विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३
विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय
३ में भारतादि नौ खंडो का विभाग का वर्णन है।
विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३
Vishnu Purana second part chapter 3
विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः तृतीयोऽध्याय:
विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः
३
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश तीसरा अध्याय
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय
३
श्रीविष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
श्रीपराशर उवाच
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव
दक्षिणम् ।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र
सन्ततिः ॥ २,३.१ ॥
नवयोजनसाहस्रो विस्तारोस्य महामुने
।
कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च
गच्छताम् ॥ २,३.२ ॥
महेन्द्रो मलयः सह्यः
शुक्तिमानृक्षपर्वतः ।
विन्ध्यश्च पारीयात्रश्च सप्तात्र
कुलपर्वताः ॥ २,३.३ ॥
अतः संप्राप्यते स्वर्गो
सुक्तिमस्मात्प्रयान्ति वै ।
तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः
पुरुषा मुने ॥ २,३.४ ॥
इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं
चान्तश्च गम्यते ।
न ख्लवन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ
विधीयते ॥ २,३.५ ॥
श्रीपराशरजी बोले ;–
हे मैत्रेय ! जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है
वह देश भारतवर्ष कहलाता है । उसमें भरत की सन्तान बसी हुई है । हे महामुने ! इसका
विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है ।
इसमें महेंद्र, मलय, सहय, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और
पारियात्र – ये सात कुलपर्वत है । हे मुने ! इसी देश में
मनुष्य शुभकर्मोंद्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते है और यहीसे
[पाप-कर्मों में प्रवृत्त होनेपर ] वे नरक अथवा तिर्यग्योनि में पड़ते है । यही से
स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल
आदि लोकों को प्राप्त किया जा सकता है, पृथ्वी में यहाँ के
सिवा और कही भी मनुष्य के लिये कर्म की विधि नहीं है ॥ १- ५ ॥
भारतस्यास्य वर्षस्य नवभादान्नशामय
।
इद्रद्वीपः कसेरुश्च ताम्रपर्णां
गभस्तिमान् ॥ २,३.६ ॥
नागद्वीपस्तथा साम्यो गन्धर्वस्त्वथ
चारुणः ।
अयं तु नवमस्तषां द्वीपः
सागारसंवृतः ॥ २,३.७ ॥
योजनानां सहस्रं तु द्वीपोयं
दक्षिणोत्तरात् ।
पूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमे
यवनाः स्थिताः ॥ २,३.८ ॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या मध्ये
शब्द्राश्च भागशः ।
इज्यायुधवणिज्याद्यैर्वर्तयन्तो
व्यवस्थिताः ॥ २,३.९ ॥
शतद्रूचन्द्रभागाद्या
हिमयत्पादनिर्गताः ।
वेदस्मृतिमुखाद्याश्च
पारीयात्रोद्भवा मुने ॥ २,३.१० ॥
नर्मदा मुरसाद्याश्च नद्यो
विन्ध्याद्रिनिर्गताः ।
तापीपयोष्णीनिर्विन्ध्या प्रसूखा
ऋक्षसंभवाः ॥ २,३.११ ॥
गोदावरी भीमरथी
कृष्णवेण्यादिकास्तथा ।
सह्यपादोद्भवा नद्यः स्मृताः
पापभयापहाः ॥ २,३.१२ ॥
कृतमाला ताम्रपर्णिप्रसुखा
मलयोद्भवाः ।
त्रिसामा चर्षिकुल्याद्या
महेन्द्रप्रभवाः स्मृताः ॥ २,३.१३
॥
ऋषिकुल्याकुमाराद्याः
शुक्तिमत्पादसम्भवाः ।
आसां नद्य उपानद्यः सन्त्यन्याश्च
सहस्रशः ॥ २,३.१४ ॥
इस भारतवर्ष के नौ भाग है;
उनके नाम ये है – इंद्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान,
नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व
और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवाँ है । यह द्वीप उत्तरसे
दक्षिणतक सहस्त्र योजन है । इसके पुर्वीय भाग में किरात लोग और पश्चिमीय में यवन
बसे हुए है तथा यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि अपने-अपने कर्मों
की व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शुद्र्गण वर्णविभागानुसार मध्य में रहते है । हे मुने !
