श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४ "भवाटवी का स्पष्टीकरण"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १४                               

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥

स होवाच

य एष देहात्ममानिनां सत्त्वादिगुणविशेषविकल्पित-

कुशलाकुशलसमवहारविनिर्मितविविधदेहावलिभि-

र्वियोगसंयोगादि अनादिसंसारानुभवस्य द्वारभूतेन

षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन् दुर्गाध्ववदसुगमेऽध्व-

न्यापतित ईश्वरस्य भगवतो विष्णोर्वशवर्तिन्या

मायया जीवलोकोऽयं यथा वणिक्सार्थोऽर्थपरः

स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभवः श्मशानवदशिवतमायां

संसाराटव्यां गतो नाद्यापि विफलबहुप्रतियोगेहस्त-

त्तापोपशमनीं हरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवी-

मवरुन्धे ॥ १॥

यस्यामु ह वा एते षडिन्द्रियनामानः कर्मणा दस्यव

एव ते तद्यथा पुरुषस्य धनं यत्किञ्चिद्धर्मौपयिकं बहु

कृच्छ्राधिगतं साक्षात्परमपुरुषाराधनलक्षणो योऽसौ

धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति । तद्धर्म्यं धनं दर्शन-

स्पर्शनश्रवणास्वादनावघ्राणसङ्कल्पव्यवसायगृह-

ग्राम्योपभोगेन कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्य

विलुम्पन्ति ॥ २॥

अथ च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो नाम्ना कर्मणा

वृकसृगाला एवानिच्छतोऽपि कदर्यस्य कुटुम्बिन

उरणकवत्संरक्ष्यमाणं मिषतोऽपि हरन्ति ॥ ३॥

यथा ह्यनुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं क्षेत्रं

पुनरेवावपनकाले गुल्मतृणवीरुद्भिर्गह्वरमिव

भवत्येवमेव गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं यस्मिन् न हि

कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एष आवसथः ॥ ४॥

तत्र गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः शलभ-

शकुन्ततस्करमूषकादिभिरुपरुध्यमानबहिःप्राणः

क्वचित्परिवर्तमानोऽस्मिन्नध्वन्यविद्याकामकर्मभि-

रुपरक्तमनसानुपपन्नार्थं नरलोकं गन्धर्वनगर-

मुपपन्नमिति मिथ्यादृष्टिरनुपश्यति ॥ ५॥

तत्र च क्वचिदातपोदकनिभान् विषयानुपधावति

पानभोजनव्यवायादि व्यसनलोलुपः ॥ ६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! देहाभिमानी जीवों के द्वारा सत्त्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र- तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के छः द्वार हैं- मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश होकर यह जीव समूह मार्ग भूलकर भयंकर वन में भटकते हुए धन के लोभी बनिजारों के समान परसमर्थ भगवान् विष्णु के आश्रित रहने वाली माया की प्रेरणा से बीहड़ वन के समान दुर्गम मार्ग में पड़कर संसार-वन में जा पहुँचाता है। यह वन श्मशान के समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीर से किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेकों विघ्नों के कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रम को शान्त करने वाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द-मकरन्द-मधु के रसिक भक्त-भ्रमरों के मार्ग का अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वन में मन सहित छः इन्द्रियाँ ही अपने कर्मों की दृष्टि से डाकुओं के समान हैं।

पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्म में होना चाहिये; वही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुष की आराधना के रूप होता है तो उसे परलोक में निःश्रेयस का हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्य का बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वश में नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धन को ये मन सहित छः इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूँघना, संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करना- इन वृत्तियों के द्वारा गृहस्थोचित विषय भोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती है, जिस प्रकार बेईमान मुखिया का अनुगमन करने वाले एवं असावधान बनिजारों के दल का धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं।

