श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३ नरकों का स्वरूप, नरकों में प्राप्त होनेवाली विविध यातनाएँ तथा नरक में गिरानेवाले कर्म एवं जीव की शुभाशुभ गति

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 3

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प दूसरा अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) तृतीयोऽध्यायः

सूत उवाच ।

एवमुत्साहितः पक्षी स्वरूपं निरयस्य तु ।

पप्रच्छनरकाण्येवं श्रुत्वा चोत्कूलितान्तरः ॥ २,३.१ ॥

श्रीसूतजी ने कहा- पूछे गये अपने प्रश्नों का सम्यक् उत्तर सुनकर पक्षिराज गरुड अतिशय आह्लादित हो भगवान् विष्णु से नरकों के स्वरूप को जानने की इच्छा प्रकट की।

गरुड उवाच ।

नरकाणां स्वरूपं मे वद येषु विकर्मिणः ।

पात्यन्ते दुः खभूयिष्ठास्तेषां भेदांश्च कीर्तय ॥ २,३.२ ॥

गरुड ने कहा- हे उपेन्द्र ! आप मुझे उन नरकों का स्वरूप और भेद बतायें, जिनमें जाकर पापीजन अत्यधिक दुःख भोगते हैं।

श्रीभगवानुवाच ।

नरकाणां सहस्राणि वर्तन्ते ह्यरुणानुज ।

शक्यं विस्तरतो नैव वक्तुं प्राधान्यतो ब्रुवे ॥ २,३.३ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे अरुण के छोटे भाई गरुड ! नरक तो हजारों की संख्या में हैं। सभी को विस्तृत रूप में बताना सम्भव नहीं है। अतः मैं मुख्य-मुख्य नरकों को बता रहा हूँ।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'रौरव' नरक

रौरवं नाम नरकं मुख्यं तद्वैनिबोध मे ।

रौरवे कूटसाक्षी तु याति यश्चानृती नरः ॥ २,३.४ ॥

योजनानां सहस्रे द्वे रौरवो हि प्रमाणतः ।

जानुमात्रप्रमाणं तु तत्र गर्तं सुदुस्तरम् ॥ २,३.५ ॥

तत्राङ्गारचयौघेन कृतं तद्धरणीसमम् ।

तत्राग्निना सुतीव्रेण तापिताङ्गारभूमिना ॥ २,३.६ ॥

तन्मध्ये पापकर्माणं विमुञ्चन्ति यमानुगाः ।

स दह्यमानस्तीव्रेण वह्निना परिधावति ॥ २,३.७ ॥

पदेपदे च पादोऽस्य स्फुट्यते शीर्यते पुनः ।

अहोरात्रेणोद्धरणं पादन्यासेन गच्छति ॥ २,३.८ ॥

एवं सहस्रं विस्तीर्णं योजनानां विमुच्यते ।

ततोऽन्यत्पापशुद्ध्यर्थं तादृङ्निरयमृच्छति ॥ २,३.९ ॥

हे पक्षिराज! तुम मुझसे यह जान लो कि 'रौरव' नामक नरक अन्य सभी की अपेक्षा प्रधान है। झूठी गवाही देनेवाला और झूठ बोलनेवाला व्यक्ति रौरव नरक में जाता है। इसका विस्तार दो हजार योजन है। जाँघभर की गहराई में वहाँ दुस्तर गड्ढा है। दहकते हुए अंगारों से भरा हुआ वह गड्ढा पृथ्वी के समान बराबर (समतल भूमि जैसा) दीखता है। तीव्र अग्नि से वहाँ की भूमि भी तप्ताङ्गार जैसी है। उसमें यम के दूत पापियों को डाल देते हैं। उस जलती हुई अग्नि से संतप्त होकर पापी उसी में इधर-उधर भागता है। उसके पैर में छाले पड़ जाते हैं, जो फूटकर बहने लगते हैं। रात-दिन वह पापी वहाँ पैर उठा-उठाकर चलता है। इस प्रकार वह जब हजार योजन उस नरक का विस्तार पार कर लेता है, तब उसे पाप की शुद्धि के लिये उसी प्रकार के दूसरे नरक में भेजा जाता है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'महारौरव' नरक

