श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २०                 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २० "महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान् का प्रादुर्भाव"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २०        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २०           

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध बीसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

भगवानपि वैकुण्ठः साकं मघवता विभुः ।

यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुक् तमभाषत ॥ १ ॥

श्रीभगवानुवाच -

एष तेऽकार्षीद्‍भङ्‌गं हयमेधशतस्य ह ।

क्षमापयत आत्मानं अमुष्य क्षन्तुमर्हसि ॥ २ ॥

सुधियः साधवो लोके नरदेव नरोत्तमाः ।

नाभिद्रुह्यन्ति भूतेभ्यो यर्हि नात्मा कलेवरम् ॥ ३ ॥

पुरुषा यदि मुह्यन्ति त्वादृशा देवमायया ।

श्रम एव परं जातो दीर्घया वृद्धसेवया ॥ ४ ॥

अतः कायमिमं विद्वान् अविद्याकामकर्मभिः ।

आरब्ध इति नैवास्मिन् प्रतिबुद्धोऽनुषज्जते ॥ ५ ॥

असंसक्तः शरीरेऽस्मिन् अमुनोत्पादिते गृहे ।

अपत्ये द्रविणे वापि कः कुर्यान्ममतां बुधः ॥ ६ ॥

एकः शुद्धः स्वयंज्योतिः निर्गुणोऽसौ गुणाश्रयः ।

सर्वगोऽनावृतः साक्षी निरात्माऽऽत्माऽऽत्मनः परः ॥ ७ ॥

य एवं सन्तमात्मानं आत्मस्थं वेद पूरुषः ।

नाज्यते प्रकृतिस्थोऽपि तद्‍गुणैः स मयि स्थितः ॥ ८ ॥

यः स्वधर्मेण मां नित्यं निराशीः श्रद्धयान्वितः ।

भजते शनकैस्तस्य मनो राजन् प्रसीदति ॥ ९ ॥

परित्यक्तगुणः सम्यग् दर्शनो विशदाशयः ।

शान्तिं मे समवस्थानं ब्रह्म कैवल्यमश्नुते ॥ १० ॥

उदासीनमिवाध्यक्षं द्रव्यज्ञानक्रियात्मनाम् ।

कूटस्थं इममात्मानं यो वेदाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥

भिन्नस्य लिङ्‌गस्य गुणप्रवाहो

     द्रव्यक्रियाकारकचेतनात्मनः ।

दृष्टासु सम्पत्सु विपत्सु सूरयो

     न विक्रियन्ते मयि बद्धसौहृदाः ॥ १२ ॥

समः समानोत्तममध्यमाधमः

     सुखे च दुःखे च जितेन्द्रियाशयः ।

मयोपकॢप्ताखिललोकसंयुतो

     विधत्स्व वीराखिललोकरक्षणम् ॥ १३ ॥

श्रेयः प्रजापालनमेव राज्ञो

     यत्साम्पराये सुकृतात् षष्ठमंशम् ।

हर्तान्यथा हृतपुण्यः प्रजानां

     अरक्षिता करहारोऽघमत्ति ॥ १४ ॥

एवं द्विजाग्र्यानुमतानुवृत्त

     धर्मप्रधानोऽन्यतमोऽवितास्याः ।

ह्रस्वेन कालेन गृहोपयातान्

     द्रष्टासि सिद्धाननुरक्तलोकः ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज पृथु के निन्यानबे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु को भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- राजन! (इन्द्र ने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करने के संकल्प में विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो।

नरदेव! जो श्रेष्ठ मानव साधु और सद्बुद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवों से द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही आत्मा नहीं है। यदि तुम-जैसे लोग भी मेरी माया से मोहित हो जायें, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनों तक की हुई ज्ञानीजनों की सेवा से केवल श्रम ही हाथ लगा। ज्ञानवान् पुरुष इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों का ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो इस शरीर में ही आसक्त नहीं है, यह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदि में भी किस प्रकार ममता रख सकता है। यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणों का आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मा से रहित है; अतएव शरीर से भिन्न है। जो पुरुष इस देहस्थित आत्मा को इस प्रकार शरीर से भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मा में रहती है।

