श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २०
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २० "महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान् का
प्रादुर्भाव"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २०
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः २०
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध बीसवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
भगवानपि वैकुण्ठः साकं मघवता विभुः
।
यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुक्
तमभाषत ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच -
एष तेऽकार्षीद्भङ्गं हयमेधशतस्य ह
।
क्षमापयत आत्मानं अमुष्य
क्षन्तुमर्हसि ॥ २ ॥
सुधियः साधवो लोके नरदेव नरोत्तमाः
।
नाभिद्रुह्यन्ति भूतेभ्यो यर्हि
नात्मा कलेवरम् ॥ ३ ॥
पुरुषा यदि मुह्यन्ति त्वादृशा
देवमायया ।
श्रम एव परं जातो दीर्घया
वृद्धसेवया ॥ ४ ॥
अतः कायमिमं विद्वान्
अविद्याकामकर्मभिः ।
आरब्ध इति नैवास्मिन्
प्रतिबुद्धोऽनुषज्जते ॥ ५ ॥
असंसक्तः शरीरेऽस्मिन्
अमुनोत्पादिते गृहे ।
अपत्ये द्रविणे वापि कः कुर्यान्ममतां
बुधः ॥ ६ ॥
एकः शुद्धः स्वयंज्योतिः
निर्गुणोऽसौ गुणाश्रयः ।
सर्वगोऽनावृतः साक्षी
निरात्माऽऽत्माऽऽत्मनः परः ॥ ७ ॥
य एवं सन्तमात्मानं आत्मस्थं वेद
पूरुषः ।
नाज्यते प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः स
मयि स्थितः ॥ ८ ॥
यः स्वधर्मेण मां नित्यं निराशीः श्रद्धयान्वितः
।
भजते शनकैस्तस्य मनो राजन् प्रसीदति
॥ ९ ॥
परित्यक्तगुणः सम्यग् दर्शनो
विशदाशयः ।
शान्तिं मे समवस्थानं ब्रह्म
कैवल्यमश्नुते ॥ १० ॥
उदासीनमिवाध्यक्षं
द्रव्यज्ञानक्रियात्मनाम् ।
कूटस्थं इममात्मानं यो वेदाप्नोति
शोभनम् ॥ ११ ॥
भिन्नस्य लिङ्गस्य गुणप्रवाहो
द्रव्यक्रियाकारकचेतनात्मनः ।
दृष्टासु सम्पत्सु विपत्सु सूरयो
न विक्रियन्ते मयि बद्धसौहृदाः ॥ १२ ॥
समः समानोत्तममध्यमाधमः
सुखे च दुःखे च जितेन्द्रियाशयः ।
मयोपकॢप्ताखिललोकसंयुतो
विधत्स्व वीराखिललोकरक्षणम् ॥ १३ ॥
श्रेयः प्रजापालनमेव राज्ञो
यत्साम्पराये सुकृतात् षष्ठमंशम् ।
हर्तान्यथा हृतपुण्यः प्रजानां
अरक्षिता करहारोऽघमत्ति ॥ १४ ॥
एवं द्विजाग्र्यानुमतानुवृत्त
धर्मप्रधानोऽन्यतमोऽवितास्याः ।
ह्रस्वेन कालेन गृहोपयातान्
द्रष्टासि सिद्धाननुरक्तलोकः ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! महाराज पृथु के निन्यानबे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर
भगवान् विष्णु को भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित होकर
उनसे कहा।
श्रीभगवान् ने कहा ;-
राजन! (इन्द्र ने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करने के संकल्प में
विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें
क्षमा कर दो।
नरदेव! जो श्रेष्ठ मानव साधु और
सद्बुद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे दूसरे
जीवों से द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही आत्मा नहीं
है। यदि तुम-जैसे लोग भी मेरी माया से मोहित हो जायें, तो
समझना चाहिये कि बहुत दिनों तक की हुई ज्ञानीजनों की सेवा से केवल श्रम ही हाथ
लगा। ज्ञानवान् पुरुष इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों
का ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो इस शरीर में ही आसक्त नहीं
है, यह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदि में भी किस प्रकार ममता रख सकता है। यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण,
गुणों का आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मा से रहित है;
अतएव शरीर से भिन्न है। जो पुरुष इस देहस्थित आत्मा को इस प्रकार
शरीर से भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी
उसके गुणों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ
परमात्मा में रहती है।
राजन्! जो पुरुष किसी प्रकार की
कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी
आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो
जाता है। चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे
तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थिति को प्राप्त हो
जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। जो पुरुष
यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और
मन का साक्षी होने पर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।
राजन्! गुणप्रवाहरूप आवाहन तो भूत,
इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास-
इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन्न लिंग शरीर का ही हुआ करता है; इसका
सर्वसाक्षी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले
बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के
वशीभूत नहीं होते। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम
पुरुषों में समान भाव रखकर सुख-दुःख को भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियों को
जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषों की सहायता से
सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा पालन में ही है। इससे उसे
