नरसिंहपुराण अध्याय ७
नरसिंहपुराण अध्याय ७ में मार्कण्डेयजी
के द्वारा तपस्यापूर्वक श्रीहरि की आराधना; 'मृत्युञ्जय
स्तोत्र का पाठ और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ७
Narasingha puran
chapter 7
नरसिंह पुराण सातवाँ अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय ७
श्रीनरसिंहपुराण सप्तमोऽध्यायः
॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥
श्रीभराद्वाज उवाच
मार्कण्डेयेन मुनिना कर्थं मृत्युः
पराजितः ।
एतदाख्याहि मे सूत त्वयैतत् सूचितं
पुरा ॥१॥
श्रीभरद्वाजजी बोले - सूतजी !
मार्कण्डेयमुनिने मृत्युको कैसे पराजित किया ? यह
मुझे बताइये । आपने पहले यह सूचित किया था कि वे मृत्युपर विजयी हुए थे ॥१॥
सूत उवाच
इदं तु महदख्यानं भरद्वाज श्रृणुष्व
मे ।
श्रृण्वन्तु ऋष्यश्चेमे पुरावृत्तं
ब्रवीम्यहम् ॥२॥
कुरुक्षेत्रे महापुण्ये व्यासपीठे
वराश्रमे ।
तत्रासीनं मुनिवरं कृष्णद्वैपायनं
मुनिम् ॥३॥
कृतस्नानं कृतजपं मुनिशिष्यैः
समावृतम् ।
वेदवेदार्थतत्त्वज्ञं
सर्वशास्त्रविशारदम् ॥४॥
प्राणिपत्य यथान्यायं शुकः
परमधार्मिकः ।
इममेवार्थमुद्दिश्य तं पप्रच्छ
कृताञ्जलिः ॥५॥
यमुद्दिश्य वयं पृष्टास्त्वयात्र
मुनिसंनिधौ ।
नरसिंहस्य भक्तेन कृततीर्थनिवासिना
॥६॥
सूतजी बोले - भरद्वाजजी ! इस महान्
पुरातन इतिहासको आप और ये सभी ऋषि सुनें; मैं
कह रहा हूँ । अत्यन्त पवित्र कुरुक्षेत्रमें, व्यासपीठपर,
एक सुन्दर आश्रममें स्नान तथा जप आदि समाप्त करके व्यासासनपर बैठे
हुए और शिष्यभूत मुनियोंसे धिरे हुए मुनिवर महर्षि कृष्णद्वैपायनसे, जो वेद और वेदार्थोंके तत्त्ववेता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ थे,
परम धर्मात्मा शुकदेवजीने हाथ जोड़ उन्हें यथोचितरुपसे प्रणाम कर इसी
विषयको जाननेके लिये प्रश्न किया था, जिसके लिये कि इन
मुनियोंके निकट आप पुण्यतीर्थनिवासी नृसिंहभक्तने मुझसे पूछा है ॥२ - ६॥
श्रीशुक उवाच
मार्कण्डेयेन मुनिना कथं मृत्युः
पराजितः ।
एतदाख्याहि मे तात श्रोतुमिच्छामि
तेऽधुना ॥७॥
श्रीशुकदेवजी बोले - पिताजी !
मार्कण्डेय मुनिने मृत्युपर कैसे विजय पायी ? यह
कथा कहिये । इस समय मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥७॥
व्यास उवाच
मार्कण्डेयेना मुनिना यथा मृत्युः
पराजितः ।
तथा ते कथयिष्यामि श्रृणु वत्स
महामते ॥८॥
श्रृण्वन्तु मुनयश्चेमे कथ्यमानं मयाधुना
।
मच्छिष्याश्चैव श्रृण्वन्तु
महदाख्यानमुत्तमम् ॥९॥
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्नो
मृकण्डुर्नाम वै सुतः ।
सुमित्रा नाम वै पत्नी मृकण्डोस्तु
महात्मनः ॥१०॥
धर्मज्ञा धर्मनिरता पतिशुश्रूषणे
रता ।
तस्यां तस्य सुतो जातो मार्कण्डेयो
महामतिः ॥११॥
भृगुपौत्रो महाभागो बालत्वेऽपि
महामतिः ।
ववृधे वल्लभो बालः पित्रा तत्र
कृतक्रियः ॥१२॥
व्यासजी बोले - महामते पुत्र !
