श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २३-२९
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड
अध्याय २३-२९ में सोमपुत्री जाम्बवती की कथा का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) त्रयोविंश चतुर्विंश पञ्चविंश षड्विंश सप्तविंश अष्टाविंश नवविंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran Brahmakand chapter 23-29
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड
तेईस चौबीस पच्चीस छब्बीस सत्ताईस अट्ठाईस उन्तीसवां अध्याय
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २३-२९
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २३-२९का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे
पक्षिश्रेष्ठ गरुड ! इस सृष्टि से पूर्व सृष्टि की बात है। जाम्बवती श्रीसोम की पुत्री
थी । श्रीसोम श्रीविष्णु की सेवा में लगे रहते थे। उनकी पुत्री जाम्बवती भी पिता का
अनुसरण करती थी। वह नित्य पुराण सुनती, प्रतिक्षण
भगवान् का स्मरण करती, उनके चरणों की वन्दना करती और उनकी
सेवा में लगी रहती । धीरे-धीरे जाम्बवती के अन्तःकरण में संसार की नश्वरता घर करती
चली गयी। वह समझ गयी कि सुख-दुःख माया के खेल हैं। इनसे ऊपर उठकर वह भगवत्प्रेम में
आनन्द-विभोर रहने लगी। उसकी वाणी से भगवान्के नाम और गुण का कथन होता रहता । आँखें
प्रभु की प्रतीक्षा में रत रहतीं, कान उनकी मीठी बातें सुनने
के लिये उत्सुक रहते, हाथ अर्चना के सम्भार में लगे रहते और
पैर उनकी प्रदक्षिणा में व्यस्त रहते । हृदय में एक ही कामना रह गयी थी कि मैं
भगवान्के चरणों की दासी कैसे बन जाऊँ। वह सारा कार्य भगवान् के लिये करती थी और
सम्पन्न होने पर उन्हें भगवान् को ही समर्पित कर देती थी । ब्राह्मणों और संतों की
पूजा में उसे रस मिलता था ।
एक दिन श्रीसोम ने तीर्थयात्रा का
विचार किया। इस समाचार से जाम्बवती फूली न समायी । वह पहले से ही उन स्थलों को
देखना चाहती थी, जहाँ भगवान् ने अपनी लीलाएँ की
हैं और जहाँ वे अदृश्य-रूप से आज भी विराजते हैं । भगवान् श्रीनिवास में जाम्बवती का
मधुर भाव था। शेषाचल पर अब प्रियतम के दर्शन हो जायँगे, इस
आशा से उसका रोम-रोम खिल उठा। पिता का भी भगवान्में पूरा लगाव था। दोनों की
उत्सुकता अनिर्वचनीय थी। यात्रा प्रारम्भ हो गयी। पिता-पुत्री के पग बिना बढ़ाये
बढ़ रहे थे। धीरे-धीरे कपिल नामक तीर्थ आ गया । सद्गुरु जैगीषव्य की आज्ञासे
पिताने मुण्डन कराया, स्नान किया और तीर्थ श्राद्ध किया। फिर
विविध प्रकार के दान दिये। इसके बाद सद्गुरु ने वेंकटाद्रि का महत्त्व सुनाया।
इससे उन यात्रियों के मन में श्रद्धा का अतिरेक हो गया। वे लोग बहुत प्रेम से इस
पवित्र पर्वत पर चढ़ने लगे ।
सद्गुरु जैगीषव्य नारद,
प्रह्लाद, पराशर, पुण्डरीक
आदि महाभागवतों की कथा सुनाते रहे । नाम के रस का आस्वादन करते हुए लोग चल रहे थे।
सच पूछा जाय तो वे चल नहीं रहे थे, अपितु आनन्द- वापी में
डूब - उतरा रहे थे और तरंगें स्वयं उन्हें आगे पहुँचाती जाती थीं। जाम्बवती तो
मानो आनन्द-वारिधि में उतराती चली जा रही थी ।चढ़ते चढ़ते एक मनोरम तीर्थ आया।
जाम्बवती ने पूछा- 'गुरुदेव ! यह कौन सा तीर्थ है ? वह कौन भाग्यशाली है,
जिस पर भगवान्ने यहाँ अनुग्रह किया है।' इस
प्रश्न से जैगीषव्य बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा- 'बेटी ! इस तीर्थ का नाम नारसिंह तीर्थ है । भक्तराज प्रह्लाद प्रेमवश
भगवान् श्रीनिवास के दर्शनों के लिये यहाँ पधारे थे। उनके साथ दैत्यों के कुमार भी
थे। वे यहाँ भगवान् के दर्शनों के लिये उत्कण्ठित हो गये थे।
उन्होंने प्रह्लाद से कहा था—
'मित्र ! जब नृसिंह रूप भगवान् श्रीनिवास कण-कण में व्याप्त हैं,
तब इस जल में क्यों नहीं दिखायी देते ? कृपा कर
उनके दर्शन करा दीजिये ! '
भक्तराज प्रह्लाद ने अपने
भगवत्प्रेमी मित्रों को बहुत आदर दिया। इसके बाद उन्होंने भगवान्से प्रार्थना की
कि 'वे सबको दर्शन दे दें ।' भगवान्ने संतराज की प्रार्थना
स्वीकार की। दैत्यकुमार दर्शन पाकर कृतकृत्य हो गये और भगवान् 'इस जल में स्नान करने से ज्ञान की प्राप्ति होगी' - ऐसा
वरदान देकर प्रह्लाद तथा दैत्यकुमारों के साथ सदा के लिये इस तीर्थ में बस गये ।
उनका यह वास आज भी वैसे ही है और आगे भी वैसा ही रहेगा। मध्याह्न के बाद आज भी
चारों ओर जय-जय के शब्द सुनायी पड़ते हैं।
इस इतिहास को सुनकर सबको रोमाञ्च हो
आया । सभी को भगवान् श्रीनिवास ने दर्शन दिया । जाम्बवती के मधुर भाव के अनुरूप
भगवान्ने हजारों कामदेव के समान अपना कमनीय रूप दिखाया। देखते ही जाम्बवती का
प्रत्येक अङ्ग शिथिल हो गया, रोमाञ्च हो
आया और आँखों से प्रेम के अश्रु ढलने लगे। किसी प्रकार टूटे-फूटे शब्दों में
जाम्बवती ने कहा— 'नाथ ! श्रीचरणों में रख लो। '
अबतक भगवान् ने अपने सौन्दर्य-सुधा का
ही पान कराया था, अब उन्होंने अपने
वचन – सुधा का पान कराते हुए कहा- 'जाम्बवति! मैं तुम्हें
वेंकटेश- मन्त्र बताता हूँ। तुम यहीं रहकर इसका जप करो।' जाम्बवती
को लगा कि उसके कानों में अमृत उड़ेल दिया गया हो। वह आनन्द से बेसुध होने लगी।
उसे न अपना पता था, न पराये का । जन्म की साथिन लाज कहाँ चली
गयी, इसका भी उसे पता न था। आनन्दावेश में वह नाचने लगी ।
जाम्बवती के उस नृत्य से सारा ब्रह्माण्ड रस-विभोर हो उठा। स्वर्ग से अप्सराएँ उतर
आयीं और जाम्बवती के अगल- बगल में नाचने लगीं। देवताओं ने दुंदुभी बजायी और आकाश से
पुष्प की वृष्टि की।
इसी प्रकार भगवान् के प्रेम में
आह्लादित होते हुए जाम्बवती की तीर्थयात्रा चलती रही। गुरु जैगीषव्य ने भगवान्
वेंकटेश का माहात्म्य उसे सुनाया । स्वामिपुष्करिणीतीर्थ,
जहाँ श्रीनिवास सदा विराजमान रहते हैं * — का
इतिहास बतलाया ।
* स्वामिपुष्करिणीमध्ये
श्रीनिवासोऽस्ति सर्वदा ॥ ( २६ । ३८)
जिसे सुनकर वह आनन्द से भर गयी,
श्रीनिवास के प्रति उसका अनुराग बढ़ता ही गया। गुरु द्वारा बताये गये
वेंकटाद्रि के सभी तीर्थों का जाम्बवती ने बड़े ही भाव से सेवन किया। अन्त में वह
ऋषितीर्थ पहुँची। सप्तर्षियों से सेवित उस पुण्य-पवित्र ऋषितीर्थ में उसका मन रम
गया, वह वहीं रुक गयी। दीर्घ समय तक उसने वहाँ तप का
अनुष्ठान किया।
हे पक्षिराज ! वह कन्या जाम्बवती
मेरे कृष्णावतार धारण करने तक वहाँ तपस्या में अनुरक्त रही। उसका शरीर अत्यन्त
पवित्र हो चुका था । अन्त में उसने मुझे पतिरूप में प्राप्त करने की अभिलाषा से
योगधारणा द्वारा अपने उस शरीर का परित्याग कर दिया और वह भक्तराज जाम्बवान् के घर
में पुनः उत्पन्न हुई। वहाँ उसका नाम भी जाम्बवती ही पड़ा । भक्तिपरायणा जाम्बवती
पिता के घर में धीरे- धीरे बढ़ने लगी, पूर्व-जन्म
के समान ही इस जन्म में भी वह एकमात्र हरिनिष्ठ थी। उसके पिता जाम्बवान् भी महान्
भक्त थे। उन्होंने अपनी पुत्री जाम्बवती को पत्नीरूप में मुझे समर्पित कर अपने को
धन्य माना। जाम्बवती ने भगवान् श्रीकृष्ण को सदा के लिये अपना पति बना लिया। उसकी
भक्ति सफल हो गयी। विश्व के नाथ ने विधि के साथ जाम्बवती से विवाह किया। सब ओर
आनन्द ही आनन्द छा गया।
जाम्बवती विवाह की पवित्र कथा बताकर
श्रीकृष्ण ने पक्षिराज गरुड को उन कृपालु भगवान् श्रीनिवास की भक्ति का विस्तार से
माहात्म्य बतलाया और कहा कि हे गरुडजी ! भगवान् को कभी भूलना नहीं चाहिये,
निरन्तर उनके हरि आदि मङ्गलमय नामों का उच्चारण करते रहना चाहिये-
हरिं हरिं प्रवदेत् सर्वदैव । (२९ ।
६४)
कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि वह
अपने शास्त्रविहित कर्मों को करते हुए प्रत्येक समय वासुदेव हरि का स्मरण करता
रहे-
पूर्तिर्यदा क्रियते कर्मणां च सम्यक् स्मरेद्वासुदेवं हरिं च ॥( २९ । ६८)
ऐसा करने से नारायण अत्यन्त प्रसन्न
होते हैं,
इसलिये हे गरुडजी ! भगवान् हरि को प्रिय लगनेवाले कार्यों में ही
सदा व्यक्ति को अनुराग रखना चाहिये-
हरिप्रीतिकरे धर्मे प्रीतियुक्तो
भवेत् सदा ॥
॥ गरुडपुराणान्तर्गत ब्रह्मकाण्ड
सम्पूर्ण ॥
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय २३-२९ का मूलपाठ
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) अध्यायः
२३
अध्यायः २३ श्रीगरुडमहापुराणम्
श्रीकृष्ण उवाच ।
सोमस्य पुत्री पूर्वसर्गे बभूव
भार्या मदीया जाम्बवती मम प्रिया ।
तासां मध्ये ह्यधिका वीन्द्र
किञ्चिद्रुद्रादिभ्यः पञ्चगुणैर्विहीना ॥ ३,२३.१ ॥
यदावेशो बलवान्स्याद्रमायां तदानामस
प्रियते केशवोलम् ।
यदावेशाद्ध्रासमुपैति काले तदा
तासां साम्यमाहुर्महान्तः ॥ ३,२३.२
॥
लक्ष्म्यावेशः किञ्चिदस्त्येव
नित्यमतस्ताभ्यः किञ्चिदाधिक्यमस्ति ॥ ३,२३.३ ॥
गरुड उवाच ।
तासां मध्ये जाम्बवन्ती तु कृष्ण
आराधनं कीदृशं सा चकार ।
तन्मे ब्रूहि कृपया विश्वमूर्ते
आधिक्ये वै कारणं ताभ्य एव ॥ ३,२३.४
॥
गरुडेनैवमुक्तस्तु भगवान् देवकीसुतः
।
मेघगंभीरया वाचा उवाच विनतासुतम् ॥
३,२३.५ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
या पूर्वसर्गे सोमपुत्री बभूव
पितुर्गृहे वर्तमानापि साध्वी ।
जन्म स्वकीयं सार्थकं वै चकार
पित्रा साकं विष्णुशुश्रूषणे न च ॥ ३,२३.६
॥
शुश्राव नित्यं सत्पुराणानि चैवं
चक्रे सदा विष्णुपादप्रणामम् ।
चक्रे सदा तारकस्यापि विष्णोः
प्रदक्षिणं स्मरणं कुर्वती सा ॥ ३,२३.७
॥
पित्रा साकं सा तु कन्या खगेन्द्र
वैराग्ययुक्ता श्रवणात्संबभूव ।
केशं च मित्रं द्विरदादिकं च
अनर्घ्यरत्नानि गृहादिकं च ॥ ३,२३.८
॥
सर्वं ह्येतन्नश्वरं चैव मेने
ममाधीनं हरिणा वै कृतं च ।
येनैव दत्तं पुत्रमित्रादिकं च तेना
हृतं वेदनां नैव चक्रे ॥ ३,२३.९
॥
अद्यैव विष्णुः परमो दयालुः दयां
मयि कृतवांस्ते न सुष्ठु ।
पित्रा साकं कन्यका सा तु वीन्द्र
सदात्मनि ह्यमले वासुदेवे ॥ ३,२३.१०
॥
एकान्तत्वं सुष्ठु भक्त्या गता सा
यदृच्छया सोपपन्नेन देवी ।
अकल्पयन्त्यात्मनो वीन्द्र वृत्तिं
चकार यत्सावधिराधं प्रथैव ॥ ३,२३.११
॥
सा वै वित्तं विष्णुपादारविन्दे दुः
खार्णवात्तराके संचकार ।
वागीन्द्रिद्रियं खग सम्यक्चकार
हरेर्गुणानां वर्णने वा सदैव ॥ ३,२३.१२
॥
हस्तौ च विष्णोर्गृहसंमार्जनादौ
चकार देवी गात्रमलापहारम् ।
श्रोत्रं च चक्रे हरिसत्कथोदये
मोक्षादिमार्गे ह्यमृतोपमे च ॥ ३,२३.१३
॥
नेत्रं च चक्रे प्रतिमादिदर्शने
अनादिकालीनमलापहरिणी ।
सद्वैष्णवानां स्पर्शने चैव संगे
निर्माल्यगन्धानुविलेपने त्वक् ॥ ३,२३.१४
॥
घ्रार्णेद्रियं सा हरिपादसारे चकार
संसारविमुक्तिदे च ।
जिह्वेन्द्रियं हरिनैवेद्यशेषे
श्रीमत्तुलस्यादिविमिश्रिते च ॥ ३,२३.१५
॥
पादौ हरेः क्षेत्रपथानुसर्पणे शिरो
हृषीकेशपदाभिवन्दने ।
कामं हृदास्ये तु हरिदास्यकाम्या
तथोत्तमश्लोकजनाश्चरन्ति ॥ ३,२३.१६
॥
निष्कामरूपे च मतिं चकार
वागिन्द्रियं स्तवनं स्वीचकार ।
एवं सदा कार्यसमूहमात्मना
समर्पयित्वा परमेशपादयोः ॥ ३,२३.१७
॥
तीर्थाटनार्थं तु जगाम पित्रा साकं
हरेः प्रीणनाद्यर्थमेव ।
आराधयित्वा
ब्राह्मणान्विष्णुभक्तानादौ गृहे वस्त्रसंभूषणाद्यैः ॥ ३,२३.१८ ॥
पश्चात्कल्पं कारयामास देवी
विष्णोरग्रे तीर्थयात्रार्थमेव ।
यावत्कालं तीर्थयात्रा मुकुन्द
तावत्कालं तूर्ध्वरेता भवामि ॥ ३,२३.१९
॥
यावत्कालं तीर्थयात्रां करिष्ये
तावद्दत्ताद्वैष्णवानां च संगम् ।
हरेः कथाश्रवणं स्यान्मुकुन्द
नावैष्णवानां संगिनामङ्गसंगम् ॥ ३,२३.२०
॥
सुहृज्जनैः पुत्रमित्रादिकैश्च
दीर्थाटनं नैव कुर्यां मुकुन्द ।
कुर्वन्ति ये काम्यया तीर्थयात्रां
तेषां संगं कुरु दूरे मुकुन्द ॥ ३,२३.२१
॥
शालग्रामं ये विहायैव यात्रां
कुर्वन्ति तेषां किं फलं प्राहुरार्याः ।
यदा तीर्थानां दर्शनं स्यात्तदैव
शालग्रामं पुरतः स्थापयित्वा ॥ ३,२३.२२
॥
तीर्थाटनं पादचैरैः कृतं चेत्पूर्णं
फलं प्राहुरार्याः खगेन्द्र ।
पादत्राणं पादरक्षां च कृत्वा
तीर्थाटनं पादहीनं तदाहुः ॥ ३,२३.२३
॥
यो वाहने तुरगे चोपविष्टस्तीर्थाटनं
कुरुते चार्धहीनम् ।
वृषादीनां वाहने पादमाहुः
परान्नानां भोजने व्यर्थमाहुः ॥ ३,२३.२४
॥
महात्मनां वेदविदां यतीनां
परान्नानां भोजने नैव दोषः ।
संकल्पयित्वा परमादरेण जगाम सा
तीर्थयात्रार्थमेव ॥ ३,२३.२५ ॥
आदौ स्नात्वा हरिनिर्मात्यगन्धं
विसर्जयित्वा श्रवणं वै चकार ।
पित्रा साकं भोजनं चापि कृत्वा
अग्रे दिने क्रोशमेकं जगाम ॥ ३,२३.२६
॥
तत्र द्विजान्पूजयित्वान्नपान
रात्रौ तत्त्वं श्रावयामास देवी ।
एवं यात्रां ये प्रकुर्वन्ति नित्यं
तेषां यात्रां सफलां प्राहुरार्याः ॥ ३,२३.२७
॥
विना दयां तीर्थयात्रा
खगेन्द्रव्यर्थेत्येवं वीन्द्र चाहुर्महान्तः ।
दिवा रात्रौ ये न शृण्वन्ति दिव्यां
हरेः कथां तीर्थमार्गे खगेन्द्र ॥ ३,२३.२८
॥
व्यर्थंव्यर्थं तस्य चाहुर्गतं वै
अश्वादीनां वाहनानां च विद्धि ।
अश्वादीनामपराधं वदस्व गङ्गादीनां
दर्शनात्पापनाशः ॥ ३,२३.२९ ॥
क्षेत्रस्थविष्णोर्दर्शनात्पापनाशो