रौरवस्ते समाख्यातः प्रथमो नरको मया ।

महारौरवसंज्ञं तु शृणुष्व नरकं खग ॥ २,३.१० ॥

योजनानां सहस्राणि सन्ति पञ्च समन्ततः ।

तत्र ताम्रमयी भूमिरधस्तस्या हुताशनः ॥ २,३.११ ॥

तया तपन्त्या सा सर्वा प्रोद्यद्विद्युत्समप्रभा ।

विभाव्यते महारौद्रा पापिनां दर्शनादिषु ॥ २,३.१२ ॥

तस्यां बद्धकराभ्यां च पद्भ्यां चैव यमानुगैः ।

मुच्यते पापकृन्मध्ये लुण्ठमानः स गच्छति ॥ २,३.१३ ॥

काकैर्बकैर्वृकोलूकैर्मशकैर्वृश्चिकैस्तथा ।

भक्ष्यमाणैस्तथा रौद्रैर्गतो मार्गे विकृष्यते ॥ २,३.१४ ॥

दह्यमानो गतमतिर्भ्रान्तस्तातेति चाकुलः ।

वदत्यसकृदुद्वग्नो न शान्तिमधिगच्छति ॥ २,३.१५ ॥

एवं तस्मान्नरैर्मोक्षस्त्वतिक्रान्तैरवाप्यते ।

वर्षायुतायुतैः पापं यैः कृतं दुष्टबुद्धिभिः ॥ २,३.१६ ॥

हे पक्षिन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें रौरव नामक प्रथम नरक की बात बता दी। अब तुम 'महारौरव' नामक नरक की बात सुनो। यह नरक पाँच हजार योजन में फैला हुआ है। वहाँ की भूमि ताँबे के समान वर्णवाली है। उसके नीचे अग्नि जलती रहती है। वह भूमि विद्युत् प्रभा के समान कान्तिमान् है। देखने में वह पापीजनों को महाभयंकर प्रतीत होती है। यमदूत पापी व्यक्ति के हाथ-पैर बांधकर उसे उसी में लुढ़का देते हैं और वह लुढ़कता हुआ उसमें चलता है। मार्ग में कौआ, बगुला, भेड़िया, उलूक, मच्छर और बिच्छू आदि जीव-जन्तु क्रोधातुर होकर उसे खानेके लिये तत्पर रहते हैं। वह उस जलती हुई भूमि एवं भयंकर जीव-जन्तुओं के आक्रमण से इतना संतप्त हो जाता है कि उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो जाती है। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगता है तथा बार-बार उस कष्ट से बेचैन हो उठता है। उसको वहाँ कहीं पर भी शान्ति नहीं प्राप्त होती है। इस प्रकार उस नरकलोक के कष्ट को भोगते हुए पापी के जब हजारों वर्ष बीत जाते हैं, तब कहीं जाकर मुक्ति प्राप्त होती है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'अतिशीत' नरक

तथान्यस्तु ततो नाम सोऽतिशीतः स्वभावतः ।

महारौरववद्दीर्घस्तथान्धतमसा वृतः ॥ २,३.१७ ॥

शीतार्तास्तत्र बध्यन्ते नरास्तमसि दारुणे ।

परस्परं समासाद्य परिरभ्याश्रयन्ति ते ॥ २,३.१८ ॥

दन्तास्तेषां च भज्यन्ते शीतार्तिपरिकम्पिताः ।

क्षुतृषातिबलाः पक्षिन्नथ तत्राप्युपदवाः ॥ २,३.१९ ॥

हिमखण्डवहो वायुभिनत्त्यस्थीनि दारुणः ।

मज्जासृगस्थिगलितमश्रन्त्यत्र क्षुधान्विताः ॥ २,३.२० ॥

आलिङ्ग्यमाना भ्राम्यन्ते परस्परसमागमे ।

एवं तत्रापि सुमहान्क्लेशस्तमसि मानवैः ॥ २,३.२१ ॥

इसके बाद जो नरक है उसका नाम 'अतिशीत' है। वह स्वभावतः अत्यन्त शीतल है। महारौरव नरक के समान ही उसका भी विस्तार बहुत लंबा है। वह गहन अन्धकार से व्याप्त रहता है। असह्य कष्ट देनेवाले यमदूतों के द्वारा पापीजन लाकर यहाँ बाँध दिये जाते हैं। अतः वे एक दूसरे का आलिंगन करके वहाँ की भयंकर ठंडक से बचने का प्रयास करते हैं। उनके दाँतों में कटकटाहट होने लगती है। हे पक्षिराज! उनका शरीर वहाँ की उस ठंडक से काँपने लगता है। वहाँ भूख-प्यास बहुत अधिक लगती है। इसके अतिरिक्त भी अनेक कष्टों का सामना उन्हें वहाँ करना पड़ता है। वहाँ हिमखण्ड का वहन करनेवाली वायु चलती है, जो शरीर की हड्डियों को तोड़ देती है। वहाँ के प्राणी भूख से त्रस्त होकर मज्जा, रक्त और गल रही हड्डियों को खाते हैं। परस्पर भेंट होने पर वे सभी पापी एक- दूसरे का आलिंगन कर भ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार उस तमसावृत्त नरक में मनुष्य को बहुत-से कष्ट झेलने पड़ते हैं।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'निकृन्तन' नरक

प्राप्यते शकुनिश्रेष्ठ यो बहूकृतसञ्चयः ।

निकृन्तन इति ख्यातस्ततोऽन्यो नरकोत्तमः ॥ २,३.२२ ॥

कुलालचक्राणि तत्र भ्राम्यन्त्यविरतं खग ।

तेष्वापाष्ये निकृष्यन्ते कालसूत्रेण मानवाः ॥ २,३.२३ ॥

यमानुमाङ्गुलिस्थेन आपादतलमस्तकम् ।

न चैषां जीवितभ्रंशो जायते पक्षिसत्तम ॥ २,३.२४ ॥

छिन्नानि तेषां शतशः खण्डान्यैक्यं व्रजन्ति हि ।

एवं वर्षसहस्राणि भ्राम्यन्ते पापकर्मिणः ॥ २,३.२५ ॥

तावद्यावदशेषं च तत्पापं संक्षयं गतम् ।

हे पक्षिश्रेष्ठ! जो व्यक्ति अन्यान्य असंख्य पाप करता है, वह इस नरक के अतिरिक्त 'निकृन्तन' नाम से प्रसिद्ध दूसरे नरक में जाता है। हे खगेन्द्र! वहाँ अनवरत कुम्भकार के चक्र के समान चक्र चलते रहते हैं, जिनके ऊपर पापीजनों को खड़ा करके यम के अनुचरों के द्वारा अँगुलि में स्थित कालसूत्र से उनके शरीर को पैर से लेकर शिरोभाग तक छेदा जाता है। फिर भी उनका प्राणान्त नहीं होता। इसमें शरीर के सैकड़ों भाग टूट-टूट कर छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और पुनः इकट्ठे हो जाते हैं। इस प्रकार यमदूत पापकर्मियों को वहाँ हजारों वर्षतक चक्कर लगवाते रहते हैं। जब सभी पापों का विनाश हो जाता है, तब कहीं जाकर उन्हें उस नरक से मुक्ति प्राप्त होती है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'अप्रतिष्ठ' नरक

अप्रातष्ठं च नरकं शृणुष्व गदतो मम ॥ २,३.२६ ॥

तत्रस्थैर्नारकैर्दुः खमसह्यमनुभूयते ।

तान्येव तत्र चक्राणि घटीयन्त्राणि चान्यतः ॥ २,३.२७ ॥

दुः खस्य हेतुभूतानि पापकर्मकृतां नृणाम् ।

चक्रेष्वारोपिताः केचिद्भाम्यन्ते तत्र मानवाः ॥ २,३.२८ ॥

यावद्वर्षसहस्राणि न तेषां स्थितिरन्तरा ।

घटीयन्त्रेषु बद्वा ये बद्धा तोयवटी यथा ॥ २,३.२९ ॥

भ्राम्यन्ते मानवा रक्तमुद्गिरन्तः पुनः पुनः ।

अन्त्रैर्मुखविनिष्क्रान्तैर्नेत्रैरन्त्रावलम्बिभैः ॥ २,३.३० ॥

दुः खानि प्राप्नुवन्तीह यान्यसह्यानि जन्तुभिः ।

'अप्रतिष्ठ' नाम का एक अन्य नरक है। वहाँ जानेवाले प्राणी असह्य दुःख का भोग भोगते हैं। वहाँ पापकर्मियों के दुःख के हेतुभूत चक्र और रहट लगे रहते हैं जबतक हजारों वर्ष पूरे नहीं हो जाते, तबतक वह रुकता नहीं। जो लोग उस चक्र पर बाँधे जाते हैं, वे जल के घट की भाँति उस पर घूमते रहते हैं। पुनः रक्त का वमन करते हुए उनकी आँतें मुख की ओर से बाहर आ जाती हैं और नेत्र आँतों में घुस जाते हैं। प्राणियों को वहाँ जो दुःख प्राप्त होते हैं, वे बड़े ही कष्टकारी हैं।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'असिपत्रवन' नरक

असिपत्रवनं नाम नरकं शृणु चापरम् ॥ २,३.३१ ॥

योजनानां सहस्रं यो ज्वलत्यग्न्याशृतावनिः ।

सप्ततीव्रकराश्चैण्डर्यत्र तीव्र सुदारुणे ॥ २,३.३२ ॥

प्रतपन्ति सदा तत्र प्राणिनो नरकौकसः ।

तन्मध्ये चरणं शीतस्निग्धपत्रं विभाष्यते ॥ २,३.३३ ॥

पत्राणि यत्र खण्डानि फलानां पक्षिसत्तम ।

श्वानश्च तत्र सुबलाश्चरन्त्यामिषभोजनाः ॥ २,३.३४ ॥

महावक्त्रा महादंष्ट्रा व्याघ्रा इव महाबलाः ।

ततश्च वनमालोक्य शिशिरच्छायमग्रतः ॥ २,३.३५ ॥

प्रयान्ति प्राणिनस्तत्र क्षुत्तापपरिपीडिताः ।

मातर्भ्रातस्तात इति क्रन्दमानाः सुदुः खिताः ॥ २,३.३६ ॥

दह्यमानाङ्घ्रियुगला धरणिस्थेन वह्निना ।

तेषां गतानां तत्रापि अति शीतिः समीरणः ॥ २,३.३७ ॥

प्रवाति तेन पात्यन्ते तेषां खड्गास्तथोपरि ।

छिन्नाः पतन्ति ते भूमौ ज्वलत्पावकसंचये ॥ २,३.३८ ॥

लेलिह्यमाने चान्यत्र तप्ताशेषमहीतले ।

सारमेयाश्च ते शीघ्रं शातयन्ति शरीरतः ॥ २,३.३९ ॥

तेषां खण्डान्यनेकानि रुदतामतिभीषणे ।

हे गरुड! अब 'असिपत्रवन' नामक दूसरे नरक के विषय में सुनो। यह नरक एक हजार योजन में फैला हुआ है। इसकी सम्पूर्ण भूमि अग्नि से व्याप्त होने के कारण अहर्निश जलती रहती है। इस भयंकर नरक मे सात-सात सूर्य अपनी सहस्र सहस्र रश्मियों के साथ सदैव तपते रहते हैं, जिनके संताप से वहाँ के पापी हर क्षण जलते ही रहते हैं। इसी नरक के मध्य एक चौथाई भाग में 'शीतस्निग्धपत्र' नाम का वन है। हे पक्षिश्रेष्ठ! उसमें वृक्षों से टूटकर गिरे फल और पत्तों के ढेर लगे रहते हैं। मांसाहारी बलवान् कुत्ते उसमें विचरण करते रहते हैं। वे बड़े-बड़े मुखवाले, बड़े-बड़े दाँतोंवाले तथा व्याघ्र की तरह महाबलवान् हैं। अत्यन्त शीत एवं छाया से व्याप्त उस नरक को देखकर भूख-प्यास से पीडित प्राणी दुःखी होकर करुण क्रन्दन करते हुए वहाँ जाते हैं। ताप से तपती हुई पृथ्वी की अग्नि से पापियों के दोनों पैर जल जाते हैं, अत्यन्त शीतल वायु बहने लगती है, जिसके कारण उन पापियों के ऊपर तलवार के समान तीक्ष्ण धारवाले पत्ते गिरते हैं। जलते हुए अग्नि- समूह से युक्त भूमि में पापीजन छिन्न-भिन्न होकर गिरते हैं। उसी समय वहाँ के रहनेवाले कुत्तों का आक्रमण भी उन पापियों पर होने लगता है। शीघ्र ही वे कुत्ते रोते हुए उन पापियों के शरीर के मांस को खण्ड-खण्ड करके खा जाते हैं।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ 'तप्तकुम्भ' नरक