मार्कण्डेय मुनिने जिस प्रकार मृत्युपर विजय पायी, वह तुमसे कहता हूँ, सुनो ! मुझसे कहे जानेवाले इस
महान् एवं उत्तम उपाख्यानको ये सभी मुनि और मेरे शिष्यगण भी सुनें । भृगुजीके उनकी
पत्नी ख्यातिके गर्भसे ' मृकण्डु ' नामक
एक पुत्र हुआ । महात्मा मृकण्डुकी पत्नी सुमित्रा हुई । वह धर्मको जाननेवाली,
धर्मपरायणा और पतिकी सेवामें लगी रहनेवाली थी । इसीके गर्भसे
मृकण्डुके पुत्र मेधानी मार्कण्डेयजी हुए । ये भृगुके पौत्र महाभाग मार्कण्डेय
बचपनमें भी बड़े बुद्धिमान् थे । पिताके द्वारा जातकर्म आदि संस्कार कर देनेपर माँ
- बापके लाड़ले बालक मार्कण्डेयजी क्रमशः बढ़ने लगे ॥८ - १२॥
तस्मिन् वै जातमात्रे तु आगमी
कश्चिदब्रवीत् ।
वर्षे द्वादशमे पूर्णे मृत्युरम्य
भविष्यति ॥१३॥
श्रुत्वा तन्मातृपितरौ दुःखितौ तौ
बभूवतुः ।
विदूयमानहदयौ तं निरीक्ष्य महामते
॥१४॥
तथापि तत्पिता तस्य यत्नात् काले
क्रियां ततः ।
चकार सर्वा मेधावी उपनीतो
गुरोर्गृहे ॥१५॥
वेदानेवाभ्यसन्नास्ते
गुरुशूश्रूषणोद्यतः ।
स्वीकृत्य वेदशास्त्राणि स
पुनर्गुहमागतः ॥१६॥
मातापितृन्नमस्कृत्य
पादयोर्विनयान्वितः ।
तस्थौ तत्र गृहे धीमान् मार्कण्डेयो
महामुनिः ॥१७॥
उनके जन्म लेते ही किसी
भविष्यवेत्ता ज्योतिषीने यह कहा था कि ' बारहवाँ
' वर्ष पूर्ण होते ही इस बालककी मृत्यु हो जायगी ।' यह सुनकर उनके मातापिता बहुत ही दुःखी हुए । महामते ! उन्हें देख - देखकर
उन दोनोंका हदय व्यथित होता रहता था, तथापि उनके पिताने उनके
नामकरण आदि सभी संस्कार किये । तत्पश्चात् मेधावी बालक मार्कण्डेय गुरुके घर ले
जाये गये । वहाँ उनका उपनयन - संस्कार हुआ । वहाँ वे गुरुकी सेवामें तत्पर रहकर
वेदाभ्यास करते हुए ही रहने लगे । वेदशास्त्रोंका यथावत् अध्ययन करके वे पुनः अपने
घर लौट आये । घर आनेपर बुद्धिमान् महामुनि मार्कण्डेयने विनयपूर्वक माता - पिताके
चरणोंमें शीश झुकाया और तबसे वे घरपर ही रहने लगे ॥१३ - १७॥
तं निरीक्ष्य महात्मानं सत्प्रज्ञं
च विचक्षणम् ।
दुःखितौ तौ भृशं तत्र तन्मातापितरौ
शुचा ॥१८॥
तौ दृष्टवा दुःखमापन्नौ मार्कण्डेयो
महामतिः ।
उवाच वचनं तत्र किमर्थं दुःखमीदृशम्
॥१९॥
सदैतत् कुरुषे मातस्तातेन सह धीमता
।
वक्तुमर्हसि दुःखस्य कारणं मम
पृच्छतः ॥२०॥
इत्युक्ता तेन पुत्रेण माता तस्य
महात्मनः ।
कथयामास तत्सर्वमागमी यदुवाच ह ॥२१॥
तच्छुत्वासौ मुनिः प्राह मातरं
पितरं पुनः ।
पित्रा सार्धं त्वया मातर्न कार्यं
दुःखमण्वपि ॥२२॥
अपनेष्यामि भो मृत्युं तपसा नात्र
संशयः ।
यथा चाहं चिरायुः स्यां तथा
कुर्यामहं तपः ॥२३॥