मार्जारस्याप्यपराधं वदस्व ।
क्षेत्रस्थविष्णोः पूजनात्पापनाशः पूजावतामपराधं
वदस्व ॥ ३,२३.३० ॥
जपादीनां कुर्वतां पापनाशो
विष्णोर्ध्यानात्सद्य एवाधनाशः ।
अनुसंधानाद्रहितं सर्वमेव कृतं
व्यर्थमेवेति चाहुः ॥ ३,२३.३१ ॥
अतो हरेः पापविनाशिनीं कथां
श्रुत्वा विष्णोर्भक्तिमान्स्यात्वगन्द्र ।
दृष्ट्वादृष्ट्वा हरिपादाङ्कितं च
स्मृत्वास्मृत्वा भक्तिमान्स्यात्खगेन्द्र ॥ ३,२३.३२ ॥
पित्रा साकं कन्यका सापि वीन्द्र
शेषाचलस्थं श्रीनिवासं च द्रष्टुम् ।
जगाम सा मार्गमध्ये हरिं च सा
चिन्तयामास रमापतिं च ॥ ३,२३.३३ ॥
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य वक्षः
श्रीवत्सरत्नैर्भूषितं विस्तृतं च ।
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य तुन्दं
वलित्रयेणाङ्कितं सुंदरं च ॥ ३,२३.३४
॥
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य कण्ठं
महर्लोकस्याश्रयं कंबुतुल्यम् ।
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य नाभिं
सदान्तरिक्षस्याश्रयं वै सुपूर्णम् ॥ ३,२३.३५
॥
कदा द्रक्ष्ये वदनं वै
मुरारेर्जनलोकस्याश्रयं सर्वदैव ॥ ३,२३.३६
॥
शिरः कदा श्रीनिवासस्य द्रक्ष्ये
सत्यस्य लोकस्याश्रयं सर्वदैव ।
कटिं कदा श्रीनिवासस्य द्रक्ष्ये
भूर्लोकस्याश्रयं सर्वदैव ॥ ३,२३.३७
॥
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य चोरु
तलातलस्याश्रयं सर्वदैव ।
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य जानु
सुकोमलं सुतलस्याश्रयं च ॥ ३,२३.३८
॥
कदा द्रक्ष्ये श्रीनिवासस्य जङ्घे
रसातलस्याश्रयेः सर्वदैव ।
कदा द्रक्ष्ये पादतलं हरेश्च
पाताललोकस्याश्रयं सर्वदैव ॥ ३,२३.३९
॥
इत्थं मार्गे चिन्तयन्ती च देवी
शेषाचले शेषदेवं ददर्श ।
फणैः सहस्रैः सुविराजमानं
नानाद्रुमैर्वानरैर्वानरीभिः ॥ ३,२३.४०
॥
अनन्त जन्मार्जितपुण्यसंचयान्मयाद्य
दृष्टः परमाचलो हि ।
तद्दर्शनाद्वाष्पकलाकुलेक्षणा सद्यः
समुत्थाय ननाम मूर्ध्ना ॥ ३,२३.४१
॥
मुखं च दृष्ट्वा नमनं च कार्यं
पृष्ठादिभागे नमनं न कार्यम् ।
सापि द्विषट्कं नमनं च चक्रे
शालग्रामं स्थापयित्वा पुरोऽस्य ॥ ३,२३.४२
॥
इत्थं कार्यं वैष्णवैः पर्वतस्य
त्वं वैष्णवैर्विपरीतं च कार्यम् ।
मध्वान्तःस्थः पर्वताग्रेस्ति
नित्यं रमाब्रह्माद्यैः पूजितः श्रीनिवासः ॥ ३,२३.४३ ॥
सुसत्तमं परमं श्रीनिवासं
द्रक्ष्येऽथाहं ह्यारुरुक्षेऽचलञ्च ।
इत्येवमुक्त्वा कपिलाख्यतीर्थे
स्थानं चक्रे सा स्वपित्रा सहैव ॥ ३,२३.४४
॥
अत्रैवास्ते श्रीनिवासो हरिस्तु
द्रव्येण रूपेण न चान्यथेति ।
आदौस्नात्वा मुण्डनं तत्र कृत्वा
तीर्थश्राद्धं कारयित्वा सुतीर्थे ॥ ३,२३.४५
॥
गोभूहिरण्यादिसमस्तदानं दत्त्वा
शैलं चारुरोहाथ साध्वी ।
शालग्रामं स्थापयित्वा स चाग्रे पुनः
प्रणामं सापि चक्रे सुभक्त्या ॥ ३,२३.४६
॥
सोपानानां शतपर्यन्तमेवमारुह्य सा
ह्युपविष्टा तु तत्र ।
शुश्राव सा भागवतं पुराणं शुश्राव
वैवेङ्कटाद्रेः प्रशंसाम् ॥ ३,२३.४७
॥
जैगीषव्याद्गुरुपादात्सुभक्त्या
सुश्राव तत्त्वं वेङ्कटाद्रेश्च सर्वम् ॥ ३,२३.४८ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे वेङ्कटेशगिरियात्राक्रमनिरूपणं नाम
त्रयोविंशोध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २४
अध्यायः २४ श्रीगरुडमहापुराणम्
जैगीषव्य उवाच ।
कन्ये शृणु त्वं वेङ्कटाख्याचलस्य
स्मेराननां पुण्यमांरोहणेऽस्य ।
श्रीगीतायाः पठनं चैव
कुर्वन्नारोहणं कुरुते सर्वलोकः ॥ ३,२४.१
॥
पदेपदे श्रीनिवासश्च देवस्त्वलं
ह्यलं प्रीयते भक्तवर्गः ।
तं प्रीणयन्मोक्षमायान्ति सर्वे हरौ
तुष्टे किमलभ्यं च कन्ये ॥ ३,२४.२
॥
सोपानदेशे यः पुराणं शृणोति तदा
कृता सर्वतीर्थादियात्रा ।
तदा दिवा प्रस्तुवन्तीह मार्गे सदा
हरिं श्रीनिवासं गुरुं च ॥ ३,२४.३
॥
सोपानानां महिमानं च श्रुत्वा
शालग्रामं स्थापयित्वा च तत्र ।
नमस्कृत्वा पुनरेवापि सा तु
सोपानानि त्वारुरोहाथ साध्वी ॥ ३,२४.४
॥
सोपानानां वीन्द्र चारोहणेन
त्ववैष्णवानां हरितोषो न चैव ।
तेनैव तेषां साधनं भूय एव तमस्यन्धे
पातयितुं खगेन्द्र ॥ ३,२४.५ ॥
स्थलेस्थले एवमेवापि कार्यं
जैगीषव्यं पुनरेवाह देवी ।
कन्योवाच ।
जैगीषव्यः श्रीनिवासो हरिस्तु
ब्रह्मादीनां दृश्यते श्रीनिवासः ॥ ३,२४.६
॥
जैगीषव्य कृपया त्वं वदस्व
जैगीषव्यो ह्येवमुक्तो हरिं तु ।
उवाच कन्यां सोमपुत्रीं सतीं च
ब्रह्मादीनां दृश्यते श्रीनिवासः ॥ ३,२४.७
॥
अनन्तरूपोधिककान्तकान्तिमान्रूद्रादीनां
दृश्यते वेङ्कटेशः ।
ससूर्यलक्षाधिककान्तकान्तितो
रुद्रादीनां दृश्यते श्रीनिवासः ॥ ३,२४.८
॥
सहस्रसूर्याधिककान्तिकान्तः
सविद्युत्त्वान्मानुषाणां रमेशः ।
ऋष्यादीनां दृश्यते चन्द्रवच्च
सन्मानुषाणामपरोक्षो हरिस्तु ॥ ३,२४.९
॥
नक्षत्रवद्दृश्यते श्रीनिवासः सदा
ऋषीणामपरोक्षो हरिस्तु ।
स सूर्यवद्दृश्यते श्रीनिवासः
संसारिणां वेङ्कटेशः खगेन्द्र ॥ ३,२४.१०
॥
संदोहवद्दृश्यते वै प्रकाशो
मिथ्यावतां दृश्यते श्रीनिवासः ।
पाषाणवन्नैल्यरूपप्रकाशः शिलामात्रे
दृष्यते वै कलौ च ॥ ३,२४.११ ॥
नृणां सर्वेषां श्रीनिवासो हरिस्तु
कलौ स्वरूपं श्रीनिवासस्य देवी ।
न मानुषाः प्रविजानन्ति सर्वे यतः
कलौ तामसा राजसास्तु ॥ ३,२४.१२ ॥
तत्संगिनः सात्त्विकाः केचिदेव
ह्यतो भक्ता दुर्लभा वै कलौ च ।
ये दृश्यन्ते भक्तवत्ते न भक्ताः
शिश्रोदरयोर्भरणे चैव सक्ताः ॥ ३,२४.१३
॥
कुर्वन्ति यात्रां च तदर्थमेव
भक्तिज्ञानं दुर्लभं वै कलौ च ।
भक्ता ये वै न विरक्ताः सदैव तेषां
हरेर्दर्शनं दुर्लभं च ॥ ३,२४.१४
॥
भक्तस्वरूपं तव वक्ष्ये खगेन्द्र यो
ज्ञानपूर्णः परमे स्निग्ध एव ।
न च द्वेषैर्बन्धुरो भक्तियुक्तस्तव
द्वेषाञ्छृणु वक्ष्ये च सम्यक् ॥ ३,२४.१५
॥
जीवाभिदा हरिणाप्राकृतेन
स्वतन्त्रेण ह्यस्वतन्त्रस्य नित्यम् ।
ज्ञानानन्दैः परिपूर्णे हरौ च
गुणैरपूर्णो हरिरित्येव चिन्ता ॥ ३,२४.१६
॥
श्रीब्रह्मरुद्रादिदिवौकसां सदा तथा
द्विजानां संमानायाश्च चिन्ता ।
विष्णोः सकाशाद्ब्रह्मरुद्रादिकानां
सदाधिक्यालोचनं द्वेष एव ॥ ३,२४.१७
॥
विष्णोर्भद्रे हस्तपादादिकानां
भेदज्ञानं द्वेषमाहुर्महान्तः ।
अवताराणा छेदभेदादिकं च तथोच्यते
मरणस्यापि चिन्ता ॥ ३,२४.१८ ॥
तद्भक्तानां द्वेषणं
चाहुरार्यास्तद्वाक्यानां दूषणं द्वेष एव ।
नच द्वेषैः संयुता ये च लोके कन्ये
दृश्यन्ते न तु भक्ताः कदाचित् ॥ ३,२४.१९
॥
कन्योवाच ।
जैगीषव्य ब्रूहि मे के च भक्ता
भक्तिं कथं दर्शयामासुरेते ।
तेषां हरिः श्रीनिवासो महात्मा
त्राता सदा भक्तवर्गे दयालुः ॥ ३,२४.२०
॥
जैगीषव्यस्त्वेवमुक्तो महात्मा उवाच
कन्यां संस्मरन् भक्तवर्यः ।
जैगीषव्य उवाच ।
प्रहादाद्या श्रीनिवासस्य भक्ताः
कृत्वा नृसिंहे चोत्तमां भक्तिमेव ॥ ३,२४.२१
॥
अवाप साम्राज्यमनुत्तमं च ज्ञानं
नृसिंहात्समवाप पश्चात् ।
पराशरः श्रीनिबासस्य भक्तो भक्तिं
कृत्वा व्यासरूपं हरिं च ॥ ३,२४.२२
॥
स्तुत्वा तेन ज्ञानतत्त्वं ह्यवाप्य
जगाम मोक्षं भक्तिसंवर्धितात्मा ।
यो नारदः श्रीनिवासस्य भक्तो भक्तिं
कृत्वा गर्भवासे हरौ च ॥ ३,२४.२३
॥
तया भक्त्या ब्रह्मपुत्रत्वमाप
ज्ञानप्राप्त्या तेन मुक्तिं जगाम ।
यो ह्यंबरीषः श्रीनिवासस्य भक्तः
कृत्वा भक्तिं परदेव हरौ च ॥ ३,२४.२४
॥
जप्त्वा ज्ञानं प्राप्य
दुर्वासकश्चाप्यवाप मोक्षं तेन संवर्धितात्मा ।
मुचुकुन्दो वै श्रीनिवासस्य भक्तो
वैराग्यतो भक्तिदार्ढ्यं च कृत्वा ॥ ३,२४.२५
॥
तत्त्वज्ञानं प्राप्य
विष्णोर्महात्मा ह्यवाप मोक्षं तेन संवर्धितात्मा ।
स पुण्डरीकः श्रीनिवासस्य भक्तः
पित्रादिष्टो विष्णुभक्तिं च कृत्वा ॥ ३,२४.२६ ॥
हरिप्रासादाज्ज्ञानमनुत्तमं
चाप्यवाप मोक्षं भक्तिसंवर्धितात्मा ।
ब्रह्मा च वायुश्च सरस्वती च
ज्ञातव्याः सर्वे ऋजुयोगिनश्च ॥ ३,२४.२७
॥
अच्छिन्नभक्ताश्च सदा मुरारेर्न
काम्यरक्ताः शुद्धरूपा हि ते च ।
गिरीशनागेशखगेशसंज्ञा देवाः
शुक्रारौ गुरुचन्द्रेन्दुसूर्याः ॥ ३,२४.२८
॥
जलेशोग्निर्मनुधर्मौ कुबेरः
विघ्नेशनासत्यमरुद्गणाश्च ।
पर्जन्यमित्रादय एव सर्वे सदा
ह्येते श्रीनिवासस्य भक्ताः ॥ ३,२४.२९
॥
विश्वामित्रो भृगुरौर्वश्च कुत्सो
मरीचिरत्रिः पुलहः क्रतुश्च ।
शक्तिर्वसिष्ठो सौतमीयो पुलस्त्यो
भारद्वाजः श्रीनिवासस्य भक्ताः ॥ ३,२४.३०
॥
मान्धाता नहुषोंबरीषसगरौ राजा
पृथुर्हैहयो इक्ष्वाकुर्भरतो ययातिसुतलौ धर्मो विकुक्षिस्तथा ।
उत्तानश्च बिभीषणो दशरथो ह्येते
महाज्ञानिनः श्रीमद्वेङ्कटनायकस्य च गुरोर्भक्ताः सदा संस्मृताः ॥ ३,२४.३१ ॥
भागीरथी समुद्रश्च यमुना च सरस्वती
।
गोदावरी नर्मदा च कृष्णा भीमरथी तथा
॥ ३,२४.३२ ॥
सरयूफल्गुकावेरीगण्डकी कपिला स्तथा
।
इत्येताश्च हरेर्भक्ताः संति
चात्रैव भामिनि ॥ ३,२४.३३ ॥
अभिप्रायं तत्र वक्ष्ये शृणु कन्ये
मया सति ।
यत्र प्रवर्तते मार्गे कथा
विष्णोर्महात्मनः ॥ ३,२४.३४ ॥
वर्तन्ते वैष्णवा यत्र
हरितत्त्वार्थबोधकाः ।
तत्रैव भक्ताः सर्वेपि संति
विष्णोस्तथैव च ॥ ३,२४.३५ ॥
ये देवयात्रां परमात्मचिन्तया
कुर्वन्ति ते हरिभक्ताश्च नान्ये ।
यतो हरौ परमे वैष्णवानां सर्वं
निष्ठामेति कृत्यं खगेन्द्र ॥ ३,२४.३६
॥
शेषाचलं समासाद्य
ह्यन्नवस्त्रादिभूषणम् ।
यो न दद्यादभक्तः स ततः को नु परः
पशुः ॥ ३,२४.३७ ॥
भक्ता हरेः श्रीनिवासाचले च
गङ्गादिरूपेण च तत्रतत्र ।
तिष्ठन्ति सेवार्थमुरुक्रमस्य तेषां
पूजा नैव कार्या च देवि ॥ ३,२४.३८
॥
अभिप्रायं तत्र वक्ष्ये शृणु त्वं
तत्र स्थले वस्त्रगन्धादिधूपैः ।
पुराणोक्ता अपि भेदेन पूज्या
दृष्ट्वा च तान्वन्दयेत्प्राज्ञ एव ॥ ३,२४.३९
॥
सद्ब्राह्मणान्वन्दयेत्पादमूले
हस्तौ च द्वौ संपुटीकृत्य देवि ।
साष्टाङ्गरुपं वन्दनं चैव विष्णोः
कुर्यात्तथा गुरवे विष्णुबुद्ध्या ॥ ३,२४.४०
॥
गङ्गादीनां वन्दनं कार्यमेव
साष्टाङ्गं वै तुलसीनां तथैव ।
अश्वत्थानां नमनं कार्यमेव गवादीनां
नमनं मानसेन ॥ ३,२४.४१ ॥
पूजा सदा देवदेवस्य विष्णोः कार्या
भक्त्या वैष्णवैरेव नान्यैः ।
ये नामका ज्ञानवन्तः सुभक्ताः सदैव
कार्या विष्णुपूजा च कन्ये ॥ ३,२४.४२
॥
ये नामका ज्ञानवन्तः सुभक्ताः सदैवं
कार्या विष्णुपूजा च कन्ये ।
येनामका विष्णुभक्ताः सदैव पूजा
विष्णोर्नैव कार्यात्र देवि ॥ ३,२४.४३
॥
मोहाद्यो वै पूजयेद्देवदेवं
महाधर्माद्याति चान्धं तमो वै ।
ब्रह्मादिनामानि हरेर्हि देवीं
विष्णोः स्वनामानि ददौ दिवौकसाम् ॥ ३,२४.४४
॥
नादाद्धीरः केशवादीनि कन्ये स्वकं
पुरं प्रविहायैव राजा ।
एवं मयोक्तं कन्यके सर्वमेतदेतत्परं
सम्यगारोहणीयम् ॥ ३,२४.४५ ॥
गोविन्द नारायण माधवेति यूयं मया
सर्वमाराधितव्यम् ।
सर्वे मिलित्वा पुनरेवं खगेन्द्र
समारुहन्वैङ्कटाद्रिं गृणन्तः ॥ ३,२४.४६
॥
हरेर्नामान्यत्र पूर्वं
गृणन्तस्त्वास्वादयन्तः श्रीनिवासस्य नाम ।
द्रष्टुं सर्वे श्रीनिवासं तथैव
कुर्वन्तस्ते तलशब्दं नदन्तः ॥ ३,२४.४७
॥
इति कृष्णवचः श्रुत्वा तार्क्ष्यः
कृष्णमुवाचह कथमास्वादनं चक्रुरेतद्विस्तीर्यमे वद ।
श्रीकृष्ण उवाच ।
भो श्रीनिवास तव नामैव चैतन्नाम
स्वामी ननु नामैव स्वामी ।
यां ब्रह्माद्या आश्रयन्तीत्ति
यस्मात्तस्माद्रमा श्रीरिति नाम चाप ॥ ३,२४.४८ ॥
रमाश्रयत्वान्नितरां सर्वदा चेत्यतो
हरिः श्रीनिवासाभिधानः ।
भो श्रीनिवासेति तु नर्तयन्तो
रोमाञ्चमात्रास्तलशब्दकारिणः ॥ ३,२४.४९
॥
अद्यैव पश्याम हरेस्तवास्यं कदा वयं
कृत कृत्या भवामः ।
भोः केशवाद्यैव पदारविन्दं
संदर्शयित्वा सुदयां कुरुष्व ॥ ३,२४.५०
॥
ब्रह्माणमाहुश्च पुराणमाहुः
कशब्दवाच्यं सर्वलोकेशमाहुः ।
ईशं चार्हं रुद्रमित्येव
चाहुस्तत्प्रेरकं सृष्टिसंहारकार्ये ॥ ३,२४.५१ ॥
अतो हरिः केशवनामधेयो भोः केशवेति च
नर्तयन्तः ।
आनन्दवापीं संस्त्रवन्तोभि
जग्मुर्नारायणेति प्रवदन्तो हि जग्मुः ॥ ३,२४.५२ ॥
अतो दोषास्तद्विरुद्धा गुणाश्च
नाराश्च तेषामाश्रयत्वान्मुरारिः ।
नारायणेति प्रवदन्तीह लोके
नारानुबन्धात्सर्वमुक्ताः खगेन्द्र ॥ ३,२४.५३
॥
नाराः प्रोक्ता आश्रयत्वाच्च
तेषामतोपि नारायण एव वीन्द्र ।
मुक्ताश्च ये तु प्रपदंनु
जग्मुरण्डोदकं यस्य कटाक्षमात्रात् ॥ ३,२४.५४
॥
यदुत्पन्नं तेन नाराः खगेन्द्र
तेषां सदाप्याश्रयत्वाच्च वीन्द्र ।
नारायणेति प्रवदन्तीह लोके
ह्यनन्तब्रह्माण्डविसर्जकत्वात् ॥ ३,२४.५५
॥
एवं ननृतुः परिशंसयन्तो गोविन्द
नान्यो हि न चैव दर्शनम् ।
गोशब्दवाच्यास्तु समस्तवाचो गोभिश्च
सर्वैः प्रतिपाद्यते यतः ॥ ३,२४.५६
॥
अतो हि गोविन्द इति स्मृतः सदा भो
वेदवेद्येति तथा न ननृतुः ।
आनन्दबाष्पैश्च समन्विता हि हरे
मुरारे तव दर्शनं हि ॥ ३,२४.५७ ॥
देहि प्रभो वै तवदासदासाश्चतुर्दशे
भुवने सर्वदापि ।
यतस्त्वमेवं वसतीति वासुश्चात्रैव
नित्यं क्रीडते सर्वदैव ॥ ३,२४.५८
॥
यतो देवेत्येवमाहुर्महान्तस्त्वतो
हरिं वासुदेवेति चाहुः ।
भो वासुदेवेति ननृतुः सर्वदैव भो
माधवेति ननृतुश्चैव सर्वे ॥ ३,२४.५९
॥
लक्ष्मीपते चेति वदन्ति सर्वे धनीति
शब्दः स्वाभिवाची यतो हि ।
अतोप्यार्या माधवेति ब्रुवन्ति
लक्ष्मीपते पाहि तथैव भक्तान् ॥ ३,२४.६०
॥
