन्यास तथा पितृक्रिया आदि सभी धर्म हैं, उन
धर्मो में भी वृषोत्सर्ग का विशेष महत्त्व है। मनुष्य को बहुत से पुत्रों की
अभिलाषा करनी चाहिये। यदि उनमें से एक भी पुत्र गया- तीर्थ में जाय, अश्वमेध यज्ञ करे अथवा नील वृषभ यथाविधि छोड़े तो जाने-अनजाने किये गये
ब्रह्महत्या आदि पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। यह शुद्धि नील वर्ण के वृषभ का
उत्सर्ग अथवा समुद्र में स्नान करने से भी हो सकती है। हे राजेन्द्र ! जिसके
एकादशाह में वृषोत्सर्ग नहीं होता, उसका प्रेतत्व स्थिर ही
रहता है। मात्र श्राद्ध करने से क्या लाभ होगा? जिस किसी
भाँति नगर अथवा तीर्थ में वृषोत्सर्ग अवश्य करना चाहिये।
वृषयज्ञैः प्रमुच्यते नान्यथा
साधनैः खग ॥ २,६.१५ ॥
वृषभं पञ्चकल्याणं युवानं
कृष्णकंबलम् ।
गोयूथमध्ये नितरां विचरन्तं विधानतः
॥ २,६.१६ ॥
चतसृभिर्वत्सकाभिर्द्वाभ्याञ्चैवैकया
खग ।
विवाह्य मङ्गलद्रव्यैर्मन्त्रवत्तं
समुत्सृजेत् ॥ २,६.१७ ॥
इह रतीति षडृग्भिर्हेमं
कुर्याद्विभावसोः ।
कार्तिक्यां माघवैशाख्यां संक्रमे
पातपर्वसु ॥ २,६.१८ ॥
तीर्थे पित्र्येक्षयाहे च विशेषेण
प्रशस्यते ।
हे खगेश वृष यज्ञ के द्वारा
प्रेतत्व से मुक्ति प्राप्त होती है, अन्य
साधनों से नहीं। जो वृषभ शुभ लक्षणों से समन्वित युवा तथा कृष्ण गल-कम्बलवाला हो
और सदैव जो गायों के झुंड में घूमनेवाला हो, उस वृषभ को
विधि-विधान से चार अथवा दो या एक बछिया के साथ पहले उसका विवाह करना चाहिये।
तदनन्तर माङ्गलिक द्रव्यों एवं मन्त्रों के साथ उन सबका उत्सर्ग किया जाय। 'ईहरतीति०'* इन छः मन्त्रों से अग्निदेव को आहुति देनी चाहिये। कार्तिक, माघ और वैशाख की पूर्णिमा, संक्रान्ति, अन्य पुण्यकाल, व्यतिपात तथा तीर्थ में और पिता की
क्षयतिथि वृषोत्सर्ग के लिये विशेष रूप से प्रशस्त मानी जाती है।
*(ॐ इह रतिः स्वाहा
इदमग्नये । ॐ इह रमध्यं स्वाहा इदमग्नये । ॐ इह धृतिः स्वाहा इदमग्नये । ॐ
स्वधृतिः स्वाहा इदमग्नये । ॐ उपसृजन् धरुणं मात्रे धरुणो मातरं धयन् स्वाहा
इदमग्नये । ॐ रायस्पोषमस्मासु दीधरत् स्वाहा इदमग्नये। (यजु०८।५१)
लोहितो यस्तु वर्णेन मुखे पुच्छे च
पाण्डुरः ॥ २,६.१९ ॥
पीतः खुरविषाणेषु स नीलो वृष उच्यते
।
'जो वृषभ लाल वर्ण का हो और उसका
मुँह पूँछ पाण्डु (श्वेत-पीतमिश्रित) हो, खुर और सींगों का
वर्ण पीत हो, वह नीलवृषभ कहा जाता है ।
श्वेतवर्णो भवेद्विप्रो लोहितः
क्षत्त्र उच्यते ॥ २,६.२० ॥
पीतवर्णो भवेद्वैश्यः शूद्रः कृष्णः
स्मृतो बुधैः ।
यथावर्णं समुद्दिष्टो वर्णेषु
ब्राह्मणादिषु ॥ २,६.२१ ॥
अथ वा रक्तवर्णस्तु सर्वेषामेव
शस्यते ।
जो वृषभ श्वेत वर्ण का होता है वह
ब्राह्मण है, जो लोहित वर्ण का है वह
क्षत्रिय है, जो पीत वर्ण का है वह वैश्य है और जो कृष्ण
वर्ण का है वह शूद्र है। अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य
वर्ण को अपने वर्ण के अनुसार वृषोत्सर्ग करना चाहिये अथवा रक्तवर्ण का ही वृषभ
सबके लिये कल्याणप्रद है।
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ॥
२,६.२२ ॥
आशासते सुतं जातं वृषोत्सर्गं
करिष्यति ।
पिता, पितामह तथा प्रपितामह पुत्र के उत्पन्न होने पर यही आशा करते हैं कि यह
मेरे लिये वृषोत्सर्ग करेगा। वृषोत्सर्ग के समय इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-
धर्मस्त्वं वृषरूपेण जगदानन्ददायकः
॥ २,६.२३ ॥
अष्टमूर्तेरधिष्ठानमतः शान्तिं
प्रयच्छ मे ।
गङ्गायमुनयोः पेयमन्तर्वेदि तृणं चर
॥ २,६.२४ ॥
धर्मराजस्य पुरतो वाच्यं मे सुकृतं
वृष ।
हे धर्म! आप इस वृषभरूप में संसार को
आनन्द प्रदान करनेवाले देव हैं। आप ही अष्टमूर्ति शिव के अधिष्ठान हैं। अतः मुझे
शान्ति प्रदान करें। आप गङ्गा-यमुना का जल पियें। अन्तर्वेदी में घास चरें और हे
वृष! धर्मराज के सामने मेरे पुण्यकर्म की चर्चा करें।
दक्षिणांसे त्रिशूलाङ्कं वामोरौ
चक्रचिह्नितम् ॥ २,६.२५ ॥
इति संप्रार्थ्य वृषभं
गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ।
वृषं तत्सतरीयुक्तं पूजयित्वा
समुत्सृजेत् ॥ २,६.२६ ॥
इस प्रकार का निवेदन करते हुए
संस्कर्ता को चाहिये कि वृषभ के दाहिने कन्धे पर त्रिशूल और बायें ऊरुभाग में चक्र
का चिह्न अंकित करके गन्ध, पुष्प तथा अक्षत
आदि से बछिया के सहित उस वृषभ की पूजा करके विधिवत् बन्धनमुक्त कर दे।
तस्माद्राजन् विधानेन वृषोत्सर्गं
समाचर ।
बहुसाधनयुक्तस्य नान्यथा सद्गतिस्तव
॥ २,६.२७ ॥
आसीत्त्रेतायुगे पूर्वं विदेहनगरे
नृप ।
ब्राह्मणो धर्मवत्सेति स्वकर्मनिरतः
सुधीः ॥ २,६.२८ ॥
विष्णुभक्तोऽतितेजस्वी यथालाभेन
तुष्टिकृत् ।
पितृपर्वणि संप्राप्ते कुशार्यो
काननं ययौ ॥ २,६.२९ ॥
अटन्नितस्ततस्तत्र चिन्वन्
कुशपलाशकम् ।
सहसोपेत्य
पुरुषाश्चात्वारश्चारुदर्शनाः ॥ २,६.३०
