श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २० "वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं विंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २०                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१०पूर्वार्ध अध्यायः२० 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध बीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ विंशोऽध्यायः - २० ॥

श्रीशुक उवाच

तयोस्तदद्भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ।

गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च ॥ १॥

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः ।

मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ ॥ २॥

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद्भवा ।

विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला ॥ ३॥

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत्स्तनयित्नुभिः ।

अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ ॥ ४॥

अष्टौ मासान् निपीतं यद्भूम्याश्चोदमयं वसु ।

स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते ॥ ५॥

तडित्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिताः ।

प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव ॥ ६॥

तपःकृशा देवमीढा आसीद्वर्षीयसी मही ।

यथैव काम्यतपसस्तनुः सम्प्राप्य तत्फलम् ॥ ७॥

निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भान्ति न ग्रहाः ।

यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे ॥ ८॥

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुकाः व्यसृजन् गिरः ।

तूष्णीं शयानाः प्राग्यद्वद्ब्राह्मणा नियमात्यये ॥ ९॥

आसन्नुत्पथगामिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः ।

पुंसो यथास्वतन्त्रस्य देहद्रविणसम्पदः ॥ १०॥

हरिता हरिभिः शष्पैरिन्द्रगोपैश्च लोहिता ।

उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत् ॥ ११॥

क्षेत्राणि सस्यसम्पद्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।

धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम् ॥ १२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी माँ, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थे - दावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादि - सबका वर्णन किया। बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्याम की अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि श्रीकृष्ण और बलराम के वेष में कोई बहुत बड़े देवता ही व्रज में पधारे है।'

इसके बाद वर्षा ऋतु का शुभागमन हुआ। इस ऋतु में सभी प्रकार के प्राणियों की बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमा पर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कड़क आदि से आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा। आकाश में नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाश की ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होने पर भी गुणों से ढक जाने पर जीव की होती है।

सूर्य ने राजा की तरह पृथ्वीरूप प्रजा से आठ महीने तक जल का कर ग्रहण किया था, अब समय आने पर वे अपनी किरण-करों से फिर उसे बाँटने लगे। जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राण तक निछावर कर देते हैं - वैसे ही बिजली की चमक से शोभायमान घनघोर बादल तेज हवा की प्रेरणा से प्राणियों के कल्याण के लिये अपने जीवनस्वरूप जल को बरसाने लगे।

जेठ-अषाढ़ की गर्मी से पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षा के जल से सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी - जैसे सकामभाव से तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है। वर्षा के सायंकाल में बादलों से घना अँधेरा छा जाने पर ग्रह और तारों का प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं - जैसे कलियुग में पाप की प्रबलता हो जाने से पाखण्ड मतों का प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं।

जो मेढ़क पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलों की गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे - जैसे नित्य-नियम से निवृत होने पर गुरु के आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठी करने लगते हैं। छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-अषाढ़ में बिलकुल सूखने को आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरे से बाहर बहने लगीं - जैसे अजितेंद्रिये पुरुष के शरीर और धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होने लगता है।

पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों के कारण वह सफ़ेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजा की रंग-बिरंगी सेना हो। सब खेत अनाजों से भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्द के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है - यह बात न जानने वाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजे में कैसे रख सकेंगे।