ते वै ब्रुवन्तो ननृतुश्च
जग्मुर्विष्णो सदास्मान्परिपाहि नित्यम् ।
सर्वत्र यस्माद्विततोसि
तस्मादित्यादिनामानि गृणन्त एव ।
जग्मुश्च सर्वे ददृशुश्च तीर्थं
भक्त्योपेताः श्रीनिवासं स्मरन्तः ॥ ३,२४.६१
॥
कन्योवाच ।
किं नामकं तीर्थमिदं मुनीन्द्र किं
कार्यमत्र प्रवदास्मान्कृतीश ।
कस्मै प्रसन्नो
भगवाञ्छ्रीनिवासस्त्वस्मिन्सुतीर्थं वद विस्तरेण ॥ ३,२४.६२ ॥
जैगीषव्य उवाच ।
कन्ये शृणु त्वं ह्यभवत्सुबुद्धिमान्प्रह्रादसंज्ञो
हरिभक्तवर्यः ।
निष्कामबुद्ध्या तु यदा जगाम
शेषाचलस्थं श्रीनिवासं च द्रष्टुम् ॥ ३,२४.६३
॥
अस्मिंस्थले दैत्यकुमारकान्प्रति
हरेश्च तत्त्वं परिपृष्टवान्प्रभुः ।
नृसिंहरूपं श्रीनिवासं भजस्व
सुदुर्लभं मानुषं जन्म कन्ये ॥ ३,२४.६४
॥
तत्रापि विष्णोर्नृहरे सुतत्त्वं
सुदुर्लभं सुष्ठु यात्रा तथैव ।
यस्यां यात्रायां यत्र कुत्रापि
देशे हरेः कथा वर्तते दैत्यवर्याः ॥ ३,२४.६५
॥
तत्र स्थले हरिरास्ते सदैव यतो
व्याप्तः सर्वतो वै नृसिंहः ।
एतच्छ्रुत्वा दैत्यकुमारकास्ते
प्रह्लादमूचुर्भक्तवर्यं हरेश्च ॥ ३,२४.६६
॥
व्याप्तो हरिश्चेत्कथमत्र वै सखे न
दृश्यते जलरूपी नृसिंहः ।
स एवमुक्तो दानवानां सुतैश्च
तुष्टाव विष्णुं परमादरेण ॥ ३,२४.६७
॥
तव स्वरूपं मम दर्शयस्व
स्वयोग्यरूपं दानवानां सुतानाम् ।
इति स्तुतः श्रीनिवासो हरिस्तु
तस्मिन्नन्तर्जलरूपं समायात् ॥ ३,२४.६८
॥
अस्मिन्स्नानं ये प्रकुर्वन्ति
तीर्थे तेषां ज्ञानं परमं दृढं स्यात् ।
अत्र स्नाने मानुषाणां च तात
बुद्धिर्न हि स्यात्कलिकाले विशेषात् ॥ ३,२४.६९ ॥
दत्त्वां वरं दैत्यवराय
विष्णुरन्तर्दधे जलपूर्णे सुकुण्डे ।
अद्याप्यास्ते जलमध्ये नृसिंहः
प्रह्लादोपि दैत्यकुमारकैः सह ॥ ३,२४.७०
॥
तस्मिन् सुतीर्थे परितस्तत्रतत्र
जयेति शब्दः श्रूयते चापराह्ने ।
इदं तीर्थं नारसिंहाभिधं च
कन्येस्नानं ह्यत्र कार्यं मनुष्यैः ॥ ३,२४.७१ ॥
स्नानं कृत्वा तत्र तीर्थे च
सम्यग्दीपं दत्त्वा द्विजवर्याय मुख्यम् ।
द्रष्टुं पुनः श्रीनिवासं प्रजग्मुर्गोविन्दगोविन्द
इति ब्रुवन्तः ॥ ३,२४.७२ ॥
मुख्यप्राणाधिष्ठितं स्थानमाप्य
अपाविशत्तत्र देवी ह्युवाच ।
जैगीषव्यः श्रीनिवासस्य विष्णोः कथं
कार्यं दर्शनं तद्वदस्व ॥ ३,२४.७३
॥
जैगीषव्यः प्राह संहृष्टचित्तो
ब्रवीमि तन्त्रं शृणु कन्यके त्वम् ।
श्रुत्वा मत्तः कुरु सर्वं
मयोक्तमाद्यं द्वारं श्रीनिवासस्य दृष्ट्वा ॥ ३,२४.७४ ॥
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं
मया ।
तानि सर्वाणि मे देव क्षमस्व
पुरुषोत्तम ॥ ३,२४.७५ ॥
मानसान्वाचिकान्दोषान्कायि कानपि
सर्वशः ।
वैष्णवद्वेषहेतून्मे भस्मसात्कुरु
माधव ॥ ३,२४.७६ ॥
आद्यद्वारं श्रीनिवासस्य देवि
सम्यक्स्मरेद्विजयं वै जयं च ।
दक्षाध्वरे श्रीनिवासस्य देवि चण्डं
प्रचण्डं संस्मरेत्सम्यगेव ॥ ३,२४.७७
॥
पाश्चात्यभागे श्रीनिवासस्य देवि
नन्दं सुनन्दं संस्मरेदेव भक्त्या ।
सव्यद्वारे श्रीनिवासस्य कन्ये
स्मरेत्कुमुदाक्षं कुमुदन्तमेव ॥ ३,२४.७८
॥
यश्चैव देहं प्रविशेद्भक्तिपूर्वं
कदा द्रक्ष्ये सादरेणैव देवि ।
प्रदक्षिणद्वादशकं च कृत्वा पदे पदे
संस्मरेच्छ्रीनिवासम् ॥ ३,२४.७९ ॥
श्रीस्वामितीर्थे सम्यगाचम्य नत्वा
स्नात्वा नत्वा भूवराहं च देवि ।
अयुद्वारं प्रिवशेद्भक्तिपृर्वं
गोविन्दगोविन्द इतिब्रुवन्वै ॥ ३,२४.८०
॥
पश्चाद्धरेर्नमनं कार्यमेव
साष्टाङ्गरूपं प्रविशेद्देवगेहम् ।
पुनर्विशेद्वारतः संस्थितः स
पीठस्थदेवान्मानसा चिन्तयीत ॥ ३,२४.८१
॥
मध्ये पीठं श्रीनिवासं च देवी
नारायणं प्रणमेत्पूर्णमेव ।
देवस्य सव्ये पीठभागाद्वहिश्च
नमस्कार्यं गुरुदेवाय चैव ॥ ३,२४.८२
॥
पीठस्याग्राच्चाप्यधस्तात्प्रदेशे
आग्नेयकोणे प्रणमेद्वै खगेन्द्र ।
नैरृत्यभागे व्यासदेवाय देवि
नमस्कार्यो वैष्णवः सर्वदापि ॥ ३,२४.८३
॥
वायव्यकोणे भक्तिपूर्वं सुदुर्गां
नमस्कुर्याद्भक्तिसंवर्धितात्मा ।
पीठस्योर्ध्वं ह्यग्निकोणेषु देवी
धर्माधिभूताय नमो यमाय ॥ ३,२४.८४
॥
पीठस्योर्ध्वं नैरृतस्योर्ध्वकोणे
ज्ञानाधिपं प्रणमेद्वायुदेवम् ।
पीठस्योर्ध्वं वायुकोणे च
सुभ्रूर्वैराग्यानामधिपं चैव रुद्रम् ॥ ३,२४.८५ ॥
पीठस्योर्ध्वं त्वीशकोणे च देवि
ऐश्वर्याणामधिपं चेन्द्रदेवम् ।
पीठस्य पूर्वे प्रणमेन्नैरृतिं च अर्याम्णानामधिपं
चात्र देवि ॥ ३,२४.८६ ॥
देवस्य पीठस्य च दक्षिणे च दुर्गां
नमेदुग्ररूपाभिधां च ।
पीठस्य कन्ये प्रणमेत्पश्चिमे वै
आरोग्याणा मधिपं कामदेवम् ॥ ३,२४.८७
॥
देवस्य पीठस्योत्तरे
रुद्रदेवमनैश्वर्याणामधिपं संस्मरेच्च ।
पीठस्य मध्ये प्रणमेद्वै वराहं सदा
कन्ये परमं पूरुषाख्यम् ॥ ३,२४.८८
॥
तस्योपरिष्टाच्छक्तिसंज्ञां च
लक्ष्मीमाधाररूपां प्रणमेच्चैव नित्यम् ।
तस्योपरिष्टाद्वायुकूर्मौ नमेच्च
तस्योपरिष्टाच्छेषकूर्मौ नमेच्च ॥ ३,२४.८९
॥
तस्योपरिष्टादभिमानिनीं भुवो
भूदेवतां प्रणमेच्चैव सुभ्रूः ।
तस्योपरिष्टाद्वरुणं संस्मरेच्च
क्षीरोदधेरधिपं चैव देवम् ॥ ३,२४.९०
॥
तस्योपरिष्टात्प्रणमेच्चैव लक्ष्मीं
श्वेतद्वीपाख्यं कन्यके पूजयेच्च ।
तस्योपरिष्टात्प्रणमेच्चैव लक्ष्मीं
महादिव्यां मण्डपसंज्ञकां च ॥ ३,२४.९१
॥
पीठस्य मध्ये यमसंज्ञां च लक्ष्मीं
समर्चयेद्यममध्ये च देवीम् ।
यमस्य देवस्य च दक्षिणे च सूर्यं
नमेद्दीपरूपं च भद्रे ॥ ३,२४.९२ ॥
यमस्य देवस्य च वामभागे श्रियं
नमेद्दीपरूपां च देवीम् ।
यमस्य देवस्य तु चाग्रभागे हुताशनं
दीपरूपं नमेच्च ॥ ३,२४.९३ ॥
देवस्याग्रे भूमिनाम्नीं नमेच्च
तत्त्वाभिमानां संस्मरेच्चैव नित्यम् ।
पर्यङ्करूपं श्रीनिवासस्य
विष्णोस्तमोभिमानां सन्नमेच्चैव दुर्गाम् ॥ ३,२४.९४ ॥
पूर्वादिगं पीठसोपानरूपमात्मानमेकं
प्रणमेच्च देवि ।
दक्षस्थदिक्पीठसोपानरूपं
ज्ञानात्मकं प्रणमेच्चैव कन्ये ॥ ३,२४.९५
॥
पद्मस्य पूर्वस्थदले च देवि
स्त्रीरूपाख्यं विमलाख्यामिमां च ।
ब्रह्मादिदेवान्प्रणमेच्च देवि
आग्नेयकोणस्थदले शृणुत्वम् ॥ ३,२४.९६
॥
उत्कर्षनाम्नीं परमां च देवीं
नमेद्रमां ब्रह्मवायू च शेषम् ।
दक्षस्थपद्मस्य दलाष्टके च
नारायणाकारशेषादिकानाम् ॥ ३,२४.९७
॥
स्त्रीरूपेभ्यो नमनं कार्यमेव कन्ये
मया पश्चिमस्थे दले च ।
गोपाख्यनारायणब्रह्मवायुविप्रादिकानां
शेषरूद्रादिकानाम् ॥ ३,२४.९८ ॥
स्त्रीरूपेभ्यो नमनं कार्यमेव ईशान
कोणस्थदलेषु चैव ।
ईशाननारायणमाविरिञ्चवायुर्वियच्छेषसुरादिकानाम्
॥ ३,२४.९९ ॥
स्त्रीरूपेभ्यो नमनं कार्यमेव तथैव
पद्मस्य च मध्यभागे ।
अनुग्रहाख्या विष्णुलक्ष्मीश्च देवी
वायुर्वियच्छेषरुद्रादिकानाम् ॥ ३,२४.१००
॥
स्त्रीरूपाणां नमनं कार्यमेव
सुयोगपीठस्य स्वरूप भूतम् ।
सदा नमेच्छ्रीमदनन्तसंज्ञमेवं न
मेच्छ्रीनिवासं च देवम् ॥ ३,२४.१०१
॥
श्रीनिवासस्य वामे तु लक्ष्मीं च
प्रणमेद्वुधः ।
श्रीनिवासस्य सव्ये तु धरायै
प्रणमेच्छुभे ॥ ३,२४.१०२ ॥
पीठाद्वहिः पूर्वभागे कृपोल्कं
प्रणमेच्छुभम् ।
महोल्कं दक्षिणे चैव वीरोल्कं
पश्चिमे नमेत् ॥ ३,२४.१०३ ॥
उत्तरे च नमः कुर्याद्युल्काय च
महात्मने ।
चतुर्ष्वपि च कोणेषु सहस्रोल्कं
नमेत्सुधीः ॥ ३,२४.१०४ ॥
पूर्वे तु वासुदेवाय नमस्कुर्याच्च
दक्षिणे ।
संकर्षणाय देवाय प्रद्युम्नाय च
पश्चिमे ॥ ३,२४.१०५ ॥
उत्तरे ह्यनिरुद्ध्या
नमस्कुर्यादतन्द्रितः ।
आग्नेये च नमस्कुर्यात्कन्ये मायां
सदा शुभे ॥ ३,२४.१०६ ॥
जयायै च नमस्कुर्यान्नैरृत्ये चापि
वायवे ।
कृत्ये चैव नमस्कुर्यादीशान्ये
शान्तिसंज्ञकाम् ॥ ३,२४.१०७ ॥
केशवाय नमः पूर्वे तथा नारायणाय च ।
माधवाय नमस्कुर्यान्नैरृत्ये चापि
वायवे ॥ ३,२४.१०८ ॥
आग्नेये कन्यके नित्यं भक्त्या तु
प्रयतः शुभे ।
गोविन्दाय नमस्कुर्याद्दक्षिणे
विष्णवे तथा ॥ ३,२४.१०९ ॥
मधुसूदनाय भोः कन्ये नमस्कुर्यात्तु
नैरृतौ ।
पश्चिमे त्रिविक्रमाय वामनाय तथैव च
॥ ३,२४.११० ॥
विष्णवे श्रीधरायाथ नमस्कुर्याच्च
भामिति ।
उत्तरे तु महाकन्ये हृषीकेशाय वै
नमः ॥ ३,२४.१११ ॥
तथा वै पद्मनाभाय
नमस्कुर्यादतन्द्रितः ।
दामोदराय चैशान्ये नमस्कुर्याच्च
भामिनि ॥ ३,२४.११२ ॥
चतुर्थावरणे पूर्वे महाकूर्माय वै
नमः ।
वराहाय नमस्कुर्यादाग्नेये कन्यके
शुभे ॥ ३,२४.११३ ॥
दक्षिणे नारसिंहाय वामनाय नमोनमः ।
भार्गवाय नमस्कुर्यान्नैरृत्ये
शुद्धचेतसा ॥ ३,२४.११४ ॥
पश्चिमे माधवायाथ तथा कृष्णाय वै
नमः ।
बुद्धाय च नमस्कुर्याद्वायव्ये
कन्यके शुभे ॥ ३,२४.११५ ॥
उत्तरे ह्युल्करूपाय अनन्ताय
नमोस्तु ते ।
ईशान्ये विश्वरूपाय
नमस्कुर्यादतन्द्रितः ॥ ३,२४.११६ ॥
आग्नेये वारुणीं चैव गायत्रीं चैव
नैरृते ।
वायव्ये भारतीं चैव ईशान्ये गिरिजां
नमेत् ॥ ३,२४.११७ ॥
गिरिजां वामभागे तु सौपर्णै चैव
संनमेत् ।
प्रागिन्द्राय नमस्कुर्यात्सायुधाय
तथैव च ॥ ३,२४.११८ ॥
स परिग्रहाय श्रीविष्णोः पार्षदाय
नमोनमः ।
आग्नेयेत्यग्नये तुभ्यं सायुधायेति
पूर्ववत् ॥ ३,२४.११९ ॥
दक्षिणे तु यमायैव नैरृत्यां
निरृतिं यजेत् ।
पश्चिमे वरुणायैव वायव्ये वायवे नमः
॥ ३,२४.१२० ॥
उत्तरे च कुबेराय ईशान्ये च शिवाय च
।
ईशानशक्रयोर्मध्ये ब्रह्मणे सायुधाय
च ॥ ३,२४.१२१ ॥
निरृत्यप्यतिमध्ये तु शेषाय च
नमोनमः ।
एवं कृत्वा नमस्कारं प्रणमेच्च पुनः
पुनः ॥ ३,२४.१२२ ॥
इत्येतत्सर्वमाख्यातं विधिपूर्वं तु
दर्शनम् ।
इतः परन्तु गन्तव्यं दर्शनार्थं
रमापते ॥ ३,२४.१२३ ॥
एवमुक्त्वा तु सा देवी तैः सार्धं
तु ययौ मुदा ।
यदुक्तः श्रीनिवासस्य दर्शनस्य
विधिः खग ।
कस्यचिन्नैव वक्तव्यो गोप्यत्वाच्च
कदाचन ॥ ३,२४.१२४ ॥
समागमो दुर्घट एव वीन्द्र सतां च
सत्तत्त्वविबोधकानाम् ।
अनेकजन्मार्जितपुण्यसंचयादभूद्गुरोः
संगम एव तस्य ॥ ३,२४.१२५ ॥
पयो विकारं च निजं जहाति शेषस्य
शेषं नलिनस्य षङ्कजम् ।
भावं चलं
पङ्कजनाभयोगात्सत्संगयोगादशुभानि न स्युः ॥ ३,२४.१२६ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे श्रीवेङ्कटेशगिर्यारोहण क्रमतद्भक्त तत्पर्वतनामादिनिरूपणं
नाम चतुर्विशोऽध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २५
अध्यायः २५ श्रीगरुडमहापुराणम्
सा द्वारदेशे श्रीनिवासस्य देवी
स्वामिपुष्करिणीं ददृशे कैश्च सार्धम् ।
स्वामिन्हरे श्रीनिवासेति सा तं
ब्रह्मादीनां तारकं सम्प्रदध्यौ ॥ ३,२५.१
॥
देवैः सार्धं पालनार्थं च
विष्णुरस्त्येव नित्यं पुष्करिण्यां जलेषु ।
अतः स्वामिपुष्करिणीति चाहुस्तत्र
स्नानं कन्यकान्याश्च चक्रुः ॥ ३,२५.२
॥
शुचिर्भूत्वा श्रीनिवासं च
देवास्तुप्तुं विविशुः शुद्धभक्त्या खगेन्द्र ।
यथोपदिष्टं गुरुणा तथैव चक्रे
कन्याश्च सर्वं खगेन्द्र ॥ ३,२५.३
॥
तदा हरिं दर्शयामास तस्यै स्वकं
रूपं सुप्रतीके सुपूर्णम् ।
सा कन्यका श्रीनिवासस्य रूपं ददर्श
भक्त्या स्वमनोभिरामम् ॥ ३,२५.४
॥
सुवर्णचित्रं वसनं वसानं सोष्णीषकं
कञ्चुकं संदधानम् ॥ ३,२५.५ ॥
मृगोत्थमदगन्धेन सुरभीकृतदिङ्मुखम्
।
पुण्डरीकविशालाक्षं कंबुग्रीवं
महाभुजम् ॥ ३,२५.६ ॥
हेमयज्ञोपवीताङ्गं
साक्षात्कन्दर्पसन्निभम् ।
जगन्मोहनसैन्दर्यं कोमलाङ्गं
मनोहरम् ॥ ३,२५.७ ॥
दृष्ट्वा च कन्या मुमुदे
रोमाञ्चितसुगात्रका ॥ ३,२५.८ ॥
तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशया
प्रेम्णाथ रोमाश्रुकुलाकुलेक्षणा ।
ननर्त देवी पुरतस्तस्य विष्णोः सा
ध्वस्तदोषा परमादरेण ।
आनन्द मां पाहि सुखं च दत्त्वा
मुकुन्दा मां पाहि विमुक्तिदानात् ॥ ३,२५.९
॥
मां पाहि नित्यं ह्यरविन्दनेत्र
प्रसन्नदृष्ट्या करुणासुधार्द्र ।
गोविन्द गोविन्द सुदुः खितां मां
ज्ञानादिदानेन हि पाहि नित्यम् ॥ ३,२५.१०
॥
जनार्दन त्वं हि
सुदुष्टसंगान्कामादिरूपान्सततं वर्जयित्वा ।
हरे हरे मां सततं पाहि दैत्यान्समाहृत्य
प्रबलान्विघ्नरूपान् ॥ ३,२५.११ ॥
रमेश मां पाहि चतुर्मुखेश विश्वेश
मां पाहि सरस्वतीश ।
रमेश मां पाहि निदानमूर्ते
वृन्दारवृन्दैर्वन्दितपादपद्म ॥ ३,२५.१२
॥
एवं तु नत्वा परमादरेण तुष्टाव
विष्णुं परमं पुराणम् ।
लक्ष्म्या सदा येऽविदिता गुणाश्च
असंख्याताः संति विष्णौ च वीश ॥ ३,२५.१३
॥
तेषां सकाशादतिबाहुल्यसंख्या गुणा
हरौ तेऽविदिता वै रमायाः ।
अतो हरे स्तवने क्वास्ति
शक्तिस्तथापि यत्नं स्तवने ते करिष्ये ॥ ३,२५.१४ ॥
तव प्रसादाच्च
रमाप्रसादाद्विधिप्रसादात्भारतीशप्रसादात् ।
रुद्रप्रसादात्स्तवनं ते करिष्ये
तथापि विष्णो मयि शान्तिं कुरुष्व ॥ ३,२५.१५
॥
यदि प्रसन्नोसि मयि त्वमीश
त्वत्पादमूले देहि भक्तिं सदैव ।
त्वद्दर्शनाद्देव शुभाशुभं च नष्टं
मदीयं ह्यशुभं च नित्यम् ॥ ३,२५.१६
॥
त्वन्मायया नष्टमिमं च लोकं मदेन
मत्तं बधिरं चान्धभूतम् ।
ऐश्वर्ययोगेन च यो हि मूको जातः सदा
दीनागुर्वादिकेषु ॥ ३,२५.१७ ॥
मा देहि ऐश्वर्यमनुत्तमं
त्वत्पादारविन्दस्य विरुद्धभूतम् ।
त्वं देव मे देहि सतां च संगं तव
स्वरूपप्रतिपादकानाम् ॥ ३,२५.१८ ॥
पुत्रादीनामैहिकं वासुदेव दग्ध्वा च
मे देहि पादारविन्दे ।
सद्वष्णवे क्रियमाणं च कोपं दग्ध्वा
च मे देहि पादरविन्दे ॥ ३,२५.१९ ॥
द्रव्यादिके क्रियमाणं च लोभं
दग्ध्वा वै मे देहि पादाब्जमूले ।
पुत्रादिके क्रियमाणं च मोहं
दग्ध्वा च मे देहि पादाब्जमूले ॥ ३,२५.२०