शुक्रदेव ! उस समय उन परम
बुद्धिमान् महात्मा एवं विद्वान पुत्रको देखकर माता - पिता शोकसे बहुत ही दुःखी
हुए । उन्हें दुःखी रहा करती हो ? मैं पूछता हूँ,
मुझसे अपने दुःखका कारण बतलाओ ।' अपने पुत्र
मार्कण्डेयजीके इस प्रकार पूछनेपर उन महात्माकी माताने, ज्योतिषी
जो कुछ कह गया था, वह सब कह सुनाया । यह सुनकर
मार्कण्डेयमुनिने माता - पितासे कहा - ' माँ ! तुम और पिताजी
तनिक भी दुःख न मानो । मैं तपस्याके द्वारा अपनी मृत्युको दूर हटा दूँगा, इसमें संशय नहीं है । मैं ऐसा तप करुँगा, जिससे
चिरजीवी हो सकूँ ॥१८ - २३॥
इत्युक्त्वा तौ समाश्वास्य पितरौ
वनमभ्यगात् ।
वल्लीवटं नाम वनं नानाऋषिनिषेवितम् ॥२४॥
तत्रासौ मुनिभिः सार्धमासीनं
स्वपितामहम् ।
भृगुं ददर्श धर्मज्ञं मार्कण्डेयो
महामतिः ॥२५॥
अभिवाद्य यथान्यायं मुनींश्चैव स
धार्मिकः ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तस्थौ
तत्पुरतो दमी ॥२६॥
गतायुषं ततो दृष्ट्वा पौत्रं बालं
महामतिः ।
भृगुराह महाभागं मार्कण्डेयं तदा शिशुम्
॥२७॥
किमागतोऽसि पुत्रात्र पितुस्ते
कुशलं पुनः ।
मातुश्च बान्धवानां च किमागमनकारणम्
॥२८॥
इत्येवमुक्तो भृगुणा मार्कण्डेयो
महामतिः ।
उवाच सकलं तस्मै आदेशिवचनं तदा ॥२९॥
पौत्रस्य वचनं श्रुत्वा भृगुस्तु
पुनरब्रवीत् ।
एवं सति महाबुद्धे किं त्वं कर्म
चिकीर्षसि ॥३०॥
इस प्रकार कहकर,
माता - पिताको आश्वासन देकर, वे अनेक ऋषियोंसे
सुसेवित 'वल्लीवट ' नामक वनमें गये ।
वहाँ पहुँचकर महामति मार्कण्डेयजीने मुनियोंके साथ विराजमान अपने पितामह धर्मात्मा
भृगुजीका दर्शन किया। उनके साथ ही अन्य ऋषियोंका भी यथोचित अभिवादन करके धर्मपरायण
मार्कण्डेयजी मनोनिग्रहपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भृगुजीके समक्ष खड़े हो गये । महामति
भृगुजीने अपने बालक पौत्र महाभाग मार्कण्डेयको, जिसकी आयु
प्रायः बीत चुकी थी, देखकर कहा - 'वत्स
! तुम यहाँ कैसे आये ? अपने माता - पिता और बान्धवजनोंका
कुशल कहो तथा यह भी बतलाओ कि यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है ?' भृगुजीके इस प्रकार पूछनेपर महाप्राज्ञ मार्कण्डेयजीने उनसे उस समय
ज्योतिषीकी कही हुई सारी बात कह सुनायी । पौत्रकी बात सुनकर भृगुजीने पुनः कहा - '
महाबुद्धे ! ऐसी स्थितिमें तुम कौनसा कर्म करना चाहते हो ?' ॥२४ - ३०॥
मार्कण्डेय उवाच
भूतापहारिणं मृत्युं जेतुमिच्छामि
साम्प्रतम् ।
शरणं त्वां प्रपन्नोऽसि तत्रोपायं
वदस्व नः ॥३१॥
मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! मैं इस
समय प्राणियोंका अपहरण करनेवाले मृत्युको जीतना चाहता हूँ,
इसीलिये आपकी शरणमें आया हूँ । इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये आप मुझे
कोई उपाय बतायें ॥३१॥
भृगुरुवाच
नारायणमनाराध्य तपसा महता सुत ।
को जेतुं शक्नुयान्मृत्युं
तस्मात्तं तपसार्चय ॥३२॥
तमनन्तमजं विष्णुमच्युतं
पुरुषोत्तमम् ।
भक्तप्रियं सुरश्रेष्ठं भक्त्या
त्वं शरणं व्रज ॥३३॥
तमेव शरणं पूर्वं गतवान्नारदो मुनिः
।
तपसा शरणं पूर्वं गतवान्नारदो मुनिः
।
तपसा महता वत्स नारायणमनामयम् ॥३४॥
तत्प्रसादान्महाभाग नारदो ब्रह्मणः
सुतः ।
जरां मृत्युं विजित्याशु
दीर्घायुर्वर्धते सुखम् ॥३५॥
तमृते पुण्डरीकाक्षं नारसिंहं
जनार्दनम् ।
कः कुर्यान्मानवो वत्स
मृत्युसत्तानिवारणम् ॥३६॥
तमनन्तमजं विष्णुं कृष्णं जिष्णुं
श्रियः पतिम् ।
गोविन्दं गोपतिं देवं सततं शरणं
व्रज ॥३७॥
नरसिंहं महादेव यदि पूजयसे सदा ।
वत्स जेतासि मृत्युं त्वं सततं
नात्र संशयः ॥३८॥
भृगुजी बोले - पुत्र ! बहुत बड़ी
तपस्याके द्वारा भगवान् नारायणकी आराधना किये बिना कौन मृत्युको जीत सकता है ?
इसलिये तुम तपस्याद्वारा उन्हींका अर्चन करो । भक्तोंके प्रियतम और
देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ उन अनन्त, अजन्मा, अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ । वत्स ! पूर्वकालमें
नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ । वत्स !
पूर्वकालमें नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् नारायणकी शरणमें
गये थे । महाभाग ! ब्रह्मपुत्र नारदजी उन्हींकी कृपासे जरा और मृत्युको शीघ्र ही
जीतकर दीर्घायु हो सुखपूर्वक रहते हैं । पुत्न ! उन कमललोचन नृसिंहस्वरुप भगवान्
जनार्दनके बिना कौन मनुष्य यहाँ मृत्युकी सत्ताका निवारण कर सकता है ? तुम निरन्तर उन्हीं अनन्त, अजन्मा, विजयी, कृष्णवर्ण, लक्ष्मीपति,
गोविन्द, गोपति भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ !
वत्स ! यदि तुम सदा उन महान् देवता भगवान् नरसिंहकी पूजा करते रहोगे तो सदाके लिये
मृत्युपर विजय प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ॥३२ -
३८॥
व्यास उवाच
उक्तः पितामहेनैवं भृगुणा
पुनरब्रवीत् ।
मार्कण्डेयो महातेजा विनयात्
स्वपितामहम् ॥३९॥
व्यासजी बोले - पितामह भृगुके इस
प्रकार कहनेपर महान् तेजस्वी मार्कण्डेयजीने उनसे विनयपूर्वक कहा ॥३९॥
मार्कण्डेय उवाच
आराध्यः कथितस्तात
विष्णुर्विश्वेश्वरः प्रभुः ।
कथं कुत्र मया कार्यमच्युताराधनं
गुरो ।
येनासौ मम तुष्टस्तु मृत्युं
सद्योऽपनेष्यति ॥४०॥
मार्कण्डेयजी बोले - तात ! गुरो !
आपने विश्वपति भगवान् विष्णुको आराध्य तो बतलाया, परंतु मैं उन अच्युतकी आराधना कहाँ और किस प्रकार करुँ ? जिससे वे शीघ्र प्रसन्न होकर मेरी मृत्युको दूर कर दें ॥४०॥
भृगुरुवाच
तुङ्गभद्रेति विख्याता या नदी
सह्यपर्वते ।
तत्र भद्रवटे वत्स त्वं
प्रतिष्ठाप्य केशवम् ॥४१॥
आराधय जगन्नाथं गन्धपुष्पादिभिः
क्रमात् ।
हदि कृत्वेन्द्रियग्रामं मनः संयम्य
तत्त्वतः ॥४२॥
हत्पुण्डरीके देवेशं
शङ्खचक्रगदाधरम् ।
ध्यायन्नेकमना वत्स
द्वादशाक्षरमभ्यसन् ॥४३॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
इमं मन्त्रं हि जपतो देवदेवस्य
शार्ङ्गिणः ॥
प्रीतो भवति विश्वात्मा मृत्युं
येनापनेष्यति ॥४४॥
भृगुजी बोले - सह्यपर्वतपर जो 'तुङ्गभद्रा' नामसे विख्यात नदी है, वहाँ 'भद्रवट' नामक वृक्षके
नीचे जगन्नाथ भगवान् केशवकी स्थापना कर क्रमशः गन्ध और पुष्प आदिसे उनकी पूजा करो
। इन्द्रियोंको मनमें नियन्त्रित कर, मनको भी पूर्णतः
संयममें रखते हुए एकाग्रचित हो, ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय '
- इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करो और अपने हदयकमलमें शङ्ख, चक्र, गदा ( एवं पद्म ) धारण किये देवेश्वर भगवान्
विष्णुका ध्यान किया करो । जो देवाधिदेव शाङ्गधन्वा विष्णुके इस द्वादशाक्षर
मन्त्रका जप करता है, उसके ऊपर वे विश्वात्मा प्रसन्न होते
हैं । तुम भी इसका जप करो, जिससे प्रसन्न होकर वे तुम्हारी
मृत्यु दूर कर देंगे ॥४१ - ४४॥
व्यास उवाच
इत्युक्तस्तं प्रणम्याथ स जगाम
तपोवनम् ॥४५॥
सह्यपादोद्भवायास्तु
भद्रायास्तटमुत्तमम् ।
नानाद्रुमलताकीर्णं
नानापुष्पोपशोभितम् ॥४६॥
गुल्मवेणुलताकीर्णं
नानामुनिजनाकुलम् ।
तत्र विष्णुं प्रतिष्ठाप्य
गन्धधूपादिभिः क्रमात् ॥४७॥
पूजयामास देवेशं मार्कण्डेयो
महामुनिः ।
पूजयित्वा हरि तत्र तपस्तेपे
सुदुष्करम् ॥४८॥
निराहरो मुनिस्तत्र
वर्षमेकमतन्द्रितः ।
मात्रोक्तकाले त्वासन्ने दिने तत्र
महामतिः ॥४९॥
स्रावा यथोक्तविधिना कृत्वा विष्णोस्तथार्चनम्
।
हदि कृत्वेन्द्रियग्राम्म
विशुद्धेनान्तरात्मना ॥५०॥
आसनं स्वस्तिकं बदध्वा कृत्वासौ
प्राणसंयमम् ।
ॐकारोच्चारणाद्धीमान् हत्पद्मं स
विकासयन् ॥५१॥
तन्मध्ये रविसोमाग्निमण्डलानि
यथाक्रमम् ।
कल्पयित्वा हरेः पीठं तस्मिन् देशे
सनातनम् ॥५२॥
पीताम्बरधरं कृष्णं शङ्खचक्रगदाधरम्
।
भावपुष्पैः समभ्यर्च्य
मनस्तस्मिन्निवेश्य च ॥५३॥
ब्रह्मरुपं हरिं ध्यायंस्ततो
मन्त्रमुदीरयत् ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥५४॥
व्यासजी कहते हैं - वत्स ! भृगुजीके
इस प्रकार कहनेपर उन्हें प्रणाम करके मार्कण्डेयजी सह्यपर्वतकी शाखासे निकली हुई
तुङ्गभद्राके उत्तम तटपर विविध प्रकारके वृक्ष और लताओंसे भरे हुए नाना भाँतिके
पुष्पोंसे सुशोभित, गुल्म, लता और वेणुओंसे व्याप्त तथा अनेकानेक मुनिजनोसें पूर्ण तपोवनमें गये ।
वहाँ वे महामुनिने देवेश्वर भगवान् विष्णुकी स्थापना करके क्रमशः गन्धधूप आदिसे
उनकी पूजा करने लगे । भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने पूजा करने लगे ।
भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने निरालस्यभावसे निराहार रहकर सालभर अत्यन्त
दुष्कर तप किया । माताका बतलाया हुआ समय निकट आनेपर उस दिन महामति मार्कण्डेयजीने
वहाँ स्नान करके पूर्वोक्त विधिसे विष्णुकी पूजा की और स्वस्तिकासन बाँध
इन्द्रियसमूहको मनमें संयत कर विशुद्ध अन्तः करणसे युक्त हो प्राणायाम किया । फिर
ॐ कारके उच्चारणसे हदयकमलको विकसित करते हुए उसके मध्यभागमें क्रमशः सूर्य,
चन्द्रमा तथा अग्निमण्डलकी कल्पना करके भगवान् विष्णुका पीठ निश्चित
किया और उस स्थानपर पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा धारण करनेवाले सनातन भगवान् श्रीकृष्णकी भावमय पुष्पोंसे पूजा करके
उनमें चितको लगा दिया । फिर उन ब्रह्मस्वरुप श्रीहरिका ध्यान करते हुए वे '
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' - इस मन्त्रका जप
करने लगे ॥४५ - ५४॥
व्यास उवाच
इत्येवं ध्यायतस्तस्य मार्कण्डेयस्य
धीमतः ।
मनस्तत्रैव संलग्नं देवदेवे जगत्पतौ
॥५५॥
ततो यमाज्ञया तत्र आगता यमकिंकराः ।
पाशहस्तास्तु तं नेतुं
विष्णुद्वतैस्तु ते हताः ॥५६॥
शूलैः प्रहन्यमानास्तु द्विजं
मुक्त्वा ययुस्तदा ।
स्वयं निवर्त्य गच्छामो मृत्युरेवागमिष्यति
॥५७॥
व्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस
प्रकार ध्यान करते हुए बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीका मन उन देवाधिदेव जगदीश्वरमें लीन
हो गया । तदनन्तर यमराजकी आज्ञासे उन्हें ले जानेके लिये हाथोंमें पाश लिये हुए
यमदूत वहाँ आये; परंतु भगवान् विष्णुके दूतोंने
उन्हें मार भगाया । शूलोंसे मारे जानेपर वे उस समय विप्रवर मार्कण्डेयको छोड़कर भाग
चले और यह कहते गये कि ' हमलोग तो लौटकर चले जा रहे हैं,
परंतु अब साक्षात् मृत्युदेव ही यहाँ आयेंगे' ॥५५
- ५७॥
विष्णुदूता ऊचुः
यत्र नः स्वामिनो नाम लोकनाथस्य
शार्ङ्गिणः ।
को यमस्तत्र मृत्युर्वा कालः कलयतां
वरः ॥५८॥
विष्णुदूत बोले - जहाँ हमारे स्वामी
जगदीश्वर शार्ङ्गधन्वा भगवान् विष्णुका नाम जपा जाता हो,
वहाँ उनकी क्या बिसात है ? ग्रसनेवालोमें
श्रेष्ठ काल, मृत्यु अथवा यमराज कौन होते हैं ? ॥५८॥