इसकी शतद्रु और चन्द्रभागा आदि नदियाँ हिमालय की तलैटी से वेद और स्मृति आदि
पारियात्र पर्वत से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचलसे तथा
तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरी से निकली है । गोदावरी,
भीमरथी और कृष्णवेणी आदि पापहारिणी नदियाँ सहयपर्वत से उप्तन्न हुई
कही जाती है। कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा
और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रागिरी से तथा ऋषि कुल्या और कुमारी आदि नदियाँ
शुक्तिमान पर्वत से निकली है। इनकी और भी सहस्त्रों शाखा नदियाँ और उपनदियाँ है ॥ ६-१४
॥
तास्विमे कुरुपाञ्चाला मध्यदेशादयो
जनाः ।
पूर्वदेशादिकाश्चैव कामरूपनिवासिनः
॥ २,३.१५ ॥
पुण्ड्राः कलिङ्गा मगधा
दक्षिणाद्याश्च सर्वशः ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः
शूराभीरास्तथार्बुदाः ॥ २,३.१६ ॥
कारूषा मालबाश्चैव पारियात्र
निवासिनः ।
सौवीराः सैन्धवा हूणाः साल्वाः
कोसलवासिनाः ॥ २,३.१७ ॥
माद्रारामास्तथाम्बष्ठा
पारसीकादयस्तथा ।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सहिताः
सदा ।
समीपतो महाभाग हृष्टपुष्टजनाकुलाः ॥
२,३.१८ ॥
इन नदियों के तटपर कुरु,
पांचाल और मध्यदेशादि के रहनेवाले, पुर्वदेश
और कामरूप के निवासी, पुंड्र, कलिंग,
मगध और दाक्षिणात्यलोग, अपरांतदेशवासी,
सौराष्ट्रगण तथा शूर, आभीर और अर्बुदगण,
कारुष, मालब और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व और कोशल देशवासी तथा माद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसीगण रहते है । हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते
है और इन्हींका जल पान करते है । इनकी सन्निधि के कारण वे बड़े ह्रष्ट-पुष्ट रहते
है ॥ १५-१८ ॥
चत्वारि भारते वर्षे युगान्यत्र
महामुने ।
कृतं त्रेता द्वापरञ्च
कलिश्चान्यत्र न क्वचित् ॥ २,३.१९
॥
तपस्तप्यन्ति मुनयो जुह्वते चात्र
यज्वनः ।
दानानि चात्र दीयन्ते
परलोकार्थमादरात् ॥ २,३.२० ॥
पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे
सदेज्यते ।
यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु
चान्यथा ॥ २,३.२१ ॥
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जन्बूद्वीपे
महामुने ।
यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोन्या
भोगभूमयः ॥ २,३.२२ ॥
अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि सत्तम
।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं
पुण्यसंचयात् ॥ २,३.२३ ॥
गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे ।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति
भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ २,३.२४
॥
कर्माण्यसंकल्पिततत्फलानि संन्यस्य
विष्णो परमात्म्भूते ।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते
तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति ॥ २,३.२५
॥
हे मुने ! इस भारतवर्ष में ही
सत्ययुग,
त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग है,
अन्यत्र कहीं नहीं । इस देश में परलोक के लिये मुनिजन तपस्या करते
है, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते है और दानीजन आदरपूर्वक
दान देते है। जम्बूद्वीप में यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान विष्णु का सदा यज्ञोद्वारा
यजन किया जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपों में उनकी और –
और प्रकार से उपासना होती है । हे महामुने ! इस जम्बुद्वीप से भी भारतवर्ष
सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है इसके अतिरिक्त
अन्यान्य देश भोग-भूमियाँ है । हे सत्तम ! जीवको सहस्त्रो जन्मों के अनन्तर महान
पुण्यों का उदय होनेपर ही कभी इस देशमें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है । देवगण भी
निरंतर यही गान करते है कि ‘जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के
मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य
)बडभागी) है । जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर अपने फलाकार से रहित कर्मों को
परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुभगवान को अर्पण करने से निर्मल (पापपुण्यसे रहित ) होकर
उन अनंत में ही लीन हो जाते है [ वे धन्य है ] ॥ १९-२५ ॥
जानीम नैतत्क्व वयं विलीने
स्वर्गप्रदे कर्मणि देहबन्धम् ।
प्राप्स्याम धन्याः खलु ते मनुष्या
ये भारते नेन्द्रियविप्रहीनाः ॥ २,३.२६
॥
‘पता नही, अपने स्वर्गप्रदकर्मों का क्षय होनेपर हम
कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे ! धन्य तो वे ही मनुष्य हैं जो भारतभूमि में उत्पन्न होकर
इन्दिर्यों की शक्ति से हीन नही हुए है’ ॥ २६॥
नववर्षं तु मैत्रेय जम्बुद्वीपमिदं
मया ।
लक्षयोजनविस्तारं संक्षेपात्कथितं
तव ॥ २,३.२७ ॥
जम्बूद्वीपं समावृत्य
लक्षयोजनविस्तरः ।
मैत्रेय वलयाकारः स्थितः क्षारोदधिर्बहिः
॥ २,३.२८ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार लाख योजन के
विस्तारवाले नववर्ष-विशिष्ट इस जम्बुद्वीप का मैंने तुमसे संक्षेप से वर्णन किया ।
हे मैत्रेय ! इस जम्बुद्वीप को बाहर चारों ओर से लाख योजन के विस्तारवाले वलयाकार
खारे पानी के समुद्र ने घेरा हुआ है ॥ २७-२८ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे
तृतीयोऽध्याय ॥ ३ ॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 4