॥
विभ्रान्तमनसं गृह्य
प्रत्यग्जग्मुर्विहायसा ।
बहुवृक्षसमाकीर्णं गिरिदुर्गभयानकम्
॥ २,६.३१ ॥
वनाद्वनान्तरं
निन्युर्नदीनदसमाकुलम् ।
स तत्र नगरं राजन् ददर्श
बहुविस्तरम् ॥ २,६.३२ ॥
गोपुरद्वाररचितं सौधप्रासादमण्डितम्
।
चत्वरापणपण्यादिनरनारीसमाकुलम् ॥ २,६.३३ ॥
तूर्यद्वन्द्वाभिनिर्घोषवीणापटहनादितम्
।
कांश्चित्क्षुधार्दितान्दीनान्मलिनान्विगतौजसः
॥ २,६.३४ ॥
ततोऽतितुष्टान्मलिनान्वस्त्रखण्डसमावृतान्
।
अग्रतो हृष्टपुष्टांश्च
स्वर्णवस्त्रोपशोभितान् ॥ २,६.३५
॥
ततोऽपि सुरसंकाशान्स दृष्ट्वा
विस्मितोऽभवत् ।
किं स्वप्न उत माया वै मदीयो मानसो
भ्रमः ॥ २,६.३६ ॥
सन्दिहानं द्विजं निन्युः पुरुषा
राजसन्निधिम् ।
सतद्ददर्श विप्रस्तु
स्वर्णप्रासादमन्दिरे ॥ २,६.३७ ॥
सिंहासनंमहादिव्यं छत्रचामरवीजितम्
।
तत्रोप विष्टं राजानं
किरीटकनकोज्ज्वलम् ॥ २,६.३८ ॥
महत्या च श्रिया युक्तं स्तूयमानं
सुवन्दिभिः ।
वसिष्ठजी ने कहा- हे राजन्! आप भी
विधिवत् वृषोत्सर्ग करें, अन्यथा सभी साधनों से
सम्पन्न होने पर भी आपको सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती है। राजन्! पहले त्रेतायुग में
विदेहनगर में धर्मवत्स नाम का एक ब्राह्मण था, जो अपने
वर्णानुसार कर्म में अहर्निश निरत, विद्वान्, विष्णुभक्त, अत्यन्त तेजस्वी और यथालाभ से संतुष्ट
रहता था। एक बार पितृपर्व के आने पर वह कुश लेने के लिये वन में गया। वहाँ इधर-उधर
घूमता हुआ वह कुश और पलाश के पत्तों को एकत्र करने लगा। एकाएक वहाँ पर देखने में
अत्यन्त सुन्दर चार पुरुष आये और उस ब्राह्मण को पकड़कर आकाशमार्ग से लेकर चले
गये। वे चारों पुरुष उस दीन, व्यथित ब्राह्मण को पकड़कर बहुत
से वृक्षोंवाले घनघोर वन, पर्वतों के दुर्ग को पार कराते हुए
एक वन से दूसरे वन के मध्य ले गये। हे राजन् ! वहाँ पर उस ब्राह्मण ने एक बहुत
बड़ा नगर देखा। वह नगर मुख्यद्वार से समन्वित तथा अनेक प्रासादों से सुशोभित हो
रहा था। चबूतरा, बाजार, खरीदी बेची
जानेवाली वस्तुओं और नर नारी से युक्त उस नगर में तुरहियों की ध्वनि हो रही थी।
वीणा और नगाड़े बज रहे थे। वहाँ कुछ भूख से पीड़ित, दीन-हीन,
पुरुषार्थ से रहित लोगों को भी उसने देखा। उसके बाद अत्यन्त
मैले-कुचैले, फटे-पुराने वस्त्रों को पहने हुए लोग दिखायी
पड़े। आगे हृष्ट-पुष्ट स्वर्णाभूषण से अलंकृत सुन्दर सुन्दर वस्त्र धारण किये हुए
कुछ ऐसे लोग थे, जो देवताओं के समान शोभासम्पन्न थे; जिनको देखकर वह विस्मयाभिभूत हो उठा। यह सोचने लगा कि क्या मैं स्वप्न देख
रहा हूँ? अथवा यह कोई माया है? या मेरे
मन का यह विभ्रम है? वह ब्राह्मण इस प्रकार की शंका कर ही
रहा था कि वे चारों पुरुष उसको लेकर राजा के पास गये। स्वर्णजटित उस राजप्रासाद के
बीच स्थित राजा को वह ब्राह्मण एकटक देखता ही रह गया। वहाँ पर एक महादिव्य सिंहासन
था, जहाँ छत्र और चঁवर डुलाये जा रहे थे। उसके ऊपर
स्वर्णनिर्मित मुकुट धारण किया हुआ महान शोभा संपन्न राजा बैठा हुआ था। वन्दीजन
उसका गुणगान कर रहे थे।
राजापि दृष्ट्वा तं विप्रं
प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ॥ २,६.३९
॥
पूजयामास विधिवन्मधुपर्कास नादिभिः
।
सन्तुष्टमनसं देवमस्तौषीत्परया मुदा
॥ २,६.४० ॥
अद्य मे सफलं जन्म पावितञ्च कुलं
प्रभो ।
विष्णुभक्तस्य धर्मस्य यत्ते
दृग्गोचरं गतः ॥ २,६.४१ ॥
नत्वा स्तुत्वा
बहुविधमुवाचानुवसन्नृपः ।
यतः समागतो देवः पुनस्तत्रैव
नीयताम् ॥ २,६.४२ ॥
इति श्रुत्वा वचो राज्ञः पप्रच्छ
द्विजपुङ्गवः ।
राजा उस ब्राह्मण को देखकर खड़ा हो
गया और उसने मधुपर्क तथा आसनादि प्रदान कर उनकी विधिवत् पूजा की। तत्पश्चात्
अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर वह राजा उन विप्रदेव से इस प्रकार कहने लगा- हे प्रभो !
आज आप जैसे धर्मपरायण विष्णुभक्त का दर्शन हुआ है, इससे मेरा जन्म सफल हो गया। मेरा यह कुल भी पवित्र हो उठा । तदनन्तर राजा ने
उस ब्राह्मण को प्रणाम किया और बहुत प्रकार से उनको संतुष्ट करके अपने दूतों से
कहा- हे दूतो! ये ब्राह्मणदेव जहाँ से आये हुए हैं, पुन: तुम
सब इन्हें वहीं ले जाकर पहुँचा आओ । ऐसा सुनकर उन ब्राह्मण श्रेष्ठ ने राजा से
पूछा-
ब्राह्मण उवाच ।
कोऽयं देश कुतो लोका उत्तमा
मध्यमाधमाः ॥ २,६.४३ ॥
केन पुण्येन तु
भवान्पारमेष्ट्यविभूषितः ।
किमर्थमहमानीतः पुनस्तत्रैव नीयते ॥
२,६.४४ ॥
अपूर्वमिव पश्यामि सर्वं स्वप्नगतो
यथा ।
हे राजन् ! यह कौन-सा देश है ?
यहाँ पर ये उत्तम, मध्यम और अधम चरित्रवाले
लोग कहाँ से आये हुए हैं? आप किस पुण्य के प्रभाव से यहाँ इन
सबके बीच प्रधान पद पर विराजमान हैं ? मुझको यहाँ किसलिये
लाया गया और फिर क्यों वापस भेजा जा रहा है? यह सब स्वप्न के
समान मुझे अनोखा दिखायी दे रहा है !