॥
विद्यां पुत्रं द्रव्यजातं मदं च
दग्ध्वा च मे देहि पादाब्जमूले ।
सद्वैष्णवासहमानस्वरूपं दग्ध्वा मात्सर्यं
पाहि मां वेङ्कटेश ॥ ३,२५.२१ ॥
मन्त्रं च मे देहि निदानमूर्ते
येनैव मे स्यात्तव संगश्च भूयः ।
नान्यं वृणे तव पादाब्जसंगात्तदेव
मे देहि मम प्रसन्नः ॥ ३,२५.२२ ॥
इतीरितः श्रीनिवासः प्रसन्न उवाच
देवो ह्यमृतस्त्रवं च ।
अत्रैव कन्ये प्रजपस्व मन्त्रं
सुगोप्यरूपं परमादरेण ॥ ३,२५.२३ ॥
वक्ष्यामि मन्त्रं परमादरेण
शृण्वद्य भक्त्या परमादरेण ।
अन्तः स्थमन्त्यं ह्याद्यसंयुक्तमेव
सबिन्दु तद्वत्स्पर्शकाद्येन युक्तम् ॥ ३,२५.२४ ॥
एकारयुक्तं प्रथमान्तः स्थयुक्तं
समत्रिकोणे चोष्मणा संयुतं च ।
तकारसक्तं स्वर्शमन्तः स्थयुक्तमाद्यन्त
ओंकारसमन्वितं च ॥ ३,२५.२५ ॥
अनेन मन्त्रेण तवेप्सितं च भवेद्धि
कन्ये नान्त्र विचार्यमस्ति ।
एवं स उक्त्वा श्रीनिवासो हरिस्तु
प्रतीकवद्दर्शयामास रूपम् ॥ ३,२५.२६
॥
नत्वा तु सा श्रीनिवासं च देवी उवास
ह स्वामिसरः समीपे ।
तस्मिन्दिने ब्राह्मणादींश्च सर्वान्संतर्पयामास
च षड्रसान्नैः ॥ ३,२५.२७ ॥
सायङ्काले श्रीनिवासस्य दृष्ट्वा
उत्साहरूपैः श्रीनिवासप्रतीकैः ।
साकं भक्त्या संप्रणम्याथ देवी
प्रदक्षिणं श्रीनिवासस्य सुष्ठु ॥ ३,२५.२८
॥
ननर्त देवी सुप्रतीकस्य चाग्रे
लज्जां त्यक्त्वा जय देवेति चोक्त्वा ।
आनृत्तकाले च हरेश्च वक्त्रं
दृष्ट्वा च दृष्ट्या तु परं ननर्त ॥ ३,२५.२९
॥
ममाद्य गात्रं पावितं श्रीनिवास
ममाद्य नेत्रं सफलं संबभूव ।
ममाद्य पादौ सार्थकौ चैव जातौ
प्रदक्षिणं श्रीनिवासेश कृत्वा ॥ ३,२५.३०
॥
हस्तौ च मे सार्थकावद्य जातौ अग्रे
कृत्वा हस्तशब्दं मुरारेः ।
एवं वदन्ती प्रीणयन्ती च देवं
जगामसा स्तोत्रवचः कदम्बैः ॥ ३,२५.३१
॥
देवास्तदा दुन्दुंभयो विनेदिरे
तन्मस्तके पुष्पवृष्टिं च चक्रुः ।
तस्मिन्काले उभयोः पार्श्वयोश्च
नृत्यं चक्रुर्देवतावारनार्यः ॥ ३,२५.३२
॥
तथैव तास्तलशब्दं च कृत्वा तदा
सर्वा नमनं चापि चक्रुः ।
आनन्दशैले सर्वदा त्वित्थमेव सा
सर्वदा नर्तयन्ती च वीन्द्र ॥ ३,२५.३३
॥
आनन्दमग्ना सापि देवी जगाम
स्वमाश्रमं जैगिषव्येण सार्धम् ।
यात्रामेवं ये न कुर्वन्ति वीन्द्र
तेषां च सर्वं निष्फलं चाहुरार्याः ॥ ३,२५.३४
॥
गत्वाश्रमं जैगिषव्येण सार्धं गुरुं
त्वपृच्छद्वेङ्कटेशस्य मन्त्रम् ।
मन्त्रस्यार्थं ब्रूहि मे जैगिषव्य
मन्त्रावृत्तिं कुर्वतां वै फलाय ॥ ३,२५.३५
॥
जैगीष्व्य उवाच ।
शृणुष्व भद्रे वेङ्कटे शस्य
नाम्नस्त्वर्थं श्रुत्वा हृदये संनिधत्स्व ॥ ३,२५.३६ ॥
विति ह्युत्तमवाची स्याद्येति
ज्ञानमुदाहृतम् ।
ककारः सुखवाची स्याट्टेति
चित्तमुदाहृतम् ॥ ३,२५.३७ ॥
ईशत्वमात्मवाचि स्यादेवं ज्ञेयं तु
कन्यके ।
पूर्णज्ञानं सुखं वित्तं
व्याप्तत्वाद्व्यङ्कटाभिधः ॥ ३,२५.३८
॥
व्य (वे) मिन्द्रियादिकं प्रोक्तं
व्यङ्गभूतं हरौ यतः ।
कटश्च समुदायार्थो व्यं (वें)
कटश्चेन्द्रियौघकः ॥ ३,२५.३९ ॥
स्वस्मिन्प्रेरयते
यस्मात्तस्माद्व्यङ्कटनामकः ।
विषये प्रेषयेन्नित्यमतो
व्यङ्कटनामकः ॥ ३,२५.४० ॥
विशिष्टज्ञानरूपत्वाद्व्येति
मुक्ताः सदा स्मृताः ।
मुक्तानां च समूहस्तु व्यङ्कटेति
प्रकीर्तितः ॥ ३,२५.४१ ॥
सदा
मुक्तसमूहानामीशत्वाद्व्यङ्कटाभिधः ।
लिङ्गदेहमतो जीवो व्यङ्कटेति
समाहृतः ॥ ३,२५.४२ ॥
लिङ्गानां चैव
स्वामित्वाद्व्यङ्कटेशेति संज्ञितः ।
दैत्यानां च समूहास्तु
ज्ञानादिविधुरा यतः ।
अतो दैत्यसमूहस्तु व्यङ्कटेति
प्रकीर्तितः ॥ ३,२५.४३ ॥
तेषां संहरणे ईशस्त्वतो
व्यङ्कटनामकः ।
आनन्दस्य विरुद्धत्वात्कामक्रोधादयो
गुणाः ॥ ३,२५.४४ ॥
व्यङ्कटा इति संप्रोक्तास्तेषां
नाशयिता प्रभुः ।
अतस्तु व्यङ्कटेशाख्य एवं ज्ञात्वा
जपं कुरु ॥ ३,२५.४५ ॥
एवं व्यङ्कटामाहात्म्यं श्रुत्वा
देवी खगेश्वर ।
निद्रां चकार तत्रैव रात्रौ पित्रा
सहैव च ।
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थयि हृदि सस्मार
कन्यका ॥ ३,२५.४६ ॥
(व्यङ्कटेशस्य प्रातः
स्तुतिः) ।
श्रीव्यङ्कटेशश्च नृसिंहमूर्तिः
श्रीवरदराजश्च वराहमूर्तिः ।
श्रीरङ्गशायी च अनन्तशायी कुर्वन्तु
सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ३,२५.४७ ॥
श्रीकृष्णमूर्तिश्च गदाधरश्च
श्रीविष्णुपादस्तु प्रयागवासः ।
नारायणः श्रीबदरीनिवासः कुर्वन्तु
सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ३,२५.४८ ॥
दामोदरो वै त्रिजगन्निवासः
श्रीपाण्डुरङ्गश्च नृसिंहदेवः ।
श्रीरामदेवश्च अमोघवासः कुदृ ॥ ३,२५.४९ ॥
श्रीधर्मपुत्रश्च नृसिंहमूर्तिः
श्रीपिप्पलस्थश्च मुहल्लवासः ।
कोलानृसिंहः शूर्पकारस्थ सिंहः
कुर्वन्तुदृ ॥ ३,२५.५० ॥
चतुर्मुखश्चारुसरस्वती च स्वभारती
शर्वसुपर्णशेषाः ।
अमामहेद्रश्च शचीमुखास्ताः
कुर्वन्तु दृ ॥ ३,२५.५१ ॥
द्वारावती काशिकावन्तिका च
प्रयागकाञ्च्यौ मथुरापुरी च ।
मायावती हस्तिमती पुरी च कुर्वन्तु
स दृ ॥ ३,२५.५२ ॥
भागीरथी चैव सरस्वती च गोदावरी सिंधुकृष्ण
च वेणी ।
कलिन्दकन्या यमुना च नर्मदा कुर्व
दृ ॥ ३,२५.५३ ॥
वितस्तिकावेरिसतुङ्गभद्राः सुवञ्जरा
भीमरथी विपाशा ।
सुताम्रपर्णी च पिनाकिनी च कु दृ ॥
३,२५.५४ ॥
स्वामिपुष्करिणी चैव सुवर्णमुखरी
तथा ।
श्रीपाण्डवी तौबरुश्च कपिला
पापनाशनी ॥ ३,२५.५५ ॥
गुरुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः
पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः ।
रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ३,२५.५६
॥
सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च
द्वीपाश्च सप्तोपवनानि सप्त ।
भूरादिकानि भुवनानि सप्त कुर्वन्तु
स दृ ॥ ३,२५.५७ ॥
मान्धात्रा नहुषोंबरीषसगरौ राजा नलो
धर्मराट्प्रह्लादः क्रतुराड्विभीषणगयौ व्यासो हनूमानपि ।
अश्वत्थाम कृपावुमा द्रुपदजा
श्रीजानकी तारका मन्दोदर्यखिलाः प्रभातसुमहं कुर्वन्तु नित्यं हरे ॥ ३,२५.५८ ॥
अश्वत्थस्य वनानि किं च
तुलसीधात्रीवनानि प्रभो पुन्नागस्य वनानि चंपकवनान्यन्यानि पुष्पाणि च ।
मन्दारस्य वनानि यानि च हरेः
सौगन्धिकान्यप्यहो नित्यं तानि दिशन्तु मत्प्रमुदितं श्रीवेङ्कटेश प्रभो ॥ ३,२५.५९ ॥
एवं स्मृत्वा श्रीनिवासस्य देवी
कृत्वा शौचं जैगिषव्येण साकम् ।
स्नातुं ययौ पुष्करिणीं हरेश्च
स्नानं सम्यक्तत्र चकार देशे ।
सम्यग्जप्त्वा व्यङ्कटेशस्य
मन्त्रमुवाच सा जैगिषव्यं गुरुं च ॥ ३,२५.६०
॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे देवी कृतवेङ्कटेशदर्शनतत्स्तुत्यादिवर्णनं नाम
पञ्चविंशोध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २६
अध्यायः २६ श्रीगरुडमहापुराणम्
कन्योवाच ।
श्रीनिवासः किमर्थं वै आगतोत्र
वदस्व मे ।
शेषाचलोपि कुत्रा भूत्कदायातश्च
पापहा ।
स्वामिपुष्करिणी चात्र किमर्थं
ह्यगता वद ॥ ३,२६.१ ॥
जैगीषव्य उवाच शृणु भद्रे महाभागे
व्यङ्कटेशस्य चागमम् ।
आवयोर्देवि पापानि विषमं यान्ति
भामिनि ॥ ३,२६.२ ॥
आसीत्पुरा हिरण्याक्षः काश्यपो
दितिनन्दनः ।
सनकादेश्च
वाग्दण्डाद्द्वितीयद्वारपालकः ॥ ३,२६.३
॥
बभूव दैत्ययोनौ च देवानां कण्टको
बली ।
संजीवो विजयः प्रोक्तो हरिभक्तो
महाप्रभुः ॥ ३,२६.४ ॥
हरिण्याक्षः स्वयं दैत्यो
हरिभक्तविदूषकः ।
एतादृशो हिरण्याक्षस्तपस्तप्तुं
समुद्यतः ॥ ३,२६.५ ॥
तदा माता दितिर्देवी
हिरण्याक्षमुवाच सा ।
दितिरुवाच ।
वत्सलस्त्वं महाभागमा
तपस्वाष्टहायनः ॥ ३,२६.६ ॥
त्वं मा ददस्व दुः खं मे पालयिष्यति
कोविदः ।
क्षणमात्रं न जीवामि त्वां विना
जीवनं न हि ॥ ३,२६.७ ॥
मा तप त्वं महाभाग मम जीवनहेतवे ।
एवमुक्तस्तु मात्रा स
विजयोवशतोब्रवीत् ॥ ३,२६.८ ॥
हिरण्याक्षो मातरं प्राह जालं
हित्वा विष्णोर्भजनेऽलं कुरुष्व ।
मयिस्नेहं पुत्रहेतोर्विरूढं सुखदुः
खे चेह लोके परत्र ॥ ३,२६.९ ॥
यावत्स्नेहं मयि मातः करोषि
तावत्क्लेशं शाश्वतं यास्यसि त्वम् ।
मातश्च ते मयि
पुत्रत्वबुद्धिस्त्वय्यप्येषा मातृबुद्धिर्ममापि ॥ ३,२६.१० ॥
ताते पूज्ये पितृबुद्धिर्ममास्ति
तस्मिंस्तुते भर्तृबुद्धिर्हि मिथ्या ।
निर्माति यस्माद्धरिरेव सर्वं
सम्यक्पाता नियतोऽसौ मुरारिः ॥ ३,२६.११
॥
अतो हि माता हरिरेव सर्वदा
त्वन्यासां वै मातृता चोपचारात् ।
निर्मातृत्वं यदि मुख्यं त्वयि
स्याद्द्रोणादीनां जननी का वदस्व ॥ ३,२६.१२
॥
मातृत्वं वै यदि मुख्यं त्वयि
स्याद्धात्रादीनां जननी का वदस्व ।
यतः सदा याति जगत्तत्तो हरिः सदा
पिता विष्णुरजः पुराणः ॥ ३,२६.१३
॥
सदा पिता मुख्यपिता यदि
स्याद्गर्भस्थबाले पालकः को वदस्व ।
मातापित्रोः पालकत्वं यदि
स्यात्कूर्मादीनां पालकौ कौ वदस्व ॥ ३,२६.१४
॥
मातापित्रोः पालकत्वं यदि
स्यात्कृपादीनां रक्षकौ कौ वदस्व ।
पुन्नामकान्नारकाद्देह
भजान्तस्मात्त्रातापुत्रविष्णुः पुराणः ॥ ३,२६.१५ ॥
न तारकोहं नरकाच्च सुभ्रूर्न वै
भर्ता नापि पित्रादयश्च ।
न वै माता नानुजादिश्च सर्वः
सर्वत्राता विष्णुरतो न चान्यः ॥ ३,२६.१६
॥
मायां मदीयां ज्ञानशस्त्रेण
च्छित्वा भक्त्या हरेः स्मरणं त्वं कुरुष्व ।
यद्भक्तिरूपूर्वं स्मरणं नाम
विष्णोस्तत्सर्वथा पापहरं च मातः ॥ ३,२६.१७
॥
यो वा भक्त्या स्मरणं नाम विष्णोः
करोत्यसौ पापहरो भविष्यति ।
अयं देहो दुर्ल्लभः कर्मभूमौ
तत्रापि मध्ये भजनं विष्णुमूर्तेः ॥ ३,२६.१८
॥
आयुर्गतं व्यर्थमेव त्वदीयं शीघ्रं
भजेः श्रीनिवासस्य पादम् ।
उपदिश्यैवं मातरं पुत्रवर्यो
दैत्यावेशात्सोभवद्वै तपस्वी ॥ ३,२६.१९
॥
चतुर्मुखं प्रीणयित्वैव भक्त्या
ह्यवध्यत्वं प्राप तस्मान्महात्मा ।
ततो भूमिं करवद्वेष्टयित्वा निन्ये
तदा दैत्यवर्यो महात्मा ॥ ३,२६.२०
॥
श्रीमुष्टदेशे प्रादुरासीद्धरिस्तु
वाराहविष्णुस्त्वजनः पुराणः ।
भित्त्वाचाब्धिं विविशे तं महात्मा
रसातले संस्थितं भूतलं च ॥ ३,२६.२१
॥
स्वदंष्ट्राग्रे स्थापयित्वाऽजगाम
तदागमादागतो दैत्यवर्यः ।
तं कर्णमूले ताडयित्वा जघान
प्रसादयामास च पूर्ववद्भुवम् ॥ ३,२६.२२
॥
सुदिग्गजान्स्थापयित्वा च विष्णुः
श्रीमुष्टे वै संस्थितः श्रीवराहः ।
तदा हरिश्चिन्तयामास
विष्णुर्भक्त्या मदीयं मानुषं देहमद्य ॥ ३,२६.२३ ॥
आराधयिष्यन्ति च मां क्व एते तेषां
दयां कुत्र वाहं करिष्ये ।
एवं हरिश्चिन्तयित्वा सुकन्ये
वैकुण्ठलोकादचलं शेष संज्ञम् ।
वीन्द्रस्कन्धे स्थापयित्वा स्वयं च
समागतोभूद्भूतलं भूतलेशः ॥ ३,२६.२४
॥
सुवर्णमुखरीतीरमारभ्य गरुडध्वजः ।
श्रीकृष्णवेणीपर्यन्तं स्थापयामास
तं गिरिम् ॥ ३,२६.२५ ॥
गिरेः पुच्छे तु श्रीशैलं
मध्यमेऽहोबलं स्मृतम् ।
मुखं च श्रीनिवासस्य क्षेत्रं च
समुदाहृतम् ॥ ३,२६.२६ ॥
अल्पेन तपसाभीष्टं
सिध्यत्यस्मिन्नहोबले ।
गङ्गादिसर्वतीर्थानि पुण्यानि
ह्यत्र संति वै ॥ ३,२६.२७ ॥
य एनं सेवते नित्यं श्रद्धाभक्तिसमन्वितः
।
ज्ञानार्थी ज्ञानमाप्नोति
द्रव्यार्थी द्रव्यमाप्नुयात् ॥ ३,२६.२८
॥
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति नृपो
राज्यं च विन्दति ।
यंयं कामयते मर्त्यस्तन्तमाप्नोति
सर्वथा ॥ ३,२६.२९ ॥
चिन्तितं साध्यते
यस्मात्तस्माच्चिन्तामणिं विदुः ।
पुष्करिण्याश्च बाहुल्याद्गिरावस्मिन्सरः
सु च ।
पुष्कराद्रिरिति प्राहुरेवं
तत्त्वार्थवेदिनः ॥ ३,२६.३० ॥
शातकुंभस्वरूपत्वात्कनकाद्रिं च तं
विदुः ।
वैकुण्ठादागतेनैव वैकुण्ठाद्रिरिति
स्मृतः ॥ ३,२६.३१ ॥
अमृतैश्वर्यसंयुक्तो
व्यङ्कटाद्रिरिति स्मृतः ।
व्यङ्कटेशस्य शैलस्य माहात्म्यं
यावदस्ति हि ॥ ३,२६.३२ ॥
तावद्वक्तुं समग्रेण न
समर्थश्चतुर्मुखः ।
व्यङ्कटाद्रौ परां भक्तिं ये
कुर्वन्ति दिनेदिने ।
पङ्गर्जङ्घाल एव स्यादचक्षुः
पद्मलोचनः ॥ ३,२६.३३ ॥
मूको वाग्मी भवेदेव बधिरः श्रावको
भवेत् ।
वन्ध्या स्याद्बहुपुत्रा च निर्धनः
सधनो भवेत् ॥ ३,२६.३४ ॥
एतत्सर्वं गिरौ भक्तिमात्रेणैव
भवेद्ध्रुवम् ।
तत्त्वतो व्यङ्कटाद्रेस्तु स्वरूपं
वेत्ति को भुवि ॥ ३,२६.३५ ॥
यस्मादस्य गिरेः पुण्यं माहात्म्यं
वेत्ति यः पुमान् ।
मायावी परमानन्दं त्यक्त्वा
वैकुण्ठमुत्तमम् ।
स्वामिपुष्करिणीतीरे रमया सहमोदते ॥
३,२६.३६ ॥
कल्याणाद्भुतगात्राय
कामितार्थप्दायिने ।
श्रीमद्व्यङ्कटनाथाय श्रीनिवासाय ते
नमः ॥ ३,२६.३७ ॥
श्रीस्वामिपुष्करिण्याश्च
माहात्म्यं शृणु कन्यके ।
स्वामिपुष्करिणीमध्ये
श्रीनिवासोस्ति सर्वदा ॥ ३,२६.३८
॥
स्नानं कुर्वन्ति ये तत्र तेषां
मुक्तिः करे स्थिता ।
तिस्रः कोट्योर्धकोटिश्च तीर्थानि
भुवनत्रये ।
तानि सर्वाणि तत्रैव संति तीर्थे
हरेः सदा ॥ ३,२६.३९ ॥
तत्तीर्थं श्रीनिवासाख्यं
सर्वदेवनमस्कृतम् ।
तदेव श्रीनिवासस्य मन्दिरं
परिकीर्तितम् ॥ ३,२६.४० ॥
तद्दर्शनादेव कन्ये यान्ति पापानि
भस्मसात् ।
एकैकस्नानमात्रेण सत्संगो भवति
ध्रुवम् ॥ ३,२६.४१ ॥
सत्संगाज्ज्ञानमासाद्य
ज्ञानान्मोक्षं च विन्दति ।
अधिकारिणां भवेदेवं विपरीतमयोगिनाम्
॥ ३,२६.४२ ॥
तीर्थानां स्नानमात्रेण मोक्षं
यान्तीति ये विदुः ।
ते सर्वे असुरा ज्ञेयास्ते यान्ति
ह्यधमां गतिम् ॥ ३,२६.४३ ॥
श्रीनिवासस्य तीर्थेस्मिन्वायुकोणे
च कन्यके ।
आस्ते वायुः सदा विष्णोः पूजां
कर्तुमनुत्तमाम् ॥ ३,२६.४४ ॥