राजन्! जो पुरुष किसी प्रकार की कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मन का साक्षी होने पर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

राजन्! गुणप्रवाहरूप आवाहन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास- इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन्न लिंग शरीर का ही हुआ करता है; इसका सर्वसाक्षी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के वशीभूत नहीं होते। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषों में समान भाव रखकर सुख-दुःख को भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियों को जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा पालन में ही है। इससे उसे परलोक में प्रजा के पुण्य का छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजा की रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदले में उसे प्रजा के पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसा विचार कर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सम्मति और पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुए धर्म को ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनों में तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धों के दर्शन होंगे।

वरं च मत् कञ्चन मानवेन्द्र

     वृणीष्व तेऽहं गुणशीलयन्त्रितः ।

नाहं मखैर्वै सुलभस्तपोभिः

     योगेन वा यत्समचित्तवर्ती ॥ १६ ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

स इत्थं लोकगुरुणा विष्वक्सेनेन विश्वजित् ।

अनुशासित आदेशं शिरसा जगृहे हरेः ॥ १७ ॥

स्पृशन्तं पादयोः प्रेम्णा व्रीडितं स्वेन कर्मणा ।

शतक्रतुं परिष्वज्य विद्वेषं विससर्ज ह ॥ १८ ॥

भगवानथ विश्वात्मा पृथुनोपहृतार्हणः ।

समुज्जिहानया भक्त्या गृहीतचरणाम्बुजः ॥ १९ ॥

प्रस्थानाभिमुखोऽप्येनं अनुग्रहविलम्बितः ।

पश्यन् पद्मपलाशाक्षो न प्रतस्थे सुहृत्सताम् ॥ २० ॥

स आदिराजो रचिताञ्जलिर्हरिं

     विलोकितुं नाशकदश्रुलोचनः ।

न किञ्चनोवाच स बाष्पविक्लवो

     हृदोपगुह्यामुमधादवस्थितः ॥ २१ ॥

अथावमृज्याश्रुकला विलोकयन्

     अतृप्तदृग्गोचरमाह पूरुषम् ।

पदा स्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नते

     विन्यस्तहस्ताग्रमुरङ्‌गविद्विषः ॥ २२ ॥

पृथुरुवाच -

वरान् विभो त्वद्वरदेश्वराद्‍बुधः

     कथं वृणीते गुणविक्रियात्मनाम् ।

ये नारकाणामपि सन्ति देहिनां

     तानीश कैवल्यपते वृणे न च ॥ २३ ॥

न कामये नाथ तदप्यहं क्वचित्

     न यत्र युष्मत् चरणाम्बुजासवः ।

महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो

     विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥ २४ ॥

स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो

     भवत्पदाम्भोजसुधा कणानिलः ।

स्मृतिं पुनर्विस्मृततत्त्ववर्त्मनां

     कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ॥ २५ ॥

यशः शिवं सुश्रव आर्यसङ्‌गमे

     यदृच्छया चोपशृणोति ते सकृत् ।

कथं गुणज्ञो विरमेद्विना पशुं

     श्रीर्यत्प्रवव्रे गुणसङ्‌ग्रहेच्छया ॥ २६ ॥

अथाभजे त्वाखिलपूरुषोत्तमं

     गुणालयं पद्मकरेव लालसः ।

अप्यावयोरेकपतिस्पृधोः कलिः

     न स्यात्कृतत्वच्चरणैकतानयोः ॥ २७ ॥

राजन्! तुम्हारे गुणों ने और स्वभाव ने मुझको वश में कर लिया है। अतः तुम्हे जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ जिनके चित्त में समता रहती है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! सर्वलोकगुरु श्रीहरि के इस प्रकार कहने पर जगद्विजयी महाराज पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की देवराज इन्द्र अपने कर्म से लज्जित होकर उनके चरणों पर गिरना ही चाहते थे कि राजा ने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया। फिर महाराज पृथु ने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान् का पूजन किया और क्षण-क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव में निमग्न होकर प्रभु के चरणकमल पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँ से जाना चाहते थे; किन्तु पृथु के प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था, उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदल के समान नेत्रों से उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँ से जा न सके।

आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में जल भर आने के कारण न तो भगवान् का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जाने से कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदय से आलिगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। प्रभु अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुड़ जी के ऊँचे कंधे पर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे।

महाराज पृथु बोले ;- मोक्षपति प्रभो! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने में समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता। मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा नहीं है, जिसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ।

पुण्यकीर्ति प्रभो! आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है, उसी में इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।

उत्तम कीर्ति वाले प्रभो! सत्संग में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुद्धिपुरुष भले ही तृप्त हो जाये; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता है? सब प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये स्वयं लक्ष्मी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हैं। अब लक्ष्मी जी के समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकता से आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पति की सेवा प्राप्त करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में ही मन को एकाग्र करने वाले हम दोनों में कलह छिड़ जाये।

जगज्जनन्यां जगदीश वैशसं

     स्यादेव यत्कर्मणि नः समीहितम् ।

करोषि फल्ग्वप्युरु दीनवत्सलः

     स्व एव धिष्ण्येऽभिरतस्य किं तया ॥ २८ ॥

भजन्त्यथ त्वामत एव साधवो

     व्युदस्तमायागुणविभ्रमोदयम् ।

भवत्पदानुस्मरणादृते सतां

     निमित्तमन्यद्‍भगवन्न विद्महे ॥ २९ ॥

मन्ये गिरं ते जगतां विमोहिनीं वरं

     वृणीष्वेति भजन्तमात्थ यत् ।

वाचा नु तन्त्या यदि ते जनोऽसितः

     कथं पुनः कर्म करोति मोहितः ॥ ३० ॥

त्वन्माययाद्धा जन ईश खण्डितो

     यदन्यदाशास्त ऋतात्मनोऽबुधः ।

यथा चरेद्‍बालहितं पिता स्वयं

     तथा त्वमेवार्हसि नः समीहितुम् ॥ ३१ ॥

मैत्रेय उवाच -

इत्यादिराजेन नुतः स विश्वदृक्

     तमाह राजन् मयि भक्तिरस्तु ते ।

दिष्ट्येदृशी धीर्मयि ते कृता यया

     मायां मदीयां तरति स्म दुस्त्यजाम् ॥ ३२ ॥

(अनुष्टुप्)

तत्त्वं कुरु मयादिष्टं अप्रमत्तः प्रजापते ।

मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम् ॥ ३३ ॥

मैत्रेय उवाच -

इति वैन्यस्य राजर्षेः प्रतिनन्द्यार्थवद्वचः ।

पूजितोऽनुगृहीत्वैनं गन्तुं चक्रेऽच्युतो मतिम् ॥ ३४ ॥

देवर्षिपितृगन्धर्व सिद्धचारणपन्नगाः ।

किन्नराप्सरसो मर्त्याः खगा भूतान्यनेकशः ॥ ३५ ॥

यज्ञेश्वरधिया राज्ञा वाग्वित्ताञ्जलिभक्तितः ।

सभाजिता ययुः सर्वे वैकुण्ठानुगतास्ततः ॥ ३६ ॥

भगवानपि राजर्षेः सोपाध्यायस्य चाच्युतः ।

हरन्निव मनोऽमुष्य स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ ३७ ॥

अदृष्टाय नमस्कृत्य नृपः सन्दर्शितात्मने ।

अव्यक्ताय च देवानां देवाय स्वपुरं ययौ ॥ ३८ ॥

जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मी जी के हृदय में मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्य में उनका अनुराग है, उसी के लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनों पर दया करते हैं, उनके तुच्छ कर्मों को भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मी जी से भी क्या लेना है। इसी से निष्काम महात्मा ज्ञान हो जाने के बाद भी आपके भजन करते हैं। आप में माया के कार्य अहंकारदि का सर्वथा अभाव है।

भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं भी बिना किसी इच्छा के आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि वर माँगसो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सी से लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते?