राजोवाच ।
स्वधर्मनिरतो यस्तु हरिभक्तिरतः सदा
॥ २,६.४५ ॥
विरक्त इन्द्रियार्थेभ्यः स मे
पूज्यो न संशयः ।
तीर्थयात्रापरो नित्यं
वृषोत्सर्गविशेषवित् ॥ २,६.४६ ॥
सत्यदानपरो यस्तु स नमस्यो
दिवौकसाम् ।
दर्शनार्थमिहानीतः पूजार्हश्च
परन्तप ॥ २,६.४७ ॥
अनुगृहाण मां देव क्षमस्व मम साहसम्
।
इत्युक्त्वा दर्शयामास मन्त्रिणां
संज्ञया भ्रुवः ॥ २,६.४८ ॥
वदिष्यति समग्रं ते स्वयं वक्तुं न
साम्प्रतम् ।
सामन्तः सर्ववेदज्ञो ज्ञात्वा
हार्दं नृपस्य च ॥ २,६.४९ ॥
इस पर राजा ने कहा - हे विप्रदेव !
अपने धर्म का पालन करते हुए जो मनुष्य सदैव भगवान् हरि की भक्ति में अनुरक्त और
इन्द्रियों के विषय से परे रहता है, वह
मेरे लिये निश्चित ही पूज्य है । नित्य जो प्राणी तीर्थों की यात्रा करने में ही
लगा रहता है, जो वृषोत्सर्ग के माहात्म्य को भलीभाँति जानता
है और जो सत्य एवं दान-धर्म का पालक है, वह व्यक्ति देवताओं के
लिये भी प्रणम्य है । हे परंतप ! हे पूजार्ह ! आपका दर्शन हम सभी प्राप्त कर सकें,
इसलिये आपको यहाँ लाया गया था । हे देव ! आप मुझ पर प्रसन्न हों और
मुझे इस साहस के लिये क्षमा करें। मैं स्वयं अपने सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करने में
समर्थ नहीं हूँ। इस वृत्तान्त का वर्णन मेरा यह विपश्चित् नामवाला मन्त्री करेगा ।
राजा का वह मन्त्री सब वेदों को जाननेवाला विद्वान् व्यक्ति था । अतः अपने स्वामी की
हार्दिक इच्छा को जानकर वह कहने लगा-
विपश्चिदुवाच ।
पूर्वजन्मनि वैश्योऽयं विश्वम्भर
इति श्रुतः ।
विराधनगरे विप्र द्विजदेवविभूषिते ॥
२,६.५० ॥
वैश्यवृत्त्या सदा
जीवन्कुटुम्बपरिपालकः ।
गवां शुश्रूषको नित्यं
ब्राह्मणानाञ्च पूजकः ॥ २,६.५१ ॥
पात्रदानपरो नित्यमातिथेयाग्निसेवकः
।
गार्हस्थ्यं विधिवच्चक्रे भार्यया
सत्यमेधया ॥ २,६.५२ ॥
स्मार्तेन लोकानजयच्छ्रौतेन त
हविर्भुजः ।
कदाचिद्बन्धुभिः साकं कृत्वा
तीर्थानि भूरिशः ॥ २,६.५३ ॥
यावदायाति सदनं दृष्टवाल्लोंमशं पथि
।
दण्डवत्प्रणिपत्याशु कृताञ्जलिपुटं
स्थितम् ॥ २,६.५४ ॥
पप्रच्छ विनयोपेतं करुणावारिवारिधिः
।
हे विप्र ! यह राजा पूर्वजन्म में
द्विज और देवताओं से सुशोभित विराधनगर में विश्वम्भर नाम का एक वैश्य था । ऐसा
मैंने सुना है। वैश्य – वृत्ति से जीवनयापन करते हुए वह अपने परिवार का पालन करता
था । नित्य गायों की सेवा तथा ब्राह्मणों की पूजा भी करता था । सत्पात्र को दान,
अतिथिसेवा तथा अग्निहोत्र करना उसका नित्य धर्म था । सत्यमेधा नाम की
पत्नी के साथ उसने विधिवत् गृहस्थाश्रम का संचालन किया। उसने स्मार्त कर्म के
अनुष्ठान से सभी लोकों तथा श्रौत कर्मों से देवताओं को जीत लिया था ।
किसी समय जब वह वैश्य अपने भाइयों के
साथ बहुत-से तीर्थों की यात्रा कर अपने घर लौट रहा था,
तब मार्ग में ही उसे लोमश ऋषि का दर्शन हो गया। उसने महर्षि के
चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया। हाथ जोड़कर विनयावनत खड़े उस वैश्य से करुणा सागर
महर्षि लोमश ने पूछा-
ऋषिरुवाच ।
कुत आगम्यते साधो
ब्राह्मणैर्बन्धुभिर्युतः ॥ २,६.५५
॥
दृष्ट्वा त्वां धर्मनिलयं
प्रक्लिन्नं मानसं मम ।
हे भद्रपुरुष ! ब्राह्मणों और अपने
भाई-बन्धुओं के साथ आप कहाँ से आ रहे हैं ? धर्मप्राण!
आपको देखकर मेरा मन आर्द्र हो उठा है।
विश्वम्भर उवाच ।
शीर्यमाणं शरीरं हि ज्ञात्वा
मृत्युं पुरः स्थितम् ॥ २,६.५६ ॥
भर्यया धर्मचारिण्या तीर्थयात्रां
विनिर्गतः ।
कृत्वा तीर्थानि विधिवद्विश्राण्य
विपुलं वसु ॥ २,६.५७ ॥
यावद्ब्रजाम्यहं वेश्म भवान्
दृष्टिपथं गतः ।
इस पर विश्वम्भर वैश्य ने उत्तर
दिया –
मुनिवर ! यह शरीर नश्वर है । मृत्यु प्राणी के सामने ही खड़ी रहती
है— ऐसा जानकर अपनी धर्मपरायणा पत्नी के साथ मैं तीर्थयात्रा
में गया था । तीर्थों का विधिवत् दर्शन एवं प्रचुर धन-दान कर मैं अपने घर की ओर
वापस जा रहा था कि सौभाग्यवश आपका दर्शन हो गया।
लोमश उवाच ।
तीर्थानि सन्ति भूरीणि वर्षैऽस्मिन्
भारते शुभे ॥ २,६.५८ ॥
यत्त्वया ह्युपचीर्णानि तानि सर्वाणि
मे वद ।
लोमश ने कहा—इस भारतवर्ष की पावन भूमि में बहुत-से तीर्थ हैं। आपने जिन तीर्थों की
यात्रा की है, उनका वर्णन मुझसे करें ।
वैश्य उवाच ।
गङ्गा च सूर्य तनया महापुण्या
सरस्वती ॥ २,६.५९ ॥
दशाश्वमेधैरयजद्यत्र ब्रह्मा
सुरेश्वरः ।
तीर्थराजस्ततः काशी महादेवो
दयानिधिः ॥ २,६.६० ॥
मृतानां यत्र जन्तूनां कर्णे जपति
तारकम् ।
पुलहस्याश्रमं पुण्यं फल्गुतीर्थञ्च
गण्डकी ॥ २,६.६१ ॥
चक्रतीर्थं नैमिषञ्च
शिवतीर्थमनन्तकम् ।
गोप्रतारकनागेशमयोध्याबिन्दुसंज्ञितम्
॥ २,६.६२ ॥
यत्रास्त मुक्तिदः साक्षाद्रामो
राजीवलोचनः ।
आग्नेयं वायुकौबेरं कौमारं भूरुहां
पुनः ॥ २,६.६३ ॥
सौकरं मथुरा यत्र नित्यं सन्निहतो