परलोक में प्रजा के पुण्य का छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजा की
रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है,
उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदले में उसे प्रजा के पाप
का भागी होना पड़ता है। ऐसा विचार कर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सम्मति और
पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुए धर्म को ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर
इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही
दिनों में तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धों के दर्शन होंगे।
वरं च मत् कञ्चन मानवेन्द्र
वृणीष्व तेऽहं गुणशीलयन्त्रितः ।
नाहं मखैर्वै सुलभस्तपोभिः
योगेन वा यत्समचित्तवर्ती ॥ १६ ॥
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
स इत्थं लोकगुरुणा विष्वक्सेनेन
विश्वजित् ।
अनुशासित आदेशं शिरसा जगृहे हरेः ॥
१७ ॥
स्पृशन्तं पादयोः प्रेम्णा व्रीडितं
स्वेन कर्मणा ।
शतक्रतुं परिष्वज्य विद्वेषं
विससर्ज ह ॥ १८ ॥
भगवानथ विश्वात्मा पृथुनोपहृतार्हणः
।
समुज्जिहानया भक्त्या
गृहीतचरणाम्बुजः ॥ १९ ॥
प्रस्थानाभिमुखोऽप्येनं
अनुग्रहविलम्बितः ।
पश्यन् पद्मपलाशाक्षो न प्रतस्थे
सुहृत्सताम् ॥ २० ॥
स आदिराजो रचिताञ्जलिर्हरिं
विलोकितुं नाशकदश्रुलोचनः ।
न किञ्चनोवाच स बाष्पविक्लवो
हृदोपगुह्यामुमधादवस्थितः ॥ २१ ॥
अथावमृज्याश्रुकला विलोकयन्
अतृप्तदृग्गोचरमाह पूरुषम् ।
पदा स्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नते
विन्यस्तहस्ताग्रमुरङ्गविद्विषः ॥ २२ ॥
पृथुरुवाच -
वरान् विभो त्वद्वरदेश्वराद्बुधः
कथं वृणीते गुणविक्रियात्मनाम् ।
ये नारकाणामपि सन्ति देहिनां
तानीश कैवल्यपते वृणे न च ॥ २३ ॥
न कामये नाथ तदप्यहं क्वचित्
न यत्र युष्मत् चरणाम्बुजासवः ।
महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो
विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥ २४ ॥
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो
भवत्पदाम्भोजसुधा कणानिलः ।
स्मृतिं
पुनर्विस्मृततत्त्ववर्त्मनां
कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ॥ २५ ॥
यशः शिवं सुश्रव आर्यसङ्गमे
यदृच्छया चोपशृणोति ते सकृत् ।
कथं गुणज्ञो विरमेद्विना पशुं
श्रीर्यत्प्रवव्रे गुणसङ्ग्रहेच्छया ॥ २६ ॥
अथाभजे त्वाखिलपूरुषोत्तमं
गुणालयं पद्मकरेव लालसः ।
अप्यावयोरेकपतिस्पृधोः कलिः
न स्यात्कृतत्वच्चरणैकतानयोः ॥ २७ ॥
राजन्! तुम्हारे गुणों ने और स्वभाव
ने मुझको वश में कर लिया है। अतः तुम्हे जो इच्छा हो,
मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं
तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ जिनके चित्त में समता रहती है।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! सर्वलोकगुरु श्रीहरि के इस प्रकार कहने पर जगद्विजयी
महाराज पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की देवराज इन्द्र अपने कर्म से लज्जित होकर
उनके चरणों पर गिरना ही चाहते थे कि राजा ने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया
और मनोमालिन्य निकाल दिया। फिर महाराज पृथु ने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान् का
पूजन किया और क्षण-क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव में निमग्न होकर प्रभु के चरणकमल
पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँ से जाना चाहते थे; किन्तु पृथु के
प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था, उसने उन्हें रोक लिया। वे
अपने कमलदल के समान नेत्रों से उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँ
से जा न सके।
आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में
जल भर आने के कारण न तो भगवान् का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जाने से
कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदय से आलिगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों
खड़े रह गये। प्रभु अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श किये खड़े थे;
उनका कराग्रभाग गरुड़ जी के ऊँचे कंधे पर रखा हुआ था। महाराज पृथु
नेत्रों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे।
महाराज पृथु बोले ;-
मोक्षपति प्रभो! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने
में समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों
को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं।
अतः मैं इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता। मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा
नहीं है, जिसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा
निकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख
नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये,
जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ।
पुण्यकीर्ति प्रभो! आपके
चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है,
उसी में इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों
को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।
उत्तम कीर्ति वाले प्रभो! सत्संग