प्रभो! आपकी माया से ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादि की इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्र की प्रार्थना कि अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुत्र का कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छा की अपेक्षा न करके हमारे हित के लिये स्वयं ही प्रयत्न करें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- आदिराज पृथु के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वसाक्षी श्रीहरि ने उनसे कहा, ‘राजन्! तुम्हारी मुझमे भक्ति हो। बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होने पर तो पुरुष सहज में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश! जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र मंगल होता है

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् ने राजर्षि पृथु के सारगर्भित वचनों का आदर किया। फिर पृथु ने उनकी पूजा की और प्रभु उन पर सब प्रकार कृपा कर वहाँ से चलने को तैयार हुए। महाराज पृथु ने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकार के प्राणी एवं भगवान् के पार्षद आये थे, उन सभी का भगवदबुद्धि से भक्तिपूर्वक वाणी और धन के द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानों को चले गये। भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितों का चित्त चुराते हुए अपने धाम को सिधारे। तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान् को नमस्कार करके राजा पृथु भी अपनी राजधानी में चले आये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २० समाप्त हुआ ॥ २० ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २१  

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९                

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९  "महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९       

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः १९          

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

अथादीक्षत राजा तु हयमेधशतेन सः ।

ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती ॥ १ ॥

तदभिप्रेत्य भगवान् कर्मातिशयमात्मनः ।

शतक्रतुर्न ममृषे पृथोर्यज्ञमहोत्सवम् ॥ २ ॥

यत्र यज्ञपतिः साक्षाद् भगवान् हरिरीश्वरः ।

अन्वभूयत सर्वात्मा सर्वलोकगुरुः प्रभुः ॥ ३ ॥

अन्वितो ब्रह्मशर्वाभ्यां लोकपालैः सहानुगैः ।

उपगीयमानो गन्धर्वैः मुनिभिश्चाप्सरोगणैः ॥ ४ ॥

सिद्धा विद्याधरा दैत्या दानवा गुह्यकादयः ।

सुनन्दनन्दप्रमुखाः पार्षदप्रवरा हरेः ॥ ५ ॥

कपिलो नारदो दत्तो योगेशाः सनकादयः ।

तमन्वीयुर्भागवता ये च तत्सेवनोत्सुकाः ॥ ६ ॥

यत्र धर्मदुघा भूमिः सर्वकामदुघा सती ।

दोग्धि स्माभीप्सितान् अर्थान् यजमानस्य भारत ॥ ७ ॥

ऊहुः सर्वरसान्नद्यः क्षीरदध्यन्नगोरसान् ।

तरवो भूरिवर्ष्माणः प्रासूयन्त मधुच्युतः ॥ ८ ॥

सिन्धवो रत्‍ननिकरान् गिरयोऽन्नं चतुर्विधम् ।

उपायनं उपाजह्रुः सर्वे लोकाः सपालकाः ॥ ९ ॥

इति चाधोक्षजेशस्य पृथोस्तु परमोदयम् ।

असूयन् भगवान् इन्द्रः प्रतिघातमचीकरत् ॥ १० ॥

चरमेणाश्वमेधेन यजमाने यजुष्पतिम् ।

वैन्ये यज्ञपशुं स्पर्धन् अपोवाह तिरोहितः ॥ ११ ॥

तं अत्रिर्भगवानैक्षत् त्वरमाणं विहायसा ।

आमुक्तमिव पाखण्डं योऽधर्मे धर्मविभ्रमः ॥ १२ ॥

अत्रिणा चोदितो हन्तुं पृथुपुत्रो महारथः ।

अन्वधावत सङ्‌क्रुद्धः तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १३ ॥

तं तादृशाकृतिं वीक्ष्य मेने धर्मं शरीरिणम् ।

जटिलं भस्मनाच्छन्नं तस्मै बाणं न मुञ्चति ॥ १४ ॥

वधान्निवृत्तं तं भूयो हन्तवेऽत्रिरचोदयत् ।

जहि यज्ञहनं तात महेन्द्रं विबुधाधमम् ॥ १५ ॥

एवं वैन्यसुतः प्रोक्तः त्वरमाणं विहायसा ।

अन्वद्रवद् अभिक्रुद्धो रावणं गृध्रराडिव ॥ १६ ॥

सोऽश्वं रूपं च तद्धित्वा तस्मा अन्तर्हितः स्वराट् ।

वीरः स्वपशुमादाय पितुर्यज्ञं उपेयिवान् ॥ १७ ॥

तत्तस्य चाद्‍भुतं कर्म विचक्ष्य परमर्षयः ।

नामधेयं ददुस्तस्मै विजिताश्व इति प्रभो ॥ १८ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज मनु के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली। यह देखकर भगवान् इन्द्र को विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथु के कर्म मेरे कर्मों की अपेक्षा भी बढ़ जायेंगे। इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सव को सहन न कर सके।