ये ही नहीं, उस संसार-वन में रहने वाले उसके कुटुम्बी भी- जो नाम से तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेड़ियों और गीदड़ों के समान होते हैं- उस अर्थलोलुप कुटुम्बी के धन को उसकी इच्छा न रहने पर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेड़िये गड़रियों से सुरक्षित भेड़ों को उठा ले जाते हैं। जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदि से गहन हो जाता है- उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है। उस गृहस्थाश्रम में आसक्त हुए व्यक्ति के धनरूप बाहरी प्राणों को डांस और मच्छरों के समान नीच पुरुषों से तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदि से क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्ग में भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कर्मों से कलुषित हुए अपने चित्त से दृष्टिदोष के कारण इस मर्त्य-लोक को, गन्धर्व नगर के समान असत् है, सत्य समझने लगता है। फिर खान-पान और स्त्री-प्रसंगादि व्यसनों में फँसकर मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ने लगता है।

क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं पुरीषविशेषं तद्वर्णगुण-

निर्मितमतिः सुवर्णमुपादित्सत्यग्निकामकातर

इवोल्मुकपिशाचम् ॥ ७॥

अथ कदाचिन्निवासपानीयद्रविणाद्यनेकात्मो-

पजीवनाभिनिवेश एतस्यां संसाराटव्यामितस्ततः

परिधावति ॥ ८॥

क्वचिच्च वात्यौपम्यया प्रमदयाऽऽरोहमारोपित-

स्तत्कालरजसा रजनीभूत इवासाधुमर्यादो

रजस्वलाक्षोऽपि दिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न

विजानाति ॥ ९॥

क्वचित्सकृदवगतविषयवैतथ्यः स्वयं

पराभिध्यानेन विभ्रंशितस्मृतिस्तयैव

मरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति ॥ १०॥

क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटोपं

प्रत्यक्षं परोक्षं वा रिपुराजकुलनिर्भर्त्सितेना-

तिव्यथितकर्णमूलहृदयः ॥ ११॥

स यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदा कारस्करकाकतुण्डा-

द्यपुण्यद्रुमलताविषोदपानवदुभयार्थशून्यद्रविणान्

जीवन्मृतान् स्वयं जीवन् म्रियमाण उपधावति ॥ १२॥

एकदासत्प्रसङ्गान्निकृतमतिर्व्युदकस्रोतः स्खलनव-

दुभयतोऽपि दुःखदं पाखण्डमभियाति ॥ १३॥

यदा तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति तदा हि

पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान् वा स खलु भक्षयति ॥ १४॥

क्वचिदासाद्य गृहं दाववत्प्रियार्थविधुरमसुखोदर्कं

शोकाग्निना दह्यमानो भृशं निर्वेदमुपगच्छति ॥ १५॥

क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहृतप्रियतम-

धनासुः प्रमृतक इव विगतजीवलक्षण आस्ते ॥ १६॥

कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यसत्सदिति

स्वप्ननिर्वृतिलक्षणमनुभवति ॥ १७॥

क्वचिद्गृहाश्रमकर्मचोदनातिभरगिरि-

मारुरुक्षमाणो लोकव्यसनकर्षितमनाः

कण्टकशर्कराक्षेत्रं प्रविशन्निव सीदति ॥ १८॥

क्वचिच्च दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना गृहीतसारः

स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ॥ १९॥

कभी बुद्धि के रजोगुण से प्रभावित होने पर सारे अनर्थों की जड़ अग्नि के मल रूप सोने को ही सुख का साधन समझकर उसे पाने के लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वन में जाड़े से ठिठुरता हुआ पुरुष अग्नि के लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाच की (अगिया बेताल की) ओर उसे आग समझकर दौड़े। कभी इस शरीर को जीवित रखने वाले घर, अन्न-जल और धन आदि में अभिनिवेश करके इस संसारारण्य में इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है। कभी बवंडर के समान आँखों में धूल झोंक देने वाली स्त्री गोद में बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषों की मर्यादा का भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रों में रजोगुण की धूल भर जाने से बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मों के साक्षी दिशाओं के देवताओं को भी भुला देता है। कभी अपने-आप ही एकाध बार विषयों का मिथ्यात्व जान लेने पर भी अनादिकाल से देह में आत्मबुद्धि रहने से विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण उन मरुमरीचिकातुल्य विषयों की ओर ही फिर दौड़ने लगता है। कभी प्रत्यक्ष शब्द करने वाले उल्लू के समान शत्रुओं की और परोक्ष रूप से बोलने वाले झींगुरों के समान राजा की अति कठोर एवं दिल को दहला देने वाली डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बड़ी व्यथा होती है।