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया ।

अबिभ्रद्रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥ १३॥

सरिद्भिः सङ्गतः सिन्धुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान् ।

अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग्यथा ॥ १४॥

गिरयो वर्षधाराभिर्हन्यमाना न विव्यथुः ।

अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाधोक्षजचेतसः ॥ १५॥

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः ।

नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालाहता इव ॥ १६॥

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः ।

स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥ १७॥

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात् ।

व्यक्ते गुणव्यतिकरेऽगुणवान् पुरुषो यथा ॥ १८॥

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्ना राजितैर्घनैः ।

अहं मत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९॥

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दञ्छिखण्डिनः ।

गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे ॥ २०॥

पीत्वापः पादपाः पद्भिरासन् नानाऽऽत्ममूर्तयः ।

प्राक्क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१॥

सरःस्वशान्तरोधःसु न्यूषुरङ्गापि सारसाः ।

गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः ॥ २२॥

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे ।

पाखण्डिनामसद्वादैर्वेदमार्गाः कलौ यथा ॥ २३॥

व्यमुञ्चन् वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः ।

यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः ॥ २४॥

एवं वनं तद्वर्षिष्ठं पक्वखर्जुरजम्बुमत् ।

गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद्धरिः ॥ २५॥

नये बरसाती जल के सेवन से सभी जलचर और थलचर प्राणियों की सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान की सेवा करने से बाहर और भीतर के दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं। वर्षा-ऋतु में हवा के झोंकों से समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगों से युक्त हो रहा था, अब नदियों के संयोग से वह और भी क्षुब्ध हो उठा - ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगी का चित्त विषयों का सम्पर्क होने पर कामनाओं के उभार से भर जाता है।

मूसलधार वर्षा की चोट खाते रहने पर भी पर्वतों को कोई व्यथा नहीं होती थी - जैसे दुःखों की भरमार होने पर भी उन पुरुषों को किसी प्रकार की व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान को ही समर्पित कर रखा है। जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घास से ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया - जैसे जब द्विजाति वेदों का अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रम से वे उन्हें भूल जाते हैं।

यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं - ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुराग वाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषों के पास भी स्थिर स्वभाव से नहीं रहतीं। आकाश मेघों के गर्जन-तर्जन से भर रहा था। उसमें निर्गुण इन्द्रधनुष की वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणों के क्षोभ से होने वाले विश्व के बखेड़े में निर्गुण ब्रह्म की। यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमा को ढककर शोभाहीन भी बना दिया था - ठीक वैसे ही, जैसे पुरुष के आभास से आभासित होने वाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता।

बादलों के शुभागमन से मोरों का रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्य के द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे - ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापों से जलते और घबराते रहते हैं, भगवान के भक्तों के शुभागमन से आनन्द-मग्न हो जाते हैं। जो वृक्ष जेठ-अषाढ़ में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ों से जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियों से खूब सज-धज गये - जैसे सकामभाव से तपस्या करने वाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परन्तु कामना पूरी होने पर मोटे-तगड़े हो जाते हैं।

परीक्षित! तालाबों के तट, काँटे-कीचड़ और जल के बहाव के कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षण के लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थे - जैसे अशुद्ध हृदय वाले विषयी पुरुष काम-धंधों की झंझट से कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरों में ही पड़े रहते हैं। वर्षा ऋतु में इन्द्र की प्रेरणा से मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियों के बाँध और खेतों की मेड़ें टूट-फूट जाती हैं - जैसे कलियुग में पाखण्डियों के तरह-तरह के मिथ्या मतवादों से वैदिक मार्ग की मार्ग की मर्यादा ढीली पड़ जाती है।

वायु की प्रेरणा से घने बादल प्राणियों के लिये अमृतमय जल की वर्षा करने लगते हैं - जैसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से धनी लोग समय-समय पर दान के द्वारा प्रजा की अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं। वर्षा ऋतु में विन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनों से भर रहा था। उसी वन में विहार करने के लिये श्याम और बलराम ने ग्वालबाल और गौओं के साथ प्रवेश किया।

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।

ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः ॥ २६॥

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः ।

जलधारा गिरेर्नादादासन्ना ददृशे गुहाः ॥ २७॥

क्वचिद्वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।

निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः ॥ २८॥

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।

सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्कर्षणान्वितः ॥ २९॥

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।

तृप्तान् वृषान् वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः ॥ ३०॥

प्रावृट् श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वकालसुखावहाम् ।

भगवान् पूजयाञ्चक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१॥

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे ।

शरत्समभवद्व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥ ३२॥

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः ।

भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३॥

व्योम्नोऽब्दं भूतशाबल्यं भुवः पङ्कमपां मलम् ।

शरज्जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम् ॥ ३४॥

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः ।

यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः ॥ ३५॥

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम् ।

यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६॥

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।

यथायुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः ॥ ३७॥

गाधवारिचरास्तापमविन्दञ्छरदर्कजम् ।

यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः ॥ ३८॥

गौएँ अपने थनों के भारी भार के कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं। उस समय उनके थनों से दूध की धारा गिरती जाती थी। भगवान ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्न हैं। वृक्षों की पंक्तियाँ मधुधारा उडेल रही हैं। पर्वतों से झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होने पर छिपने के लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं।