वायुतीर्थं च तत्प्रोक्तं
हस्तद्वादशकान्तरम् ।
हस्तषट्कप्रमाणं च पश्चिमे
समुदाहृतम् ।
उत्तरे हस्तषट्कं तु
वायुतीर्थमुदाहृतम् ॥ ३,२६.४५ ॥
ये वेष्णवा वैष्णवदासवर्याः स्नानं
सुर्युस्तत्र पूर्वं सुकन्ये ।
मध्वान्तस्थाः श्रीनिवासस्तु
नित्यमत्र स्नानात्प्रीयतां मे दयालुः ॥ ३,२६.४६ ॥
ये मध्वतीर्थे स्नातुमिच्छन्ति देवि
रुद्रादयो वायुभक्ता महान्तः ।
सदा स्नानं तत्र कुर्वन्ति देवि
प्रातः काले चोदयात्पूर्वमेव ॥ ३,२६.४७
॥
ये वायुतीर्थे विसृजन्ति देहजं मलं
मूत्रं वमनं श्लेष्मकं च ।
येऽपानशुद्धिं लिङ्गशुद्धिं च कन्ये
कुर्वन्ति ते ह्यसुरा राक्षसाश्च ॥ ३,२६.४८
॥
शृण्वन्ति ये भागवतं पुराणं किं
वर्णये तस्य पुण्यं तु देवि ।
ये कृष्णमन्त्रं तु जपन्ति देवि
ह्यष्टा क्षरं मन्त्रवरं सुगोप्यम् ॥ ३,२६.४९
॥
तेषां हरिः प्रीयते केशवोलं
मध्वान्तस्थो नात्र विचार्यमस्ति ।
एवं दानं तत्र कुर्वन्ति ये वै
द्विजाग्र्याणां वैष्णवानां विदां च ॥ ३,२६.५० ॥
तेषां पुण्यं नैव जानन्ति देवा
जानात्येवं श्रीनिवासो हरिस्तु ।
शालग्रामं वायुतीर्थे ददन्ते तेषां
पुण्यं वेत्ति स व्यङ्कटेशः ॥ ३,२६.५१
॥
सुदुर्लभो वायुतीर्थेऽभिषेको
निष्कामबुद्ध्या वैष्णवानां च देवि ।
तत्रापि तीर्थे लभ्यते
भाग्ययोगाद्भागवतस्य श्रवणं विष्णुदासैः ॥ ३,२६.५२ ॥
तथैव तीर्थे दुर्लभं तत्र देवि
शालग्रामस्य द्विजवर्ये च दानम् ।
जंबूफलाकारसुनीलवर्णं मुखद्वयं
चक्रचतुष्टयान्वितम् ॥ ३,२६.५३ ॥
सुकेसरैः संयुतं स्वर्णचिह्नध्वजां
कुशैर्वज्रचिह्नैर्यवैश्च ।
जानार्दनीं मूर्तिमाहुर्महान्तो
दानं तस्या दुर्लभं तत्र तीर्थे ॥ ३,२६.५४
॥
अत्युत्तमं मूर्तिदानं तु भद्रे
सुदुर्ल्लभं परमं नात्र लोभः ।
सुदुर्लभं बहुदोग्ध्याश्च
गृष्टेर्दानं तथा वस्त्ररत्नादिकानाम् ॥ ३,२६.५५ ॥
अत्युत्तमं द्रव्यदानं च देवि
स्वापेक्षितं दानमाहुर्महान्तः ।
स्वस्यानपेक्षं फलदानं च
वस्त्रादानं तस्य व्यर्थमाहुर्महान्तः ॥ ३,२६.५६ ॥
अत्युत्तमं गृष्टिदानं च पुण्यं
नैवाप्यते दुग्धदोहाश्च गावः ।
अत्युत्तमे वस्त्रदाने सुबुद्धिः
सुदुर्घटा परमा वै जनानाम् ॥ ३,२६.५७
॥
अत्युत्तमं भागवतस्य पुस्तकं
सुदुर्घटं वायुतीर्थं च कन्ये ।
अत्युत्तमं द्रव्यदानं च देवि
सुदुर्घटं वायुतीर्थं नृणां हि ।
सुदुर्लभो
वैष्णवैस्तत्त्वविद्भिर्हरेर्विचारो वायुतीर्थे च कन्ये ॥ ३,२६.५८ ॥
श्रीनिवासस्य तीर्थस्य उत्तरस्यां
दिशि स्थितम् ।
चन्द्रतीर्थ मिति प्रोक्तं
तत्रास्ते चन्द्रमाः सदा ॥ ३,२६.५९
॥
श्रीनिवासस्य पूजां च तत्र स्थित्वा
करोत्ययम् ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वन्ति पुण्यदेशे
च कन्यके ॥ ३,२६.६० ॥
गुरुतल्पादिपापेभ्यो मुच्यन्ते नात्र
संशयः ।
तत्र स्नात्वा पूर्वभागे शालग्रामं
ददाति यः ॥ ३,२६.६१ ॥
ज्ञानद्वारा मोक्षमेति नात्र कार्या
विचारणा ।
दधिवामनमूर्तेश्च दानं तत्र
सुदुर्लभम् ॥ ३,२६.६२ ॥
बदरीफलमात्रं तु वतुलं नीलवर्णकम् ।
प्रसन्नवदनं सूक्ष्मं सुस्निग्धं
कन्यके शुभे ॥ ३,२६.६३ ॥
चक्रद्वयसमायुक्तं गौपूरैः
पञ्चभिर्युतम् ।
चापबाणसमायुक्तमनतं कुण्डलाकृतिम् ॥
३,२६.६४ ॥
वनमाल सुखयुतं मूर्ध्नसाहस्रसंयुतम्
।
रौप्यबिन्दुसमायुक्तं सव्ये
भद्रार्धमात्रकम् ॥ ३,२६.६५ ॥
चन्द्रेण सहितं देवि दधिवामनमुच्यते
।
एतादृशं कलौ नॄणां दुर्लभं
बहुभाग्यदम् ।
लक्ष्मीनारायणसमां तां मूर्तिं
विद्धि भामिनि ॥ ३,२६.६६ ॥
सुदुर्लभं तस्य मूर्तेश्च दानं
तच्चन्द्रतीर्थे श्रवणं दुर्घटं च ।
सम्यक्स्वरूपं दधिवामनस्य सुदुर्घटं
श्रवणं वैष्णवाच्च ॥ ३,२६.६७ ॥
तत्र स्नात्वा वामनस्य
स्वरूपश्रवणाद्विदुर्दानफलं समं च ।
दशहस्तप्रमाणं तु
चन्द्रतीर्थमुदाहृतम् ॥ ३,२६.६८ ॥
मध्याह्ने दुर्लभं स्नानं नृणां
तत्र सुमङ्गले ।
तत्र स्थित्वा धन्यनरः सदा भजति वै
हरिम् ॥ ३,२६.६९ ॥
वराहमूर्तिदानं तु शालग्रामस्य
दुर्लभम् ।
जंबूफलप्रमाणं तु एतद्वै
कुक्कुटाण्डवत् ॥ ३,२६.७० ॥
वदनं वलयाकारं प्रमाणं चणकादिवत् ।
देवस्य वामभागे च मध्यदेशं विहाय च
॥ ३,२६.७१ ॥
चक्रद्वयसमायुक्तंमूर्धदेशे च
भामिनि ।
सुवर्णबिन्दुना युक्तं
भूवराहाख्यमुच्यते ॥ ३,२६.७२ ॥
पूजां कृत्वा भूवराहस्य मर्तेर्दानं
दत्त्वा श्रवणं चापि कृत्वा ।
तत्र स्थितं भूवराहं च दृष्ट्वा स
वै नरः कृतकृत्यो हि लोके ॥ ३,२६.७३
॥
तत्र स्नात्वा भूवराहस्य मर्तेः
शृणोति यो लक्षणं सम्यगेव ।
स तेन पुण्यं समुपैति देवि स
मुक्तिभाङ्नात्र विचार्यमस्ति ॥ ३,२६.७४
॥
ईशानकोणे श्रीनिवासस्य देवि रौद्रं
तीर्थं परमं पावनं च ।
तत्र स्थित्वा रुद्रदेवो महात्मा
पूजां करोति श्रीनिवासस्य नित्यम् ॥ ३,२६.७५
॥
हस्ताष्टकं तत्प्रमाणं वदन्ति तत्र
स्नानं वैष्णवैः कार्यमेव ।
तत्र स्नात्वा प्रयतो वै मुरारेः
कथां दिव्यां शृणुयादादरेण ।
स्नानं पानं तत्र दानं च
कुर्याल्लक्ष्मीनृसिंहप्रीयते देवि नित्यम्३,२६.७६ ॥
बदरीफलमात्रं च वर्तुलं
बिन्दुसंयुतम् ॥ ३,२६.७७ ॥
देवस्य वामभागे तु
चक्रद्वयसमन्वितम् ।
सुवर्णरेखासंयुक्तं
किञ्चिद्रक्तसमन्वितम् ॥ ३,२६.७८
॥
वैश्यवर्णं सवदनं
पद्मरेखादिचिह्नितम् ।
लक्ष्मीनृसिंहं तं विद्धि
भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ ३,२६.७९
॥
एता दृशं गण्डिकायाः शिलाया
मूर्तेर्दानं दुर्घटं विद्धि वीन्द्र ।
तत्र स्नात्वा श्रीनृसिंहस्वरूपं
लक्ष्मीपतेः शृणुयाद्भक्तियुक्तः ॥ ३,२६.८०
॥
मूर्तेर्दानात्फलमाप्नोति देवि
सत्यंसत्यं नात्र विचार्यमस्ति ॥ ३,२६.८१
॥
ईशानशक्रयोर्मध्ये
ब्रह्मतीर्थमुदाहृतम् ।
दुर्लभं मानुषाणां तु स्नानं
सर्वार्थसाधकम् ॥ ३,२६.८२ ॥
शालग्रामस्य दानं तु दुर्लभं तत्र
वै नृणाम् ।
लक्ष्मीनारायणस्यैव मूर्तेर्दानं
सुदुर्लभम् ॥ ३,२६.८३ ॥
स्थलमौदुंबरसमं तत्प्रमाणमुदाहृतम्
।
छत्त्राकारं वर्तुलं च प्रसन्नवदनं
शुभम् ॥ ३,२६.८४ ॥
चणकप्रदेशमात्रं च वदनं समुदाहृतम्
।
सव्ये दक्षिणपार्श्वे च समयोः पुष्कलान्वितम्
॥ ३,२६.८५ ॥
गोयूथवत्सवर्णं च
चतुश्चक्रसमन्वितम् ।
गोखुरैश्च समायुक्तं
सुवर्णकिणसंयुतम् ॥ ३,२६.८६ ॥
वनमालाभिसंयुक्तं वज्रपुङ्खैश्च
संयुतम् ।
एतादृशीं दरेर्मूर्ति
लक्ष्मीनारायणं विदुः ॥ ३,२६.८७ ॥
कलौ नृणां तस्य लाभो दुर्लभः
संस्मृतो भुवि ।
दानं च सुतरां देवि दर्लभं किं
वदामि ते ॥ ३,२६.८८ ॥
ब्रह्मतीर्थे च संस्नाय श्रोतव्या
वै हरेः कथा ।
गण्डिकायाः शिलायाश्च
लक्ष्मीनारायणस्य तु ॥ ३,२६.८९ ॥
लक्षणं यो विजानाति तदा तत्सदृशं
फलम् ।
प्राप्नोत्येव न संदेहो नात्र
कार्या विचारणा ॥ ३,२६.९० ॥
श्रीनिवासस्य तीर्थस्य पूर्वे
स्यादिन्द्रतीर्थकम् ।
श्रीनिवासस्य पूजां तु कर्तुमास्ते
शचीपतिः ॥ ३,२६.९१ ॥
शालग्रामशिलादानं कर्तव्यं
श्रोत्रियायवै ।
शालग्रामशिलादानं हत्याकोटिविनाशनम्
॥ ३,२६.९२ ॥
तस्मिंस्तीर्थे तु यो देवि
सीतारामशिलाभिधाम् ।
ददाति भूतले भद्रे भूपतेः सदृशो
भवेत् ॥ ३,२६.९३ ॥
सीतारामशिला देवि द्विविधा
संप्रकीर्तिता ।
पञ्चचक्रयुता काचित्षट्रचक्रेण च
संयुता ॥ ३,२६.९४ ॥
तत्रापि षट्रचक्रयुता ह्युत्तमा
संप्रकीर्तिता ।
पञ्चचक्रयुतायाश्च फलं
द्विगुणमीरितम् ॥ ३,२६.९५ ॥
कुक्कुटाण्डप्रमाणं च सुसिग्धं
नीलवर्णकम् ।
वदनत्रयसंयुक्तं सट्चक्रैः
केसरैर्युतम् ॥ ३,२६.९६ ॥
स्वर्णरेखासमायुक्तं
ध्वजवज्राङ्कुशैर्युतम् ।
एतादृशं तु वै भद्रे सीतारामाभिधं
स्मृतम् ॥ ३,२६.९७ ॥
वदनेवन्दने देवि सीतारामस्य कोशकम्
।
दुर्लभं तु कलौ नॄणां
स्वसाम्राज्यप्रदं शुभम् ॥ ३,२६.९८
॥
इन्द्रतीर्थे महादेवि सीताराम
भिधाशिला ।
या तद्दानं दुर्लभं तन्नाल्पस्य
तपसः फलम् ॥ ३,२६.९९ ॥
दानस्य शक्त्यभावे तु श्रोतव्यं
लक्षणं हरेः ।
शालग्राम शिलादानाद्यत्फलं तत्फलं
लभेत् ॥ ३,२६.१०० ॥
आग्नेयकोणे श्रीनिवासस्य देवि
तीर्थं त्वास्ते वह्निसंज्ञं सुशस्तम् ।
स वह्निदेवः श्रीनिवासस्य पूजां
कर्तुं ह्यास्ते सर्वदा तीर्थमध्ये ॥ ३,२६.१०१
॥
यो वा तीर्थे वह्निसंज्ञे च देवि
भक्त्या स्नानं कुरुतेऽजं स्मरन्हि ।
ज्ञानद्वारा मोक्षमाप्नोति देवि
तत्र स्नानं दुर्ल्लभं वै नृणां च ॥ ३,२६.१०२
॥
ज्ञात्वा स्नानं दुष्करं तीर्थराजे भक्तिस्तस्मिन्दुर्ल्लभा
चैव देवि ।
शालग्रामे तच्छिलायाश्च दानं
सुदुर्लभं वासुदेवाभिधायाः ॥ ३,२६.१०३
॥
ह्रस्वं तथा वर्तुलं नीलवर्णं
सूक्ष्मं मुखं मुखचक्रं सुशुद्धम् ।
सुवेणुयुक्तं वासुदेवाभिधेयं दानं
कलौ दुर्लभं तस्य भद्रे ॥ ३,२६.१०४
॥
दाने तस्याः शक्त्य भावे च देवि
स्नात्वा तीर्थे वासुदेवाभिधस्य ।
सम्यक्श्राव्यं लक्षणं वै
शिलायास्तयोस्तुल्यं फलमाहुर्महान्तः ॥ ३,२६.१०५ ॥
दक्षिणे श्रीनिवासस्य यमतीर्थं च
संस्मृतम् ।
तत्रास्ते यमराजस्तु पूजां कर्तुं
हरेः सदा ॥ ३,२६.१०६ ॥
तत्र स्नानं च दानं चाप्यक्षयं परमं
स्मृतम् ।
शालग्रामशिलादानं कार्यं तत्र
महामुने ॥ ३,२६.१०७ ॥
पट्टाभिरामसंज्ञायाः शिलाया
दानमिष्यते ।
तच्चूतफलवत्स्थूलं वदनत्रयसंयुतम् ॥
३,२६.१०८ ॥
शिरश्चक्रेण रहितं सप्तचक्रैः
समन्वितम् ।
नीलवर्णं स्वर्णरेखं गोशुराद्यैः
समन्वितम् ॥ ३,२६.१०९ ॥
पट्टवर्धनरामं तु दुर्लभं
बहुभाग्यदम् ।
पट्टवर्धनरामं तु यो ददाति च तत्र
वै ।
पट्टाभिषिक्तो भवति नात्र कार्या
विचारणा ॥ ३,२६.११० ॥
श्रीनिवासस्य नैरृत्ये नैरृतं
तीर्थमुत्तमम् ।
आस्ते हि निरृतिस्तत्र पूजां
कुर्तुं च सर्वदा ॥ ३,२६.१११ ॥
तत्र स्नानं प्रकर्तव्यं पुनर्जन्म
न विद्यते ।
शालग्रामशिलायाश्चः
पुरुषोत्तमसंज्ञिकाम् ॥ ३,२६.११२ ॥
मूर्तिं ददाति यो मर्त्यः स याति
परमां गतिम् ।
औदुंबरफलाकारं प्रसन्नवदनं शुभम् ॥
३,२६.११३ ॥
चक्रद्व्यसमायुक्तं
शिरश्चक्रसमन्वितम् ।
सुवर्णबिन्दुसंयुक्तं
वज्राङ्कुशसमान्वतम् ॥ ३,२६.११४ ॥
तन्मूर्तिदानं दुर्लभं तत्र देवः
प्रीणाति यस्माच्छ्रीनिवासो महात्मा ।
यदा दानं दुर्घटं स्याच्च देवि तदा
श्रोतव्यं लक्षणं तस्य मूर्तेः ॥ ३,२६.११५
॥
पाशिनैरृतयोर्मध्ये शेषतीर्थं परं
स्मृतम् ।
तत्र स्नात्वा शेषमूर्तिं प्रददाति
द्विजातये ॥ ३,२६.११६ ॥
स याति परमं लोकं
पुनरावृत्तिवर्जितम् ।
औदुंबरफलाकारं कुण्डलाकृतिमेव च ॥ ३,२६.११७ ॥
शेषवद्वदनं तस्य तस्मिंश्चक्रद्वयं
स्मृतम् ।
फलं तमेकचक्रेण संयुतं
वल्मिकान्वितम् ॥ ३,२६.११८ ॥
किञ्चिद्वर्णसमायुक्तं शेषमूर्ति
मतिस्फुटम् ।
सुप्ता प्रबुद्धा द्विविधा
शेषमूर्तिरुदाहृता ॥ ३,२६.११९ ॥
फणोन्नता प्रबुद्धा
स्यात्सप्तलक्षफणान्विता ।
तत्रापि दुर्लभा सुप्ता
महाभाग्यकरीस्मृता ॥ ३,२६.१२० ॥
इह लोके परत्रापि मोक्षदा नात्र
संशयः ।
नवचक्रादुपक्रम्य विंशत्यन्तं च
यत्र सः ॥ ३,२६.१२१ ॥
अनन्त इति विज्ञेयो ह्यनन्तफलदायकः
।
विश्वंभरः स विज्ञेयो
विंशत्यूर्ध्वं वरानने ॥ ३,२६.१२२
॥
तत्रापि केसरैश्चैक्रर्लक्षणैश्च
समन्वितम् ।
कलौ तु दुर्लभं नणां तद्दानं
चातिदुर्लभम् ॥ ३,२६.१२३ ॥
स्नानं कृत्वा शेषतीर्थे
विशुद्धेनैव चेतसा ।
एतेषां लक्षणं श्रुत्वा प्रयाति
परमां गतिम् ॥ ३,२६.१२४ ॥
ततः परं महाभागे वारुणं
तीर्थमुत्तमम् ।
तत्रास्ते वरुणो देवः पूजां कर्तुं
हरेः सदा ॥ ३,२६.१२५ ॥
तत्र स्नानं प्रकर्तव्यं दातव्यं
दानमुत्तमम् ।
शिशुमारं च मत्स्यं च
त्रिविक्रममथापि वा ।
दातव्यं भूतिकामेन
तीर्थेस्मिन्विरवर्णिनि ॥ ३,२६.१२६
॥
जंबूफलसमाकारा पुच्छे सूक्ष्मा सबिन्दुका
।
चक्रत्रया च वदने पुच्छोपरि सचक्रका
॥ ३,२६.१२७ ॥
श्रीवत्सबिन्दुमालाढ्या
मत्स्यमूर्तिरुदाहृता ।
पुच्छादधश्चक्रयुतं
शिशुमारमुदाहृतम् ॥ ३,२६.१२८ ॥
वक्रचक्रयुतश्चेत्स्यात्त्रिविक्रम
उदाहृतः ।
एतेषां लक्षणं श्रुत्वा वारुणे
तीर्थ उत्तमे ॥ ३,२६.१२९ ॥
एतद्दानफलं प्राप्य मोदते
विष्णुमन्दिरे ।
पूर्वौक्ता मूर्तयो यस्मिन् गृहे
तिष्ठन्ति भामिनि ।
भागीरथी तीर्थवरा संनिधत्ते न संशयः
॥ ३,२६.१३० ॥
स्वामि पुष्करिणीस्नानं दुर्घटं तु
कलौ नृणाम् ।
तत्र स्थितानां तीर्थानां स्नानं
चाप्यतिदुर्घटम् ॥ ३,२६.१३१ ॥
शालग्रामशिलादानं दुर्घटं च तथा
स्मृताम् ।
स्वामिपुष्करिणीतीरे कन्यादानं
सुदुर्घटम् ॥ ३,२६.१३२ ॥
दुर्घटं कपिलादानं भक्ष्यदानं
सुदुर्घटम् ।
स्वामिपुष्करिणीतीर्थे
तीर्थेष्वन्येषु भामिनि ॥ ३,२६.१३३
॥
स्नानं कुरु यथान्या यं शय्यादानं
तथा कुरु ।
जैगीषव्येन मुनिना त्वेवमुक्ता च
कन्यका ॥ ३,२६.१३४ ॥
स्वामिपुष्करिणीस्नानं सा चकार
धृतव्रता ।
तीर्थेष्वेतेषु सुस्नाता दानं चक्रे
सुभामिनी ॥ ३,२६.१३५ ॥
उवास तत्र सा दवी त्रिः
सप्तकन्दिनानि च ।
स्वामिपुष्करणीतीरमहिमानं शृणोति यः
।
स याति परमां भक्तिं श्रीनिवासे
जगन्मये ॥ ३,२६.१३६ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे व्यङ्कटगिरिमाहात्म्ये
स्वामिपुष्करिण्यादितीर्थतत्रत्यदेवतदीयशालग्रामलक्षण तद्दानादिवर्णनं नाम
षड्विंशोध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २७
अध्यायः २७ श्रीगरुडमहापुराणम्
श्रीकृष्ण उवाच ।
सा गता स्नातुकामाथ नन्दां
पापनिवारिणीम् ।
पप्रच्छ तं गुरुं विप्रं विनयावनता
सुधीः ॥ ३,२७.१ ॥
किन्नामेयं नदी विप्र किं कार्यं
चात्र मे वद ।
जैगीषव्यस्त्वेवमुक्तो