असिपत्रवनं तात मयैतत्परिकीर्तितम् ॥ २,३.४० ॥

अतः परं भीमतरं तप्तकुंभं निबोध मे ।

समन्ततस्तप्तकुम्भा वह्निज्वालासमन्विताः ॥ २,३.४१ ॥

ज्वलदग्निचयास्तप्ततैलायश्चूर्णपूरिताः ।

एषु दुष्कृतकर्माणो याम्यैः क्षिप्ता ह्यधोमुखाः ॥ २,३.४२ ॥

क्वाथ्यन्ते विस्फुटद्गात्रा गलन्मज्जाजलान्विताः ।

स्फुटत्कपालेनत्रास्थिच्छिद्यमाना विभीषणैः ॥ २,३.४३ ॥

गृध्रैरुत्पाट्य मुच्यन्ते पुनस्तेष्वेव वेगितैः ।

पुनश्चिमचिमायन्ते तैलनैक्यं व्रजन्ति च ॥ २,३.४४ ॥

द्रवीभूतैः शिरोगात्रैः स्नायुमांसत्वगास्थिभिः ।

ततो याम्यैर्नरैराशु दर्व्याघट्टनघट्टिताः ॥ २,३.४५ ॥

कृतावर्ते महातैले क्वाथ्यन्ते पापकर्मिणः ।

हे तात! असिपत्रवन नामक नरक के विषय को मैंने बता दिया। अब तुम महाभयानक 'तप्तकुम्भ' नामवाले नरक का वर्णन मुझसे सुनो-इस नरक में चारों ओर फैले हुए अत्यन्त गरम-गरम घड़े हैं। उनके चारों ओर अग्नि प्रज्वलित रहती हैं, वे उबलते हुए तेल और लौह के चूर्ण से भरे रहते हैं। पापियों को ले जाकर उन्हीं में आँधे मुख डाल दिया जाता है। गलती हुई मज्जारूपी जल से युक्त उसी में फूटते हुए अङ्गोंवाले पापी काढ़ा के समान बना दिये जाते हैं। तदनन्तर भयंकर यमदूत नुकीले हथियारों से उन पापियों की खोपड़ी, आँखों तथा हड्डियों को छेद छेदकर नष्ट करते हैं। गिद्ध बड़ी तेजी से वहाँ आकर उन पर झपट्टा मारते हैं उन उबलते हुए पापियों को अपनी चोंच से खींचते हैं और फिर उसी में छोड़ देते हैं। उसके बाद यमदूत उन पापियों के सिर, स्नायु, द्रवीभूत मांस, त्वचा आदि को जल्दी-जल्दी करछुल से उसी तेल में घूमाते हुए उन महापापियों को काढ़ा बना डालते हैं।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ अन्य भी बहुत से नरक

एष ते विस्तरेणोक्तस्तप्तकुम्भो मया खग ॥ २,३.४६ ॥

आदिमो रौरवः प्रोक्तो महारौरवकोऽपरः ।

अतिशीतस्तृतीयस्तु चतुर्थो हि निकृन्तनः ॥ २,३.४७ ॥

अप्रतिष्ठः पञ्चमः स्यादसिपत्रवनोऽपरः ।

सप्तमस्तप्तकुम्भस्तु सप्तैते नरका मताः ॥ २,३.४८ ॥

श्रूयन्तेन्यान्यपि तथा नरकाणि नराधमाः ।

कर्मणां तारतम्येन तेषुतेषु पतन्ति हि ॥ २,३.४९ ॥

तथा हि नरको रोधः शूकरस्ताल एव च ।

तप्तकुम्भो महाज्वालः शबलोऽथ विमोहनः ॥ २,३.५० ॥

क्रिमिश्च क्रिमभक्षश्च लालाभक्षो विषञ्जनः ।

अधः शिराः पूयवहो रुधिरान्धश्च विड्रभुजः ॥ २,३.५१ ॥

तथा वैतरणी सू (मू) मसिपत्रवनं तथा ।

अग्निज्वालो महाघोरः सन्दंशो वाप्यभोजनः ॥ २,३.५२ ॥

तमश्च कालसूत्रं च लोहश्चाप्यभिदस्तथा ।

अप्रतिष्ठोऽप्यवीचिश्च नरका एवमादयः ॥ २,३.५३ ॥

हे पक्षिन् ! यह तप्तकुम्भ-जैसा है, उस बात को विस्तारपूर्वक मैंने तुम्हें बता दिया। सबसे पहले नरक को रौरव और दूसरे उसके बादवाले को महारौरव नरक कहा जाता है। तीसरे नरक का नाम अतिशीत एवं चौथे का नाम निकृन्तन है। पाँचवाँ नरक अप्रतिष्ठ, छठा असिपत्रवन एवं सातवाँ तप्तकुम्भ है। इस प्रकार ये सात प्रधान नरक हैं। अन्य भी बहुत से नरक सुने जाते हैं, जिनमें पापी अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं। यथारोध, सूकर, ताल, तप्तकुम्भ, महाज्वाल, शबल, विमोहन, कृमि, कृमिभक्ष, लालाभक्ष, विषञ्जन, अधः शिर, पूयवह, रुधिरान्ध, विड्भुज, वैतरणी, असिपत्रवन, अग्निज्वाल, महाघोर, संदंश, अभोजन, तमस् कालसूत्र, लौहतापी, अभिद, अप्रतिष्ठ तथा अवीचि आदि।