हरिः ।
पुष्करं सत्यतीर्थञ्च ज्वालतीर्थं
दिनेश्वरम् ॥ २,६.६४ ॥
इन्द्रतीर्थं कुरुक्षेत्रं यत्र
प्राची सरस्वती ।
तापी पयोष्णी निर्विन्ध्या मलयः
कृष्णवेणिका ॥ २,६.६५ ॥
गोदावरी दण्डकञ्च ताम्रचूडं सदोदकम्
।
द्यावाभूमीश्वरं दृष्ट्वा श्रीशैलः
पर्वतेश्वरः ॥ २,६.६६ ॥
असंख्यलिङ्गतीर्थानि यत्र सन्ति सदा
मुने ।
वेङ्कटाद्रौ महातेजाः श्रीरङ्गाख्यः
स्वयं हरिः ॥ २,६.६७ ॥
वेङ्कटी नाम तत्रैव देवी
महिषमर्दिनी ।
चन्द्रतीर्थं भद्रवटः कावेरीकुटिलाचलौ
॥ २,६.६८ ॥
अवटोदा ताम्रपर्णो त्रिकृटः कोल्लको
गिरिः ।
वासिष्ठं ब्रह्मतीर्थञ्च
ज्ञानतीर्थं महोदधिः ॥ २,६.६९ ॥
हृषीकेशं विराजञ्च विशालं नीलपर्वतः
।
भीमकूटः श्वेतगिरी
रुद्रतीर्थमुमावनम् ॥ २,६.७० ॥
अवाप गिरिजा देवी तपसा यत्र शङ्करम्
।
वारुणं सूर्यतीर्थञ्च हंसतीर्थं
महोदयम् ॥ २,६.७१ ॥
निमज्ज्य यत्र काकोला
राजहंसत्वमाययुः ।
असुरो यत्र देवत्वमवाप स्नानमात्रतः
॥ २,६.७२ ॥
विश्वरूपं वन्दितीर्थं रत्नेशः
कुहकाचलः ।
नरनारायणं दृष्ट्वा मुच्यते
पापकोटिभिः ॥ २,६.७३ ॥
सरस्वतीदृषद्वत्यौ नर्मदा शर्मदा
नृणाम् ।
नीलकण्ठं महाकालं पुण्यं
चामरकण्टकम् ॥ २,६.७४ ॥
चन्द्रभागा वेत्रवती वीरभद्रं
गणेश्वरम् ।
गोकर्णं बिल्वतीर्थञ्च कर्मकुण्डं
सतारकम् ॥ २,६.७५ ॥
स्नानमात्रेण यत्राशु मुच्यते
कर्मबन्धनात् ।
अन्यान्यपि च तीर्थानि कृतानि कृपया
तव ॥ २,६.७६ ॥
वैश्य ने कहा- हे ऋषिवर! जहाँ गङ्गा,
यमुना और सरस्वती नामक पवित्रतम नदियाँ एक साथ मिलकर प्रवाहित होती
हैं, जहाँ ब्रह्मा तथा देवराज इन्द्र ने दशाश्वमेध यज्ञ किया
था उस तीर्थराज प्रयाग; जहाँ करुणानिधान देवदेवेश्वर शिव
प्राणियों के कान में ' तारकमन्त्र' का
उपदेश देते हैं उस मोक्षदायिनी काशी पुलहाश्रम, फल्गुतीर्थ,
गण्डकी, चक्रतीर्थ, नैमिषारण्य,
शिवतीर्थ, अनन्तक, गोप्रतारक,
नागेश्वर, विन्दुसरोवर, मोक्षदायक
राजीवलोचन भगवान् राम से सुशोभित अयोध्या; अग्नितीर्थ,
वायुतीर्थ, कुबेरतीर्थ, कुमारतीर्थ,
सूकरक्षेत्र, भगवान् कृष्ण से अलंकृत मथुरा,
पुष्कर, सत्यतीर्थ, ज्वालातीर्थ,
दिनेश्वरतीर्थ, इन्द्रतीर्थ, पश्चिमवाहिनी सरस्वती तथा कुरुक्षेत्र जाकर मैंने दर्शन किया। उसके बाद
मैं ताप्ती, पयोष्णी, निर्विन्ध्या,
मलय, कृष्णवेणी, गोदावरी,
दण्डकवन, ताम्रचूड, सदोदक
और द्यावाभूमीश्वर तीर्थ को देखकर पर्वतराज श्रीशैल पहुँचा। तदनन्तर महातेजस्वी
भगवान् हरि स्वयं जहाँ श्रीरङ्ग नाम से निवास करते हैं, जहाँ
महिषासुरमर्दिनी दुर्गा वेंकटी नाम से पुकारी जाती हैं, उस
वेंकटाचल की यात्रा मेरे द्वारा की गयी। तत्पश्चात् चन्द्रतीर्थ, भद्रवट, कावेरी, कुटिलाचल,
अवटोदा, ताम्रपर्णी, त्रिकूट,
कोल्लकगिरि, वसिष्ठतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, ज्ञानतीर्थ, महोदधि,
हृषीकेश, विराज, विशाल
और नीलाद्रि (जगन्नाथपुरी), भीमकूट, श्वेतगिरि,
रुद्रतीर्थ तथा जहाँ तपस्या करके पार्वती ने भगवान् शिव का पतिरूप में
वरण किया था, उस उमावन तीर्थ की मैंने यात्रा की। साथ ही
वरुणतीर्थ, सूर्यतीर्थ, हंसतीर्थ तथा
महोदधि तीर्थ की यात्रा हुई, जहाँ स्नान करके काकोला (पहाड़ी
कौआ) भी राजहंस बन जाता है, जहाँ स्नान मात्र करके एक राक्षस
ने देवत्व पद प्राप्त कर लिया था । उसके बाद विश्वरूप, वन्दितीर्थ,
रत्नेश तथा कुहकाचल तीर्थ गया, जहाँ नरनारायण का
दर्शन करके मनुष्य करोड़ों पाप से मुक्त हो जाता है। सरस्वती, दृषद्वती और नर्मदा नामक मनुष्यों के लिये कल्याणकारिणी नदियों की मैंने
यात्रा की। भगवान् नीलकण्ठ, महाकाल, अमरकण्टक,
चन्द्रभागा, वेत्रवती, वीरभद्र,
गणेश्वर, गोकर्ण, बिल्वतीर्थ,
कर्मकुण्ड और सतारक तीर्थों में जाकर आपकी कृपा से मैं अन्य तीर्थों
में भी गया जहाँ मात्र स्नान करके मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।
उत्पद्यते शुभा बुद्धिः साधूनां
यदनुग्रहः ।
एकतः सर्वतीर्थानि करुणाः
साधवोऽन्यतः ॥ २,६.७७ ॥
अनुग्रहाय भूतानां चरन्ति चरितव्रताः
।
मुने! साधुजनों की जो कृपा है,
वह प्राणियों में कल्याणकारिणी बुद्धि को जन्म देती है। एक ओर तो
सभी तीर्थ हैं और दूसरी ओर करुणापूर्ण साधुजन प्राणियों के कल्याण का उन पर कृपा
करने का व्रत धारण कर वे इतस्ततः परिभ्रमण करते रहते हैं।
त्वं गुरुः सर्वर्णानां विद्यया
वयसाधिकः ॥ २,६.७८ ॥
अतः पृच्छाम्यहं किञ्चिदाधिभूतं
चिरन्तनम् ।
किं कुर्यां कं नु पृच्छेऽहं मनो
मेऽतिचलं मुने ॥ २,६.७९ ॥
निः स्पृहं ब्रह्मविषये
विषयेष्वतिलालसम् ।
मनागपि न सहते विरहं तिमिरं ब्रुवत्
॥ २,६.८० ॥
मोहितं विविधैर्भावैः कर्मणां क्षेत्रमुत्तमम्
।
शान्तिं यथा समायाति सम्पन्नमिव
भूसुर ॥ २,६.८१ ॥
विवेकप्रवणं शुद्धं यथा स्यात्कृपया
वद ।
हे प्रभो! आप सभी वर्णों के गुरु
हैं तथा विद्या एवं वय में श्रेष्ठ हैं। अतः मैं आपसे उस आधिभौतिक स्वरूप विषय में
पूछ रहा हूँ, जो चिरंतन काल से चला आ रहा है।
मैं क्या करूँ? किससे पूछूं? मेरा मन
अत्यन्त चञ्चल हो उठा है। यह ब्रह्म के विषय में तो निस्पृह रहता है, पर विषयों में अति लालायित है । यह रंचमात्र भी उस अज्ञानरूपी अन्धकार का
विछोह सहन नहीं कर सकता है। हे विप्रदेव ! कर्मों का जो श्रेष्ठतम क्षेत्र है,
वह अनेक प्रकार के भावों से व्यामोहित है । ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति के
पास जिस प्रकार शान्ति आ जाती है, विवेकवान् श्रेष्ठ मनुष्य
जिस प्रकार अन्तर्बाह्य दोनों स्थितियों में शुद्धता को प्राप्त कर लेता है वह सब
मुझे बताने की कृपा करें।
ऋषिरुवाच ।
मनस्तु प्रबलं नित्यं सविकारं
स्वभावतः ॥ २,६.८२ ॥
वशं नयन्ति करिणं प्रमत्तमपि
हस्तिपाः ।
तथापि साधुसङ्गत्या
साधनैरप्यतन्द्रितः ॥ २,६.८३ ॥
तीव्रेण भक्तियोगेन विचारेण वशं
नयेत् ।
इतिहासं प्रवक्ष्यामि तव
प्रत्ययकारकम् ॥ २,६.८४ ॥
नारदोऽकथयन्मह्यं स्ववृत्तगतजन्मनः
।
ऋषि ने कहा- हे वैश्यवर्य ! यह मन
अत्यन्त बलवान् है । यह नित्य ही विकारयुक्त स्वभाववाला है। तथापि जैसे पीलवान
मतवाले हाथी को भी वश में कर लेता है वैसे ही सत्संगति से,
आलस्यरहित होकर साधन करके, तीव्र भक्तियोग से
तथा सद्विचार के द्वारा अपने मन को वश में कर लेना चाहिये। इस सम्बन्ध में तुम्हें
विश्वास हो जाय, इसलिये मैं एक इतिहास बता रहा हूँ, जो नारद के पूर्वजन्म के जीवनवृत्त से जुड़ा हुआ है, जिसको स्वयं उन्होंने ही मुझसे कहा था ।
नारद उवाच ।
कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य दासीपुत्त्रः
पुरा मुने ॥ २,६.८५ ॥
शिक्षितो बालभावेऽपि पाठितो
नितरामहम् ।
तत्रापि सङ्गतिर्जाता महतां
पुण्यकर्मणाम् ॥ २,६.८६ ॥
प्रावृट्काले मम गृहे स्थितानां
भाग्ययोगतः ।
शुश्रूषणानुवृत्त्या च प्रश्रयेण
दमेन च ॥ २,६.८७ ॥
सन्तोषं परमं प्राप्य कृपया
त्विदमब्रुवन् ।
मनीषा निर्मला येन जाता मम
शुभार्थिनी ॥ २,६.८८ ॥
यया विष्णुमयं सर्वम्त्मन्येव
ददृशिवान् ।
नारदजी ने मुझसे कहा- हे मुने! मैं
प्राचीनकाल में किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण का दासीपुत्र था । वहीं पर मुझे महान्
पुण्यात्माओं की सत्संगति प्राप्त करने का सुअवसर भी मिला। एक बार वर्षाकाल में
भाग्यवश मेरे घर साधुजन ठहरे हुए थे। मेरे द्वारा विनम्रतापूर्वक बराबर की गयी
सेवा से अत्यन्त संतुष्ट होकर उन लोगों ने मुझे उपदेश दिया था,
जिसके प्रभाव से मेरी बुद्धि निर्मल और हितैषिणी बन गयी, जिससे अब मैं अपने में ही सबको विष्णुमय देखता हूँ ।
मुनय ऊचुः ।
शृणु वत्स प्रवक्ष्या मो हिताय तव
बालक ॥ २,६.८९ ॥
येन वै ध्रियमाणेन इहामुत्र सुखं
भवेत् ।
देवतिर्यङ्मनुष्याश्च संसारे विविधा
जनाः ॥ २,६.९० ॥
निबद्धाः कर्मपशैस्ते भुञ्जन्
भोगान् पृथग्विधान् ।
देवत्वं याति सत्त्वेन रजसा च
मनुष्यताम् ॥ २,६.९१ ॥
तिर्यक्त्वं तमसा
जन्तुर्वासनानुगतोऽबुधः ।
मातुर्लब्ध्वा पुनर्जन्म म्रियते च
पुनः पुनः ॥ २,६.९२ ॥
एवं गत्वा ह्यसंख्याता योनीस्ताः
कर्मभूरपि ।
मानुष्यं दुर्लभं लब्ध्वा
कदाचिद्दैवयोगतः ॥ २,६.९३ ॥
अनुग्रहेण महतां हरिं ज्ञात्वा
विमुच्यते ।
रोगग्राहं मोहजालमपारं भवसागरम् ॥ २,६.९४ ॥
न पश्यामि तितीर्षोरन्यद्रामस्मरणं
विना ।
नवनीयं यथा दध्नो ज्योतिः काष्ठादपि
क्वचित् ॥ २,६.९५ ॥
मन्थनैः साधनैरेवं परं ज्ञात्वा
सुखी भवेत् ।
मुनियों ने नारदजी से कहा- हे वत्स
! तुम सुनो। हम सब तुम्हारे हित में कह रहे हैं, जिसको स्वीकार कर तदनुसार जीवनयापन करनेवाला प्राणी इस लोक और परलोक दोनों
में सुख प्राप्त करता है । इस संसार में अनेक प्रकार के देवता, पक्षी तथा मनुष्यादि की योनियाँ हैं, जो कर्मपाश में
बँधी हुई हैं। वे सदैव पृथक्-पृथक् रूप से कर्मफलों का भोग करते हुए सत्त्वगुण से
देवत्व, रजोगुण से मनुष्यत्व और तमोगुण से तिर्यक् योनि
प्राप्त करते हैं। वासना में आबद्ध बुद्धिहीन प्राणी माता के गर्भ से बार-बार जन्म
लेकर मृत्यु का वरण करता है । इस प्रकार उन असंख्य योनियों में जाकर वह कभी दैवयोग
से ही मनुष्य की दुर्लभ योनि को प्राप्त कर, महात्माओं की
कृपा से भगवान् हरि को जानकर तथा अपार भवसागर को रोगरूपी ग्राह और मोहरूपी पाश से
युक्त समझकर मुक्त हो जाता है। इस भवसागर को पार करने के इच्छुक प्राणी के लिये
राम-नाम-स्मरण के अतिरिक्त अन्य कोई साधन हमें दिखायी नहीं देता है। जैसे दही का
मन्थन करने से नवनीत और काष्ठ का मन्थन करने से अग्नि प्राप्त होती है, वैसे ही आत्ममन्थन कर उस परमात्मा को जो प्राणी जान लेता है, वह सुखी हो जाता है।
आत्मा नित्योऽव्ययः सत्यः सर्वगः
सर्वभृन्महान् ॥ २,६.९६ ॥