पूर्व पुण्य क्षीण हो जाने पर यह जीवित ही मुर्दे के समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलों वाले पाप वृक्षों, इसी प्रकार की दूषित लताओं और विषैले कुओं के समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनों के ही काम में नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं-उन कृपण पुरुषों का आश्रय लेता है। कभी असत् पुरुषों के संग से बुद्धि बिगड़ जाने के कारण सुखी नदी में गिरकर दुःखी होने के समान इस लोक और परलोक में दुःख देने वाले पाखण्ड में फँस जाता है। जब दूसरों को सताने से उसे अन्न भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रों को अथवा पिता या पुत्र आदि का एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खाने के लिये तैयार हो जाता है।

कभी दावानल के समान प्रिय विषयों से शून्य एवं परिणाम में दुःखमय घर में पहुँचता है, तो वहाँ इष्टजनों के वियोगादि से उसके शोक की आग भड़क उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है। कभी काल के समान भयंकर राजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धनरूप प्राणों को हर लेता है, तो यह मरे हुए के समान निर्जीव हो जाता है। कभी मनोरथ के पदार्थों के समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धों को सत्य समझकर उनके सहवास से स्वप्न के समान क्षणिक सुख का अनुभव करता है। गृहस्थाश्रम के लिये जिस कर्मविधि का महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वत की कड़ी चढ़ाई के समान ही है। लोगों को उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखा-देखी जब यह भी उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है, तब तरह-तरह की कठिनाइयों से क्लेशित होकर काँटे और कंकडों से भरी भूमि में पहुँच हुए व्यक्ति के समान दुःखी हो जाता है। कभी पेट की असह्य ज्वाला से अधीर होकर अपने कुटुम्ब पर ही बिगड़ने लगता है।