तामसा नरकाः सर्वे यमस्य विषये स्थिताः ।

येषु दुष्कृतकर्माणः पतन्ति हि पृथक्पृथक् ॥ २,३.५४ ॥

भूमेरधस्तात्ते सर्वे रौरवाद्याः प्रकीर्तिताः ।

रोघो गोघ्नो भ्रूणहा च अग्निदाता नरः पतेत् ॥ २,३.५५ ॥

सूकरे ब्रह्महा मज्जेत्सुरापः स्वर्णतस्करः ।

ताले पतेत्क्षत्त्रहन्ता हत्वा वैश्यं च दुर्गतिः ॥ २,३.५६ ॥

- ये सभी नरक यम के राज्य में स्थित हैं। पापीजन पृथक् पृथक् रूप से उनमें जाकर गिरते हैं। रौरव आदि सभी नरकों की अवस्थिति इस पृथ्वीलोक से नीचे मानी गयी है जो मनुष्य गौ की हत्या, भ्रूणहत्या और आग लगाने का दुष्कर्म करता है, वह 'रोध' नामक नरक में गिरता है जो ब्रह्मघाती, मद्यपी तथा सोने की चोरी करता है, वह 'सूकर' नाम के नरक में गिरता है। क्षत्रिय और वैश्य की हत्या करनेवाला 'ताल' नामक नरक में जाता है।

ब्रह्महत्यां च यः कुर्याद्यश्च स्याद्गुरुतल्पगः ।

स्वसृगामी तप्तकुम्भी तथा राजभटोऽनृती ॥ २,३.५७ ॥

तप्तलोहैश्च विक्रेता तथा बन्धनरक्षिता ।

माध्वी विक्रयकर्तां च यस्तु भक्तं परित्यजेत् ॥ २,३.५८ ॥

महाज्वाली दुहितरं स्नुषां गच्छति यस्तु वै ।

वेदो विक्रीयते यैश्च वेदं दूषयते तु यः ॥ २,३.५९ ॥

गुरुं चैवावमन्यन्ते वाक्शरैस्ताडयन्ति च ।

अगम्यागामी च नरो नरकं शबलं व्रजेत् ॥ २,३.६० ॥

जो मनुष्य ब्रह्महत्या एवं गुरुपत्नी तथा बहन के साथ सहवास करने की दुखेष्टा करता है, वह 'तप्तकुम्भ' नामक नरक में जाता है। जो असत्य सम्भाषण करनेवाले राजपुरुष हैं, उनको भी उक्त नरक की ही प्राप्ति होती है। जो प्राणी निषिद्ध पदार्थों का विक्रेता, मदिरा का व्यापारी है तथा स्वामिभक्त सेवक का परित्याग करता है, वह 'तप्तलौह' नामक नरक को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति कन्या या पुत्रवधू के साथ सहवास करनेवाला है, जो वेद-विक्रेता और वेदनिन्दक है, वह अन्त में 'महाज्वाल' नामक नरक का वासी होता है जो गुरु का अपमान करता है, शब्दबाण से उन पर प्रहार करता है तथा अगम्या स्त्री के साथ मैथुन करता है, वह 'शबल' नामक नरक में जाता है।