अप्रमेयः स्वयञ्ज्योतिरग्राह्यो
मनसापि यः ।
सच्चिदानन्दरूपोऽसौ सर्वप्राणिहृदि
स्थितः ॥ २,६.९७ ॥
विनश्यत्स्वपि भावेषु न विनश्यति
कर्हिचित् ।
आकाशः सर्वभूतेषु स्थितस्तेजोजले
तथा ॥ २,६.९८ ॥
आत्मा सर्वत्र निर्लेपः पार्थिवेषु
यथानिलः ।
भक्तानुकम्पी भगवान् साधूनां
रक्षणाय च ॥ २,६.९९ ॥
आविर्भवति लोकेषुगुणीवाज्ञैः
प्रतीयते ।
एवंविवेकत्वया यो बुद्ध्या
संशीलयेद्धृदि ॥ २,६.१०० ॥
भक्तियोगेन सन्तुष्ट आत्मानं
दर्शयेदजः ।
ततः कृतार्थो भवति सदा सर्वत्र निः
स्पृहः ॥ २,६.१०१ ॥
अतोऽहङ्कारमुत्सृज्य सानुबन्धे
कलेवरे ।
चरेदसंगो लोकेषु स्वप्नप्रायेषु
निर्ममः ॥ २,६.१०२ ॥
क्व स्वप्ने नियतं धैर्यमिन्द्रजाले
क्व सत्यता ।
क्व नित्यता शरन्मेघे क्व वा सत्यं
कलेवरे ॥ २,६.१०३ ॥
अविद्याकर्मजनितं दृश्यमानं चरा
चरम् ।
ज्ञात्वाचारवशी योगी ततः
सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ २,६.१०४ ॥
यह आत्मा नित्य,
अव्यय, सत्य, सर्वगामी,
सभी प्राणियों में अवस्थित और महान् है। यह अप्रमेय है। यह स्वयं में
ज्योतिस्वरूप एवं मन से भी अग्राह्य है । यह वह तत्त्व है, जो
सच्चिदानन्दरूप है और सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता है। भावों के
विनष्ट हो जाने पर भी कभी विनष्ट नहीं होता है। जिस प्रकार आकाश सभी प्राणियों में,
तेज जल तथा वायु सभी पार्थिव पदार्थों में स्थित है, उसी प्रकार आत्मा सर्वत्र व्याप्त और निर्लेप है । भक्तों पर कृपादृष्टि
रखनेवाले भगवान् हरि साधुओं की रक्षा करने के लिये अवतरित होते हैं। यद्यपि वे
निर्गुण हैं, फिर भी अज्ञानियों को गुणवान् प्रतीत होते हैं।
जो व्यक्ति इस प्रकार की ज्ञानवती बुद्धि से अपने हृदय में उस परमात्मा का चिन्तन
करता है, उसके भक्तियोग से संतुष्ट होकर वे अजन्मा पुरुष
परमात्मा उसको अपना दर्शन देते हैं। तत्पश्चात् वह भक्त कृतार्थ हो जाता है और
सर्वदा सर्वत्र निष्कामभाव से बना रहता है। अतः बन्धनयुक्त इस शरीर में अहंकार का
परित्याग करके स्वप्नप्राय संसार में ममता और आसक्ति से रहित होकर संचरण करे ।
स्वप्न में धैर्य कहाँ स्थिर रहता है ? इन्द्रजाल में कहाँ
सत्यता होती है ? शरत्काल के मेघ में कहाँ नित्यता रहती है ?
वैसे ही शरीर में सत्यता कहाँ रहती है? यह
दृश्यमान समस्त चराचर जगत् अविद्या-कर्मजनित है। ऐसा जानकर तुम्हें आचारवान् योगी
बनना चाहिये। उससे तुम सिद्धि प्राप्त कर सकते हो।
इत्युक्त्वा ते गताः सर्वे साधवो
दीनवत्सलाः ।
सोऽहं तदुक्तमार्गेण तथैवाचरमन्वहम्
॥ २,६.१०५ ॥
ततोऽचिरेणात्मनीदं
दृष्टवानहमद्भुतम् ।
ज्योतिर्मयं सदानन्दं
शरच्छीतांशुनिर्मलम् ॥ २,६.१०६ ॥
निषिच्य सुखसन्दोहैर्मां
कृत्वाधिकसस्पृहम् ।
अन्तर्हितं महतेजो यथा सौदामिनी
दिवि ॥ २,६.१०७ ॥
भक्त्या तदेव मनसि भावयन्नहमद्भुतम्
।
काले कलेवरं त्यक्त्वा गतवान्
हरिमव्ययम् ॥ २,६.१०८ ॥
इस प्रकार का उपदेश देकर वे सभी
दीन-हीन प्राणियों पर वात्सल्य भाव रखनेवाले साधु वहाँ से चले गये । तदनन्तर मैं
(नारद) उनके द्वारा बताये गये मार्ग से उसी प्रकार का आचरण प्रतिदिन करता रहा। कुछ
ही समय के पश्चात् मैंने अपने अन्तःकरण में यह एक आश्चर्यजनक दृश्य देखा कि
शरत्कालीन चन्द्रमा के समान निर्मल, प्रतिक्षण
आनन्द प्रदान करनेवाला अद्भुत प्रकाशपुञ्ज प्रज्वलित हो रहा है। वह महातेज मुझे
प्रचुर सुख से सींचकर (अपने प्रति) अधिक स्पृहायुक्त बनाकर आकाश में विद्युत्की
भाँति अन्तर्हित हो गया । भक्तिपूर्वक मैं उस अनोखे ज्योतिपुञ्ज का ध्यान करता हुआ
समय आने पर अपना शरीर छोड़कर विष्णुलोक चला गया।
तस्येच्छया पुनर्ब्रह्मन् ब्रह्मणो
मेऽभवज्जनिः ।
अनुग्रहाद्भगवतस्त्रिषु लोकेषु निः
स्पृहः ॥ २,६.१०९ ॥
आपीडयन्मुहुर्वोणां
गायमानश्चराम्यहम् ।
ब्रह्मन् ! उन्हीं प्रभु की इच्छा से
पुन: मेरा जन्म ब्रह्मा से हुआ। उन भगवान् की कृपा से ही मैं आज अनासक्त रहकर
तीनों लोकों में बार-बार वीणा बजाते और गीत गाते हुए घूमता रहता हूँ ।
इत्युक्त्वा मे स्वानुभवं ययौ
यादृच्छिको मुनिः ॥ २,६.११० ॥
ममापि परमाश्चर्यं सन्तोषश्च
महानभूत् ।
अपना ऐसा अनुभव बताकर मुनि नारद
मेरे पास से मनोनुकूल दिशा में चले गये। उनकी उस बात से मुझको बड़ा ही आश्चर्य हुआ
और बहुत संतोष भी मिला ।
अतस्ते साधुसङ्गत्या भक्त्या च
परमात्मनः ॥ २,६.१११ ॥
विशुद्धं निर्मलं शान्तं मनो
निर्वृतिमेष्यति ।
अनेकजन्मजनितं पातकं साधुसंगमे ॥ २,६.११२ ॥
क्षिप्रं नश्यति धर्मज्ञ जलानां
शरदो यथा ।
अतः सत्संगति तथा भगवद्भक्ति से
तुम्हारा विशुद्ध, निर्मल और शान्त
स्वभाववाला मन सुखी हो जायगा । हे धर्मज्ञ ! साधुसंगति होने पर अनेक जन्मों में
किया गया पाप शीघ्र ही उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है, जैसे शरत्काल