वाक्यमेतदुवाच ह ॥ ३,२७.२ ॥
जैगीषव्य उवाच ।
शृणु भद्रे प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं
पापनाशनम् ।
इयं नदी महाभागे सदा पापविनाशिनी ॥
३,२७.३ ॥
ब्रह्महत्यादिपापौघो यत्र स्नानेन
नश्यति ।
प्रत्यक्षं दृश्यते ह्यत्र स्नानं
कर्तुं समुद्यतैः ॥ ३,२७.४ ॥
जलं चाशुभ्ररूपेण पापैश्च
परिदृश्यते ।
यावच्छुभ्रोदकं देवि तावत्सनानं च
कारयेत् ॥ ३,२७.५ ॥
यावच्छुभ्रोदकं नैव तावत्पापं न
नश्यति ।
शुद्धोदके समायाते पापं नष्टमिति
ध्रुवम् ॥ ३,२७.६ ॥
कलावित्थं विशालाक्षि महिमा दृश्यते
भुवि ।
अत्र स्नानं प्रकर्तव्यं दातव्यं
दान मुत्तमम् ।
ततश्च ज्ञानमासाद्य विविष्णुलोकं स
गच्छति ॥ ३,२७.७ ॥
गुरुस्त्रीगमनाच्चन्द्र अहल्यायां
गतो हरिः ।
सुरापानाच्च शुक्रस्तु
सुवर्णहरणाद्बलिः ॥ ३,२७.८ ॥
ब्रह्महत्यायाश्च रुद्रो नागो
दत्तापहारकः ।
सूतस्य हननाद्रामो निर्मुक्तो
ह्यत्र भामिनि ॥ ३,२७.९ ॥
नानेन सदृशं तीर्थं न भूतं न
भविष्यति ।
स्नानं कुरु महाभागे तेन सिद्धिं
ह्यवाप्स्यसि ॥ ३,२७.१० ॥
जैगीषव्येण मुनिना पित्रा सह च
कन्यका ।
स्नानं चकार विधिवदुदतिष्ठच्च
भामिनि ॥ ३,२७.११ ॥
यावच्च पौरुषं सूक्तं तावत्कालं हि
तिष्ठति ।
पश्चाज्जप्त्वा महामन्त्रं
वेङ्कटेशाभिधं परम् ॥ ३,२७.१२ ॥
द्विजातीन्प्रीणयित्वा सा
वस्त्रद्रव्यादिभूषणैः ।
तस्माच्च प्रययौ देवी
कमारीतीर्थमुत्तमम् ॥ ३,२७.१३ ॥
कुमारीमहिमानं च श्रुत्वा स्नानं
चकार सा ।
पुनरावृत्य सा देवी ह्यन्तरा
विरजानदीम् ॥ ३,२७.१४ ॥
दृष्ट्वा पप्रच्छ सा देवी जैगीषव्यं
गुरुं प्रभुम् ।
किं संज्ञिकेयं विप्रेन्द्र किं
कार्यं ह्यत्र मे वद ॥ ३,२७.१५ ॥
जैगीषव्यः पृष्ट एव मुवाच
करुणानिधिः ।
इयं भागीरथी कन्ये आयाति ह्यन्तरेण
तु ॥ ३,२७.१६ ॥
अतः सा प्रोच्यते ह्यन्तर्गङ्गेति
परमर्षिभिः ।
कन्ये त्वस्यास्तु सलिलं
श्रीनिनिवासप्रियं सदा ॥ ३,२७.१७
॥
अत्र स्नानं यः करोति स याति परमां
गतिम् ।
स्नानं चकार सा कन्या जले परमपावने
॥ ३,२७.१८ ॥
दानादिकं तथा ज्ञात्वा जजाप परमं
मनुम् ।
श्रीनिवाससमीपं तु पुनरागत्य भामिनी
॥ ३,२७.१९ ॥
अङ्गप्रदक्षिणं चक्रे भक्त्या
वेङ्कटनायकम् ।
ब्राह्मणादीन्प्रीणयित्वा
वस्त्रगन्धादिभूषणैः ॥ ३,२७.२० ॥
पुनः परदिने प्रातः
स्वामिपुष्करिणीजले ।
स्नानं कृत्वा महाभागा ययौ
तुंबुरुसंज्ञिकाम् ॥ ३,२७.२१ ॥
पप्रच्छ तं गुरुं देवी नाथं
किन्नामिका त्वयम् ।
जैगीषव्य उवाच ।
इयं तुंबरुकाभिज्ञा नारी वै
वरवर्णिनी ॥ ३,२७.२२ ॥
पुरा तुं बुरुणा साकं नारदस्तपसि
स्थितः ।
अत्र प्रादुरभूद्विष्णुर्नारदस्य
हिताय च ॥ ३,२७.२३ ॥
स्नानं यः कुरुते ह्यत्र स याति
परमां गतिम् ।
अत्र स्नानं मनुष्याणां सर्वेषां
दुर्लभं कलौ ॥ ३,२७.२४ ॥
अत्र स्नानं मनुष्याणां नाल्पस्य
तपसः फलम् ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च दत्त्वा
दानान्यकेशः ॥ ३,२७.२५ ॥
पुनरागत्य सा देवी श्रीनिवासं ननाम
ह ।
तस्मिमन्दिने ब्राह्मणांश्च
तर्पयामास भमिनि ॥ ३,२७.२६ ॥
स्वामिपुष्करिणीं प्राप्य
दीपान्प्राज्वालयत्सती ।
सोपानेषु महाभागा दीपावलिभिरञ्जसा ।
प्रीणयामास देवेशं श्रीनिवासं
जगद्गुरुम् ॥ ३,२७.२७ ॥
पुनः परदिने प्राप्ते
शक्रतीर्थमनुत्तमम् ।
कपिलाख्योर्ध्वदेशे तु तत्तीर्थं
पावनं स्मृतम् ॥ ३,२७.२८ ॥
तत्र स्नात्वा महाभागा तदूर्ध्वं
स्नापयेत्स्वयम् ।
विष्वसेनसरस्तत्र सर्वपापविनाशनम् ॥
३,२७.२९ ॥
तत ऊर्ध्वं महाभागा ययौ तत्र ददर्श
सा ।
पञ्चायुधानां तीर्थानि तेषु स्नानं
चकार सा ॥ ३,२७.३० ॥
तदूर्ध्वं चाग्निकुण्डं
स्याद्दुरारोहं ततोग्रतः ।
तस्योपरि ब्रह्मतीर्थं
ब्रह्महत्याविमोचनम् ॥ ३,२७.३१ ॥
सप्तर्षीणां तदूर्ध्वं तु
पुण्यतीर्थं च सत्फलम् ।
दशाधिकफलं तेषा
तीर्थानामुत्तरोत्तरम् ॥ ३,२७.३२
॥
एतेषां चैव माहात्म्यं को वा
वक्तुमिहार्हति ।
ऋषितीर्थेषु सा कन्या चचार तप
उत्तमम् ॥ ३,२७.३३ ॥
ममावतारपर्यन्तं चरित्वा तप उत्तमम्
।
योगधारण या देहं त्यक्त्वा जांबवतो
गृहे ॥ ३,२७.३४ ॥
जाता जांबवती नाम ववृधे तस्य
वेश्मनि ।
तस्याः पिता जांबवान्स
समादात्कन्यकां तदा ।
रुक्म्या अनं तरा सैषा मम भार्या
खगेश्वर ॥ ३,२७.३५ ॥
इदं हि परमाख्यानं
वेङ्कटाद्रेर्महागिरेः ।
को वा वर्णयितुं शक्तो मदन्यः
पुरुषो भुवि ॥ ३,२७.३६ ॥
वेङ्कटेशस्य नैवेद्यं सदा लक्ष्मीः
करोति वै ।
ब्रह्मा पूजयते नित्यमेवं
शास्त्रस्य निर्णयः ॥ ३,२७.३७ ॥
नैवेद्यभक्षिणां पुंसामुपहासं न
कारयेत् ।
स्वस्य प्राशस्त्यभावे तु
नैवेद्यादि गुडादिकम् ।
ग्राह्यमेव न संदेहो अन्यथा नारकी
भवेत् ॥ ३,२७.३८ ॥
श्रीनिवासात्परो देवो न भूतो न
भविष्यति ।
स्वयं च पाचयित्वात्वं घृतपक्वादिकं
तथा ।
श्रीनिवासस्य नैवेद्यं दत्त्वा
भोजनमाचरेत् ॥ ३,२७.३९ ॥
इदं तु परमं गोप्यं तवोक्तं च
खगेश्वर ।
न कस्यापि च वक्तव्यं
गोप्यत्वात्खगसत्तम ।
इतः परं प्रवक्ष्यामि तारतम्यं शृणु
प्रभो ॥ ३,२७.४० ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्त दृ
तृ दृ ब्रह्म दृ कन्याकृतनानातीर्थयात्रादिनिरूपणं नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २८
अध्यायः २८ श्रीगरुडमहापुराणम्
या पूर्वसर्गे दक्षपुत्री सती तु
रुद्रस्य पत्नी दक्षयज्ञे स्वदेहम् ।
विसृज्य सा मेनकायां च जज्ञे
धराधराद्धेमवतो वै सकाशात् ॥ ३,२८.१
॥
सा पार्वता रुद्रपत्नी खगेन्द्र या
शेषपत्नी वारुणी नाम पूर्वा ।
सैवागता बलभद्रेण रन्तुं
द्विरूपमास्थाय महापतिव्रता ॥ ३,२८.२
॥
श्रीरित्याख्या इन्दिरावेशयुक्ता
तस्या द्वितीया प्रतिमा मेघरूपा ।
शेषण रूपेण यदा हि वीन्द्र तपश्चचार
विष्णुना सार्धमेव ॥ ३,२८.३ ॥
तदैव देवी वारुणी शेषपत्नी तपश्च
क्रे इन्दिराप्रीतये च ।
तदा प्रीता इन्दिरा सुप्रसन्ना उवाच
तां वारुणीं शेषपत्नीम् ॥ ३,२८.४
॥
यदा रामो वैष्णवांशेन युक्तः
संपत्स्यते भूतले रौहिणेयः ।
मय्यावेशात्संयुता त्वं तु भद्रे
श्रीरित्याख्या वलभद्रस्य रन्तुम् ॥ ३,२८.५
॥
संपत्स्यसे नात्र
विचार्यमस्तीत्युक्त्वा सा वै प्रययौ विष्णुलोके ।
श्रीलक्ष्म्यंशाच्छ्रीरितीड्यां
समाख्यां लब्ध्वा लोके शेषपत्नी बभूव ॥ ३,२८.६ ॥
यदाहीशो विपुलामुद्धरेच्च तदा रामः
श्रीभिदासंगमे च ।
करोति तोषत्सर्वदा वै
रमायास्तस्याप्यावेशो व्यंस्रितमोनसंगम् ॥ ३,२८.७ ॥
या रेवती रैवतस्यैव पुत्री सा
वारुणी बलभद्रस्य पत्नी ।
सौपर्णनाम्नी बलपत्नी खगेन्द्र
यास्तास्तिस्रः षड्विष्णोश्च स्त्रीभ्यः ।
द्विगुणाधमा रुद्रशेषादिकेभ्यो
दशाधमा त्वं विजानीहि पौत्र ॥ ३,२८.८
॥
गरुड उवाच ।
रामेण रन्तुं सर्वदा वारुणी तु
पुत्रीत्वमापे रेवतस्यैव सुभ्रूः ।
एवं त्रिरूपा वारुणी शेषपत्नी
द्विरूपभूता पार्वती रुद्रपत्नी ॥ ३,२८.९
॥
नीचाया जांबवत्याश्च शेषसाम्यं च
कुत्रचित् ।
श्रूयते च मया कृष्ण निमित्तं
ब्रूहि मे प्रभो ॥ ३,२८.१० ॥
उमायाश्च तथा रुद्रः सदा
बहुगुणाधिकः ।
एवं त्वयोक्तं भगवन्निश्चयार्थं मम
प्रभो ॥ ३,२८.११ ॥
रेवती श्रीयुता श्रीश्च शेषरूपा च
वारुणी ।
सौपर्णि पार्वती चैव तिस्रः
शेषाशंतो वराः ॥ ३,२८.१२ ॥
इत्यपि श्रूयते कृष्ण
कुत्रचिन्मधुसूदन ।
निमित्तं ब्रूहि मे कृष्ण तव
शिष्याय सुव्रत ॥ ३,२८.१३ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
विज्ञाय जांबवत्याश्च तदन्येषां
खगाधिप ।
उत्तमानां च साम्यं तु उत्तमावेशतो
भवेत् ॥ ३,२८.१४ ॥
अवराणां गुणस्यापि
ह्युत्तमानामधीनता ।
अस्तीति द्योतनायैव शतांशाधिकमुच्यते
॥ ३,२८.१५ ॥
यथा मयोच्यते वीन्द्र तथा जानीहि
नान्यथा ।
तदनन्तरजान्वक्ष्ये शृणु
काश्यपजोत्तम ॥ ३,२८.१६ ॥
चतुर्दशसु चेन्द्रेषु सप्तमो यः
पुरन्दरः ।
वृत्रादीनां शरीरं तु
पुरमित्युच्यते बुधैः ॥ ३,२८.१७ ॥
तं दारयति वज्रेण
यस्मात्तस्मात्पुरन्दरः ।
चतुर्दशसु चेन्द्रेषु
मन्त्रद्युम्नस्तु षष्ठकः ॥ ३,२८.१८
॥
मन्त्रानष्ट महावीन्द्र देवो
द्योतयते यतः ।
मन्त्रद्युम्नस्ततो लोके उभावप्येक
एव तु ॥ ३,२८.१९ ॥
मन्त्रद्युम्नावतारोभूत्कुन्तीपुत्रोर्जुनो
भुवि ।
विष्णोर्वायोरनन्तस्य चेन्द्रस्य
खगसत्तम ॥ ३,२८.२० ॥
पार्थश्चतुर्भिः संयुक्त इन्द्र एव
प्रकीर्तितः ।
चतुर्थेपि च वायोश्च विशेषोस्ति
सदार्जुन ॥ ३,२८.२१ ॥
वालिर्नामा वानरस्तु पुरन्दर इति
स्मृतः ।
चन्द्रवंशे समुत्पन्नो गाधिराजो
विचक्षणः ॥ ३,२८.२२ ॥
मन्त्रद्युम्नावतारः स
विश्वामित्रपिता स्मृतः ।
वेदोक्तमन्त्रा गाः प्रोक्ता धिया
संधारयेद्यतः ॥ ३,२८.२३ ॥
अतो गाधिरिति प्रोक्तस्तदर्थं भूतले
ह्यभूत् ।
इक्ष्वाकुपुत्रो वीन्द्र
विकुक्षिरिति विश्रुतः ॥ ३,२८.२४
॥
स एवेन्द्रावतारोभूद्धरिसेवार्थमेव
च ।
विशेषेण हरिं कुक्षौ विज्ञानाच्च
हरिः सदा ॥ ३,२८.२५ ॥
अतो विकुक्षिनामासौ भूलोके विश्रुतः
सदा ।
रामपुत्रः कुशः प्रोक्त इन्द्र एव
प्रकीर्तितः ॥ ३,२८.२६ ॥
वाल्मीकिऋषिणा यस्मात्कुशेनैव
विनिर्मितः ।
अतः कुश इति प्रोक्तो जानकीनन्दनः
प्रभुः ॥ ३,२८.२७ ॥
इन्द्रद्युम्नः पुरेंद्रस्तु गाधी
वाली तथार्जुनः ।
विकुक्षिः कुश एवैते सप्त चेन्द्राः
प्रकीर्तिताः ॥ ३,२८.२८ ॥
यः कृष्णपुत्त्रः प्रद्युम्नः काम
एव प्रकीर्तितः ।
प्रकृष्टप्रकाशरूपत्वात्प्रद्युम्न
इति नामवान् ॥ ३,२८.२९ ॥
यो रामभ्राता भरतः काम एवाभवद्भुवि
।
रामाज्ञां भरते
यस्मात्तस्माद्भरतनामकः ॥ ३,२८.३०
॥
चक्राभिमानि कामस्तु सुदर्शन इति
स्मृतः ।
ब्रह्मैव कृष्णपुत्रस्तु सांबो
जाम्बवतीसुतः ॥ ३,२८.३१ ॥
कामावतारो विज्ञेयः संदेहो नात्र
विद्यते ।
यो रुद्रपुत्रः स्कन्दस्तु काम एव
प्रकीर्तितः ॥ ३,२८.३२ ॥
रिपूनास्कंदते नित्यमतः स्कन्द इति
स्मृतः ।
यो वा सनत्कुमारस्तु ब्रह्मपुत्रः
खगाधिप ।
कामावतारो विज्ञेयो नात्र कार्या
विचारणा ॥ ३,२८.३३ ॥
सुदर्शनश्च परमः प्रद्युम्नः सांब
एव च ।
सनत्कुमारः सांबश्च षडेते कामरूपकाः
॥ ३,२८.३४ ॥
ततश्च इन्द्रकामावप्युमादिभ्यो
दशावरौ ।
तयोर्मध्ये तु गरुड काम इन्द्राधमः
स्मृतः ॥ ३,२८.३५ ॥
प्राणस्त्वहङ्कार एव अहङ्कारकसंज्ञकः
।
गरुत्मदंशो विज्ञेयः
कामेन्द्राभ्यां दशाधमः ॥ ३,२८.३६
॥
तदनन्तरजान्वक्ष्ये शृणु वीन्द्र
समाहितः ।
श्रवणान्मोक्षमाप्नोति
महापापाद्विमुच्यते ॥ ३,२८.३७ ॥
कामपुत्रोनिरुद्धोऽपि हरेरन्यः
प्रकीर्तितः ।
स एवाभूद्धरेः सेवां कर्तुं
रामानुजो भुवि ॥ ३,२८.३८ ॥
शत्रुघ्न इति विख्यातः
शत्रून्सूदयते यतः ।
अनिरुद्धः कृष्णपुत्रो
प्रद्युम्नाद्योऽजनिष्ट ह ॥ ३,२८.३९
॥
संकर्षणादिरूपैस्तु त्रिभिराविष्ट
एव सः ।
एवं द्विरूपो विज्ञेयो ह्यनिरुद्धो
महामतिः ॥ ३,२८.४० ॥
कामभार्या रतिर्या तु द्विरूपा
संप्रकीर्तिता ।
रुग्मपुत्री रुग्मवती कामभार्या
प्रकीर्तिता ॥ ३,२८.४१ ॥
अतिप्रकाशयुक्तत्वात्तस्माद्रुग्मवती
स्मृता ।
दुर्योधनस्य या पुत्री लक्षणा सा
रतिः स्मृता ॥ ३,२८.४२ ॥
काष्ठा सांबस्य भार्या सा लक्षणं
संयुनक्त्यतः ।
लक्षणाभिधया भूमौ दुष्ट वीर्योद्भवा
ह्यपि ॥ ३,२८.४३ ॥
एवं द्विरूपा विज्ञेया कामभार्या
रतिः स्मृता ।
स्वायंभुवो ब्रह्मपुत्रो
मनुस्त्वाद्यो गुरौ समः ।
राजधर्मेण विष्णोश्च जातः
प्रीणयितुं हरेः ॥ ३,२८.४४ ॥
बृहस्पतिर्देवगुरुर्महात्मा
तस्यावतारास्त्रय आसन् खगेन्द्र ।
रामावतारे भरताख्यो बभूव
ह्यंभोजजावेशयुतो बृहस्पतिः ॥ ३,२८.४५
॥
देवावतारान्वानरांस्तारयित्वा
श्रीरामदिव्याऽचरितान्यवादीत् ।
अतो ह्यसौ नारनामा बभूव
ह्यङ्गत्वमाप्तुं रामदेवस्य भूम्याम् ॥ ३,२८.४६ ॥
कृष्णावतारे द्रोणनामा बभूव
अंभोजजावेशयुतो बृहस्पतिः ।
यस्माद्दोणात्संबभूव गुरुश्च
तस्मादसौ द्रोणसंज्ञो बभूव ॥ ३,२८.४७
॥
भूभारभूताद्युद्धृतौ ह्यङ्गभूतो
विष्णोः सेवां कर्तुमेवास भूमौ ।
बृहस्पतिः पवनावेशयुक्ता स
उद्धवश्चेत्यमिधानमाप ॥ ३,२८.४८ ॥
यस्मादुत्कृष्टो हरिरत्र सम्यगतो
ह्यसौ बुधवन्नाम चाप ।
सखा ह्यभूत्कृष्णदेवस्य नित्यं
महामतिः सर्वलोकेषु पूज्यः ॥ ३,२८.४९
॥
दक्षिणाङ्गुष्ठजो दक्षो
ब्रह्मपुत्रो महामतिः ।
कन्यां सृष्ट्वा हरेः प्रीणन्नास
भूमा प्रजापतिः ।
पुत्रानुदपादयद्दक्षस्त्वतो दक्ष
इति स्मृतः ॥ ३,२८.५० ॥
शचीं भार्यां देवराजस्य विद्धि
तस्या ह्यवतारं शृणु सम्यक् खगेन्द्र ।
रामावतारे नाम तारा बभूव सा
वालिपत्नी शचीसंज्ञका च ॥ ३,२८.५१
॥
रामान्मृते वालिसंज्ञे पतौ हि
सुग्रीवसंगं सा चकाराथ तारा ।
अतो नागात्स्वर्गलोकं च तारा क्व वा
यायादन्तरिक्षे च पापा ॥ ३,२८.५२
॥
कृष्णावतारे सैव तारा च वीन्द्र
बभूव भूमौ विजयस्य पत्नी ।
पिशङ्गदेति ह्यभिधा स्याच्च तस्याः
सामीप्यमस्यास्त्वर्जुनेनैव चासीत् ॥ ३,२८.५३
॥
उत्पादयित्वा बभ्रुवाहं च पुत्रं
तस्यां त्यक्त्वा ह्यर्जुनो वै महात्मा ।
अतश्चोभे वारचित्राङ्गदे च शचीरूपे
नात्र विवार्यमस्ति ॥ ३,२८.५४ ॥
पुलोमजा मन्त्रद्युम्नस्य भार्या या
काशिका गाधिराजस्य भार्या ।
विकुक्षिभार्या सुमतिश्चेति संज्ञा
कुशस्य पत्नी कान्तिमतीति संज्ञा ॥ ३,२८.५५
॥
एता हि सप्त ह्यवराश्च शच्या जानीहि
वै नास्ति विचारणात्र ।
शची रतिश्चानिरुद्धो मनुर्दक्षो
बृहस्पतिः ।
षडन्योन्यसमाः प्रोक्ता
