श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १२ 

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १२ 

"परीक्षित् का जन्म"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १२

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः १२

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवाँ अध्याय

प्रथम स्कन्धः · श्रीमद्भागवत महापुराण

                          {प्रथम स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:

शौनक उवाच ।

अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा ।

उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ॥ १ ॥

तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः ।

निधनं च यथैवासीत् स प्रेत्य गतवान् यथा ॥ २ ॥

तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे ।

ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः ॥ ३ ॥

सूत उवाच ।

अपीपलद्धर्मराजः पितृवद् रञ्जयन् प्रजाः ।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादानुसेवया ॥ ४ ॥

सम्पदः क्रतवो लोका महिषी भ्रातरो मही ।

जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥ ५ ॥

किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजाः ।

अधिजह्रुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे ॥ ६ ॥

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।

ददर्श पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७ ॥

अङ्‌गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।

अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥ ८ ॥

श्रीमद् दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चन कुण्डलम् ।

क्षतजाक्षं गदापाणिं आत्मनः सर्वतो दिशम् ।

परिभ्रमन्तं उल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९ ॥

अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।

विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १० ॥

विधूय तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब् विभुः ।

मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११ ॥

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।

जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२ ॥

तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्य कृपादिभिः ।

जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्‌गलम् ॥ १३ ॥

हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।

प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४ ॥

तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।

एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५ ॥

दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।

रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६ ॥

तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।

भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।

अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः ।

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।

ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९ ॥

एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।

यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २० ॥

धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।

हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१ ॥

मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।

तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२ ॥

पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।

आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३ ॥

सर्वसद्‍गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।

रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४ ॥

धृत्या बलिसमः कृष्णे प्रह्राद इव सद्‍ग्रहः ।

आहर्तैषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः ॥ २५ ॥

राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।

निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥ २६ ॥

तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।

प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्‌गः पदं हरेः ॥ २७ ॥

जिज्ञासितात्म याथार्थ्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।

हित्वेदं नृप गङ्‌गायां यास्यत्यद्धा अकुतोभयम् ॥ २८ ॥

इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः ।

लब्धापचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान् गृहान् ॥ २९ ॥

स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।

पूर्वं दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ ३० ॥

स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुपः ।

आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥

यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।

राजा लब्धधनो दध्यौ अन्यत्र करदण्डयोः ॥ ३२ ॥

तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः ।

धनं प्रहीणमाजह्रुः उदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ३३ ॥

तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।

वाजिमेधैः त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजत् हरिम् ॥ ३४ ॥

आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजैर्नृपम् ।

उवास कतिचित् मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥ ३५ ॥

ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।

ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्षो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवाँ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी! ने कहा ;- अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रम्हास्त्र चलाया था, उससे उत्तर का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया । उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के, जिन्हें शुकदेवजी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं ।

   सूतजी ने कहा ;- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से निःस्पृह हो गये थे । शौनकादि ऋषियों! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी । उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी । शौनकजी! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अवश्त्थामा के ब्रम्हास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है । वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरुप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है । जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रम्हास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ।

इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रहास्त्र के तेज को शान्त करे वहीं अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंश धर परीक्षित् का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो । पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राम्हणों से मंगल वाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये । महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजा तीर्थ नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राम्हणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी-घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया ।

ब्राम्हणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा ;- ‘पुरुषवंशशिरोमणे! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी । इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा

 युधिष्ठिर ने कहा ;- महात्माओं! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा ?

ब्राम्हणों ने कहा ;- धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के समान ब्राम्हणभक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा । यह उशीरनर नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा । धनुर्धरों में यह सहस्त्राबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा । यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता-पिता के समान सहनशील होगा । इसमें पितामह ब्रम्हा के समान समता रहेगी, भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा । यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा ।

धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत से अश्वमेधयज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा । इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा । ब्राम्हण कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा ।

राजन्! व्यासनन्दन शुकदेवजी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गंगा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा । ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राम्हण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्म लग्न का फल बताकर और भेँट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये । वही यह बालक संसार में परीक्षित् के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है । जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया । इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित् करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेधयज्ञ के द्वारा भगवान की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने)की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये ।

उनका अभिप्राय समझकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राम्हणों द्वारा छोड़ा हुआ बहुत-सा धन ले आये । उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेधयज्ञों के द्वारा भगवान की पूजा की । युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान ब्राम्हणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे । शौनकजी! इसके बाद भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध नैमिषीयोपाख्यान परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्ष नाम द्वादशोऽध्यायसमाप्त हुआ ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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