के आने पर बरसात समाप्त हो जाती है।
वैश्य उवाच ।
पीत्वा ते वाक्यपीयूषं स्वान्तं मे
शान्तिमागमत् ॥ २,६.११३ ॥
सर्वतीर्थफलं मेऽध्य सञ्जातं तव
दर्शनात् ।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य प्रोवाच
ऋपिसत्तमः ॥ २,६.११४ ॥
वैश्य ने कहा –
हे ऋषिराज ! आपके इस वाक्यामृत – रसपान से मेरे अन्तःकरण को शान्ति
मिल गयी। आज आपके इस दर्शन से मेरी समस्त तीर्थयात्रा का फल प्रकट हो उठा है।
लोमश उवाच ।
हिताय तव राजेन्द्र
त्रिवर्गफलमिच्छतः ।
यत्त्वया सुकृतं भूरिवृषोत्सर्गं
विना कृतम् ॥ २,६.११५ ॥
मन्येऽकिञ्चत्करं सर्वं नीहारसलिलं
यथा ।
वृषोत्सर्गसमं किञ्चित्साधनं न
महीतले ॥ २,६.११६ ॥
अनायासेन गच्छन्ति गतिं ते
पुण्यकर्मणाम् ।
वृषोत्सर्गः कृतो येन अश्वमेधस्य
याजकः ॥ २,६.११७ ॥
उभौ समौ मया दृष्टौ दिव्यौ तौ
शक्रसन्निधौ ।
अतस्त्वं पुष्करं गत्वा वृषोत्सर्गं
विधाय च ॥ २,६.११८ ॥
ततो याहि गृहं साधो येन सर्वं कृतं
भवेत् ।
यह सुनकर लोमशजी ने कहा –
हे राजेन्द्र ! धर्म, अर्थ और काम- इस
त्रिवर्ग के फल की इच्छा करनेवाले तुम्हारे हित में यह मानता हूँ कि वृषोत्सर्ग के
बिना जो बहुत-से सत्कर्म तुमने किये हैं, वे सब ओसकणों के
रूप में पृथ्वी पर गिरे हुए जल के समान कुछ भी कल्याण करने की सामर्थ्य नहीं रखते
हैं । इस पृथ्वीतल पर वृषोत्सर्ग के सदृश हितकारी कोई साधन नहीं है । इस
श्रेष्ठकर्म को करनेवाले लोग अनायास पुण्यात्माओं की सद्गति प्राप्त कर लेते हैं ।
वृषोत्सर्ग - कर्म जिसने किया है वह व्यक्ति और जो अश्वमेधयज्ञ का कर्ता है,
मेरी दृष्टि में दोनों समान हैं। वे दोनों दिव्य शरीर प्राप्त करके
इन्द्रदेव का सांनिध्य ग्रहण करते हैं। अतः तुम पुष्करतीर्थ में जाकर वृषोत्सर्ग –
कर्म को सम्पन्न करो। हे साधु ! उसके बाद ही तुम अपने घर जाओ, जिससे कि इस तीर्थ-यात्रा का समस्त कृत्य भलीभाँति पूर्ण हो जाय ।
विपश्चिदुवाच ।
ततः स पुनरागत्य कार्तिक्यां
पुष्करे वरे ॥ २,६.११९ ॥
वराहरूपी भगवान् यत्रास्ते
यज्ञपूरकः ।
चकार विधिवत्सर्वं युद्कमृषिसत्तमैः
॥ २,६.१२० ॥
गतानि बहुतीर्थानि ततो लोमशसंगतिः ।
ततोऽधिकतरं जातं पुण्यं नीलविवाहजम्
॥ २,६.१२१ ॥
सभुक्त्वा विषयान् दिव्यान्
विमानवरमाश्रितः ।
तेन राजकुले जन्म वीरसेनस्य धर्मतः
॥ २,६.१२२ ॥
वीरपञ्चाननाख्यातञ्चतुर्वर्गैकसाधकम्
।
प्रकुर्वतो वृषोत्सर्गं तत्र ये
परिचारकाः ॥ २,६.१२३ ॥
दिव्यरूपाभवन् स्पृष्टा
गोपुच्छोदकशीकरैः ।
सुरूपाः पुष्टवपुषः पश्यन्तो
दूरसंस्थिताः ॥ २,६.१२४ ॥
ततो दूरतरा ये च दृश्यन्ते मलिना
जनाः ।
दुर्भगा मलिना रूक्षाः कृशा
विगतवाससः ॥ २,६.१२५ ॥
वृषयज्ञमपश्यन्तो ये चासूयां
प्रकुर्वते ।
सर्वं निवेदितं राज्ञश्चरितं
पूर्वजन्मनः ॥ २,६.१२६ ॥
धर्म्यं विचित्रमाख्यानं श्रुतं मे
यत्पराशरात् ।
अतस्त्वं स्वगृहं गच्छ कृपां कृत्वा
ममोपरि ॥ २,६.१२७ ॥
श्रुत्वा विपश्चिद्वाक्यं स विस्मयं
परमं गतः ।
गृहं जगाम विप्रोऽसौ प्रापितो
राजसेवकैः ॥ २,६.१२८ ॥
विपश्चित् ने कहा - इसके बाद वह
वैश्य यज्ञ को पूर्ण करनेवाले वराहरूपी भगवान् जहाँ विद्यमान हैं,
उस श्रेष्ठ पुष्करतीर्थ में गया और उसने कार्तिक पूर्णिमा के दिन
ऋषिश्रेष्ठ ने जैसा कहा था, उस वृषोत्सर्ग-कर्म को विधिवत्
सम्पन्न किया। इसके बाद लोमश ऋषि की संगति से वह बहुत-से तीर्थों में गया। अधिक
पुण्य नील (वृष) – विवाह से उसको प्राप्त हुआ था । श्रेष्ठ विमान पर चढ़कर दिव्य
विषयों को भोगने के बाद उसका वीरसेन के राजकुल में जन्म हुआ। इस जन्म में उसको
वीरपञ्चानन नाम की ख्याति प्राप्त हुई । वह धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष—इस पुरुषार्थ चतुष्टय का एक
अद्वितीय साधक था । वृषोत्सर्ग करते समय वहाँ जो नौकर-चाकर उपस्थित थे, वे भी गाय की पूँछ के तर्पण के छींटों का स्पर्श करके दिव्य रूप हो गये।
जो दूर से ही इस कार्य को देख रहे थे, वे लोग हृष्ट-पुष्ट हो
गये और उनका स्वरूप कान्ति से चमक उठा। इसके अतिरिक्त जो लोग इस सत्कर्म के भू-भाग
से बहुत दूर थे, वे मलिन दिखायी दे रहे थे । वृषोत्सर्ग न
देखते हुए जो लोग उसकी निन्दा करनेवाले थे, वे अभागे,
दीन-हीन और व्यवहार आदि में रूक्ष, कृश और
वस्त्रविहीन हो गये । हे द्विज! मैंने भगवान् पराशर से पूर्वजन्म से सम्बद्ध इस
राजा का अद्भुत और धार्मिक जो वृत्तान्त सुना था, उसका वर्णन
आपसे कर दिया । इसलिये आप मेरे ऊपर कृपा करके अब अपने घर लौट जायँ । मन्त्री के
ऐसे वाक्यों को सुनकर वे ब्राह्मण अत्यधिक आश्चर्यचकित हो उठे । तदनन्तर राजसेवकों
के द्वारा उन्हें घर पर पहुँचा दिया गया।
वसिष्ठ उवाच ।
तस्माद्राजन् वृषोत्सर्गं वरिष्ठं
सर्वकर्मणाम् ।
समाचर विधानेन यदि भीतो यमादपि ॥ २,६.१२९ ॥