महाराज पृथु के यज्ञ में सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान् हरि ने यज्ञेश्वर रूप से साक्षात् दर्शन दिया था। उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरों के सहित लोकपालगण भी पधारे थे। उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभु की कीर्ति गा रहे थे। सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान् के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान् की सेवा के लिये उत्सुक रहते हैं- वे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे।

भारत! उस यज्ञ में यज्ञसामग्रियों को देने वाली भूमि ने कामधेनुरूप होकर यजमान की सारी कामनाओं को पूर्ण किया था। नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकार के रसों को बहा लाती थीं तथा जिनके मधु चूता रहता था- ऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरह की सामग्रियों समर्पण करते थे। समुद्र बहुत-सी रत्नराशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्य- चार प्रकार के अन्न तथा लोकपालों के सहित सम्पूर्ण लोक तरह-तरह के उपहार उन्हें समपर्ण करते थे।

महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरि को ही अपना प्रभु मानते थे। उनकी कृपा से उस यज्ञानुष्ठान में उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ। किन्तु यह बात देवराज इन्द्र को सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की। जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञ द्वारा भगवान् यज्ञपति की आराधना कर रहे थे, इन्द्र ने ईर्ष्यावश गुप्तरूप से उनके यज्ञ का घोड़ा हर लिया। इन्द्र ने अपनी रक्षा के लिये कवचरूप से पाखण्ड वेष धारण कर लिया था, जो अधर्म में धर्म का भ्रम उत्पन्न करने वाला है- जिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है। इस वेष में वे घोड़े को लिये बड़ी शीघ्रता से आकाश मार्ग से जा रहे थे कि उन पर भगवान् अत्रि की दृष्टि पड़ गयी। उनके कहने से महाराज पृथु का महारथी पुत्र इन्द्र को मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोध से बोला, ‘अरे खड़ा रहा! खड़ा रह। इन्द्र सिर पर जटाजूट और शरीर में भस्म धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमार ने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उन पर बाण नहीं छोड़ा। जब वह इन्द्र पर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रि ने पुनः उसे इन्द्र को मारने के लिये आज्ञा दी- वत्स! इस देवताधम इन्द्र ने तुम्हारे यज्ञ में विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो

अत्रि मुनि के इस प्रकार उत्साहित करने पर पृथुकुमार क्रोध में भर गया। इन्द्र बड़ी तेजी से आकाश में जा रहे थे। उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावण के पीछे जटायु। स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख, उस वेष और घोड़े को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट आया। शक्तिशाली विदुर जी! उसके इस अद्भुत पराक्रम को देखकर महर्षियों ने उसका नाम विजिताश्व रखा।