में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुद्धिपुरुष भले ही
तृप्त हो जाये; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता
है? सब प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये स्वयं
लक्ष्मी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हैं। अब लक्ष्मी जी के समान मैं भी
अत्यन्त उत्सुकता से आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु
ऐसा न हो कि एक ही पति की सेवा प्राप्त करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में
ही मन को एकाग्र करने वाले हम दोनों में कलह छिड़ जाये।
जगज्जनन्यां जगदीश वैशसं
स्यादेव यत्कर्मणि नः समीहितम् ।
करोषि फल्ग्वप्युरु दीनवत्सलः
स्व एव धिष्ण्येऽभिरतस्य किं तया ॥ २८ ॥
भजन्त्यथ त्वामत एव साधवो
व्युदस्तमायागुणविभ्रमोदयम् ।
भवत्पदानुस्मरणादृते सतां
निमित्तमन्यद्भगवन्न विद्महे ॥ २९ ॥
मन्ये गिरं ते जगतां विमोहिनीं वरं
वृणीष्वेति भजन्तमात्थ यत् ।
वाचा नु तन्त्या यदि ते जनोऽसितः
कथं पुनः कर्म करोति मोहितः ॥ ३० ॥
त्वन्माययाद्धा जन ईश खण्डितो
यदन्यदाशास्त ऋतात्मनोऽबुधः ।
यथा चरेद्बालहितं पिता स्वयं
तथा त्वमेवार्हसि नः समीहितुम् ॥ ३१ ॥
मैत्रेय उवाच -
इत्यादिराजेन नुतः स विश्वदृक्
तमाह राजन् मयि भक्तिरस्तु ते ।
दिष्ट्येदृशी धीर्मयि ते कृता यया
मायां मदीयां तरति स्म दुस्त्यजाम् ॥ ३२ ॥
(अनुष्टुप्)
तत्त्वं कुरु मयादिष्टं अप्रमत्तः
प्रजापते ।
मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति
शोभनम् ॥ ३३ ॥
मैत्रेय उवाच -
इति वैन्यस्य राजर्षेः
प्रतिनन्द्यार्थवद्वचः ।
पूजितोऽनुगृहीत्वैनं गन्तुं
चक्रेऽच्युतो मतिम् ॥ ३४ ॥
देवर्षिपितृगन्धर्व
सिद्धचारणपन्नगाः ।
किन्नराप्सरसो मर्त्याः खगा भूतान्यनेकशः
॥ ३५ ॥
यज्ञेश्वरधिया राज्ञा
वाग्वित्ताञ्जलिभक्तितः ।
सभाजिता ययुः सर्वे
वैकुण्ठानुगतास्ततः ॥ ३६ ॥
भगवानपि राजर्षेः सोपाध्यायस्य
चाच्युतः ।
हरन्निव मनोऽमुष्य स्वधाम
प्रत्यपद्यत ॥ ३७ ॥
अदृष्टाय नमस्कृत्य नृपः
सन्दर्शितात्मने ।
अव्यक्ताय च देवानां देवाय स्वपुरं
ययौ ॥ ३८ ॥
जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मी जी के
हृदय में मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही;
क्योंकि जिस आपके सेवाकार्य में उनका अनुराग है, उसी के लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनों पर दया करते हैं,
उनके तुच्छ कर्मों को भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है
कि हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूप में ही रमण करते
हैं; आपको भला, लक्ष्मी जी से भी क्या
लेना है। इसी से निष्काम महात्मा ज्ञान हो जाने के बाद भी आपके भजन करते हैं। आप
में माया के कार्य अहंकारदि का सर्वथा अभाव है।
भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलों का
निरन्तर चिन्तन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं
भी बिना किसी इच्छा के आपका भजन करता हूँ, आपने
जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस
वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सी
से लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते?
प्रभो! आपकी माया से ही मनुष्य अपने
वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादि की इच्छा करता है।
फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्र की प्रार्थना कि अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुत्र का
कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छा
की अपेक्षा न करके हमारे हित के लिये स्वयं ही प्रयत्न करें।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
आदिराज पृथु के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वसाक्षी श्रीहरि ने
उनसे कहा, ‘राजन्! तुम्हारी मुझमे भक्ति हो। बड़े सौभाग्य की
बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होने पर तो पुरुष सहज
में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या
जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करते
रहो। प्रजापालक नरेश! जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका
सर्वत्र मंगल होता है’।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! इस प्रकार भगवान् ने राजर्षि पृथु के सारगर्भित वचनों का
आदर किया। फिर पृथु ने उनकी पूजा की और प्रभु उन पर सब प्रकार कृपा कर वहाँ से
चलने को तैयार हुए। महाराज पृथु ने वहाँ जो देवता, ऋषि,
पितर, गंधर्व, सिद्ध,
चारण, नाग, किन्नर,
अप्सरा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकार के
प्राणी एवं भगवान् के पार्षद आये थे, उन सभी का भगवदबुद्धि
से भक्तिपूर्वक वाणी और धन के द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब
अपने-अपने स्थानों को चले गये। भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितों का
चित्त चुराते हुए अपने धाम को सिधारे। तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए
अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान् को नमस्कार करके राजा पृथु भी अपनी राजधानी में
चले आये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २० समाप्त हुआ ॥ २० ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २१