विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३             

विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय ३ में भारतादि नौ खंडो का विभाग का वर्णन है।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ३            

Vishnu Purana second part chapter 3  

विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः तृतीयोऽध्याय:       

विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः ३        

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश तीसरा अध्याय

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय ३   

श्रीविष्णुपुराण

(द्वितीय अंश)

श्रीपराशर उवाच

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।

वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥ २,३.१ ॥

नवयोजनसाहस्रो विस्तारोस्य महामुने ।

कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गं च गच्छताम् ॥ २,३.२ ॥

महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः ।

विन्ध्यश्च पारीयात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥ २,३.३ ॥

अतः संप्राप्यते स्वर्गो सुक्तिमस्मात्प्रयान्ति वै ।

तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने ॥ २,३.४ ॥

इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते ।

न ख्लवन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते ॥ २,३.५ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है वह देश भारतवर्ष कहलाता है । उसमें भरत की सन्तान बसी हुई है । हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है । इसमें महेंद्र, मलय, सहय, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र ये सात कुलपर्वत है । हे मुने ! इसी देश में मनुष्य शुभकर्मोंद्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते है और यहीसे [पाप-कर्मों में प्रवृत्त होनेपर ] वे नरक अथवा तिर्यग्योनि में पड़ते है । यही से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल आदि लोकों को प्राप्त किया जा सकता है, पृथ्वी में यहाँ के सिवा और कही भी मनुष्य के लिये कर्म की विधि नहीं है ॥ १- ५ ॥

भारतस्यास्य वर्षस्य नवभादान्नशामय ।

इद्रद्वीपः कसेरुश्च ताम्रपर्णां गभस्तिमान् ॥ २,३.६ ॥

नागद्वीपस्तथा साम्यो गन्धर्वस्त्वथ चारुणः ।

अयं तु नवमस्तषां द्वीपः सागारसंवृतः ॥ २,३.७ ॥

योजनानां सहस्रं तु द्वीपोयं दक्षिणोत्तरात् ।

पूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमे यवनाः स्थिताः ॥ २,३.८ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या मध्ये शब्द्राश्च भागशः ।

इज्यायुधवणिज्याद्यैर्वर्तयन्तो व्यवस्थिताः ॥ २,३.९ ॥

शतद्रूचन्द्रभागाद्या हिमयत्पादनिर्गताः ।

वेदस्मृतिमुखाद्याश्च पारीयात्रोद्भवा मुने ॥ २,३.१० ॥

नर्मदा मुरसाद्याश्च नद्यो विन्ध्याद्रिनिर्गताः ।

तापीपयोष्णीनिर्विन्ध्या प्रसूखा ऋक्षसंभवाः ॥ २,३.११ ॥

गोदावरी भीमरथी कृष्णवेण्यादिकास्तथा ।

सह्यपादोद्भवा नद्यः स्मृताः पापभयापहाः ॥ २,३.१२ ॥

कृतमाला ताम्रपर्णिप्रसुखा मलयोद्भवाः ।

त्रिसामा चर्षिकुल्याद्या महेन्द्रप्रभवाः स्मृताः ॥ २,३.१३ ॥

ऋषिकुल्याकुमाराद्याः शुक्तिमत्पादसम्भवाः ।

आसां नद्य उपानद्यः सन्त्यन्याश्च सहस्रशः ॥ २,३.१४ ॥

इस भारतवर्ष के नौ भाग है; उनके नाम ये है इंद्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवाँ है । यह द्वीप उत्तरसे दक्षिणतक सहस्त्र योजन है । इसके पुर्वीय भाग में किरात लोग और पश्चिमीय में यवन बसे हुए है तथा यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि अपने-अपने कर्मों की व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र्गण वर्णविभागानुसार मध्य में रहते है । हे मुने ! इसकी शतद्रु और चन्द्रभागा आदि नदियाँ हिमालय की तलैटी से वेद और स्मृति आदि पारियात्र पर्वत से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचलसे तथा तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरी से निकली है । गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी आदि पापहारिणी नदियाँ सहयपर्वत से उप्तन्न हुई कही जाती है। कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रागिरी से तथा ऋषि कुल्या और कुमारी आदि नदियाँ शुक्तिमान पर्वत से निकली है। इनकी और भी सहस्त्रों शाखा नदियाँ और उपनदियाँ है ॥ ६-१४ ॥

तास्विमे कुरुपाञ्चाला मध्यदेशादयो जनाः ।

पूर्वदेशादिकाश्चैव कामरूपनिवासिनः ॥ २,३.१५ ॥

पुण्ड्राः कलिङ्गा मगधा दक्षिणाद्याश्च सर्वशः ।

तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदाः ॥ २,३.१६ ॥

कारूषा मालबाश्चैव पारियात्र निवासिनः ।

सौवीराः सैन्धवा हूणाः साल्वाः कोसलवासिनाः ॥ २,३.१७ ॥

माद्रारामास्तथाम्बष्ठा पारसीकादयस्तथा ।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सहिताः सदा ।

समीपतो महाभाग हृष्टपुष्टजनाकुलाः ॥ २,३.१८ ॥

इन नदियों के तटपर कुरु, पांचाल और मध्यदेशादि के रहनेवाले, पुर्वदेश और कामरूप के निवासी, पुंड्र, कलिंग, मगध और दाक्षिणात्यलोग, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण तथा शूर, आभीर और अर्बुदगण, कारुष, मालब और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व और कोशल देशवासी तथा माद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसीगण रहते है । हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते है और इन्हींका जल पान करते है । इनकी सन्निधि के कारण वे बड़े ह्रष्ट-पुष्ट रहते है ॥ १५-१८ ॥

चत्वारि भारते वर्षे युगान्यत्र महामुने ।

कृतं त्रेता द्वापरञ्च कलिश्चान्यत्र न क्वचित् ॥ २,३.१९ ॥

तपस्तप्यन्ति मुनयो जुह्वते चात्र यज्वनः ।

दानानि चात्र दीयन्ते परलोकार्थमादरात् ॥ २,३.२० ॥

पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते ।

यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु चान्यथा ॥ २,३.२१ ॥

अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जन्बूद्वीपे महामुने ।

यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोन्या भोगभूमयः ॥ २,३.२२ ॥

अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि सत्तम ।

कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसंचयात् ॥ २,३.२३ ॥

गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे ।

स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ २,३.२४ ॥

कर्माण्यसंकल्पिततत्फलानि संन्यस्य विष्णो परमात्म्भूते ।

अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति ॥ २,३.२५ ॥

हे मुने ! इस भारतवर्ष में ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग है, अन्यत्र कहीं नहीं । इस देश में परलोक के लिये मुनिजन तपस्या करते है, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते है और दानीजन आदरपूर्वक दान देते है। जम्बूद्वीप में यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान विष्णु का सदा यज्ञोद्वारा यजन किया जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपों में उनकी और और प्रकार से उपासना होती है । हे महामुने ! इस जम्बुद्वीप से भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है इसके अतिरिक्त अन्यान्य देश भोग-भूमियाँ है । हे सत्तम ! जीवको सहस्त्रो जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होनेपर ही कभी इस देशमें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है । देवगण भी निरंतर यही गान करते है कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य )बडभागी) है । जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर अपने फलाकार से रहित कर्मों को परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुभगवान को अर्पण करने से निर्मल (पापपुण्यसे रहित ) होकर उन अनंत में ही लीन हो जाते है [ वे धन्य है ] ॥ १९-२५ ॥

जानीम नैतत्क्व वयं विलीने स्वर्गप्रदे कर्मणि देहबन्धम् ।

प्राप्स्याम धन्याः खलु ते मनुष्या ये भारते नेन्द्रियविप्रहीनाः ॥ २,३.२६ ॥

 ‘पता नही, अपने स्वर्गप्रदकर्मों का क्षय होनेपर हम कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे ! धन्य तो वे ही मनुष्य हैं जो भारतभूमि में उत्पन्न होकर इन्दिर्यों की शक्ति से हीन नही हुए है॥ २६॥

नववर्षं तु मैत्रेय जम्बुद्वीपमिदं मया ।

लक्षयोजनविस्तारं संक्षेपात्कथितं तव ॥ २,३.२७ ॥

जम्बूद्वीपं समावृत्य लक्षयोजनविस्तरः ।

मैत्रेय वलयाकारः स्थितः क्षारोदधिर्बहिः ॥ २,३.२८ ॥

हे मैत्रेय ! इस प्रकार लाख योजन के विस्तारवाले नववर्ष-विशिष्ट इस जम्बुद्वीप का मैंने तुमसे संक्षेप से वर्णन किया । हे मैत्रेय ! इस जम्बुद्वीप को बाहर चारों ओर से लाख योजन के विस्तारवाले वलयाकार खारे पानी के समुद्र ने घेरा हुआ है ॥ २७-२८ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे तृतीयोऽध्याय ॥ ३ ॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 4

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २            

विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय २ में भूगोल का विवरण का वर्णन है।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २           

Vishnu Purana second part chapter 2  

विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः द्वितीयोऽध्याय:       

विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः २       

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश दुसरा अध्याय

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय २  

श्रीविष्णुपुराण

(द्वितीय अंश)

मैत्रेय उवाच ।

कथितो भवता ब्रह्मन् ! सर्गः स्वायम्भुवश्च मे ।

श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तः सकलं मण्डलं भुवः ।। 1 ।।

यावन्तः सागरा द्रीपास्तथा वर्षाणि पर्व्वताः ।

वनानि सरितः पुर्थ्यौ देवादीनां तथा मने ।। 2 ।।

यत्प्रमाणमिदं सर्व्वं यदाधारं यदात्मकम् ।

संस्थानमस्य च मुने ! यथावद वक्तुमर्हसि ।। 3 ।।

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आपने मझसे स्वायम्भुवमनु के वंश का वर्णन किया , अब मैं आपके मुखार्विदं से सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल का विवरण सुनना चाहता हूँ । हे मुने ! जितने भी सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता आदि की पुरियाँ है, उन सबका जितना जितना परिमाण है, जो आधार है, जो उपादान-कारण है और जैसा आकार है, वह सब आप यथावत वर्णन कीजिये ।। १ -३ ।।

पराशर उवाच ।

मैत्रेय श्वूयतामेत्त संक्षेपाद गदतो मम ।

नास्य वर्ष शतेनापि वक्तु शक्यो हि विस्तरः ।। 4 ।।

जम्बू-प्लक्षह्वयौ द्रीपौ शाल्मलिशचापरो द्रिज ।

कुशः क्रौञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चैव सप्तमः ।। 5 ।।

एते द्रीपाः समुद्रस्तु सप्त सप्तभिरावृताः ।

लवणेक्षु-सुरा-सर्पिर्दधि-दुग्ध-जलैःसमम् ।। 6 ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सुनो, मैं इन सब बातों का संक्षेप से वर्णन करता हूँ, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ वर्ष में भी नही हो सकता । हे द्विज ! जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक और सातवाँ पुष्कर ये सातों द्वीप चारों ओर से खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हुए है ।। ४ ६ ।।

जम्बूद्वीपः समस्तानाम् एतेषां मध्यसंस्थितः ।

तस्यापि मैरुर्म्मैत्रेय ! मध्ये कनकपर्व्वतः ।। 7 ।।

प्रविष्टः षोड़शाधस्ताद् द्रात्रिंशन्मूदूर्ध्न विस्तृतः ।। 8 ।।

मूले षोड़शसाहस्त्रो विस्तारस्तस्य सर्व्वशः ।

भूपद्मस्यास्य शैलेशः कर्णिकाकारसंस्थितः ।। 9 ।।

हिमवान् हेमकूटश्च निषधश्वास्य दक्षिणो ।

नीलः श्वेतश्व श्वृङ्गी च उत्तरे वर्षपर्व्वताः ।। 10 ।।

लक्षप्रमाणौ द्रौ मध्यौ दशहीनास्तथापरे ।

सहस्त्रद्रितयोच्छायास्तावदविस्तारिणश्व ते ।। 11 ।।

हे मैत्रेय ! जम्बुद्वीप इन सबके मध्य में स्थित है और उसके भी बीचों बीच में सुवर्णमय सुमेरुपर्वत है । इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे के ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी में घुसा हुआ है । इसका विस्तार ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे केवल सोलह हजार योजन है | इसप्रकार यह पर्वत इस पृथ्वीरूप कमल की कर्णिका (कोश) के समान है । इसके दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी नामक वर्षपर्वत है । उनमे बीच के दो पर्वत [ निषध और नील] एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं, उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम है । [अर्थात हेमकूट और श्वेत नब्बे नब्बे हजार योजन तथा हिमवान और शृंगी अस्सी- अस्सी सहस्त्र योजनतक फैले हुए है ] वे सभी दो दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े है ।।७- ११ ।।

भारतं प्रथमं बर्षं ततः किम्पुरुषं स्मृतम् ।

हरिवर्षं वान्यन्मेरोर्दक्षिणातो द्विज ।। 12 ।।

रम्यकञ्चोत्तरे वर्षं तस्यैवानु हिरण्मयम् ।

उत्तराःकुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा ।। 13 ।।

नवसाहस्त्रमेकैकमेतेषां द्रिजसत्तम् !

इलावृतञ्च तन्मध्ये सौवर्णो मेरुरुच्छितः ।। 14 ।।

मेरोश्वतुर्दिशं तत्तु नवसाहस्त्रविस्तृतम् ।

इलावृतं महाभाग ! चत्वारश्वात्र पर्व्वताः ।। 15 ।।

विष्कम्भा रचिता मरोर्योजनायुतमुच्छिताः ।। 16 ।।

पूर्व्वेण मन्दरो नाम दक्षिणो गन्धमादनः ।

विपुलः पश्विमे पाश्व सुपार्श्वश्वोत्तरे स्मृतः ।। 17 ।।

कदम्बस्तेषु जम्बूश्व पिप्पलो वट एव च ।

एकादशशाततायामाः पादपा गिरिकेतवः ।। 18 ।।

हे द्विज ! मेरुपर्वत के दक्षिण की ओर पहला भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है । उत्तर की ओर प्रथम रम्यक, फिर हिरण्मय और तदनन्तर उत्तरकुरुवर्ष है जो भारतवर्ष के समान है । हे द्विजश्रेष्ठ ! इनमें से प्रत्येकका विस्तार नौ नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है । हे महाभाग ! यह इलावृतवर्ष सुमेरु के चारों और नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । इसके चारों ओर चार पर्वत है । ये चारों पर्वत मानो सुमेरु को धारण करने के लिये ईश्वरकृत कीलियाँ है । इनमे से मन्दराचल पूर्व में, गन्धमादन दक्षिण में, विपुल पश्चिम में और सुपार्श्व उत्तर में है । ये सभी दस दस हजार योजन ऊँचे है । इनपर पर्वतों की ध्वजाओं के समान क्रमश: ग्यारह ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बू, पीपल और वट के वृक्ष है ।।१२- १८ ।।

जम्बूद्वीपस्य सा जम्बूर्नामहेतुर्महामुने ।

महागजप्रमाणानि जम्ब्वास्तस्याः फलानि वै ।। 19 ।।

पतन्ति भूभृतः पृष्ठे शीर्य्यमाणानि सर्वतः ।

रसेन तेषां प्रख्याता तत्र जम्बूनदीति वै ।। 20 ।।

सरित् प्रवर्त्तते सा च पीयते तन्निवासिभिः ।

नि स्वेदो न च दौर्गन्ध्यं न जरा नेन्द्रियक्षयः ।। 21 ।।

तत्पानात् स्वच्छमनसां जनानां तत्र जायते ।

तीरमृत् तदूरसं प्राप्य सुखवायुविशोषिता ।

जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्णं सिद्धभूषणम् ।। 22 ।।

भद्राश्वं पूर्व्वतो मेरोः केतुमालञ्च पश्चिमे ।

वर्षे द्र तु मुनिश्वष्ठ! तयोर्म्मध्ये इलावृतम् ।। 23 ।।

वनं चैत्ररथं पूर्व्वे दक्षिणो गन्दमादनम् ।

वैभ्राजं पश्विमे तदूदुत्तरे नन्दनं स्मृतम् ।। 24 ।।

अरुणोदं महाभद्रमसितोधं समानसम् ।

सरोस्येतानि चत्वारि देवभोग्यानि सर्व्वदा ।। 25 ।।

हे महामुने ! इनमें जम्बू (जामुन) वृक्ष जम्बुद्वीप के नामका कारण है । उसके फल महान गजराज के समान बड़े होते है । जब वे पर्वतपर गिरते है तो फटकर सब ओर फ़ैल जाते है । उनके रस से निकली जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है, जिसका जल वहाँ के रहनेवाले पीते है । उसका पान करनेसे वहाँ के शुद्धचित्त लोगों को पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता । उसके किनारे की मृत्तिका उस रस से मिलकर मंद मंद वायु से सूखनेपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है, जो सिद्ध पुरुषों का भूषण है । मेरु के पूर्व में भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ष है तथा हे मुनिश्रेष्ठ ! इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है । इसी प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन नामक वन है  तथा सर्वदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस ये चार सरोवर है ।। २०- २५ ।।

शीतान्तश्वक्रमुञ्जश्व कुररी माल्यवांस्तथा ।

वैकङ्कप्रमुखा मैरोःपूर्व्वतः केशराचलाः ।

त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतङ्गो रुचकस्यथा ।। 26 ।।

निषधाद्या दक्षिणातस्तस्य केसरपर्व्वताः ।

शिखिवासाः सवैदूर्य्यः कपिलो गन्धमादनः ।

जारुधिप्रमुखास्तदूत् पश्विमे केसराचलाः ।। 27 ।।

मेरोरनन्तराङ्गषुं जठरादिष्ववस्थिताः ।

शङ्खकूटोऽथ ऋषभो हंसो नागस्तथापरः।

कालञ्जराद्याश्व तथा उत्तरे केशराचलाः ।। 28 ।।

हे मैत्रेय ! शीताम्भ, कुमुन्द, कुररी, माल्यवान तथा वैकंक आदि पर्वत मेरु के पूर्व दिशा के केसराचल है । त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर है । शिखिवासा, वैडूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारूधि आदि उसके पश्चिमीय केसरपर्वत है तथा मेरु के अति समीपस्थ इलावृतवर्ष में और जठरादि देशों में स्थित शंखकूट, ऋषभ, हँस, नाग तथा कालंज आदि पर्वत उत्तरदिशा के केसराचल है ।। २६- २८ ।।

चतुर्ददशसहस्त्राणि योजनानां महापुरी ।

मेरोरुपरि मैत्रेय! ब्रह्मणःप्रथिता दिवि ।। 29 ।।

तस्याः समन्ततश्वाशष्टौ दिशासु विदिशासु च ।

इन्द्रादिलोकपालानां प्रख्याताः प्रवराःपुरः ।। 30 ।।

विष्णुपादविनिष्कान्ता प्लावयित्वेन्दुमणडलम् ।

समन्ताद् ब्रह्मणाः पुर्य्यां गङ्गा पतति वै दिवः ।। 31 ।।

सा तत्र पतिता दिक्षु चतुर्धा प्रतिपद्यते ।

सीता चालकनन्दा च चक्षुर्भदा च वै क्रमात् ।। 32 ।।

पूर्व्वेण शैलात् सीता तु शैलं यात्यन्तरिक्षगा ।

ततश्व पूर्व्ववर्षेण भद्राश्वेनैति सार्णवम् ।। 33 ।।

तथैवालकनन्दापि दक्षिणोनैत्य भारतम् ।

प्रयाति सागरं भूत्वा सप्तभेदा महामुने ।। 34 ।।

चक्षुश्च पश्विमगिरीनतीत्य सकलांस्ततः ।

पश्विमं केतुमालाख्यं वष गत्वैति सागरम् ।। 35 ।।

भद्रा तथोत्तरगिरीनुत्तरांश्व तथा कुरून् ।

अतीत्योत्तरमम्भोधिं समब्योति महामुने ।। 36 ।।

आनीलनिषधायामौ माल्यवदू-गन्धमादनौ ।

तयोर्म्मध्यगतो मेरुः कर्णिकाकारसंस्थितः ।। 37 ।।

हे मैत्रेय ! मेरु के ऊपर अन्तरिक्षा में चौदह सहस्त्र योजन के विस्तारवाली ब्रह्माजी की महापुरी (ब्रह्मपुरी) है । उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ अति रमणीक और विख्यात नगर है । विष्णुपादोभ्दवा श्रीगंगाजी चन्द्रमंडल को चारो ओर से आप्लावित कर स्वर्गलोक से ब्रह्मपुरी में गिरती है । वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओं में क्रम से सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नामसे चार भागों में विभक्त हो जाती है । उनमें से सीता पूर्वकी ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वतपर जाती हुई अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पारकर समुद्र में मिल जाती है । इसी प्रकार, हे महामुने ! अलकनंदा दक्षिण-दिशा की ओर भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है । चक्षु पश्चिमदिशा के समस्त पर्वतों को पारकर केतुमाल नामक वर्ष में बहती हुई अंत में सागर में जा गिरती है तथा हे महामुने ! भद्रा उत्तर के पर्वतों और उत्तरकुरुवर्ष को पार करती हुई उत्तरीय समुद्र में मिल जाती है । माल्यवान और गंधमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल और निषधपर्वततक फैले हुए है । उन दोनों के बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है ।। २९- ३७ ।।