स एव पुनर्निद्राजगरगृहीतोऽन्धे तमसि मग्नः

शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किञ्चन वेद शव

इवापविद्धः ॥ २०॥

कदाचिद्भग्नमानदंष्ट्रो दुर्जनदन्दशूकैरलब्ध-

निद्राक्षणो व्यथितहृदयेनानुक्षीयमाणविज्ञानो-

ऽन्धकूपेऽन्धवत्पतति ॥ २१॥

कर्हि स्म चित्काममधुलवान् विचिन्वन् यदा

परदारपरद्रव्याण्यवरुन्धानो राज्ञा स्वामिभिर्वा

निहतः पतत्यपारे निरये ॥ २२॥

अथ च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मिन्नात्मनः

संसारावपनमुदाहरन्ति ॥ २३॥

मुक्तस्ततो यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति

तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थितिः ॥ २४॥

क्वचिच्च शीतवाताद्यनेकाधिदैविकभौतिका-

त्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो

दुरन्तचिन्तया विषण्ण आस्ते ॥ २५॥

क्वचिन्मिथो व्यवहरन् यत्किञ्चिद्धनमन्येभ्यो

वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन् यत्किञ्चिद्वा

विद्वेषमेति वित्तशाठ्यात् ॥ २६॥

अध्वन्यमुष्मिन्निम उपसर्गास्तथा सुखदुःख-

रागद्वेषभयाभिमानप्रमादोन्मादशोकमोहलोभ-

मात्सर्येर्ष्यावमानक्षुत्पिपासाऽऽधिव्याधिजन्म-

जरामरणादयः ॥ २७॥

क्वापि देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढः प्रस्कन्न-

विवेकविज्ञानो यद्विहारगृहारम्भाकुलहृदय-

स्तदाश्रयावसक्तसुतदुहितृकलत्रभाषितावलोक-

विचेष्टितापहृतहृदय आत्मानमजितात्मापारेऽन्धे

तमसि प्रहिणोति ॥ २८॥

कदाचिदीश्वरस्य भगवतो विष्णोश्चक्रात्परमाण्वादि

द्विपरार्धापवर्गकालोपलक्षणात्परिवर्तितेन वयसा

रंहसा हरत आब्रह्मतृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो

मिषतां वित्रस्तहृदयस्तमेवेश्वरं कालचक्रनिजायुधं

साक्षाद्भगवन्तं यज्ञपुरुषमनादृत्य पाखण्डदेवताः

कङ्कगृध्रबकवटप्राया आर्यसमयपरिहृताः

साङ्केत्येनाभिधत्ते ॥ २९॥

फिर जब निद्रारूप अजगर के चंगुल में फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकार में डूबकर सूने वन में फेंके हुए मुर्दे के समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बात की सुधि नहीं रहती। कभी दुर्जनरूप काटने वाले जीव इतना काटते-तिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरों को काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्ति के करना नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदना के कारण क्षण-क्षण में विवेक-शक्ति क्षीण होते रहने से अन्त में अंधे की भाँति यह नरकरूप अंधे कुएँ में जा गिरता है। कभी विषय सुखरूप मधु कणों ढूँढते-ढूँढते जब यह लुक-छिपकर परस्त्री या परधन को उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजा के हाथ से मारा जाकर ऐसे नरक में जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है। इसी से ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्ग में रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकार के कर्म जीव को संसार की ही प्राप्ति कराने वाले हैं।

यदि किसी प्रकार राजा आदि के बन्धन से छूट भी गया, तो अन्याय से अपहरण किये हुए उन स्त्री और धन को देवदत्त नाम का कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नाम का कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुष से दूसरे पुरुष के पास जाते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं ठहरते। कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःख की स्थितियों के निवारण करने में समर्थ न होने से यह अपार चिन्ताओं के कारण उदास हो जाता है। कभी परस्पर लेन-देन का व्यवहार करते समय किसी दूसरे का थोड़ा सा-दमड़ी भर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बईमानी के कारण उससे वैर ठन जाता है। राजन्! इस मार्ग में पूर्वोक्त विघ्नों के अतिरिक्त सुख-दुःख, राग-द्वेष भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न हैं। (इस विघ्न बहुल मार्ग में इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्री के बाहुपाश में पड़कर विवेकहीन हो जाता है। तब उसी के लिये विहार भवन आदि बनवाने की चिन्ता में ग्रस्त रहता है तथा उसी के आश्रित रहने वाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियों के मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओं में आसक्त होकर, उन्हीं में चित्त फँस जाने से वह इन्द्रियों का दास अपार अन्धकारमय नरकों में गिरता है।

कालचक्र साक्षात् भगवान् विष्णु का आयुध है। वह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी आदि अवयवों से युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलने वाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थयाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मा से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतों का निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गति में बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना छोड़कर यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेर के समान आर्यशास्त्र बहिष्कृत देवताओं का आश्रय लेता है-जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमों ने ही उल्लेख किया है।

यदा पाखण्डिभिरात्मवञ्चितैस्तैरुरुवञ्चितो ब्रह्मकुलं

समावसंस्तेषां शीलमुपनयनादि श्रौतस्मार्तकर्मा-

नुष्ठानेन भगवतो यज्ञपुरुषस्याराधनमेव तदरोचयन्

शूद्रकुलं भजते निगमाचारेऽशुद्धितो यस्य मिथुनीभावः

कुटुम्बभरणं यथा वानरजातेः ॥ ३०॥

तत्रापि निरवरोधः स्वैरेण विहरन्नतिकृपणबुद्धि-

रन्योन्यमुखनिरीक्षणादिना ग्राम्यकर्मणैव

विस्मृतकालावधिः ॥ ३१॥

क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थेषु गृहेषु रंस्यन् यथा वानरः