व्यास उवाच
आगत्य स्वयमेवाह मृत्युः पार्श्वं
महात्मनः ।
मार्कण्डेयस्य बभ्राम
विष्णुकिंकरशङ्कया ॥५९॥
तेऽप्युद्यम्याशु मुशलानायसान्
विष्णुकिंकराः ।
विष्णवाज्ञया हनिष्यामो
मृत्यमद्येति संस्थिताः ॥६०॥
ततो विष्णवर्पितमना मार्कण्डेयो
महामतिः ।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा देवदेवं
जनार्दनम् ॥६१॥
विष्णुनैवोदितं यत्तत्स्तोत्रं
कर्णे महात्मनः ।
सुभाषितेन मनसा तेन तुष्टाव माधवम्
॥६२॥
व्यासजी कहते हैं - यमदूतोंके
लौटनेके बाद साक्षात् मृत्युने ही वहाँ आकर उन्हें यमलोक चलनेको कहा,
परंतु श्रीविष्णुदूतोंके डरसे वे महात्मा मार्कण्डेयके आसपास ही
घूमते रह गये; उन्हें स्पर्श करनेका साहन न कर सके । इधर
विष्णुदूत भी शीघ्र ही लोहेके मूसल उठाकर खड़े हो गये । उन्होंने अपने मनमें यह
निश्चय कर लिया था कि ' आज हमलोग विष्णुकी आज्ञासे मृत्युका
वध कर डालेंगे ।' तत्पश्चात् महामति मार्कण्डेयजी भगवान्
विष्णुमें चित्त लगाये उन देवाधिदेव जनार्दनको प्रणाम करते हुए स्तुति करने लगे ।
भगवान् विष्णुने ही वह स्तोत्र उन महात्माके कानमें कह दिया । उसी सुभाषित
स्तोत्रद्वारा उन्होंने मनोयोगपूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिकी स्तुति की ॥५९ - ६२॥
मृत्युञ्जय स्तोत्र
मार्कण्डेय उवाच
नारायणं सहस्राक्षं पद्मनाभं पुरातनम्
।
प्रणतोऽस्मि हषीकेशं किं मे मृत्युः
करिष्यति ॥६३॥
मार्कण्डेयजी बोले - जो सहस्रों
नेत्रों से युक्त, इन्द्रियों के
स्वामी, पुरातन पुरुष तथा पद्मनाभ (अपनी नाभि से
ब्रह्माण्डमय कमल को प्रकट करनेवाले) हैं, उन श्रीनारायणदेव को
मैं प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगा?
गोविन्दं
पुण्डरीकाक्षमनन्तमजमव्ययम् ।
केशवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६४॥
मैं अनन्त,
अजन्मा, अविकारी, गोविन्द,
कमलनयन भगवान् केशव की शरण में आ गया हूँ; अब
मृत्यु मेरा क्या करेगा?
वासुदेवं जगद्योनिं भानुवर्णमतीन्द्रियम्
।
दामोदरं प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६५॥
मैं संसार की उत्पत्ति के स्थान,
सूर्य के समान प्रकाशमान्, इन्द्रियातीत
वासुदेव (सर्वव्यापी देवता) भगवान् दामोदर की शरण में आ गया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?
शङ्खचक्रधरं देवं छन्नरुपिणमव्ययम्
।
अधोक्षजं प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६६॥
जिनका स्वरुप अव्यक्त है,
जो विकारों से रहित हैं, उन शङ्ख- चक्रधारी
भगवान् अधोक्षज की मैं शरण में आ गया; मृत्यु मेरा क्या कर
लेगा?
वाराहं वामनं विष्णुं नरसिंहं
जनार्दनम् ।
माधवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६७॥
मैं वाराह,
वामन, विष्णु, नरसिंह,
जनार्दन एवं माधव की शरण में हूँ; मृत्यु मेरा
क्या कर सकेगा?
पुरुषं पुष्करं पुण्यं क्षेमबीजं
जगत्पतिम् ।
लोकनाथं प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६८॥
मैं पवित्र,
पुष्कररुप अथवा पुष्कल (पूर्ण) रुप, कल्याणबीज,
जगत्- प्रतिपालक एवं लोकनाथ भगवान् पुरुषोत्तम की शरणमें आ गया हूँ;
अब मृत्यु मेरा क्या करेगा?
भूतात्मानं महात्मानं
जगद्योनिमयोनिजम् ।
विश्वरुपं प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥६९॥
जो समस्त भूतों के आत्मा,
महात्मा (परमात्मा) एवं जगत की योनि (उत्पत्ति के स्थान) होते हुए
भी स्वयं अयोनिज हैं, उन भगवान् विश्वरुप की मैं शरण में आया
हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?
सहस्रशिरसं देवं व्यक्ताव्यक्तं
सनातनम् ।
महायोगं प्रपन्नोऽस्मि किं मे
मृत्युः करिष्यति ॥७०॥
जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं,
जो व्यक्ताव्यक्त स्वरुप हैं, उन महायोगी
सनातन देव की मैं शरण में आया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या कर
सकेगा? ॥६३ - ७०॥
इत्युदीरितमाकर्ण्य स्तोत्रं तस्य
महात्मनः ।
अपयातस्ततो मृत्युर्विष्णुदूतैश्च
पीडितः ॥७१॥
इति तेन जितो मृत्युर्मार्कण्डेयेन
धीमता ।
प्रसन्ने पुण्डरीकाक्षे नृसिंहे
नास्ति दुर्लभम् ॥७२॥
मृत्युञ्जयमिदं पुण्यं
मृत्युप्रशमनं शुभम् ।
मार्कण्डेयहितार्थाय स्वयं
विष्णुरुवाच ह ॥७३॥
य इदं पठते भक्त्या त्रिकालं नियतः
शुचिः ।
नाकाले तस्य मृत्युः
स्यान्नरस्याच्युतचेतसः ॥७४॥
हत्पद्ममध्ये पुरुषं पुराणं नारायणं
शाश्वतमादिदेवम् ।
संचिन्त्य सूर्यादपि राजमानं
मृत्युं स योगी जितवांस्तदैव ॥७५॥
महात्मा मार्कण्डेयके द्वारा
उच्चारित हुए उस स्तोत्रको सुनकर विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित हुए मृत्युदेव वहाँसे
भाग चले । इस प्रकार बुद्धिमान् मार्कण्डेयने मृत्युपर विजय पायी । सच है,
कमललोचन भगवान् नृसिंहके प्रसन्न होनेपर कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता
। स्वयं भगवान् विष्णुने ही मार्कण्डेयजीके हितके लिये मृत्युको शान्त करनेवाले इस
परम पावन मङ्गलमय मृत्युञ्जय - स्तोत्रका उपदेश दिया था । जो नित्य नियमपूर्वक
पवित्रभावसे भक्तियुक्त होकर सायं, प्रातः और मध्याह्न -
तीनों समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, भगवान् अच्युत में
चित्त लगानेवाले उस पुरुष का अकालमरण नहीं होता । योगी मार्कण्डेयने अपने हदय –
कमल में सूर्यसे भी अधिक प्रकाशमान सनातन पुराण - पुरुष आदिदेव नारायणका चिन्तन
करके तत्काल मृत्युपर विजय प्राप्त कर ली ॥७१ - ७५॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे
मार्कण्डेयमृत्युञ्जयो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें 'मार्कण्डेय की मृत्युपर विजय' नामक सातवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥७॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 8
0 Comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box