भारताः केतुमालाश्व भद्राश्वाः कुरवस्तथा ।

पत्राणि लोकपह्मस्य मर्य्यादा शैलबाह्मतः ।। 38 ।।

जठरो देवकूटश्च मर्य्यादापर्व्वतावुभौ ।

तौ दक्षिणोत्तरायामावानीलनिषधायतौ ।। 39 ।।

गन्धमादन-कैलासौ पूर्व्वपश्चायतावुभौ ।

अशीतियोजनायामावर्णावान्तर्व्यवस्थितौ ।। 40 ।।

निषधः पारिपात्रश्च मर्य्यादापर्व्वतावुभौ ।

मेरोः परिचमदिगभागे यता पूर्व्वौ तथा स्थितौ ।। 41 ।।

त्रिश्वृह्गो जारुधिश्चैव उत्तरौ वर्षपर्व्वतौ ।

पूर्व्वपश्वायतावेतावर्णवान्तर्व्यवस्थितौ ।। 42 ।।

इत्येते मुनिवर्य्योक्ता मर्य्यादापर्व्वतास्तव ।

जठराद्याः स्थिता मेरोस्तेषां द्वौ द्वौ चतुर्दिशम् ।। 43 ।।

हे मैत्रेय ! मर्यादापर्वतों के बहिर्भाग में स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान है । जठर और देवकूट ये दोनों मर्यादापर्वत है जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषधपर्वततक फैले हुए है । पूर्व और पश्चिम की ओर फैले हुए गंधमादन और कैलास ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है, समुद्र के भीतर स्थित है । पूर्व के समान मेरु की पश्चिम ओर भी निषध एयर पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत स्थित है । उत्तर की ओर त्रिश्रुंग और जारूधि नामक वर्षपर्वत है | ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्र के गर्भ में स्थित है । इस प्रकार, हे मुनिवर ! तुमसे जठर आदि मर्यादा पर्वतों का वर्णन किया, जिनमें से दो दो मेरु की चारों दिशाओं में स्थित है ।। ३८-४३ ।।

मैरोश्चतुर्दिशं ये तु प्रोक्ताः केसरपर्व्वताः ।

शीतान्ताद्या मुने ! तेषामतीव हि मनोरमाः ।। 44 ।।

शैलानामन्तरे द्रोण्यः सिद्धचारणसेविताः ।

सुरम्याणि तथा तासु काननानि पुराणि च ।। 45 ।।

लक्ष्मी-विष्णवग्निसूर्य्यादिदेवानां मुनिसत्तम् ।

तास्वायतनवर्षाणि जुष्टानि वरकिन्नरैः ।। 46 ।।

गन्घर्व्वयक्षरक्षांसि तथा दैतेयदानवाः ।

क्रीड़न्ति तासु रम्यासु शैलद्रोणीष्वहर्निशम् ।। 47 ।।

भौमा ह्येते स्मृताः स्वर्गा धर्म्मिणामालया मुने ।

नैतेषु पापकर्म्मणो यान्ति जन्मशतैरपि ।। 48 ।।

हे मुने ! मेरु के चारों ओर स्थित जिन शीतांत आदि केसरपर्वतों के विषय में तुमसे कहा था, उनके बीच में सिद्ध चारणादि से सेवित अति सुंदर कन्दराएँ है । हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन है और लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओं के अत्यंत सुंदर मन्दिर है जो सदा किन्नरश्रेष्ठों से सेवित रहते है । उन सुंदर पर्वत द्रोणियों में गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रीडा करते है । हे मुने ! ये सम्पूर्ण स्थान भौम (पृथ्वी के ) स्वर्ग कहलाते हिल ये धार्मिक पुरुषों के निवासस्थान है । पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्म में भी नहीं जा सकते ।। ४४- ४८ ।।

भद्राश्वे भगवान् विष्णुरास्ते हयशिरा द्विज ।

वराहः केतुमाले तु भारते कूर्म्मरूपधृक् ।। 49 ।।

मत्स्यरूपश्व गोविन्दः कुरुष्वास्ते जनार्द्दनः ।

विश्वरूपेण सर्व्वत्र सर्व्वः सर्वत्रगो हरिः ।। 50 ।।

सर्व्वस्याधारभूतोऽसौ मैत्रेयास्तेऽखिलात्मकः ।

यानि किम्पुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ महामुने ।

न तेषु शोको नायासो नोद्वेगः क्षुद्भयादिकम् ।। 51 ।।

सुस्थाः प्रजा निरातङ्काः सर्व्वदुःखविवर्ज्जिताः ।

दशद्वादशवर्षाणां सहस्त्राणि स्थिरायुषः ।। 52 ।।

न तेषु वर्षते देवो भौमान्यम्भांसि तेषु वै ।

कृत-त्रेतादिका नैव तेषु स्थानेषु कल्पना ।। 53 ।।

सर्व्वेष्वेतेषु वर्षेषु सप्त सप्त कुलाचलाः ।

नद्यश्व शतशस्तेभ्यः प्रसूता या द्विजोत्तम ।। 54 ।।

हे द्विजो ! श्रीविष्णुभगवान भद्राश्ववर्ष में हयग्रीवरूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से और भारतवर्ष में कूर्मरूप से रहते है तथा वे भक्तप्रतिपालक श्रीगोविंद कुरुवर्ष में मत्स्यरूप से रहते है । इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि विश्वरूप से सर्वत्र ही रहते है | हे मैत्रेय ! वे सबके आधारभूत और सर्वात्मक है । हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें शोक, श्रम, उव्देग और क्षुधा का भय आदि कुछ भी नहीं है । वहाँ की प्रजा स्वस्थ, आतंकहीन और समस्त दु:खोंसे रहित है तथा वहाँ के लोग दस-बारह हजार वर्ष की स्थिर आयुवाले होते है । उनमें वर्षा कभी नहीं होती, केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानों में कृतत्रेतादि युगों की ही कल्पना है । हे द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षों में सात सात कुल पर्वत है और उनसे निकली हुई सैकड़ो नदियाँ है ।।४९- ५६ ।।     

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे द्वितीयोऽध्याय ॥ २ ॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 3 

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय १

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय १           

विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय १ में प्रियव्रत के वंश का वर्णन है।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय १

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय १           

Vishnu Purana second part chapter 1  

विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः प्रथमोऽध्याय:       

विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः १       

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश पहला अध्याय

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय १  

श्रीविष्णुपुराण

(द्वितीय अंश)

मैत्रेय उवाच ।

भगवन् सम्यागाख्यातं ममैतदखिलं त्वया ।

जगतः सर्गसम्बन्घि यत् पृष्टोऽसि गुरो मया ।। 1 ।।

योऽयमंशो जगत्सृष्टिसम्बद्धो गदितस्त्वया ।

तत्राहं श्रोतुमिच्छामि भूयोऽपि मुनिसत्तम ।। 2 ।।

प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ स्वायम्भुवस्य यौ ।

तयोरुत्तानपादस्य ध्रुवः पुत्रस्त्वयोदितः ।3 ।।

प्रियव्रतस्य नैवोक्ता भवता द्विज सन्ततिः ।

तामहं श्रोतुमिच्छामि प्रसन्नो वक्तुमर्हसि ।। 4 ।।

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे भगवन ! हे गुरो ! मैंने जगत की सृष्टि के विषय में आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने मुझसे भली प्रकार कह दिया । हे मुनिश्रेष्ठ ! जगत की सृष्टि सम्बन्धी आपने जो यह प्रथम अंश कहा है, उसकी एक बात मैं और सुनना चाहता हूँ । स्वायम्भुवमनु के जो प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे, उनमेंसे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के विषय में तो आपने कहा । किन्तु, हे द्विज ! आपने प्रियव्रत की सन्तान के विषय में कुछ भी नही कहा, अत: मैं उसका वर्णन सुनना चाहता हूँ, सो आप प्रसन्नतापूर्वक कहिये ।।१- ४ ।।

पराशार उवाच ।

कर्द्दमस्यात्मजां कन्यामुपयेमे प्रियव्रतः ।

सम्राट् कुक्षी च तत्कन्ये दश पुत्रास्तथापरे ।। 5 ।।

महाप्राज्ञा महावीर्य्या विनीता दयिताः पितुः ।

प्रियव्रतसुताः ख्यातास्तेषां नामानि मे श्वृणु ।। 6 ।।

आग्नीध्रश्चाग्निबाहुश्च वपुष्मान् द्युतिमांस्तथा ।

मेधा मेधातिथिर्भव्यः सवनः पुत्र एव च ।। 7 ।।

ज्योतिष्मान् दशमस्तेषां सत्यनामा सुतोऽभवत् ।

प्रियव्रतस्य पुत्रास्तु प्रख्याता बलवीर्य्यतः ।।8 ।।

मेधाग्निबाहुपुत्रास्तु त्रयो योगपरायणाः ।

जातिस्मरा महाभाग न राज्याय मनो दधुः ।। 9 ।।

निर्म्मलाः सर्वकालन्तु समस्तार्थेषु वै मुने ।

चक्रुः क्रिया यथान्यायमफलाकाङ्क्षिणो हि ते ।। 10 ।।

श्रीपराशरजी बोले ;– प्रियव्रत ने कर्दमजी की पुत्री से विवाह किया था , उससे उनके सम्राट और कुक्षि नामकी दो कन्याएँ तथा दस पुत्र हुए । प्रियव्रत के पुत्र बड़े बुद्धिमान, बलवान, विनयसम्पन्न और अपने माता-पिता के अत्यंत प्रिय कहे जाते हैं; उनके नाम सुनो वे आग्निध्र, अग्निबाहू, बपुष्मान, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन और पुत्र थे तथा दसवाँ यथार्थनामा ज्योतिष्मान था । वे प्रियव्रत के पुत्र अपने बल-पराक्रम के कारण विख्यात थे । उनमे महाभाग मेधा, अग्निबाहू और पुत्र ये तीन योगपरायण तथा अपने पूर्वजन्मका वृतांत जाननेवाले थे । उन्होंने राज्य आदि भोगों में अपना चित्त नहीं लगाया । हे मुने ! वे निर्मलचित्त और कर्म-फल की इच्छा से रहित थे तथा समस्त विषयों में सदा न्यायानुकूल ही प्रवृत्त होते थे ।। ५-१०।।

प्रियव्रतो ददौ तेषां सप्तानां मुनिसत्तम !

विभज्य सप्त द्वीपानि मैत्रेय सुमहात्मनाम् ।। 11 ।।

जम्बूद्वीपं महाभाग सोऽग्नीध्राय ददौ पिता ।

मेधातिथेस्तथा प्रादात् प्लक्षद्वीपमथापरम् ।। 12 ।।

शाल्मले च वपुष्मन्तं नरेन्द्रमभिषिक्तवान् ।

ज्योतिष्मन्तं कुशद्रीपे राजानं कृतवान् प्रभुः ।। 13 ।।

द्युतिमन्तं च राजानं क्रौञ्चद्रीपे समादिशत् ।

शाकद्वीपेश्वरञ्चापि भव्यञ्चक्रे च स प्रभुः ।। 14 ।।

हे मुनिश्रेष्ठ ! राजा प्रियव्रत ने अपने शेष सात महात्मा पुत्रों को सात द्वीप बाँट दिये । हे महाभाग ! पिता प्रियव्रत ने आग्निध्र को जम्बूद्वीप और मेधातिथि को प्लक्ष नामक दूसरा द्वीप दिया । उन्होंने शाल्मलद्वीप में वपुष्मान को अभिषिक्त किया; ज्योंतिष्मान को कुशद्वीप का राजा बनाया । द्युतिमान को क्रौंचद्वीप के शासनपर नियुक्त किया, भव्य को प्रियव्रतने शाकद्वीप का स्वामी बनाया और सवन को पुष्करद्वीप का अधिपति किया ॥ ११- १४ ॥

सवनं पुष्करद्वीपे राजानं समकारयत ।। 15 ।।

जम्बूद्वीपेश्वरो यस्तु आग्नीध्रो मुनिसत्तम ।

तस्य पुत्रा बभुवुस्ते प्रजापतिसमा नव ।। 16 ।।

नाभिः किम्पुरुषश्वे वै हरिवर्ष इलावृतः ।

रम्यो हिरण्वान् षष्ठश्च कुरुर्भद्राश्व एव च ।। 17 ।।

केतुमालस्तथैवान्यः साधुचेष्टो नृपोऽभवत् ।

जम्बूद्रीपविभागांश्च तषां विप्र निशामय ।। 18 ।।

पित्रा दत्तं हिमाह्वन्तु वर्षं नाभेस्तु दक्षिणम् ।

हेमकूटं तथा वर्षं ददौ किम्पुरुषाय सः ।। 19 ।।

तृतीयं नैषधं वर्षं हरिवर्षाय दत्तवान ।

इलावृताय प्रददौ मैरुर्यत्र तु मध्यगः ।। 20 ।।

नीलाचलाश्वितं वर्षं रम्याय प्रददौ पिता ।

हे मुनिसत्तम ! उनमें जो जम्बूद्वीप के अधीश्वर राजा आग्रिध्र थे उनके प्रजापति के समान नौ पुत्र हुए । वे नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्वान, कुरु, भद्राक्ष और सत्कर्मशील राजा केतुमाल थे । हे विप्र ! अब उनके जम्बूद्वीप के विभाग सुनो । पिता आग्निध्र ने दक्षिण की ओरका हिमवर्ष [ जिसे अब भारतवर्ष कहते है ] नाभि को दिया । इसी प्रकार किम्पुरुष को हेमकूटवर्ष तथा हरिवर्ष को तीसरा नैषधवर्ष दिया । जिसके मध्य में मेरुपर्वत है वह इलावृत्तवर्ष उन्होंने इलावृत को दिया तथा नीलाचल से लगा हुआ वर्ष रम्य को दिया॥१५-२०॥

श्वेतं तदुत्तरं वर्षं पित्रा दत्तं हिरण्वते ।। 21 ।।

यदुत्तरं श्वृङ्गवतो वर्षं तत् कुरवे ददौ ।

मेरोः पूर्व्वेणा यद् वर्षं भद्राश्वाय प्रदत्तवान् ।। 22 ।।

गन्धमादनवर्षन्तु केतुमालाय दत्तवान ।

इत्येतानि ददौ तेभ्यः पुत्रेभ्यः स नरेश्वरः ।। 23।।

वर्षेष्वेतेषु तान् पुत्रानभिषितच्य स भूमिपः ।

शालग्रामं महापुण्यं मैत्रेय तपसे ययौ ।। 24 ।।

पिता आग्निध्र ने उसका उत्तरवर्ती श्वेतवर्ष हिरण्वान को दिया तथा जो वर्ष श्रुंगवानपर्वत के उत्तर में स्थित है वह कुरु को और जो मेरु के पूर्व में स्थित है वह भद्राश्व को दिया तथा केतुमाल को गन्धमादनवर्ष दिया । इसप्रकार राजा आग्निध्र ने अपने पुत्रोंको ये वर्ष दिये । हे मैत्रेय ! अपने पुत्रों को इन वर्षो में अभिषिक्त कर वे तपस्या के लिये शालग्राम नामक महापवित्र क्षेत्र को चले गये ॥ २१-२४ ॥

यानि किंपुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ महामुने।

तेषां स्वाभाविकी सिद्धिः सुखप्राया ह्ययत्नतः ।। 25 ।।

विपर्य्ययो न तेष्वस्ति जरामृत्युभयं न च ।

धर्म्माधर्म्मौ न तेष्वास्तां नोत्तमाधममध्यमाः।।२६।।

न तेष्वस्ति युगावस्था क्षेत्रेष्वष्टासु सर्व्वदा ।

हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें सुख की बहुलता है और बिना यत्न के स्वभाव से ही समस्त भोग-सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है । उनमें किसी प्रकार के विपर्यय (असुख या अकाल मृत्यु आदि) तथा जरा-मृत्यु आदि का कोई भय नहीं होता और न धर्म, अधर्म अथवा उत्तम, अधम और मध्यम आदि का ही भेद है । उन आठ वर्षों में कभी कोई युगपरिवर्तन भी नहीं होता ॥ २५-२६ ॥

हिमाह्वयं तु वै वर्षं नाभेरासीन्महात्मनः ।। 27 ।।

तस्यर्षभोऽभवत् पुत्रो मेरुदेव्यां महाद्युतिः ।

ऋषभाद् भरतो जज्ञ ज्येष्ठःपुत्रशतस्य सः ।। 28 ।।

कृत्वा राज्यं स्वधर्म्मेण तथेष्ट्वा विविधान् मखान् ।

अभिषच्य सुतं ज्येष्ठं भरतं पृथिवीपतिम् ।। 29 ।।

तपसे स महाभागः पुलस्त्यस्याश्रमं ययौ ।

वानप्रस्थविधानेन तत्रापि कृतनिश्चयः ।। 30 ।।

तपस्तेपे यथान्यायं यदा च स महीपतिः ।

तपसा कर्शितोऽत्यर्थं कृशो धमनिसन्ततः ।। 31 ।।

नग्नो वीटां मुखे दत्त्वा वीराध्वानं ततो गतः ।

महात्मा नाभि का हिम नामक वर्ष था; उनके मेरुदेवी से अतिशय कान्तिमान ऋषभ नामक पुत्र हुआ । ऋषभजी के भरत का जन्म हुआ जो उनके सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे । महाभाग पृथ्वीपति ऋषभदेवजी धर्मपूर्वक राज्य-शासन तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान करने के अनन्तर अपने वीर पुत्र भरत को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिये पुलहाश्रम को चले गये । महाराज ऋषभ ने वहाँ भी वानप्रस्थ आश्रम की विधि से रहते हुए निश्चयपूर्वक तपस्या की तथा नियमानुकूल यज्ञानुष्ठान किये । वे तपस्या के कारण सुखकर अत्यंत कृष हो गये और उनके शरीर की शिराएँ दिखायी देने लगीं । अंत में अपने मुख में एक पत्थर की बटिया रखकर उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रधान किया ॥ २७-३१ ॥

ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते ।। 32 ।।

भरताय यतः पित्रा दत्तं प्रातिष्ठता वनम् ।

सुमतिर्भरतस्याभूत् पुत्रः परमधार्म्मिकः ।। 33 ।।

कृत्वा सम्यग् ददौ तस्मै राज्यमिष्टमखः पिता ।

पुत्रसंक्रमितश्रीस्तु भरतः स महीपतिः ।। 34 ।।

योगाभ्यासरतः प्राणान् शालग्रामेऽत्यजन्मुने ।

अजायत च विप्रोऽसौ योगिनां प्रवरे कुले ।। 35 ।।

मैत्रय । तस्य चरितं कथयिष्यामि ते पुनः ।

पिता ऋषभदेवजी ने वन जाते समय अपना राज्य भरतजी को दिया था; अत: तबसे यह (हिमवर्ष) इस लोक में भारतवर्ष नामसे प्रसिद्ध हुआ । भरतजी के सुमति नामक परम धार्मिक पुत्र हुआ  पिता (भरत) ने यज्ञानुष्ठानपूर्वक यथेच्छ राज्य-सुख भोगकर उसे सुमति को सौंप दिया । हे मुने ! महाराज भरत ने पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर योगाभ्यास में तत्पर हो अंत में शालग्रामक्षेत्र में अपने प्राण छोड़ दिये । फिर इन्होने योगियों के पवित्र कुल में ब्राह्मणरूप से जन्म लिया । हे मैत्रेय ! इनका वह चरित्र मैं तुमसे फिर कहूँगा ॥ ३२- ३५ ॥

सुमतेस्तेजसस्तस्मादिन्द्रद्युम्नो व्यजायत ।

परमेष्ठी ततस्तस्मात् प्रतिहारस्तदन्वयः ।। 36 ।।

प्रतिहर्त्तेति विख्यात उत्पन्नस्तस्य चात्मजः ।

भुवस्तस्मात् तथोद्गीथः प्रस्तारस्तत्सुतो विभुः ।। 37 ।।

पृथुस्ततोऽभवन्नक्तो नक्तस्यापि गयः सुतः ।

नरो गयस्य तनयस्तत्पुत्रोऽभूद् विराट् ततः ।। 38 ।।

तस्य पुत्रो महावीर्य्यो धीमांस्तस्मादजायत ।

महान्तस्तत्सुतश्चाभूनूमनस्युस्तस्य चात्मजः ।। 39 ।।

त्वष्टा त्वष्टुश्च विरजो रजस्तस्याप्यभूत् सुतः ।

शतजिद्रजसस्तस्य जज्ञ पुत्रशतं मनने ।। 40 ।।

विशगूज्योतिःप्रधानास्ते यैरिमा वर्द्धिताः प्रजाः ।

तैरिदं भारतं वर्षं नवभेदमलङ्गतम ।।41 ।।

तेषां वंशप्रसूतैश्च भुक्तेयें भारती पुरा ।

कृतत्रेतादिसर्गेण युगाख्या ह्म क्सप्ततिः ।। 42 ।।

एष स्वायम्भुवः सर्गो येनेदं पूरितं जगत् ।

वाराहे तु मुने ! कल्पे पूर्वमन्वान्तराधिपः ।। 43 ।।

तदनन्तर सुमति के वीर्य से इन्द्रद्युम्र का जन्म हुआ, उससे परमेष्ठी और परमेष्ठी का पुत्र प्रतिहार हुआ । प्रतिहार के प्रतिहर्ता नाम से विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता पुत्र भवम भवका उद्रीथ और उद्रीथ का पुत्र अति समर्थ प्रस्ताव हुआ । प्रस्ताव का पृथुपृथु का नक्त और नक्त का पुत्र गय हुआ । गय के नर और उसके विराट नामक पुत्र हुआ । उसका पुत्र महावीर्य था, उससे धीमान का जन्म हुआ तथा धीमान का पुत्र महान्त और उसका पुत्र मनस्यु हुआ । मनस्यु का पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा का विरज और विरज का पुत्र रज हुआ । हे मुने रज के पुत्र शतजित के सौ पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें विप्रज्योति प्रधान था । उन सौ पुत्रों से यहाँ की प्रजा बहुत बढ़ गयी । तब उन्होंने इस भारतवर्ष को नौ विभागों से विभूषित किया । उन्हीं के वंशधरों ने पूर्वकाल में कृतत्रेतादि युगक्रम से इकहत्तर युगपर्यन्त इस भारतभूमि को भोगा था । हे मुने ! यही इस वाराहकल्प में सबसे पहले मन्वन्तराधिप स्वायम्भुवमनु का वंश है, जिसने उस समय इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किया हुआ था ॥ ३६-४३ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे प्रथमोऽध्याय ॥ १ ॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 2