अहङ्काराद्दशाधमाः ॥ ३,२८.५६ ॥
अथ यः प्रवहो वायुर्मुख्यवायोः सुतो
बली ।
स वायुषु महानद्य स वै कोणाधिपस्तथा
॥ ३,२८.५७ ॥
नासिकासु स एवोक्तो भौतिकस्तुल्य एव
च ।
अतिवाहः स एवोक्तः यतो गम्यो
मुमुक्षुभिः ॥ ३,२८.५८ ॥
दक्षादिभ्यः पञ्चगुणादधमः
संप्रकीर्तितः ।
गरुड उवाच ।
प्रवहश्चेति संज्ञां स किमर्थं
प्राप तद्वद ॥ ३,२८.५९ ॥
अर्थः कश्चास्ति तन्नाम्नः प्रतीतस्तं
वदस्व मे ।
गरुडेनैवमुक्तस्तु भगवान्देवकीसुतः
।
उवाच परमप्रीतः संस्तूय गरुडं हरिः
॥ ३,२८.६० ॥
कृष्ण उवाच ।
प्रहर्षेण हरेस्तुल्यान्सर्वदा वहते
यतः ।
अतः प्रवहनामासौ कीर्तितः
पक्षिसत्तम ॥ ३,२८.६१ ॥
सर्वोत्तमो विष्णुरेवास्ति नाम्ना
ब्रह्मादयस्तदधीनाः सदापि ।
मयोक्तमेतत्तु सत्यं न मिथ्या
गृह्णामि हस्तेनोरगं कोपयुक्तम् ॥ ३,२८.६२
॥
सर्वं नु सत्यं यदि मिथ्या भवेत्तु
तदा त्वसौ मां दशतुह्यहीन्द्रः ।
एवं ब्रुवन्नुरगं कोपयुक्तं
समग्रहीन्नादशत्सोप्युरङ्गः ॥ ३,२८.६३
॥
एतस्य संधारणादेव वीन्द्र स
वायुपुत्रः प्रवहेत्याप संज्ञाम् ।
यो वा लोके विष्णुमूर्तिं विहाय
दैत्यस्वरूपा रेणुकाद्याः कुदेवाः ॥ ३,२८.६४
॥
तेषां तथा मत्पितॄणां च पूजा
व्यर्था सत्यं सत्यमेतद्ब्रवीमि ।
एतत्सर्वं यदि मिथ्या भवेत्तु तदा
त्वसौ मां दशतु ह्यहीन्द्रः ॥ ३,२८.६५
॥
पित्र्यं नयामि प्रविहायैव ये तु
पित्रुद्देशात्केवलं यः करोति ।
स पापात्मा नरकान्वै
प्रयातीत्येतद्वाक्यं सत्यमेतद्ब्रवीमि ॥ ३,२८.६६ ॥
न श्रीः स्वतन्त्रा नापि विधिः
स्वतन्त्रो न वायुदेवो नापि शिवः स्वतन्त्रः ।
तदन्ये नो गौरिपुलोमजाद्याः किं
वक्तव्यं नात्र लोके स्वतन्त्रः ॥ ३,२८.६७
॥
ब्रवीमि सत्यं पुरुषो विष्णुरेव
सत्यं सत्यं भुजमुद्धृत्य सत्यम् ।
एतत्सर्वं यदि मिथ्या भवेत्तु तदा
त्वसौ मां दशतु ह्यहीन्द्र ॥ ३,२८.६८
॥
जीवश्च सत्यः परमात्मा च
सत्यस्तयोर्भेदः सत्ये एतत्सदापि ।
जडश्चसत्यो जीवजडयोश्च भेदो भेदः
सत्यः किं च जडैशयोर्भिदा ॥ ३,२८.६९
॥
भेदः सत्यः सर्वजीवेषु नित्यं सत्या
जडानां च भेदा सदापि ।
एतत्सर्वं यदि मिथ्या भवेत्तु तदा
त्वसौ दशतु मां ह्यहीन्द्रः ॥ ३,२८.७०
॥
एवं ब्रुवन्नुरगं कोपयुक्तं
समग्रहीन्नादशत्सोप्युरङ्गः ।
एतस्य संधारणादेववीद्रे सा
वायुपुत्रः प्रवहेत्याप संज्ञाम् ॥ ३,२८.७१
॥
द्वयं स्वरूपं प्रविदित्वैव पूर्वं
त्वं स्वीकुरुष्व द्वयमेव नित्यम् ।
स्नानादिकं च प्रकरोति नित्यं पापी
स आत्मा नैव मोक्षं प्रयाति ॥ ३,२८.७२
॥
तस्माद्द्वयं प्रविचार्यैव नित्यं
सुखी भवेन्नात्र विचार्यमस्ति ।
एतत्सर्वं यदि मिथ्या भवेत्तु तदा
त्वसौ मां दशतु ह्यहीन्द्रः ॥ ३,२८.७३
॥
गरुड उवाच ।
किं तद्द्वयं देवदेवेश किं वा
तत्कारणं कीदृशं मे वदस्व ।
द्वयोस्त्यागं कीदृशं मे वदस्व
त्यागात्सुखं कीदृशं मे वदस्व ॥ ३,२८.७४
॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
द्वयं चाहुस्त्विन्द्रिये द्वे
बलिष्ठे देहे ह्यस्मिञ्श्रोत्रनेत्रे सुसृष्टे ।
अवान्तरे श्रोत्रनेत्रे खगेन्द्र
द्वयं चाहुस्तत्स्वरूपं च वक्ष्ये ॥ ३,२८.७५
॥
श्रोत्रस्वभावो लोक वार्ताश्रुतौ च
ह्यतीव मोदस्त्वादरास्वादनेन ।
हरेर्वार्ताश्रवणे दुःखजालं
श्रोत्रस्वभावो जडता दमश्च ॥ ३,२८.७६
॥
नेत्रस्वभावो दर्शने स्त्रीनराणां
ह्यत्यादरान्नास्ति निद्रादिकं च ।
हरेर्भक्तानां दर्शने दुःखरूपो
विष्णोः पूजादर्शने दुःखजालम् ॥ ३,२८.७७
॥
तयोः स्वरूपं प्रविदित्वैव पूर्वं
पुनः पुनः स्वीकरोत्येव मूढः ।
शिश्नं मौर्ख्याच्चैव कुत्रापि योनौ
प्रवेशयेत्सर्वदा ह्यादरेण ॥ ३,२८.७८
॥
भयं च लज्जा नैव चास्ते वधूनां तथा
नृणां वनितानां यतीनाम् ।
स्वसारं ते ह्यविदित्वा दिनेपि
सुवाम यज्ञेन स्वाभावश्च वीन्द्र ॥ ३,२८.७९
॥
रसास्वभावो भक्षणे सर्वदापि
ह्यनर्पितस्यान्नभक्ष्यस्य विष्णोः ।
तथोपहारस्य च तत्स्वभावः
अभक्ष्याणां भक्षणे तत्स्वभावः ॥ ३,२८.८०
॥
अलेह्यलेहस्य च तत्स्वभावः पातुं
त्वपेयस्य च तत्स्वभावः ।
द्वयोः स्वरूपं च विहाय मूढः पुनः
पुनः स्वीकरोत्येव नित्यम् ॥ ३,२८.८१
॥
तस्य स्नानं व्यर्थमाहुश्च
यस्मात्तस्मात्त्याज्यं न द्वयोः कार्यमेव ।
अभिप्रायं ह्येतमेवं खगेन्द्र
जानीहि त्वं प्रहस्यैव नित्यम् ॥ ३,२८.८२
॥
भार्याद्वयं ह्यविदित्वा स्वरूपं
स्वीकृत्य चैकां प्रविहायैव चैकाम् ।
स्नानादिकं कुरुते मूढबूद्धिः
व्यर्थं चाहुर्मोक्षभोगौ च नैव ।
एतत्सर्वं यदि मिथ्या भवेत्तु तदा
त्वसौ मां दशतु ह्यहीन्द्रः ॥ ३,२८.८३
॥
गरुड उवाच ।
भार्याद्वयं किं वद त्वं ममापि तयोः
स्वरूपं किं वद त्वं मुरारे ।
तयोर्मध्ये ग्राह्यभार्यां वद
त्वमग्राह्यभार्यां चापि सम्यग्वद त्वम् ॥ ३,२८.८४ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
बुद्धिः पत्नी सा द्विरूपा खगेन्द्र
दुष्टा चैका त्वपरा सुष्ठुरूपा ।
तयोर्मध्ये दुष्टरूपा कनिष्ठा
ज्येष्ठा तु या सुष्ठुबुद्धिस्वरूपा ॥ ३,२८.८५ ॥
कनिष्ठया नष्टतां याति जीवः
सुतिष्ठन्त्या याति योग्यां प्रतिष्ठाम् ।
कनिष्ठायाः शृणु वक्ष्ये स्वरूपं
श्रुत्वा तस्यास्त्यागबुद्धिं कुरुष्व ॥ ३,२८.८६ ॥
जीवं यं वै प्रेरयन्ती कनिष्ठा
काम्यं धर्मं कुरुते सर्वदापि ।
क्व ब्राह्मणाः क्व च
विष्णुर्महात्मा क्व वै कथा क्व च यज्ञाः क्व गावः ॥ ३,२८.८७ ॥
क्व चाश्वत्थः क्व च स्नानं क्व
शौचमेतत्सर्वं नाम नाशं करोति ।
मूढं पतिं रेणुकां पूजयस्व
मायादेव्या दीपदानं कुरुष्व ॥ ३,२८.८८
॥
सुभैरवादीन् भज मूढ त्वमन्ध
हारिद्रचूर्णन्धारयेः सर्वदापि ।
ज्येष्ठाष्टम्यां ज्येष्ठदेवीं भजस्व
भक्त्या सूत्रं गलबन्धं कुरुष्व ॥ ३,२८.८९
॥
मरिगन्धाष्टम्यां मरिगन्धं भजस्व
तथा सूत्रं स्वगले धारयस्व ।
दीपस्तंभं सुदिने पूजयस्व
तत्सूत्रमेव स्वगले धारयस्व ॥ ३,२८.९०
॥
महालक्ष्मीं चाद्यलक्ष्मीं च
सम्यक्पूजां कुरु त्वं हि भक्त्याथ जीव ।
लक्ष्मीसूत्रं स्वागले धारयस्व
महालक्ष्मीवान् भवसीत्युत्तरत्र ॥ ३,२८.९१
॥
विहाय मौञ्जीदिवसे भाग्यकामः
सुगुग्गुलान्धारयस्वातिभक्त्या ।
सुवासिनीः पूजयस्वाशु भक्त्या
गन्धैः पुष्पैर्धूपदीपैः प्रतोष्य ॥ ३,२८.९२
॥
वरार्तिक्यं कांस्यपात्रे निधाय
कुर्वार्तिक्यं देवतादेवतानाम् ।
पिचुमन्दपत्राणि वितत्य भूमौ नमस्व
त्वं क्षम्यतां चेति चोक्त्वा ॥ ३,२८.९३
॥
महादेवीं पूजयस्वाद्य भक्त्या
सद्वैष्णवानां मा ददस्वाप्यथान्नम् ।
सद्वैष्णवानां यदि वान्नं ददासि
भाग्यं च ते पश्यतो नाशमेति ॥ ३,२८.९४
॥
स्ववामहस्ते वेणुपात्रे निधाय दीपं
धृत्वा सव्यहस्ते पते त्वम् ।
उत्तिष्ठ भोः पञ्चगृहेषु भिक्षां
कुरुष्व सम्यक्प्रविहायैव लज्जाम् ॥ ३,२८.९५
॥
आदौ गृहे षड्रसान्नं च कुत्वा
जगद्गोप्यं भोजनं त्वं कुरुष्व ।
तच्छेषान्नं भोजयित्वा पते त्वं
तासां च रे शरणं त्वं कुरुष्व ॥ ३,२८.९६
॥
तासां हस्तं पुस्तके स्तापयित्वा
त्राहीत्येवं तन्मुखैर्वाचयस्व ।
त्वं खड्गदेवं
पूजयस्वाद्यभर्तस्तत्सेवकान्पूजयस्वाद्य सम्यक् ॥ ३,२८.९७ ॥
तैः सार्धं त्वं श्वानशब्दं कुरुष्व
हरिद्राचूर्णं सर्वदा त्वं दधस्व ।
कुरुष्व त्वं भीमसेनस्य पूजां
पञ्चामृतैः षोडशभिश्चोपचारैः ॥ ३,२८.९८
॥
तत्कौपीनं रौप्यजं कारयित्वा
समर्पयित्वा दीपमालां कुरुष्व ।
तद्दासवर्यान् भोजयस्वाद्य भक्त्या
गर्जस्व त्वं भीमभीमेति सुष्ठु ॥ ३,२८.९९
॥
तद्दासवर्यान्मोदयस्व
स्ववस्त्रैर्मद्यैर्मांसद्रव्यजालेन नित्यम् ।
महादेवं पूजयस्वाद्य
सम्यग्महारुद्रैरतिरुद्रैश्च सम्यक् ॥ ३,२८.१०० ॥
हरेत्युक्त्वा जङ्गमान्पूजयस्व
शैवागमे निपुणाञ्छूद्रजातान् ।
शाकंभरीं विवशः
सर्वशाकान्सुपाचयित्वा च गृहे गृहे च ॥ ३,२८.१०१ ॥
ददस्व भक्त्या परमादरेण स्वलङ्कृत्य
प्रास्तुवंस्तद्गुणांश्च ।
कुलादेवं पूजयस्वाद्य भक्त्या त्वं
दृग्भ्यां वै तद्दिने शंभुबुद्ध्या ॥ ३,२८.१०२
॥
तद्भक्तवर्यान्पूजयस्वाद्य
सम्यक्तत्पादमूले वन्दनं त्वं कुरुष्व ।
सुपञ्चम्यां मृन्मयीं शेषमूर्तिं
पूजां कुरुष्व क्षीरलाजादिकैश्च ॥ ३,२८.१०३
॥
सुनागपाशं हि गले च बद्ध्वा
तच्छेषान्नं भोजयेर्भोः पुनस्त्वम् ।
दिने चतुर्थे भोजयस्वाद्य भक्त्या
नैवेद्यान्नं भोजयस्वाद्य सुष्ठु ॥ ३,२८.१०४
॥
इत्यादिकं प्रेरयित्वा पतिं सा
जीवेन नष्टं प्रकरोत्येव नित्यम् ।
तस्याः संगाज्जीवरूपः पतिस्त्वां
सम्यग्दष्टामिहलोके परत्र ॥ ३,२८.१०५
॥
तस्याः संगं सुविदूरं विसृज्य
चेष्ट्वा समग्रं कुरु सर्वदा त्वम् ।
सुबुद्धिरूपा त्वीरयन्ती जगाद भजस्व
विष्णुं परमादरेण ॥ ३,२८.१०६ ॥
हरिं विनान्यं न भजस्व नित्यं सा
रेणुका त्वां तु न पालयिष्यति ।
अदृष्टनामा हरिरेवं हि नित्यं
फलप्रदो यदि न स्यात्खगेन्द्र ॥ ३,२८.१०७
॥
जुगुप्सितां श्रुत्यनुक्तां च देवीं
पतिद्रुहां सर्वदा सेवयित्वा ।
तस्याः
प्रसादात्कुष्ठभगन्दराद्यैर्भुक्त्वा दुःखं संयमिनीं प्रयाहि ॥ ३,२८.१०८ ॥
तदा कुदेवी कुत्र गता वदस्व मे
ह्यतः पते त्वं न भजस्व देवीम् ।
पते भज त्वं ब्राह्मणान्वैष्णवांश्च
संसारदुःखात्तारन्सुष्ठुरूपान् ॥ ३,२८.१०९
॥
सेवादिकं प्रविहायैव स्वच्छं मायादेव्या
भजनात्किं वदस्व ।
ज्येष्ठाष्टम्यां ज्येष्ठदेवीं
ह्यलक्ष्मीं लक्ष्मीति बुद्ध्या पूजयित्वा च सम्यक् ॥ ३,२८.११० ॥
तस्याः सूत्रं गलबद्धं च कृत्वा
नानादुःखं ह्यनुभूयाः पते त्वम् ।
यदा पते यमदूतैश्च पाशैर्बद्ध्वा च
सम्यक् ताड्यमानैः कशाभिः ॥ ३,२८.१११
॥
तदा ह्यलक्ष्मीः कुत्र पलायतेऽसावतो
मूलं विष्णुपादं भजस्व ।
पते भज त्वं सर्वदा वायुतत्त्वं न
चाश्रयेस्त्वं सूक्ष्मस्कन्दं च मूढ ॥ ३,२८.११२ ॥
तद्वत्तं त्वं नवनीतं च भक्त्या
तदुच्छिष्टं भक्षयित्वा पते हि ।
तस्याश्च सूत्रं गलबद्धं च कृत्वा
इहैव दुःखान्यनुभूयाः पते त्वम् ॥ ३,२८.११३
॥
यदा पते यमदूतैश्च पाशैर्बद्ध्वा च
सम्यक् ताड्यमानः कशाभिः ।
तदा स्कन्दः कुत्र पलायतेऽसावतो
मूलं विष्णुपादं भजस्व ॥ ३,२८.११४
॥
दीपस्तंभं दापयित्वा पते त्वं
सूत्रं च बद्ध्वा स्वगले च भक्त्या ।
तदा बद्ध्वा यमदूतैश्च
पाशैर्दीपस्तंभैस्ताड्यमानस्तु सम्यक् ॥ ३,२८.११५ ॥
दीपस्तंभः कुत्र पलायितोभूदतो मूलं
विष्णुपादं भजस्व ।
लक्ष्मीदिने पूजयित्वा च लक्ष्मीं
सूत्रं तस्याः स्वगले धारय त्वम् ॥ ३,२८.११६
॥
यदा पते यमदूतैश्च पाशैर्बध्वा
सम्यक् ताड्यमानः कशाभिः ।
तदा लक्ष्मीः कुत्र पलायतेऽसावतो
मूलं विष्णुपादं भजस्व ॥ ३,२८.११७
॥
विवाहमौंञ्जीदिवसे मूढबुद्धे
जुगुप्सितान्धारयित्वा सुभक्त्या ।
वरारार्तिकं कांस्यपात्रे निधाय
कृत्वार्तिक्यं उदउदैति शब्दम् ॥ ३,२८.११८
॥
तथैव दष्ट्वा पिचुमन्दस्य पत्रं
सुनर्तयित्वा परमादरेण ।
यदा तदा यमदूतैश्च पाशैर्बद्ध्वा बद्ध्वा
ताड्यमानश्च सम्यक् ॥ ३,२८.११९ ॥
तव स्वामिन्कुलदेवो महात्मन्पलायितः
कुत्र मे तद्वदस्व ।
स्वदेहानां पूजयित्वा च
सम्यक्कण्ठाभरणैर्विधुराणां च केशैः ॥ ३,२८.१२० ॥
संतिष्ठमाने यमदूता बलिष्ठा
संताड्यमाने मुसलैर्भिन्दिपालैः ।
यदा तदा कुत्र पलायिता सा केशैर्विहीना
लंबकर्णं च कृत्वा ॥ ३,२८.१२१ ॥
स्ववामहस्ते वेणुपात्रं निधाय दीपं
धृत्वा सव्यहस्ते च मूढः ।
गृहेगृहे भैक्षचर्यां च कृत्वा
संतिष्ठमाने स्वगृहं चैव देवी ॥ ३,२८.१२२
॥
यदा तदा यमदूतैश्च मूढ दीपैः
सहस्रैर्दह्यमानश्च सम्यक् ।
निर्नासिका रेणुका मूढबुद्धे
पलायिता कुत्र सा मे वदस्व ॥ ३,२८.१२३
॥
सदा मूढं खड्गदेवं च भक्त्या तं
भक्तवत्पूजयित्वा च सम्यक् ।
तैः सार्धं त्वं श्वानवद्गर्जयित्वा
संतिष्ठमाने स्वगृहे चैव नित्यम् ॥ ३,२८.१२४
॥
यदा तदा यमदूतैश्च
सम्यक्संताड्यमानस्तत्र शब्दं प्रकुर्वन् ।
संतिष्ठमाने भक्तवर्यं विहाय तदा
देवः कुत्र पलायितोभूत् ॥ ३,२८.१२५
॥
स पार्थक्याद्भीमसेनप्रतीकं
पञ्चामृतैः पूजयित्वा च सम्यक् ।
सुव्यञ्जने चान्नकौपीनमेव दत्त्वा
मूढस्तिष्ठमाने स्वगेहे ॥ ३,२८.१२६
॥
यदा तदा यमदूतैश्च
सम्यक्संताड्यमाने यममार्गे च मूढः ।
भीमः स वै कुत्र पलायितोभूदतो मूलं
विष्णुपादं भजस्व ॥ ३,२८.१२७ ॥
महादेवं पूजयित्वा च सम्यक्
हरेत्युक्त्वा स्वगृहे विद्यमाने ।
यदा गृहं दह्यते वह्निना तु तदा हरः
कुत्र पलायितोभूत् ॥ ३,२८.१२८ ॥
शाकंभरीदिवसे सर्वमेव शाकंभरी सा च
देवी महात्मन् ।
पलायिता कुत्र मे त्वं वदस्व कुलालदेवं
पूजयित्वा च भक्त्या ॥ ३,२८.१२९ ॥
कार्पासं वै तेन दत्तं गृहीत्वा
संतिष्ठमाने यमदूतैश्च सम्यक् ।
संहन्यमानस्तीक्षणधारैः कुठारैः
कुलालदेवं च सुदंष्ट्रनेत्रम् ।
विहाय वै कुत्र पलायितोभून्न
ज्ञायतेऽन्वेषणाच्चापि केन ॥ ३,२८.११३०
॥
यदा पञ्चम्यां मृन्मयीं शेषमूर्तिं
संपूज्य भक्त्या विद्यमाने स्वगेहे ।
तदा बद्ध्वा यमदूताश्च
सम्यक्संनह्यमाने नागपाशैश्च बद्ध्वा ॥ ३,२८.१३१ ॥
स्वभक्तवर्यं प्रविहाय नागः पलायितः
कुत्र वै संवद त्वम् ।
दूर्वाङ्कुरैर्मोदकैः पूजयित्वा
विनायकं पञ्चखाद्यैस्तथैव ॥ ३,२८.१३२
॥
संतिष्ठंमाने यमदूतैश्च
सम्यक्संताड्यमाने तप्तदण्डैश्च मूढ ।
दन्तं विहायैव च विघ्नराजः पलायितः
कुत्र मे तं वदत्वम् ॥ ३,२८.१३३ ॥
विवाहकाले पिष्टदेवीं सुभक्त्या
संपूजयित्वा विद्यमानो गृहे स्वे ।
यदा तदा यमदूतैश्च बद्ध्वा