उपसृज्य तमस्तीव्रं जहाराश्वं पुनर्हरिः ।

चषालयूपतश्छन्नो हिरण्यरशनं विभुः ॥ १९ ॥

अत्रिः सन्दर्शयामास त्वरमाणं विहायसा ।

कपालखट्वाङ्‌गधरं वीरो नैनमबाधत ॥ २० ॥

अत्रिणा चोदितस्तस्मै सन्दधे विशिखं रुषा ।

सोऽश्वं रूपं च तद्धित्वा तस्थावन्तर्हितः स्वराट् ॥ २१ ॥

वीरश्चाश्वमुपादाय पितृयज्ञमथाव्रजत् ।

तदवद्यं हरे रूपं जगृहुर्ज्ञानदुर्बलाः ॥ २२ ॥

यानि रूपाणि जगृहे इन्द्रो हयजिहीर्षया ।

तानि पापस्य खण्डानि लिङ्‌गं खण्डमिहोच्यते ॥ २३ ॥

एवमिन्द्रे हरत्यश्वं वैन्ययज्ञजिघांसया ।

तद्‍गृहीतविसृष्टेषु पाखण्डेषु मतिर्नृणाम् ॥ २४ ॥

धर्म इत्युपधर्मेषु नग्नरक्तपटादिषु ।

प्रायेण सज्जते भ्रान्त्या पेशलेषु च वाग्मिषु ॥ २५ ॥

तदभिज्ञाय भगवान् पृथुः पृथुपराक्रमः ।

इन्द्राय कुपितो बाणं आदत्तोद्यतकार्मुकः ॥ २६ ॥

तमृत्विजः शक्रवधाभिसन्धितं

     विचक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमसह्यरंहसम् ।

निवारयामासुरहो महामते

     न युज्यतेऽत्रान्यवधः प्रचोदितात् ॥ २७ ॥

वयं मरुत्वन्तमिहार्थनाशनं

     ह्वयामहे त्वच्छ्रवसा हतत्विषम् ।

अयातयामोपहवैरनन्तरं

     प्रसह्य राजन् जुहवाम तेऽहितम् ॥ २८ ॥

(अनुष्टुप्)

इत्यामन्त्र्य क्रतुपतिं विदुरास्यर्त्विजो रुषा ।

स्रुग्घस्तान् जुह्वतोऽभ्येत्य स्वयम्भूः प्रत्यषेधत ॥ २९ ॥

न वध्यो भवतां इन्द्रो यद्यज्ञो भगवत्तनुः ।

यं जिघांसथ यज्ञेन यस्येष्टास्तनवः सुराः ॥ ३० ॥

तदिदं पश्यत महद् धर्मव्यतिकरं द्विजाः ।

इन्द्रेणानुष्ठितं राज्ञः कर्मैतद्विजिघांसता ॥ ३१ ॥

पृथुकीर्तेः पृथोर्भूयात् तर्ह्येकोनशतक्रतुः ।

अलं ते क्रतुभिः स्विष्टैः यद्‍भवान् मोक्षधर्मवित् ॥ ३२ ॥

यज्ञपशु को चषाल और यूप में[1] बाँध दिया गया था। शक्तिशाली इन्द्र ने घोर अन्धकार फैला दिया और उसी में छिपकर वे फिर उस घोड़े को उसकी सोने की जंजीर समेत ले गये। अत्रि मुनि ने फिर उन्हें आकाश में तेजी से जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वांग देखकर पृथुपुत्र ने उनके मार्ग में कोई बाधा न डाली। तब अत्रि ने राजकुमार को फिर उकसाया और उसने गुस्से में भरकर इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया। यह देखते ही देवराज उस वेष और घोडों को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये। वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट गया। तब से इन्द्र के उस निन्दित वेष को मन्दबुद्धि पुरुषों ने ग्रहण कर लिया। इन्द्र ने अश्वहरण की इच्छा से जो-जो रूप धारण किये थे, वे पाप के खण्ड होने के कारण पाखण्ड कहलाये। यहाँ खण्डशब्द चिह्न का वाचक है। इस प्रकार पृथु के यज्ञ का विध्वंस करने के लिये यज्ञपशु चुराते समय इन्द्र ने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था, उन नग्न’, ‘रक्ताम्बरतथा कापालिकआदि पाखण्डपूर्ण आचारों में मनुष्यों की बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती है; क्योंकि ये नास्तिकमत देखने में सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियों से अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। वास्तव में उपधर्ममात्र हैं। लोग भ्रमवश धर्म मानकर उनमें आसक्त हो जाते हैं।

इन्द्र की इस कुचाल का पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज पृथु को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया। उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजों ने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्र का वध करने को तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन्! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोड़कर और किसी का वध करना उचित नहीं है। इस यज्ञ कार्य में विघ्न डालने वाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयश से ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात् अग्नि में हवन किये देते हैं

विदुर जी! यजमान से इस प्रकार सलाह करके उसके याजकों ने क्रोधपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया। वे स्रुवा द्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा जी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया। वे बोले, ‘याजको! तुम्हें इन्द्र का वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान् की ही मूर्ति है। तुम यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की आराधना कर रहे हो, वे इन्द्र के ही तो अंग हैं और उसे तुम यज्ञ द्वारा मारना चाहते हो। पृथु के इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्म का उच्छेदन करने वाला है। इस बात पर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा। अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथु के निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो।