जब वर्षा होने लगती तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्ष की गोद में या खोड़र में जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफ़ा में ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालों के साथ खेलते रहते। कभी जल के पास ही किसी चट्टान पर बैठ जाते और बलराम जी तथा ग्वालबालों के साथ मिलकर घर से लाया हुआ दही-भात, दाल-शाक आदि के साथ खाते। वर्षा ऋतु में बैल, बछड़े और थनों के भारी भार से थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देर में भरपेट घास चर लेतीं और हरी-भरी घास पर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतु की सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियों को सुख पहुँचा रही थी। इसमें संदेह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े - सब-के-सब भगवान की लीला के ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान बहुत प्रसन्न होते और बार-बार प्रशंसा करते।

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्द से व्रज में निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतने पर शरद ऋतु आ गयी। अब आकाश में बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गति से चलने गयी। शरद ऋतु में कमलों की उत्पत्ति से जलाशयों के जल ने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त पर ली - ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषों का चित्त फिर से योग का सेवन करने से निर्मल हो जाता है।

शरद ऋतु ने आकाश के बादल, वर्षा-काल के बढ़े हुए जीव, पृथ्वी की कीचड़ और जल के मटमैलेपन को नष्ट कर दिया - जैसे भगवान की भक्ति, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियों के सब प्रकार के कष्टों और अशुभों का झटपट नाश कर देती है। बादल अपने सर्वस्व जल का दान करके उज्ज्वल कान्ति से सुशोभित होने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति सम्बन्धी चिन्ता और कामनाओं का परित्याग कर देने पर संसार के बन्धन से छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं।

अब पर्वतों से कहीं-कहीं झरने-झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जल को नहीं भी बहाते थे - जैसे ज्ञानी पुरुष समय पर अपने अमृतमय ज्ञान का दान किसी अधिकारी को कर देते हैं और किसी-किसी को नहीं भी करते। छोटे-छोटे गड्ढ़ों में भरे हुए जल के जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढ़े का जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है - जैसे कुटुम्ब के भरण-पोषण में भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है। थोड़े जल में रहने वाले प्राणियों को शरदकालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी - जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं।

शनैः शनैर्जहुः पङ्कं स्थलान्यामं च वीरुधः ।

यथाहम्ममतां धीराः शरीरादिष्वनात्मसु ॥ ३९॥

निश्चलाम्बुरभूत्तूष्णीं समुद्रः शरदागमे ।

आत्मन्युपरते सम्यङ्मुनिर्व्युपरतागमः ॥ ४०॥

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः ।

यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः ॥ ४१॥

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानामुडुपोऽहरत् ।

देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम् ॥ ४२॥

खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम् ।

सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३॥

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी ।

यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥ ४४॥

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसूनवनमारुतम् ।

जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः ॥ ४५॥

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन् ।

अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव ॥ ४६॥

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्विना ।

राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप ॥ ४७॥

पुरग्रामेष्वाग्रयणैरिन्द्रियैश्च महोत्सवैः ।

बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः ॥ ४८॥

वणिङ्मुनिनृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ।

वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥ ४९॥

पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोड़ने लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थों में से यह मैं हूँ और यह मेरा हैयह अहंता और ममता छोड़ देते हैं। शरद ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया - जैसे मन के निःसंकल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्ड का झमेला छोड़कर शान्त हो जाता है।

किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं। शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रि एक समय लोगों का सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते - जैसे देहाभिमान से होने वाले दुःख को ज्ञान और भग्वद्विरह से होने वाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं।

जैसे वेदों के अर्थ को स्पष्ट रूप से जानने वाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद ऋतु में रात के समय मेघों से रहित निर्मल आकाश तारों की ज्योति से जगमगाने लगा ।

परीक्षित! जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा। फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था। शरद ऋतु में गौएँ, हिरनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती-संतानोत्पत्ति की कामना से युक्त हो गयीं तथा सांड, हिरन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुष के द्वारा की हुई क्रियाओं का अनुसरण उनके फल करते हैं।

परीक्षित! जैसे राजा के शुभागमन से डाकू चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी (कुँई या कोईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गये। उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवों में नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतों में अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की उपस्थिति से अत्यन्त सुशोभित होने लगी। साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर अपने देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक - जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे - वहाँ से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रावृड्शरद्वर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 21  

श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध के पूर्व अंक पढ़ें-

अध्याय 1                           अध्याय 2                 अध्याय 3                          अध्याय 4

अध्याय 5                            अध्याय 6                 अध्याय 7                          अध्याय 8

अध्याय 9                            अध्याय 10               अध्याय 11                        अध्याय 12

अध्याय 13                          अध्याय 14               अध्याय 15                        अध्याय 16

अध्याय 17                         अध्याय 18                  अध्याय 19 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १९                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १९ "गौओं और गोपों को दावानल से बचाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं एकोनविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १९                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१०पूर्वार्ध अध्यायः१९  

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणीः ।

स्वैरं चरन्त्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम् ॥ १॥

अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद्वनम् ।

इषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः ॥ २॥

तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा ।

जातानुतापा न विदुर्विचिन्वन्तो गवां गतिम् ॥ ३॥

तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैर्गोष्पदैरङ्कितैर्गवाम् ।

मार्गमन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः ॥ ४॥

मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।

सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्तास्ततस्ते सन्न्यवर्तयन् ॥ ५॥

ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।

स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः ॥ ६॥

ततः समन्ताद्वनधूमकेतु-

र्यदृच्छयाभूत्क्षयकृद्वनौकसाम् ।

समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकै-

र्विलेलिहानः स्थिरजङ्गमान् महान् ॥ ७॥

तमापतन्तं परितो दवाग्निं

गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः ।

ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना

यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः ॥ ८॥

कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामितविक्रम ।

दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नांस्त्रातुमर्हथः ॥ ९॥

नूनं त्वद्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसादितुम् ।

वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्परायणाः ॥ १०॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। उसकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवी में घुस गयीं। जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके।

गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलने से वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओं के खुर और दाँतो से कटी हुई घास तथा पृथ्वी पर बने हुए खुरों के चिह्नों से उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े। अन्त में उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटाने की चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोर से लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणी से नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नाम की ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। साथ ही बड़े जोर की आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढ़ने में सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को भस्मसात करने लगी।

जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावनल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले - महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानल से जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मों के ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है।'

श्रीशुक उवाच

वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः ।

निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ११॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- अपने सखा ग्वालबालों के ये दीनता से भरे वचन सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो।'

तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्बणम् ।

पीत्वा मुखेन तान् कृच्छ्राद्योगाधीशो व्यमोचयत् ॥ १२॥

ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः ।

निशाम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्च मोचिताः ॥ १३॥

कृष्णस्य योगवीर्यं तद्योगमायानुभावितम् ।

दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४॥

गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सह रामो जनार्दनः ।

वेणुं विरणयन् गोष्ठमगाद्गोपैरभिष्टुतः ॥ १५॥

गोपीनां परमानन्द आसीद्गोविन्ददर्शने ।

क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥ १६॥

भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा बहुत अच्छाऔर अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया। इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए। श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं।

परीक्षित! सायंकाल होने पर बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे। इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दवाग्निपानं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥

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श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १८ "प्रलम्बासुर-उद्धार"

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श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः॥

श्रीशुक उवाच

अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः ।

अनुगीयमानो न्यविशद्व्रजं गोकुलमण्डितम् ॥ १॥

व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया ।

ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम् ॥ २॥

स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः ।

यत्रास्ते भगवान् साक्षाद्रामेण सह केशवः ॥ ३॥

यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम् ।

शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममण्डलमण्डितम् ॥ ४॥

सरित्सरःप्रस्रवणोर्मिवायुना

कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा ।

न विद्यते यत्र वनौकसां दवो

निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले ॥ ५॥

अगाधतोयह्रदिनी तटोर्मिभि-

र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः ।

न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा

भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते ॥ ६॥

वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम् ।

गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम् ॥ ७॥

क्रीडिष्यमाणस्तत्कृष्णो भगवान् बलसंयुतः ।

वेणुं विरणयन् गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत् ॥ ८॥

प्रवालबर्हस्तबकस्रग्धातुकृतभूषणाः ।

रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः ॥ ९॥

कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन् ।

वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे ॥ १०॥

गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ ।

ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ॥ ११॥

भ्रामणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः ।

चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित् ॥ १२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियों से घिरे हुए एवं उनके मुख से अपनी कीर्ति का गान सुनते हुए श्रीकृष्ण ने गोकुलमण्डित गोष्ठ में प्रवेश किया। इस प्रकार अपनी योगमाया से ग्वाल का-वेष बनाकर राम और श्याम व्रज में क्रीड़ा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियों को बहुत प्रिय नहीं है।

परन्तु वृन्दावन के स्वाभाविक गुणों से वहाँ वसन्त की ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावन में परम मधुर भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलराम जी निवास जो करते थे। झींगुरों की तीखी झंकार झरनों के मधुर झर-झरने छिप गयी थी। उन झरनों से सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जल की फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँ के वृक्षों की हरियाली देखते ही बनती थी ।

जिधर देखिये, हरी-हरी दूब से पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनों की लहरों का स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंत के खिले हुए, देर के खिले हुए - कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकार के कमलों का पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायु के कारण वनवासियों को गर्मी का किसी प्रकार का क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्नि का ताप लगता था और न तो सूर्य का घाम ही।

नदियों में अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटों को चूम जाया करतीं थीं। वे उनके पुलिनों से टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पास की भूमि गीली बनी रहती और सूर्य की अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँ की पृथ्वी और हरी-भरी घास को नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी।

उस वन में वृक्षों की पाँत-की-पाँत फूलों से लद रही थी। जहाँ देखिये, वहीं से सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरह के हिरन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं। ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम जी ने उसमें विहार करने की इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीच में अपने बड़े भाई के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण।

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोर-पंख के गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पों के हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को भाँति-भाँति से सजा लिया। फिर कोई आनन्द में मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसी ने राग अलापना शुरु कर दिया। जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेली से ही ताल देते, तो कुछ वाह-वाहकरने लगते।

परीक्षित! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवता लोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोप जाति में जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते। घुँघराली अलकों वाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुम्हार के चाक की तरह चक्कर काटते-घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरे से अधिक फाँद जाने की इच्छा से कूदते-कूँडी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते-एक दल दूसरे डाल के विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरे से कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरह के खेल खेलते।