विमोहे पतते शूरे मर्यादां यो भिनत्ति वै ।

दुरिष्टं कुरुते यस्तु कृमिभक्षं प्रपद्यते ॥ २,३.६१ ॥

देवब्राह्मणविद्वेष्टा लालाभक्षे पतत्यपि ।

कुण्डकर्ता कुलालश्च न्यासहर्ता चिकित्सकः ॥ २,३.६२ ॥

आरामेष्वग्निदाता च एते यान्ति विषञ्जने ।

असत्प्रतिग्रही यस्तु तथैवायाज्ययाजकः ॥ २,३.६३ ॥

न क्षत्त्रैर्जोवते यस्तु नरो गच्छेदधोमुखम् ।

क्षीरं सुरां च मासं लाक्षां गन्धं रसं तिलान् ॥ २,३.६४ ॥

एवमादीनि विक्रीणन् घोरे पूयवहे पतेत् ।

यः कुक्कुटान्निबध्नाति मार्जारान् सूकरांश्च तान् ।

पक्षिणश्च मृगांश्छा गान्सोऽप्येवं नरकं व्रजेत् ॥ २,३.६५ ॥

आजाविको माहिषिकस्तथा चक्री ध्वजी च यः ।

रङ्गोपजीविको विप्रः शाकुनिर्ग्रामयाजकः ॥ २,३.६६ ॥

अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी ।

सुरापो मांसभक्षी च तथा च पशुघातकः ॥ २,३.६७ ॥

रुधिरान्धे पतन्त्येते पतन्त्येते एवमाहुर्मनीषिणः ।

उपविष्टन्त्वेकपङ्क्त्यां विषं सम्भोजयन्ति ये ॥ २,३.६८ ॥

पतन्ति निरये घोरे विड्भुजे नात्र संशयः ।

मधुग्राहो वैतरणीमाक्रोशी मूत्रसंज्ञके ॥ २,३.६९ ॥

असिपत्रवनेऽसौची क्रोधनश्च एतेदपि ।

अग्निज्वालां मृगव्याधो भोज्यते यत्र वायसैः ॥ २,३.७० ॥

शौर्य-प्रदर्शन में जो वीर मर्यादा का परित्याग करता है, वह 'विमोहन' नामक नरक में गिरता है। जो दूसरे का अनिष्ट करता है, उसे 'कृमिभक्ष' नामक नरक की प्राप्ति होती है। देवता और ब्राह्मण से द्वेष रखनेवाला प्राणी 'लालाभक्ष' नरक में जाता है। जो परायी धरोहर का अपहर्ता है तथा जो बाग-बगीचों में आग लगाता है, उसे 'विषञ्जन' नामक नरक की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य असत् पात्र से दान लेता है तथा असत् प्रतिग्रह लेनेवाला, अयाज्ययाजक और जो नक्षत्र से जीविकोपार्जन करता है, वह मनुष्य 'अधः शिर' नरक में जाता है। जो मदिरा, मांस आदि पदार्थों का विक्रेता है, वह 'पूयवह' नामक घोर नरक में गिरता है। जो कुक्कुट, बिल्ली, सुअर, पक्षी, मृग, भेंड को बाँधता है, वह भी उसी प्रकार के नरक में जाता है। जो गृहदाही है, जो विषदाता है, जो कुण्डाशी है, जो सोमविक्रेता है, जो मद्यपी है, जो मांसभोजी है तथा जो पशुहन्ता है, वह व्यक्ति 'रुधिरान्ध' नामक नरक में जाता है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। एक ही पंक्ति में बैठे हुए किसी प्राणी को धोखा देकर जो लोग विष खिला देते हैं, उन सभी को 'विड्भुज' नामक घोर नरक प्राप्त होता है। मधु निकालनेवाला मनुष्य 'वैतरणी' और क्रोधी 'मूत्रसंज्ञक' नामक नरक में जाता है। अपवित्र और क्रोधी व्यक्ति 'असिपत्रवन' नामक नरक में जाता है। मृगों का शिकार करनेवाला व्याध 'अग्निज्वाल' नामक नरक में जाता है, जहाँ उसके शरीर को नोच-नोचकर कौवे खाते हैं।

इज्यायां व्रतलोपाच्च सन्दंशे नरके पतेत् ।

स्कन्दन्ते यदि वा स्वप्ने यतिनो ब्रह्मचारिणः ॥ २,३.७१ ॥

पुत्रैरध्यापिता ये च पुत्रैराज्ञापिताश्च ये ।

ते सर्वे नरकं यान्ति निरयं चाप्यभोजनम् ॥ २,३.७२ ॥

वर्णाश्रमविरुद्धानि क्रोधहर्षसमन्विताः ।

कर्माणि ये तु कुर्वन्ति सर्वे निरयवासिनः ॥ २,३.७३ ॥

यज्ञकर्म में दीक्षित होने पर जो व्रत का पालन नहीं करता, उसे उस पाप से 'संदेश' नरक में जाना पड़ता है। यदि स्वप्न में भी संन्यासी या ब्रह्मचारी स्खलित हो जाते हैं तो वे 'अभोजन' नामक नरक में जाते हैं। जो लोग क्रोध और हर्ष से भरकर वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध कर्म करते हैं, उन सबको नरकलोक की प्राप्ति होती है।

उपरिष्टात्स्थितो घोर उष्णात्मा रौरवो महान् ।

सुदारुणः सुशीतात्मा तस्या धस्तामसः स्मृतः ॥ २,३.७४ ॥

एवमादिक्रमेणैव सर्वेऽधोऽधः परिस्थिताः ।

सबसे ऊपर भयंकर गर्मी से संतप्त रौरव नामक नरक है। उसके नीचे अत्यन्त दुःखदायी महारौरव है उस नरक से नीचे शीतल और उस नरक के बाद नीचे 'तामस' नरक माना गया है। इसी प्रकार बताये गये क्रम से अन्य नरक भी नीचे ही हैं।

दुः खोत्कर्षश्च सर्वेषु कर्मस्वपि निमित्ततः ॥ २,३.७५ ॥

सुखोत्कर्षश्च सर्वत्र धर्मस्येहनिमिततः ।

पश्यन्तिनरकान्देवा ह्यधोवक्त्रान्सुदारुणान् ॥ २,३.७६ ॥

नारकाश्चापि ते देवान्सर्वान्पश्यन्ति ऊर्ध्वगान् ।

एतान्यान्यानि शतशो नरकाणि वियद्गते ॥ २,३.७७ ॥

दिनेदिने तु नरके पच्यते दह्यतेन्यतः ।

शीर्यते भिद्यतेऽन्यत्र चूर्यते क्लिद्यतेन्यतः ॥ २,३.७८ ॥

क्वथ्यते दीप्यतेऽन्यत्र तथा वातहतोऽन्यतः ।

एकं दिनं वर्षशतप्रमाणं नरके भवेत् ॥ २,३.७९ ॥

ततः सर्वेषु निस्तीर्णः पापी तिर्यक्त्वमश्नते ।

कृमिकीटपतङ्गेषु स्थावरैकशफेषु च ॥ २,३.८० ॥

गत्वा वनगजाढ्येषु गोष्वषु तथैव च ।

खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा ॥ २,३.८१ ॥

एते चैकशफाः षट्च शृणु पञ्चनखानतः ।

अन्यासु बहुपापासु दुः खदासु च यो निषु ॥ २,३.८२ ॥

मानुष्यं प्राप्यते कुब्जो कुत्सितो वामनोऽपि वा ।

चण्डालपुक्कसाद्यासु नरयोनिषु जायते ॥ २,३.८३ ॥

मुहुर्गर्भे वसन्त्येव म्रियन्ते च मुहुर्मुहुः ।

अवशिष्टेन पापेन पुण्येन च समन्वितः ॥ २,३.८४ ॥

ततश्चारोहिणीं योनिं शूद्रवैश्यनृपादिकम् ।

विप्रदेवेन्द्रतां चापि कदाचिदधिरोहति ॥ २,३.८५ ॥

इन नरकलोकों के अतिरिक्त भी सैकड़ों नरक हैं, जिनमें पहुँचकर पापी प्रतिदिन पकता है, जलता है, गलता है, विदीर्ण होता है, चूर्ण किया जाता है, गीला होता है, क्वाथ बनाया जाता है, जलाया जाता है और कहीं वायु से प्रताड़ित किया जाता है-ऐसे नरकों में एक दिन सौ वर्ष के समान होता है। सभी नरकों से भोग भोगने के बाद पापी तिर्यक्-योनि में जाता है। तत्पश्चात् उसको कृमि, कीट, पतंग स्थावर तथा एक खुरवाले गधे की योनि प्राप्त होती है। तदनन्तर मनुष्य जंगली हाथी आदि की योनियों में जाकर गौ की योनि में पहुँचता है। हे गरुड! गधा, घोड़ा, खच्चर, गौर मृग, शरभ और चमरी ये छ: योनियाँ एक खुरवाली होती हैं। इनके अतिरिक्त बहुत-सी पापाचार योनियाँ भी हैं, जिनमें जीवात्मा को कष्ट भोगना पड़ता है। उन सभी योनियों को पाकर प्राणी मनुष्य योनि में आता है और कुबड़ा, कुत्सित, वामन, चाण्डाल और पुल्कश आदि नर- योनियों में जाता है। अवशिष्ट पाप-पुण्य से समन्वित जीव बार-बार गर्भ में जाते हैं और मृत्यु को प्राप्त होता है। उन सभी पापों के समाप्त हो जाने के बाद प्राणी को शूद्र वैश्य तथा क्षत्रिय आदि को आरोहिणी योनि प्राप्त होती है। कभी-कभी वह सत्कर्म से ब्राह्मण, देव और इन्द्रत्व के पद पर भी पहुँच जाता है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३ यमद्वार

एवं तु पापकर्माणो निरयेषु पतन्त्यधः ।

यथा पुण्यकृतो यान्ति तन्मे निगदतः शृणु ॥ २,३.८६ ॥

ते यमेन विनिर्दिष्टां योनिं पुण्यगतिं नराः ।

प्रगीतगन्धर्वगणा नृत्योत्सवसमाकुलाः ॥ २,३.८७ ॥

हारनूपुरमाधुर्यैः शोभितान्यमलानि तु ।

प्रयान्त्याशु विमानानि दिव्यगन्धस्रगुज्ज्वलाः ॥ २,३.८८ ॥

तस्माच्च प्रच्युता राज्ञामन्येषां च महात्मनाम् ।

जायन्ते नीरुजां गेहे स द्वृत्तिपीरपालकाः ॥ २,३.८९ ॥

भोगान्सम्प्राप्नुवन्त्युग्रांस्ततो यान्त्यूर्ध्वमन्यथा ।

अवरोहिणीं सम्प्राप्य पूर्ववद्यन्ति मानवाः ॥ २,३.९० ॥

हे गरुड ! यमद्वारा निर्दिष्ट योनि में पुण्यगति प्राप्त करने में जो प्राणी सफल हो जाते हैं, वे सुन्दर-सुन्दर गीत गाते, वाद्य बजाते और नृत्यादि करते हुए प्रसन्नचित्त गन्धर्वों के साथ, अच्छे-से-अच्छे हार, नूपुर आदि नाना प्रकार के आभूषणों से युक्त, चन्दन आदि की दिव्य सुगन्ध और पुष्पों के हार से सुवासित एवं अलंकृत चमचमाते हुए विमान में स्वर्गलोक को जाते हैं। पुण्य समाप्ति के पश्चात् जब वे वहाँ से पुनः पृथ्वी पर आते हैं तो राजा अथवा महात्माओं के घर में जन्म लेकर सदाचार का पालन करते हैं। समस्त भोगों को प्राप्त करके पुनः स्वर्ग को प्राप्त करते हैं अन्यथा पहले के समान आरोहिणी योनि में जन्म लेकर दुःख भोगते हैं।

जातस्य मृत्युलोके वै प्राणिनो मरणं ध्रुवम् ।

पापिष्ठानामदोमार्गाज्जीवो निष्क्रमते ध्रुवम् ॥ २,३.९१ ॥

पृथिव्यां लीयते पृथ्वी आपश्चैव तथाप्सु च ।

तेजस्तेजसि लीयते समीरे च समीरणः ॥ २,३.९२ ॥

आकाशे च तथाकाशं सर्वव्यापि निशाकरे ।

तत्र कामस्तथा क्रोधः काये पञ्चेन्द्रियाणि च ॥ २,३.९३ ॥

एते तार्क्ष्य समाख्याता देहे तिष्ठन्ति तस्कराः ।

कामः क्रोधो ह्यहङ्कारो मनस्तत्रैव नायकः ॥ २,३.९४ ॥

संहारश्चैव कालोऽसौ पुण्यपापेन संयुतः ।

पञ्चेन्द्रियसमायुक्तः सकलैर्विबुधैः सह ॥ २,३.९५ ॥

प्रविशेत्स नवे देहे पृहे दरधे गुही यथा ।

शरीरे ये समासीनाः सर्वे वै सप्त धातवः ॥ २,३.९६ ॥

षाट्कौशिको ह्ययं कायः सर्वे वाताश्च देहिनाम् ।

मूत्रं पुरीषं तद्योगाद्ये चान्ये व्याधयस्तथा ॥ २,३.९७ ॥

पित्तं श्लेष्मा तथा मज्जा मांसं वै मेद एव च ।

अस्थि शुक्रं तथा स्नायुर्देहेन सह दह्यति ॥ २,३.९८ ॥

मृत्युलोक में जन्म लेनेवाले प्राणी का मरना तो निश्चित है। पापियों का जीव अधोमार्ग से निकलता है। तदनन्तर पृथ्वीतत्त्व में पृथ्वी, जलतत्त्व में जल, तेजतत्त्व में तेज, वायुतत्त्व में वायु आकाशतत्त्व में आकाश तथा सर्वव्यापी मन चन्द्र में जाकर विलीन हो जाता है। हे गरुड ! शरीर में काम, क्रोध एवं पञ्चेन्द्रियाँ हैं। इन सभी को शरीर में रहनेवाले चोर की संज्ञा दी गयी है। काम, क्रोध और अहंकार नामक विकार भी उसी में रहनेवाले चोर हैं। उन सभी का नायक मन है। इस शरीर का संहार करनेवाला काल है, जो पाप और पुण्य से जुड़ा रहता है। जिस प्रकार घर के जल जाने पर व्यक्ति अन्य घर की शरण लेता है, उसी प्रकार पञ्चेन्द्रियों से युक्त जीव इन्द्रियाधिष्ठातृ देवताओं के साथ शरीर का परित्याग कर नये शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। शरीर में रक्त-मज्जादि सात धातुओं से युक्त यह षाट्कौशिक शरीर है। सभी प्राण, अपान आदि पञ्च वायु, मल-मूत्र, व्याधियाँ, पित्त, श्लेष्म, मज्जा, मांस, मेदा, अस्थि, शुक्र और स्नायु- ये सभी शरीर के साथ ही अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं।

एष ते कथितस्तार्क्ष्य विनासः सर्वदेहिनम् ।

कथयामि पुनस्तेषां शरीरं च यथा भवेत् ॥ २,३.९९ ॥

हे तार्क्ष्य! प्राणियों के विनाश को मैंने तुम्हें बता दिया। अब उनके इस शरीर का जन्म पुनः कैसे होता है, उसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ।

एकस्तम्बंस्नायुबद्धं स्थूणात्रयविभूषणम् ।

इन्द्रियैश्च समायुक्तं नवद्वारं शरीरकम् ॥ २,३.१०० ॥

विषयैश्च समाक्रान्तं कामक्रोधसमाकुलम् ।

रागद्वेषसमाकीर्णं तृष्णादुर्गमतस्करम् ॥ २,३.१०१ ॥

लोभजालपरिच्छिन्नं मोहवस्त्रेण वेष्टितम् ।

सुबद्धं मायया चैतल्लोभेनाधिष्ठितं पुरम् ॥ २,३.१०२ ॥

एतद्गुणसमाकीर्णं शरीरं सर्वदेहिनाम् ।

आत्मानं ये न जानन्ति ते नराः पशवः स्मृताः ॥ २,३.१०३ ॥

एवमेव समाख्यातं शरीरं ते चतुर्विधम् ।

चतुरशीतिलक्षाणि निर्मिता योनयः पुरा ॥ २,३.१०४ ॥

यह शरीर नसों से आबद्ध श्रोत्रादिक इन्द्रियों से युक्त और नवद्वारों से समन्वित है। यह सांसारिक विषय- वासनाओं के प्रभाव से व्याप्त, काम-क्रोधादि विकार से समन्वित, राग-द्वेष से परिपूर्ण तथा तृष्णा नामक भयंकर चोर से युक्त है। यह लोभरूपी जाल में फँसा हुआ और मोहरूपी वस्त्र से ढका हुआ है। यह माया से भलीभाँति आबद्ध एवं लोभ से अधिष्ठित पुर के समान है। सभी प्राणियों का शरीर इनसे व्याप्त है। जो लोग अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं, वे पशुओं के समान हैं।

उद्भिज्जाः स्वेदजाश्चैव अण्डजाश्च जरायुजाः ।

एतत्ते सर्वमाख्यातं निरयस्य प्रपञ्चतः ॥ २,३.१०५ ॥

अथयामि क्रमप्राप्तं प्रष्टु वा वर्तते स्पृहा ॥ २,३.१०६ ॥

हे गरुड ! चौरासी लाख योनियाँ हैं और उद्भिज (पृथ्वी में अंकुरित होनेवाली वनस्पतियाँ), स्वेदज (पसीने से जन्म लेनेवाले जुएँ और लीख आदि कीट), अण्डज (पक्षी) तथा जरायुज (मनुष्य) में यह सम्पूर्ण सृष्टि विभक्त है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे धर्मकाण्डे द्वितीयांशे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे नरकतत्प्रवेशनिर्गमनादिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 4