वृषोत्सर्गसमं किञ्चित्साधनं नदिवः
परम् ।
मया धर्मरहस्यं ते कथितं राजसत्तम ॥
२,६.१३० ॥
वसिष्ठ ने कहा- हे राजन् ! सभी
कर्मों में वृषोत्सर्ग-कर्म श्रेष्ठतम है। अतः आप यदि यमराज से भयभीत हैं तो
यथाविधि वृषोत्सर्ग-कर्म ही करें। हे राजश्रेष्ठ ! वृषोत्सर्ग के अतिरिक्त अन्य
कोई भी ऐसा साधन नहीं है जो मनुष्य को स्वर्ग-प्राप्ति की सिद्धि प्रदान कर सके।
आपको मैंने धर्म का रहस्य बता दिया है।
पतिपुत्रवती नारी भर्तुरग्रे मृता
यदि ।
वृषोत्सर्गं न कुर्वीत गां दद्याच्च
पयस्विनीम् ॥ २,६.१३१ ॥
यदि पति-पुत्र से युक्त नारी पति के
आगे मर जाती है तो उसके निमित्त वृषोत्सर्ग नहीं करना चाहिये,
अपितु दूध देनेवाली गाय का दान देना चाहिये।
श्रीकृष्ण उवाच ।
श्रुत्वा वाक्यं वसिष्ठस्य राजा
मधुपुरीं गतः ।
चकार विधिवत्सर्वं वृषोत्सर्गमहं खग
॥ २,६.१३२ ॥
गृहं गत्वा स आत्मानं
कृतकृत्यममन्यत ।
कालेन निधनं प्राप्तो नीतो वैवस्वतानुगैः
॥ २,६.१३३ ॥
स कालनगरं हित्वा गतो दूरतरं पथि ।
श्राद्धदेवपुरं कुत्रेत्येवं
दूतानपृच्छत ॥ २,६.१३४ ॥
पापिनो यत्र पात्यन्ते याम्यै
पापविशुद्धये ।
यत्र देवः स धर्माधर्मविचेतनः ॥ २,६.१३५ ॥
गतं पापपुरं तत्तु न द्रष्टव्यं
भवादृशैः ।
अग्रे दृष्ट्वा धर्मराजमूचुस्ते
परमादरात् ॥ २,६.१३६ ॥
दिव्यरूपस्तदा देवो
देवगन्धर्वसंयुतः ।
आत्मानं दर्शया मास तस्य राज्ञो
महात्मनः ॥ २,६.१३७ ॥
प्रणम्य दण्डवद्राजा कृताञ्जलिः
पुरः स्थितः ।
तुष्टाव बहुधा देवं हर्षपुरितमानसः
॥ २,६.१३८ ॥
धर्मराजोऽपि राजानं प्रशस्येदमुवाच
ह ।
नीयतां देवलोकाय यत्र भोगाः
सुपुष्कलाः ॥ २,६.१३९ ॥
तद्वीरवाहनः श्रुत्वा
पप्रच्छसमवर्तिनम् ।
न जाने केन पुण्येन स्वर्गं नयसि
मां विभो ॥ २,६.१४० ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश ! महर्षि
वसिष्ठ के उक्त वचनों को सुनकर राजा वीरवाहन ने मथुरा में जाकर विधिवत् वृषोत्सर्ग
का अनुष्ठान किया । तदनन्तर अपने घर पहुँचकर उसने अपने को कृतार्थ माना। समय आने पर
जब उसकी मृत्यु हुई तब यमराज के दूत उसको लेकर कालपुरी की ओर चले,
किंतु उस नगर को पार करके मार्ग में जब वह अधिक दूर निकल गया तो
उसने दूतों से पूछा कि श्राद्धदेव का नगर कहाँ है? तब दूतों ने
उसको बताया कि जहाँ पापी लोग पापशुद्धि के लिये यमदूतों के द्वारा नरक में ढकेले
जाते हैं, जहाँ धर्माधर्म की विवेचना करनेवाले धर्मराज
विराजमान रहते हैं, वहीं वह श्राद्धदेवपुर है। आप-जैसे
पुण्यात्माओं के द्वारा वह नहीं देखा जाता है । उसी समय देव – गन्धर्वों के सहित
दिव्य रूपवाले धर्मराज ने उस राजा के समक्ष अपने को प्रकट किया। अपने सामने
उपस्थित धर्मराज को देखकर राजा ने बड़े ही आदर के साथ हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम
किया और प्रसन्नचित्त होकर उसने अनेक प्रकार से गुण-कीर्तन करते हुए उन्हें
संतुष्ट किया। धर्मराज ने भी राजा की प्रशंसा करके यही कहा- हे दूतो ! तुम सब,
इन्हें उस देवलोक में ले जाओ, जहाँ प्रचुर भोग
के साधन सुलभ हैं। राजा वीरवाहन ने उस आदेश को सुनकर सामने ही स्थित धर्मराज से
पूछा- हे देव! मैं यह नहीं जानता हूँ कि आप मुझे किस पुण्य के प्रभाव से स्वर्गलोक
ले जा रहे हैं।
धर्मराज उवाच ।
त्वया कृतानि पुण्यानि दानं यज्ञाः
सविस्तराः ।
मथुरायां वृषोत्सर्गो
वसिष्ठवचनात्किल ॥ २,६.१४१ ॥
धर्मराज ने कहा- हे राजन् ! तुमने
दान-यज्ञादि अनेक पुण्यकार्यों को विधिवत् सम्पन्न किया है । वसिष्ठ की आज्ञा मान
करके तुमने मथुरा में वृषोत्सर्ग भी किया है।
धर्मः स्वल्पोऽपि नृपते यदि
सम्यगुपासितः ।
द्विजदेवप्रसादेन स याति
बहुविस्तरम् ॥ २,६.१४२ ॥
हे नरेश ! यदि मनुष्य थोड़े भी धर्म
का सम्यक् रुप से पालन करता है तो वह ब्राह्मण और देवताओं की कृपा से अधिकाधिक हो
जाता है।
इत्युक्त्वा यमुनाभ्राता
क्षणादन्तर्धिमाययौ ।
वीरबाहुर्दिवं गत्वा देवैः सह मुमोद
ह ॥ २,६.१४३ ॥
ऐसा कहकर यमुना के भ्राता उसी क्षण
अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् वीरवाहन स्वर्ग में जाकर देवताओं के साथ सुखपूर्वक
रहने लगा।
श्रीकृष्ण उवाच ।
मया ते कथितं पक्षिन् वृषयज्ञः
सुविस्तरः ।
प्राणिनां कर्मनिर्हारं श्रुत्वा
पापैः प्रमुच्यते ॥ २,६.१४४ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिराज !
मैंने वृषोत्सर्ग नामक यज्ञ का माहात्म्य विस्तारपूर्वक तुम्हें सुना दिया है।
प्राणियों के पापकर्म को समाप्त करनेवाले इस आख्यान को सुननेवाला व्यक्ति पापमुक्त
हो जाता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्विदृ धदृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे वृषोत्सर्गमाहात्म्यनिरूपणं
नाम षष्ठोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 7