सुतदारवत्सलो व्यवायक्षणः ॥ ३२॥

एवमध्वन्यवरुन्धानो मृत्युगजभयात्तमसि

गिरिकन्दरप्राये ॥ ३३॥

क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिकात्मीयानां

दुःखानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो दुरन्तविषयविषण्ण

आस्ते ॥ ३४॥

क्वचिन्मिथो व्यवहरन् यत्किञ्चिद्धनमुपयाति

वित्तशाठ्येन ॥ ३५॥

क्वचित्क्षीणधनः शय्यासनाशनाद्युपभोगविहीनो

यावदप्रतिलब्धमनोरथोपगतादानेऽवसितमति-

स्ततस्ततोऽवमानादीनि जनादभिलभते ॥ ३६॥

एवं वित्तव्यतिषङ्गविवृद्धवैरानुबन्धोऽपि

पूर्ववासनया मिथ उद्वहत्यथापवहति ॥ ३७॥

एतस्मिन् संसाराध्वनि नानाक्लेशोपसर्गबाधित

आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह वावेतरस्तत्र

विसृज्य जातं जातमुपादाय शोचन्मुह्यन्बिभ्य-

द्विवदन् क्रन्दन्संहृष्यन् गायन्नह्यमानः

साधुवर्जितो नैवावर्ततेऽद्यापि यत आरब्ध

एष नरलोकसार्थो यमध्वनः पारमुपदिशन्ति ॥ ३८॥

यदिदं योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते

यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला उपरतात्मानः

समवगच्छन्ति ॥ ३९॥

यदपि दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षयः किं तु

परं मृधे शयीरन्नस्यामेव ममेयमिति कृतवैरानुबन्धायां

विसृज्य स्वयमुपसंहृताः ॥ ४०॥

ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखे में हैं; जब यह भी उनकी ठगाई में आकर दुःखी होता है, तब ब्राह्मणों की शरण लेता है। किन्तु उपनयन-संस्कार के अनन्तर श्रौत-स्मार्त्त कर्मों से भगवान् यज्ञपुरुष की अराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता; इसलिये वेदोक्त आचार के अनुकूल अपने में शुद्धि न होने के कारण यह कर्मशून्य शूद्र कुल में प्रवेश करता है, जिसका स्वभाव वानरों के समान केवल कुटुम्ब पोषण और स्त्री सेवन करना ही है। वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहार करने से इसकी बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरे का मुख देखना आदि विषय-भोगों में फँसकर इसे अपने मृत्युकाल का भी स्मरण नहीं होता। वृक्षों के समान जिनका लौकिक सुख ही फल है-उन घरों में ही सुख मानकर वानरों की भाँति स्त्री-पुत्रादि में आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगों में ही बिता देता है। इस प्रकार प्रवृत्तिमार्ग में पड़कर सुख-दुःख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरी-गुहा में फँसकर उनमें रहने वाले मृत्युरूप हाथी से डरता रहता है।

कभी-कभी शीत, वायु आदि अनेक प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति करने में जब असफल हो जाता है, तब उस समय अपार विषयों की चिन्ता से यह खिन्न हो उठता है। कभी आपस में क्रय-विक्रय आदि व्यापार करने पर बहुत कंजूसी करने से इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है। कभी धन नष्ट हो जाने से जब इसके पास सोने, बैठने और खाने आदि की भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिलने से यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायों से पाने का निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरों के हाथ से बहुत अपमानित होना पड़ता है। इस प्रकार धन की आसक्ति से परस्पर वैरभाव बढ़ जाने पर भी यह अपनी पूर्व वासनाओं से विवश होकर आपस में विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है।