संपीड्यमानो यममार्गे स मूढः ॥ ३,२८.१३४
॥
विष्ठादेवी पीड्यमानं च भक्तं विहाय
सा कुत्र पलायिताभूत् ।
विवाहकाले रजकस्य गेहं गत्वा
सम्यक्प्रार्थयित्वा च मूढः ॥ ३,२८.१३५
॥
यस्तंभसूत्रं कलशे परीत्य पूजां
कृत्वा विद्यमानो गृहे स्वे ।
यदा तदा यमदूतश्च सम्यक्तं
स्तंभसूत्रं तस्य मुखे निधाय ॥ ३,२८.१३६
॥
संताड्यमाने स्तंभसूत्रस्थदेवी
पलायिता कुत्र मे संवदस्व ।
विवाहकाले पूजयित्वा च
सम्यक्चण्डालदेवीं भक्तवश्यां च तस्याः ॥ ३,२८.१३७ ॥
तद्भक्तवर्यैः शूर्पमध्ये च तीरे
संसेवयित्वा विद्यमानो गृहे स्वे ।
यदा तदा यमदूतैश्च बद्ध्वा
संताड्यमानो यममार्गे महद्भिः ॥ ३,२८.१३८
॥
चऊलदेवी क्व पलायिताभूत्सुमूढबुद्धे
विष्णुपादं भजस्व ।
ज्वरादिभिः पीड्यमाने स्वपुत्रे
गृहे स्थितं ब्रह्मदेवं च सम्यक् ॥ ३,२८.१३९
॥
धूर्पैर्दीपैर्भक्ष्यभोज्यैश्च
पुष्पैः पूजां कृत्वा विद्यमानश्च गेहे ।
यदा तदा यमदूतैश्च बद्ध्वा
संताड्यमाने वेणुपाशादिभिश्च ॥ ३,२८.१४०
॥
स ब्रह्मदेवः क्व
पलायितोभूत्सुमूढबुद्धे विष्णुपादं भजस्व ।
सन्तानार्थं बृहतीं पूजयित्वा गलेन
बद्ध्वा बृहतीं वै फलं च ॥ ३,२८.१४१
॥
संतिष्ठमाने यमदूतैश्च बद्ध्वा
संताड्यमाने बृहतीकण्टकैश्च ।
तदा देवी बृहती मूढबुद्धे पलायिता
कुत्र मे तद्वद त्वम् ॥ ३,२८.१४२ ॥
भजस्व मूढ परदैवतं च नारायणं तारकं
सर्वदुःखात् ।
सुक्षुद्रदेवेषु मतिं च मा कुरु न च
शृणु त्वं फल्गुवाक्यं तथैव ॥ ३,२८.१४३
॥
सुक्षुद्रदेवान् भिन्दिपाले निधाय
विसर्जयित्वा दूरदेशे महात्मन् ।
संधार्य त्वं स्वकुलाचारधर्मं
संपातने नरकं हेतुभूतम् ॥ ३,२८.१४४
॥
पुनीहि गात्रं सर्वदा मूढबुद्धे
मन्त्राष्टकैर्जन्मतीर्थे पवित्रे ।
हृदि स्थितां मौर्ख्यमुद्रां विहाय
कृत्वा भूषां विष्णुमुद्राभिरग्र्याम् ॥ ३,२८.१४५ ॥
सदा मूढो हरिवार्तां भजस्व
ह्यायुर्गतं व्यर्थमेवं कुबुद्ध्या ।
सद्वैष्णवानां संगमो दुर्लभश्च क्षुब्धं
ज्ञानं तारतम्यस्वरूपम् ॥ ३,२८.१४६
॥
हरिं गुरुं ह्यनुसृत्यैव सत्यं गतिं
स्वकीयां तेन जानीहि मूढ ।
दग्ध्वा दुष्टां बुद्धिमेवं च मूढ
सुबुद्धिरूपं मा भजस्वैव नित्यम् ॥ ३,२८.१४७
॥
मया सार्धं सद्गुरुं प्राप्य
सम्यग्वैराग्यपूर्वं तत्त्वमात्रं विदित्वा ।
तेनैव मोक्षं प्राप्नुमो
नार्जवैर्यत्तार्या विष्णोः संप्रसादाच्च लक्ष्म्याः ॥ ३,२८.१४८ ॥
इत्याशयं मनसा सन्निधाय तथा चोक्तं
भक्तवर्यो मदीयः ।
अतो भक्तः प्रवहेत्येव संज्ञामवाप
वीन्द्र प्रकृतं तं शृणु त्वम् ॥ ३,२८.१४९
॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे तारतम्यनिरूपणद्वारा
विष्णोरेवोपास्यत्वमित्यर्थ निरूपणं नामाष्टाविंशतमोध्यायः॥
गरुडपुराणम् ब्रह्मकाण्डः
(मोक्षकाण्डः) अध्यायः २९
अध्यायः २९ श्रीगरुडमहापुराणम्
प्रवहानन्तरान्वक्ष्ये शृणु
पक्षीन्द्रसत्तम ।
यो धर्मो ब्रह्मणः पुत्रो ह्यादिसृष्टौ
त्वगुद्भवः ॥१ ॥
सज्जनान्सौम्यरूपेण
धारणाद्धर्मनामकः ।
स एव सूर्यपुत्रोभूद्यमसंज्ञामवाप
सः ।
पापिनां शिक्षकत्त्वात्स यम
इत्युच्यते बुधैः ॥२ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
प्रह्लादानन्तरं गङ्गा भार्या वै
वरुणस्य च ।
प्रह्लादादधमा ज्ञेया महिम्ना
वरुणाधिका ॥३ ॥
स्वरूपादधमा ज्ञेया नात्र कार्या
विचारणा ।
ज्ञानस्वरूपदं विष्णुं यमो जानाति
सर्वदा ॥४ ॥
अतो गङ्गेति सा ज्ञेया सर्वदा
लोकपावनी ।
भक्त्या विष्णुपदीत्येव कीर्तिता
नात्र संशयः ॥५ ॥
या पूर्वकाले यज्ञलिङ्गस्य विष्णोः
साक्षाद्धरेर्विक्रमतः खगेन्द्र ।
वामस्य पादस्य नखाग्रतश्च निर्भिद्य
चोर्ध्वाण्डकटाहखण्डम् ॥६ ॥
तदुदरमतिवेगात्सम्प्रविश्यावहन्तीं
जगदघततिहन्तुः पादकिञ्जल्कशुद्धाम् ।
निखिलमलनिहन्त्रीं
दर्शनात्स्पर्शनाच्च सकृदवगहनाद्वा भक्तिदां विष्णुपादे ।
शशिकरवरगौरां मीननेत्रां सुपूज्यां
स्मरति हरिपदोत्थां मोक्षमेति क्रमेण ॥७ ॥
इन्द्रोपि
वायुकरमर्दितवायुकूटबिन्दुं च प्राश्य शिरसि ह्यसहिष्णुमानः ।
भागीरथी हरिपदाङ्कमिति स्म नित्यं
जानन्महापरमभागवतप्रधानः ।
भक्त्या च खिन्नहृदयः परमादरेण
धृत्वा स्वमूर्ध्नि परमो ह्यशिवः शिवोऽभूत् ॥८ ॥
भागीरथ्याश्च चत्वारि
रूपाण्यासन्खगेश्वर ।
महाभिषग्जनेन्द्रस्य भार्या तु
ह्यभिषेचनी ॥९ ॥
द्वितीयेनैव रूपेण गङ्गा भार्या च
शन्तनोः ।
सुषेणा वै सुषेणस्य भार्या सा वानरी
स्मृता ॥१० ॥
मण्डूकभार्या गङ्गा तु सैव
मण्डूकिनी स्मृता ।
एवं चत्वारि रूपाणि गङ्गाया इति
कीर्तितम् ॥११ ॥
आदित्याच्चैव गङ्गातः पर्जन्यः
समुदाहृतः ।
प्रवर्षति सुवैराग्यं ह्यतः
पर्जन्यनामकम् ॥१२ ॥
शरंवराय पञ्चजन्याच्च पञ्च हित्वा
जग्ध्वा गर्वकं षट्क्रमेण ।
स्वबाणस्य स्वहृदि संस्थितस्य
भजेत्सदा नैव भक्तिं विषं च ॥१३ ॥
लिङ्गं पुष्टं नैव कार्यं सदैव
लिङ्गं पुष्टं कार्यमेवं सदापि ।
योनौ सक्तिर्नैव कार्या सदापि योनौ
मुक्तेऽसंगतो याति मुक्तिम् ॥१४ ॥
वैराग्यमेवं प्रकारोत्येव नित्यमतः
पर्जन्यस्त्वन्तकः पक्षिवर्य ।
एतावता शरभाख्यो महात्मा स चान्तरो
स तु पर्जन्य एव ॥१५ ॥
शश्वत्केशा यस्य गात्रे खगेन्द्र
प्रभास्यन्ते शरभाख्यो पयोतः ।
यमस्य भार्या श्यामला या खगेन्द्र
यस्मात्सदा कलिभार्यापिया च ॥१६ ॥
मत्वा सम्यक्मानसं या करोति ह्यतश्च
सा श्यामलासंज्ञकाभूत् ।
मलं वक्ष्ये हरिभक्तेर्विरोधी
सुलोहपात्रे सन्निधानं च तस्य ॥१७ ॥
तद्वैष्णवैस्त्याज्यमेवं सदैव
वस्त्रं दग्धं सन्धिजं चैव जन्यम् ॥१८ ॥
चिकित्सितं परदुःखं खगेन्द्र
हरेर्भक्तैस्त्याज्यमेवं सदैव ॥१८ ॥
नोच्चाश्च ते
हरिभक्तेर्विहीनास्तेषां संगो नैव कार्यः सदापि ।
पुराणसंपर्कविसर्जिनं च पुराणतालं च
पुराणवस्त्रम् ॥१९ ॥
सुजीर्णकन्थाजिनमेखलं च यज्ञोपवीतं
च कलिप्रियं च ।
प्रियं गृहं चोर्णवितानकं च
समित्कुशैः पूरितं कुत्सितं च ॥२० ॥
सर्वं चेत्कलिभार्याप्रियं च नैव
प्रियं शार्ङ्गपाणेः कदाचित् ।
कांस्ये सुपक्वं यावनालस्य चान्नं
तुषः पिण्याकं तुम्बबिल्वे पलाण्डुः ॥२१ ॥
दीर्घं तक्रं स्वादुहीनं कटूष्णमेते
सर्वे कलिभार्याप्रियाश्च ।
सुदुर्मुखं निन्दनं चार्यजानां सतोवमत्यात्मजानां
प्रसह्य ॥२२ ॥
सुपीडनं सर्वदा भर्तृवर्गे
गृहस्थितव्रीहिवस्त्रादिचौर्यात् ।
प्रकीर्णभूतान्मूर्धजान्संदधानं
करैर्युतं देवकलिप्रियं च ॥२३ ॥
इत्यादि सर्वं कलिभार्याप्रियञ्च
सुनिर्मलं प्रकरोत्येव सर्वम् ।
अतश्च सा श्यामलेति स्वसंज्ञामवाप
सा देवकी संबभूव ॥२४ ॥
युधिष्ठिरस्यैव बभूव पत्नीसंभाविता
तत्र च देवकी सा ।
चन्द्रस्य भार्या रोहिणी वै
तदेयमश्विन्यादिभ्योऽह्यधिका सर्वदैव ॥२५ ॥
रोणीं धृत्वा रोहति योग्यस्थानं
तस्माच्च सा रोहिणीति प्रसिद्धा ।
आदित्यभार्या नाम संज्ञा खगेन्द्र
ज्ञेया सा नारायणस्य स्वरूपा ॥२६ ॥
संजानातीत्येव संज्ञामवाप संज्ञेति
लोके सूर्य भार्या खगेन्द्र ।
ब्रह्माण्डस्य ह्यभिमानी तु देवो
विराडिति ह्यभिधामाप तेन ॥२७ ॥
गङ्गादिषट्कं सममेव नित्यं परस्परं
नोत्तमं नाधमं च ।
प्रधानाग्नेः पाविकान्यैव गङ्गा सदा
शुभा नात्र विचार्यमस्ति ॥२८ ॥
आसां ज्ञानत्पुण्यमाप्नोति नित्यं
सदा हरिः प्रीयते केशवोलम् ।
गङ्गादिभ्यो ह्यवराह्यग्निजाया
स्वाहासंज्ञाधिगुणा नैव हीना ॥२९ ॥
स्वाहाकारो मन्त्ररूपाभिमानी
स्वाहेति संज्ञामाप सदैव वीन्द्र ।
अग्नेर्भार्यातो बुद्धिमान् संबभूव
ब्रह्माभिमानी चन्द्रपुत्रो बुधश्च ॥३० ॥
बुद्ध्याहरद्वै राष्ट्रजातं च सर्वं
धृतं त्वतो बुधसंज्ञामवाप ।
एवं चाभूदभिमन्युर्महात्मा
सुभद्राया जठरे ह्यर्जुनाच्च ॥३१ ॥
कृष्णस्य चन्द्रस्य यमस्य चांशैः स
संयुतस्त्वश्विनोर्वै हरस्य ।
स्वाहाधमश्चन्द्रपुत्रो बुधस्तु
पादारविन्दे विष्णुदेवस्य भक्तः ॥३२ ॥
नामात्मिका त्वश्विभार्या उषा नाम
प्रकीर्तिता ।
बुधाधमा सा विज्ञेया स्वाहा
दशगुणाधमा ॥३३ ॥
नकुलस्य भार्या मागधस्यैव पुत्री
शल्यात्मजा सहदेवस्य भार्या ।
उभे ह्येते अश्विभार्या ह्युषापि
उपासते षड्गुणं विष्णुमाद्यम् ।
अतोऽप्युषासंज्ञका सा खगेन्द्र
अनन्तराञ्छृणु वक्ष्ये महात्मन् ॥३४ ॥
ततः शक्तिः पृथिव्यात्मा शनैश्चरति
सर्वदा ।
अतः शनैश्चरो नाम उषायाश्च दशाधमाः
॥३५ ॥
कर्मात्मा पुष्करो ज्ञेयः शनेरथ यमो
मतः ।
नयाभिमानी पुरुषः किञ्चिन्नम्रो
दशावरः ॥३६ ॥
हरिप्रीतिकरो नित्यं पुष्करे
क्रीडते यतः ।
अतस्तु पुष्कलो नाम लोके स
परिकीर्तितः ॥३७ ॥
हरि प्रीतिकरान्धर्मान्वक्ष्ये शृणु
खगाधिप ।
प्रातः काले समुत्थाय
स्मरेन्नारायणं हरिम् ॥३८ ॥
तुलसीवन्दनं कुर्याच्छ्रीविष्णुं
संस्मरेत्खग ।
विण्मूत्रोत्सर्गकाले च
ह्यपानात्मककेशवम् ॥३९ ॥
त्रिविक्रमं शौचकाले गङ्गापानकरं
हरिम् ।
दन्तधावनकाले तु चन्द्रान्तर्यामिणं
हरिम् ॥४० ॥
मुखप्रक्षालने काले माधवं
संस्मरेत्खग ।
गवां कण्डूयने चैव स्मरेद्गोवर्धनं
हरिम् ॥४१ ॥
सदा गोदोहने काले
स्मरेद्गोपालवल्लभम् ।
अनन्तपुण्यार्जितजन्मकर्मणां
सुपक्वकाले च खगेन्द्रसत्तम ॥४२ ॥
स्पर्शे गवां चैव सदा नृणां वै
भवत्यतो नात्र विचार्यमस्ति ।
यस्मिन् गृहे नास्ति सदोत्तमा च
गौर्यङ्गणे श्रीतुलसी च नास्ति ॥४३ ॥
यस्मिन् गृहे देवमहोत्सवश्च यस्मिन्
गृहे श्रवणं नास्ति विष्णोः ।
तत्संसर्गाद्याति दुःखादिकं च तस्य
स्पर्शो नैव कार्यः कदापि ॥४४ ॥
गोस्पर्शनविहीनस्य गोदोहनमजानतः ।
गोपोषणविहीनस्य प्राहुर्जन्म
निरर्थकम् ॥४५ ॥
गोग्रासमप्रदातुश्च गोपुष्टिं
चाप्यकुर्वतः ।
गतिर्नास्त्येव नास्त्येव
ग्रामचाण्डालवत्स्मृतः ॥४६ ॥
वत्स्यस्य स्तनपाने च बालकृष्णं तु
संस्मरेत् ।
दधिनिर्मन्थने चैव मन्थाधारं
स्मरेद्धरिम् ॥४७ ॥
मृत्तिकास्नान काले तु वराहं
संस्मरेद्धरिम् ।
पुण्ड्राणां धारणे चैव केशवादींश्च
द्वादश ॥४८ ॥
मुद्राणां धारणे चैव
शङ्खचक्रगदाधरम् ।
पद्मं नारायणीं मुद्रां
क्रुद्धोल्कादींश्च संस्मरेत् ॥४९ ॥
श्रीरामसंस्मृतिं चैव संध्याकाले
खगोत्तम ।
अच्युतानन्तगोविन्दाञ्छ्राद्धकाले च
संस्मरेत् ॥५० ॥
प्राणादिकपञ्चहोमेचानिरूद्धादींश्च
संस्मरेत् ।
अन्नाद्यर्पणकाले तु वासुदेवं च
संस्मरेत् ॥५१ ॥
अपोशनस्य काले तु वायोरन्तर्गतं
हरिम् ।
वस्त्रधारणकाले तु उपेन्द्रं
संस्मरेद्धरिम् ॥५२ ॥
यज्ञोपवीतस्य च धारणे तु नारायणं
वामनाख्यं स्मरेत्तु ।
आर्तिक्यकाले च तथैव विष्णोः
सम्यक्स्मरेत्पर्शुरामाख्यविष्णुम् ॥५३ ॥
अपोशनेवैश्वदेवस्य काले
तदन्यहोमादिषु भस्मधारणे ।
स्मरेत्तु भक्त्या परमादरेण नारायणं
जामदग्न्याख्यरामम् ॥५४ ॥
त्रिवारतीर्थग्रहणस्य काले कृष्णं
रामं व्यासदेवं क्रमेण ।
शङ्खोदकस्योद्धरणे चैव काले
मुकुन्दरूपं संस्मरेत्सर्वदैव ॥५५ ॥
ग्रासेग्रासे स्मरणं चैव कार्यं
गोविन्दसंज्ञस्य विशुद्धमन्नम् ।
एकैकभक्ष्यग्रहणस्य काले
सम्यक्स्मरेदच्युतं वै खगेन्द्र ॥५६ ॥
शाकादीनां भक्षणे चैव काले
धन्वन्तरिं स्मरेच्चैव नित्यम् ।
तथा परान्नस्य च भोगकाले स्मरेच्च सम्यक्पाण्डुरङ्गं
च विष्णुम् ॥५७ ॥
हैयङ्गवीनस्य च भक्षणे वै
सम्यक्स्मरेत्ताण्डवाख्यं च कृष्णम् ।
दध्यन्नभक्षे परमं पुराणं
गोपालकृष्णं संस्मरेच्चैव नित्यम् ॥५८ ॥
दुग्धान्नभोगे च तथैव काले
सम्यक्स्मरेच्छ्रीनिवासं हरिं च ।
सुतैलसर्पिः षु विपक्वभक्षसंभोजने
संस्मरेद्व्यङ्कटेशम् ॥५९ ॥
द्राक्षासुजम्बूकदलीरसालनारिङ्गदाडिम्बफलानि
चारु ।
स्मरेत्तु
रम्भोत्तमनारिकेलधात्रीसुभोगे खलु बालकृष्णम् ॥६० ॥
सुपानकस्यैव च पानकाले
सम्यक्स्मरेन्नारसिंहाख्यविष्णुम् ।
गङ्गामृतस्यैव च पानकाले गङ्गातातं
संस्मरेद्विष्णुमेव ॥६१ ॥
प्रयाणकाले संस्मरेत्तार्क्ष्यवाहं
नारायणं निर्गुणं विश्वमूर्तिम् ।
पुत्रादीनां चुंबने चैव काले
सुवेणुहस्तं संस्मरेत्कृष्णमेव ॥६२ ॥
सुखङ्गकाले स्वस्त्रियश्चैव नित्यं
गोपि कुचद्वन्द्वविलासिनं हरिम् ।
तांबूलकाले संस्मरैच्चैव नित्यं
प्रद्युम्नाख्यं वासुदेवं हरिं च ॥६३ ॥
शय्याकाले संस्मरेच्चैव नित्यं
संकर्षणाख्यं विष्णुरूपं हरिं च ।
निद्राकाले संस्मरेत्पद्मनामं
कथाकाले व्यासरूपं हरिं च ॥६४ ॥
सुगानकाले संस्मरेद्वेणुगीतं हरिं
हरिं प्रवदेत्सर्वदैव ।
श्रीमत्तुलस्याश्छेदने चैव काले
श्रीरामरामेति च संस्मरेत्तु ॥६५ ॥
पुष्पादीनां छेदने चैव काले सम्यक्
स्मरेदेत्कपिलाख्यं हरिं च ।
प्रदक्षिणे गारुडान्तर्गतं च हरिं
स्मरेत्सर्वदा वै खगेन्द्र ॥६६ ॥
प्रणामकाले देवदेवस्य विष्णोः
शेषान्तस्थं संस्मरेच्चैव विष्णुम् ।
सुनीतिकाले संस्मरेन्नारसिंहं
नारायणं संस्मरेत्सर्वदापि ॥६७ ॥
पूर्तिर्यदा क्रियते कर्मणां च
सम्यक्स्मरेद्वासुदेवं हरिं च ।
एवं कृतानि कर्माणि हरिप्रीतिकराणि
च ॥६८ ॥
सम्यक्प्रकुर्वन्नेतानि पुष्करो
हरिवल्लभः ॥६९ ॥
एतस्मादेव पक्षीश कर्म यत्समुदाहृतं
पुष्कराख्यानमतुलं शृणोति श्रद्धयान्वितः ।
हरिप्रीतिकरे धर्मे प्रीतियुक्तो
भवेत्सदा ॥७० ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे कृष्णगरुडसंवादे तत्त्वरहस्यं
नामैकोनत्रिंशोध्यायः॥
समाप्तमिदं गरुडमहापुराणम् ।
इति श्रीगरुडमहापुराणं समाप्तम् ।
॥ गरुडपुराण सम्पूर्ण ॥
गरुड महापुराण सम्पूर्ण ब्रह्मकाण्ड
(मोक्षकाण्ड) के अंक पढ़ें-
अध्याय 23 से 29