नैवात्मने महेन्द्राय रोषमाहर्तुमर्हसि ।

उभावपि हि भद्रं ते उत्तमश्लोकविग्रहौ ॥ ३३ ॥

मास्मिन्महाराज कृथाः स्म चिन्तां

     निशामयास्मद्वच आदृतात्मा ।

यद्ध्यायतो दैवहतं नु कर्तुं

     मनोऽतिरुष्टं विशते तमोऽन्धम् ॥ ३४ ॥

(अनुष्टुप्)

क्रतुर्विरमतामेष देवेषु दुरवग्रहः ।

धर्मव्यतिकरो यत्र पाखण्डैः इन्द्रनिर्मितैः ॥ ३५ ॥

एभिरिन्द्रोपसंसृष्टैः पाखण्डैर्हारिभिर्जनम् ।

ह्रियमाणं विचक्ष्वैनं यस्ते यज्ञध्रुगश्वमुट् ॥ ३६ ॥

भवान्परित्रातुमिहावतीर्णो

     धर्मं जनानां समयानुरूपम् ।

वेनापचारादवलुप्तमद्य

     तद्देहतो विष्णुकलासि वैन्य ॥ ३७ ॥

स त्वं विमृश्यास्य भवं प्रजापते

     सङ्‌कल्पनं विश्वसृजां पिपीपृहि ।

ऐन्द्रीं च मायामुपधर्ममातरं

     प्रचण्डपाखण्डपथं प्रभो जहि ॥ ३८ ॥

मैत्रेय उवाच -

इत्थं स लोकगुरुणा समादिष्टो विशाम्पतिः ।

तथा च कृत्वा वात्सल्यं मघोनापि च सन्दधे ॥ ३९ ॥

कृतावभृथस्नानाय पृथवे भूरिकर्मणे ।

वरान्ददुस्ते वरदा ये तद्‍बर्हिषि तर्पिताः ॥ ४० ॥

विप्राः सत्याशिषस्तुष्टाः श्रद्धया लब्धदक्षिणाः ।

आशिषो युयुजुः क्षत्तः आदिराजाय सत्कृताः ॥ ४१ ॥

त्वयाऽऽहूता महाबाहो सर्व एव समागताः ।

पूजिता दानमानाभ्यां पितृदेवर्षिमानवाः ॥ ४२ ॥

फिर राजर्षि पृथु से कहा, ‘राजन्! आप तो मोक्षधर्म के जानने वाले हैं; अतः अब आपको इन यज्ञानुष्ठानों की आवश्यकता नहीं है। आपका मंगल हो! आप और इन्द्र-दोनों की पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीहरि के शरीर हैं; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्र के प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये। आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआ-इसके लिये आप चिन्ता न करें। हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये। देखिये, जो मनुष्य विधाता के बिगाड़े हुए काम को बनाने का विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोध में भरकर भयंकर मोह में फँस जाता है। बस, इस यज्ञ को बंद कीजिये। इसी के कारण इन्द्र के चलाये हुए पाखण्डों से धर्म का नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओं में बड़ा दुराग्रह होता है।

जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़े को चुराकर आपके यज्ञ में विघ्न डाल रहा था, उसी के रचे हुए इन मनोहर पाखण्डों की ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही है। आप साक्षात् विष्णु के अंश हैं। वेन के दुराचार से धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्म की रक्षा के लिये ही आपने उसके शरीर से अवतार लिया है। अतः प्रजापालक पृथु जी! अपने इस अवतार का उद्देश्य विचार कर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरों का संकल्प पूर्ण कीजिये। यह प्रचण्ड पाखण्ड-पथरूप इन्द्र की माया अधर्म की जननी है। आप इसे नष्ट कर डालिये

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझाने पर प्रबल पराक्रमी महराज पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया और इन्द्र के साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली। इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञों से तृप्त हुए देवताओं ने उन्हें अभीष्ट वर दिये। आदिराज पृथु ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणों ने उनके सत्कार से सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये। वे कहने लगे, ‘महाबाहो! आपके बुलाने से जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभी का आपने दान-मान से खूब सत्कार किया

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय १९ समाप्त हुआ ॥ १९ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २०