श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १५   

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १५   

"कृष्ण विरह व्यथित पाण्डवों का परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १५

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः १५  

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चदश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय

प्रथम स्कन्धः · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【पञ्चदश अध्याय:

सूत उवाच ।

एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्र राज्ञाऽऽविकल्पितः ।

नानाशंकास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्षितः ॥१॥

शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः ।

विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्रोत्प्रतिभाषितूम ॥२॥

कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः ।

परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः ॥३॥

सख्य मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन ।

नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ॥४॥

अर्जुन उवाच ।

वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरुपिणा ।

येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत ॥५॥

यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः ।

उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा ॥६॥

यत्संश्रयाद् द्रुपदगेहमुपागतानां राज्ञा स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।

तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः सज्जीकृतेन धनुष्याधिगता च कृष्णा ॥७॥

यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदामिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।

लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥८॥

यत्तेजसा नृपशिरोऽङ्घ्रिमहन्मखार्थे आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः ।

तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा यन्मोचितास्तदनयन् बलिमध्वरे ते ॥९॥

पत्‍न्यास्तवधिमखक्लृप्तमहाभिषेकश्‍लाघिष्ठन्चारुकाबरं कितवैः सभायाम ।

स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः ॥१०॥

यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद दुर्वाससोऽरिविहतादयुताग्रभुग यः ।

शाकान्नशिशःटमुपयुज्य यतास्त्रिलोकीं तृप्ताममंस्त सलिले विनिमंग्नसंघः ॥११॥

यत्तेजसाथ भगवान युधि शुलपाणि र्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे ।

अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम ॥१२॥

तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः ।

सेन्द्रा श्रिता यदनुभावितमाजमीढ तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्र ॥१३॥

यद्वान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार मेको रथेन ततरेऽहमतार्यसत्त्वम ।

प्रत्याहृतं बहु धनं च मयो परेषां तेजास्पदं मणीमयं च हृतं शिरोभ्यः ॥१४॥

यो भीष्मकर्णगुरुशल्यमूष्वदभ्र रजन्यवर्यरथमण्डलमन्डितासु ।

अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत ॥१५॥

यद्दोष्षु मा प्राणीहितं गुरुभिष्मकर्ण नप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबाह्निकाद्येः ।

अस्त्राण्यमोघमाहिमानि निरुपिताने नो पस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि ॥१६॥

सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मदं ईश्वरो मे यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः ।

मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं न प्राहरन यदनुभावनिरस्तचिस्ताः । \१७॥

नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।

संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि स्मर्तूर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥१८॥

शय्यासनाटनविकथनभोजनादि ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।

सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे ॥१९॥

सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयने शुन्य ।

अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन गोपैरसाद्भिबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥२०॥

तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोऽहं रथी नॄपतयो यत आनमन्ति ।

सर्व क्षणेन तदभुदसदीशरिक्तं भस्मन हुतं कुहकाराद्भमोवोत्पमुष्याम ॥२१॥

राजंस्त्वयाभिषुष्टांना सुहृदां न सुहृत्पुरेः ।

विप्रशपविमुढांना निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः ॥२२॥

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम ।

अजानतामिव्यान्योन्य चतूः पंचावशेषिताः ॥२३॥

प्रायेणैतद भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम ।

मिथो निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः ॥२४॥

जलौकसां जले यद्वन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः ।

दुर्बलान्बालिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथः ॥२५॥

एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान विभुः ।

यदुन यदुभिरन्योन्यं भुभारान संजहार ह ॥२६॥

देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च ।

हरन्ति स्मरताश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे ॥२७॥

सूत उवाच ।

एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम ।

सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः ॥२८॥

वासुदेवांगघ्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।

भक्त्या निर्मथिताशेषकषायाधिषणोऽर्जुनः ॥२९॥

गीतं भगवता ज्ञान यत तत संग्राममुर्धनि ।

कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद विभुः ॥३०॥

विशोको ब्रह्मासम्पत्या संछिन्नद्वैतसंशयः ।

लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसम्भवः ॥३१॥

निशम्य भगवन्मार्ग संस्थां यदुकुलस्य च ।

स्वःपथाय मतिं चक्रे निभॄतात्मा युधिष्ठिरः ॥३२॥

पृथाप्यनुश्रुत्य धनत्र्ज्ययोदितं नाश यदुनां भगवद्गतिं च ताम ।

एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे निवेशितात्मोपराम संसृतेः ॥३३॥

ययाहरदृ भुवो भारं तां तनुं विजहावजः ।

कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितूः समम ॥३४॥

यथा मत्स्यादिरुपाणि धत्ते जाह्याद यथा नटः ।

भूभरः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम ॥३५॥

यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं जहौ स्ततन्वा श्रवणीयसत्कथः ।

तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा मधर्महेतूः कलिरन्ववर्तत ॥३६॥

युधिष्ठिरस्तत्पर्सर्पणं बुधः पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि ।

विभग्य लोभानृतजिह्नाहिंसना द्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात ॥३७॥

स्वराट पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः ।

तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिचंद गजाहृये ॥३८॥

मथूरायां तथा वज्रं शुरसेनपतिं ततः ।

प्राजापत्यां निरुप्योष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः ॥३९॥

विसृज्य तत्र तत सर्व दुकुनलवलयादिकम ।

निर्ममो निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः ॥४०॥

वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम ।

मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पंचत्वे ह्याजोहवीत ॥४१॥

त्रेत्वे हुत्वाथ पंचत्वं तच्चेकत्वेऽजुहोन्मुनिः ।

सर्वमात्मन्यजुहवीद ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥४२॥

चीरवासा निराहारो बद्धवड मुक्तमूर्धजः ।

दर्शयन्नात्मनो रुपं जडोन्मत्तपिशाचवत ॥४३॥

अनपेक्षमाणो निरगादश्रृण्वन्बधिरो यथा ।

उदीचीं प्रविवेशांशं गतपुर्वा महात्मभिः ।

हृदि ब्रह्मा परं ध्यायान्नवर्तेत यतो गतः ॥४४॥

सर्व तमनु निर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः ।

कलिनाधर्ममित्रेण दृष्टा स्पृष्टाः प्रजा भुवि ॥४५॥

ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वऽऽत्यन्तिकमातमनः ।

मनसा धारयामासुर्वैकुठचरणाम्बुजम ॥४६॥

तद्धनोद्रिक्यया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे ।

तस्मिन नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम ॥४७॥

अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः ।

विहुतकल्मषास्थाने विरजेनात्मनैव हि ॥४८॥

विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान ।

कृष्णावेशेन तच्चितः पितृभिः स्वक्षयं ययौ ॥४९॥

द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम ।

वासुदेवे भगवति ह्योकान्तमतिराप तम ॥५०॥

यः श्रद्धयैतद भगवत्प्रियाणां पाण्डोः सुतानामिती सम्प्रयाणम ।

श्रुणोत्यलं स्वत्ययनं पवित्रं लब्ध्या हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम ॥५१॥

इति श्रीमद्भगवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायं प्रथमस्कन्धे पाण्डवस्वर्गाहणं नाम पंचदशोऽध्यायः ॥१५॥ 

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी । शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके । श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गले से अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा।

अर्जुन बोले ;- महाराज! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया । जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षण भर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगता है । उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुष पर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था । उनकी सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव को उनकी तृप्ति के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मयदानव की निर्माण की हुई, अलौकिक कला कौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटे समर्पित कीं ।

 दस हजार हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिर पर पैर रखने वाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ बलि चढ़ाने के लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे । महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान् अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छूने का साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों की ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े । वनवास के समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करने वाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनि मण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है ।

उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वती सहित भगवान शंकर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसन पर बैठने का सम्मान मैंने प्राप्त किया । उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करने वाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मारने के लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया ? महाराज! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परन्तु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायता से, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अंगों के अलंकार तक छीन लिये थे ।

  भाईजी! कौरवों की सेना, भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे । द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझ पर अपने कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाये थे; परन्तु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लाद का सपर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहने का ही प्रभाव था ।

श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालने वाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी । महाराज! माधव के उन्मुक्त और मधुर मुसकान से युक्त, विनोदभरे एवं ह्रदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दनआदि कहकर पुकारना, मुझे याद आने पर मेरे ह्रदय में उथल-पुथल मचा देते हैं । सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करने में हम प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे। महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्रनहीं-नहीं मेरे ह्रदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ।

वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सार शून्य हो गयेठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ।

राजन्! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद-सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राम्हणों के शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारूणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर परिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से भिड़ गये और घूँसों से मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमे से केवल चार-पाँच ही बचे हैं । वास्तव में यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार डालते हैं । राजन्! जिस प्रकार जलचरों में बड़े जन्तु छोटों को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियों के द्वारा भगवान ने दूसरे राजाओं का संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया । भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा ह्रदय के ताप को शान्त करने वाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं ।

सूतजी कहते हैं ;- इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते-करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी । उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके ह्रदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया । उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुनः स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ।

ब्रम्हज्ञान की प्राप्ति से माया का आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्म शरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये । भगवान के स्वधामगमन और यदुवंश के संहार का वृतान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया । कुन्ती ने भी अर्जुन के मुख से यदुवंशियों के नाश और भगवान के स्वधामगमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने ह्रदय को भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया और सदा के लिये इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से अपना मुँह मोड़ लिया ।

भगवान श्रीकृष्ण ने लोकदृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटें से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान थे । जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ।

जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करने योग्य हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्य के-से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसाने वाला कलियुग आ धमका ।

 महाराज युधिष्ठिर से कलियुग का फैलाना छिपा न रहा। उन्होंने देखादेश में, नगर में, घरों में और प्राणियों में लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मों की बढ़ती हो गयी हैं। तब उन्होंने महाप्रस्थान का निश्चय किया । उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित् को, जो गुणों में उन्हीं के समान थे, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी के सम्राट् पद पर हस्तिनापुर में अभिषिक्त किया। उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूप में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियों को अपने में लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रम के धर्म से मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया । युधिष्ठिर ने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकार से रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले । इस प्रकार शरीर को मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुण में मिला दिया, त्रिगुण को मूल प्रकृति में, सर्वकारणरूपा प्रकृति को आत्मा में और आत्मा को अविनाशी ब्रम्ह में विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच ब्रम्हस्वरुप है ।

 इसके पश्चात् उन्होंने शरीर पर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जल का त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूप को ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड़, उन्मत्त या पिशाच हो । फिर वे बिना किसी की बाट देखे तथा बहरे की तरह बिना किसी की बात सुने, घर से निकल पड़े। ह्रदय में उस परब्रम्ह का ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशा की यात्रा की, जिस ओर पहले बड़ी-बड़ी महात्माजन जा चुके हैं । भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणों की प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाई के पीछे-पीछे चल पड़े । उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें ह्रदय में धारण किया । पाण्डवों के ह्रदय में भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ध्यान से भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण के उस सर्वोत्त्कृष्ट स्वरुप में अनन्य भाव से स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलतः उन्होंने अपने विशुद्ध अन्तःकरण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती । संयमी एवं श्रीकृष्ण के प्रेमोवेश में मुग्ध भगवन्मय विदुरजी ने भी अपने शरीर क प्रभासक्षेत्र में त्याग दिया। उस समय उन्हें लेने के लिये आये हुए पितरों के साथ वे अपने लोक (यमलोक)को चले गये । द्रौपदी ने देखा कि अब पाण्डव लोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं । भगवान के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाण की इस परम पवित्र और मंगलमयी कथा को जो पुरुष श्रद्धा से सुनता है, वह निश्चय ही भगवान की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध पाण्डवस्वर्गारोहण नाम पञ्चदशोऽध्याय समाप्त हुआ ॥ १५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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