क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम् ।

शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ ॥ १३॥

क्वचिद्बिल्वैः क्वचित्कुम्भैः क्व चामलकमुष्टिभिः ।

अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया ॥ १४॥

क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः ।

कदाचित्स्पन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया ॥ १५॥

एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने ।

नद्यद्रिद्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरःसु च ॥ १६॥

पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः ।

गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥ १७॥

तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान् सर्वदर्शनः ।

अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन् ॥ १८॥

तत्रोपाहूय गोपालान् कृष्णः प्राह विहारवित् ।

हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम् ॥ १९॥

तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ ।

कृष्णसङ्घट्टिनः केचिदासन् रामस्य चापरे ॥ २०॥

आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः ।

यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः ॥ २१॥

वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम् ।

भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः ॥ २२॥

रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः ।

क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप ॥ २३॥

उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः ।

वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥ २४॥

अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः ।

वहन्द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम् ॥ २५॥

तमुद्वहन् धरणिधरेन्द्रगौरवं

महासुरो विगतरयो निजं वपुः ।

स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ

तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः ॥ २६॥

कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथ में लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरे की आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछे से ढूँढता - इस प्रकार आँख मिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरे को छूने के लिये बहुत दूर-दूर तक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियों की चेष्टाओं का अनुकरण करते। कहीं मेढ़कों की तरह फुदक-फुदककर चलते तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरे की हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियों से वृक्षों पर झूला डालकर झूलते तो कभी दो बालकों को खड़ा कराकर उनकी बाँहों के बल-पर ही लटकने लगते। कभी किसी राजा की नक़ल करने लगते।इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुंज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते हैं।

एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएँ चरा रहे थे तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उनकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ। भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये। ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलों के आचार्य श्रीकृष्ण ही थे।

उन्होंने सब ग्वालबालों को बुलाकर कहा ;- मेरे प्यारे मित्रों! आज हम लोग अपने को उचित रीति से दो दलों में बाँट लें और फिर आनन्द से खेलें। उस खेल में ग्वालबालों ने बलराम और श्रीकृष्ण को नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्ण के साथी बन गये और कुछ बलराम के। फिर उन लोगों ने तरह-तरह से ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दल के लोग दूसरे दल के लोगों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थान पर ले जाते थे। जीतने वाला दल चढ़ता था और हारने वाला दल ढोता थ। इस प्रकार एक-दूसरे की पीठ पर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वट के पास पहुँच गये ।

परीक्षित! एक बार बलराम जी के दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेल में बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर ढ़ोने लगे। हारे हुए श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपनी पीठ पर चढ़ाया, भद्रसेन ने वृषभ को प्रलम्ब ने बलराम जी को। दानवपुंगव प्रलम्ब ने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा।

अतः वह उन्हीं के पक्ष में हो गया और बलराम जी को लेकर फुर्ती से भाग चला, और पीठ पर से उतारने के लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया। बलराम जी बड़े भारी पर्वत के समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूर तक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीर पर सोने के गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलराम जी को धारण करने के कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली से युक्त काला बादल चन्द्रमा को धारण किये हुए हो।

निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चर-

त्प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम् ।

ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-

त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत् ॥ २७॥

अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो

विहायसार्थमिव हरन्तमात्मनः ।

रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना

सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा ॥ २८॥

स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको

मुखाद्वमन् रुधिरमपस्मृतोऽसुरः ।

महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्

गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः ॥ २९॥

दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना ।

गोपाः सुविस्मिता आसन् साधु साध्विति वादिनः ॥ ३०॥

आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम् ।

प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः ॥ ३१॥

पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः ।

अभ्यवर्षन् बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥ ३२॥

उसकी आँखें आग की तरह धधक रही थीं और दाढ़े भौंहों तक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आग की लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवों में कड़े, सिपर मुकुट और कानों में कुण्डल थे। उनकी कान्ति से वह बड़ा अद्भुत लग रहा था।

उस भयानक दैत्य को बड़े वेग से आकाश में जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये। परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूप की याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलराम जी ने देखा कि जैसे चोर किसी का धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्ग से लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्र ने पर्वतों पर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिर पर एक घूँसा कस कर जमाया। घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँह से खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्र के द्वारा वज्र से मारे हुए पर्वत के समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

बलराम जी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालों ने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुर को मार डाला, तब उनके आश्चर्य की सीमा रही। वे बार-बार वाह-वाहकरने लगे। ग्वालबालों का चित्त प्रेम से विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभकामनाओं की वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आयें हों, इस भाव से आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे।

प्रलम्बासुर मूर्तिमान पाप था। उसकी मृत्यु से देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे बलराम जी पर फूल बरसाने लगे और बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा कियाइस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पुर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 19