इस संसारमार्ग में चलने वाला यह जीव अनेक प्रकार के क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बाधित होने पर भी मार्ग में जिस पर जहाँ आपत्ति आती है अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ देता है; तथा नये जन्मे हुओं को साथ लगाता है, कभी किसी के लिये शोक करता है, किसी का दुःख देखकर मुर्च्छित हो जाता है, किसी के वियोग होने की आशंका से भयभीत हो उठता है, किसी से झगड़ने लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने-चिल्लाने लगता है, कहीं मन के अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नता के मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी उन्हीं के लिये बँधने में भी नहीं हिचकता। साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधु संग से सदा वंचित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है। जहाँ से इसकी यात्रा आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्ग की अन्तिम अवधि कहते हैं, उस परमात्मा के पास यह अभी तक नहीं लौटा है। परमात्मा तक तो योगशास्त्र की भी गति नहीं है; जिन्होंने सब प्रकार के दण्ड (शासन) का त्याग कर दिया है, वे निवृत्तिपरायण संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं। जो दिग्गजों को जीतने वाले और बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले राजर्षि हैं, उनकी भी वहाँ तक गति नहीं है। वे संग्रामभूमि में शत्रुओं का सामना करके केवल प्राण परित्याग ही करते हैं तथा जिसमें यह मेरी है’, ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था-उस पृथ्वी में ही अपना शरीर छोड़कर स्वयं परलोक को चले जाते हैं। इस संसार से वे भी पार नहीं होते।

कर्मवल्लीमवलम्ब्य तत आपदः कथञ्चिन्नरकाद्विमुक्तः

पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानो नरलोकसार्थमुपयाति

एवमुपरिगतोऽपि ॥ ४१॥

तस्येदमुपगायन्ति -

आर्षभस्येह राजर्षेर्मनसापि महात्मनः ।

नानुवर्त्मार्हति नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ॥ ४२॥

यो दुस्त्यजान् दारसुतान् सुहृद्राज्यं हृदिस्पृशः ।

जहौ युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालसः ॥ ४३॥

यो दुस्त्यजान् क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्

प्रार्थ्यां श्रियं सुरवरैः सदयावलोकाम् ।

नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट्

सेवानुरक्तमनसामभवोऽपि फल्गुः ॥ ४४॥

यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाय

योगाय साङ्ख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय ।

नारायणाय हरये नम इत्युदारं

हास्यन् मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥ ४५॥

य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो

राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं

धन्यं यशस्यं स्वर्ग्यापवर्ग्यं वानुश्रृणो-

त्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष

आत्मन आशास्ते न काञ्चन परत इति ॥ ४६॥

अपने पुण्य कर्मरूप लता का आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियों से अथवा नरक से छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्ग में भटकता हुआ इस जनसमुदाय में मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों में जाने वालों की भी है।

राजन्! राजर्षि भरत के विषय में पण्डितजन ऐसा कहते हैं- जैसे गरुड़ जी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा भरत के मार्ग का कोई अन्य राजा मन से भी अनुसरण नहीं कर सकता। उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर अति मनोहर स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादि को युवावस्था में ही विष्ठा के सामन त्याग दिया था; दूसरों के लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है।

उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और स्त्री की तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टि के लिये उन पर दृष्टिपात करती रहती थी-उस लक्ष्मी की भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था; क्योंकि जिन महानुभावों का चित्त भगवान् मधुसूदन की सेवा में अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है। उन्होंने मृग शरीर छोड़ने की इच्छा होने पर उच्चस्वर से कहा था कि धर्म की रक्षा करने वाले, धर्मानुष्ठान में निपुण, योगगम्य, सांख्य के प्रतिपाद्य, प्रकृति के अधीश्वर यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरि को नमस्कार है

राजन्! राजर्षि भरत के पवित्र गुण और कर्मों की भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धन की वृद्धि करने वाला, लोक में सुयश बढ़ाने वाला और अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। जो पुरुष इसे सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उनकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं; दूसरों से उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतोपाख्याने पारोक्ष्यविवरणं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १४ अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १५   

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