नरसिंहपुराण अध्याय ६

नरसिंहपुराण अध्याय ६

नरसिंहपुराण अध्याय ६ में वसिष्ठ और अगस्त्य के मित्रावरुण के पुत्ररूप में उत्पन्न होने का प्रसंग का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय ६

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ६

Narasingha puran chapter 6

नरसिंह पुराण छटवां अध्याय   

नरसिंहपुराण अध्याय ६ 

श्रीनरसिंहपुराण षष्ठोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

सूत उवाच

सृष्टिस्ते कथिता विष्णोर्मयास्य जगतो द्विज ।

देवदानवयक्षाद्या यथोत्पन्ना महात्मनः ॥१॥

यमुद्दिश्य त्वया पृष्टः पुराहमृषिसंनिधौ ।

मित्रावरुणपुत्रत्वं वसिष्ठस्य कथं त्विति ॥२॥

तदिदं कथयिष्यामि पुण्याख्यानं पुरातनम् ।

श्रृणुष्वैकाग्रमनसा भरद्वाज विशेषतः ॥३॥

सूतजी बोले - ब्रह्मन् ! परमात्मा भगवान् विष्णु से जिस प्रकार देव, दानव और यक्ष आदि उत्पन्न हुए, वह जगत की सृष्टि का वृत्तान्त मैंने आपसे कह दिया । अब ऋषियों के निकट जिस उद्देश्य को लेकर पहले आपने मुझसे प्रश्न किया था कि 'वसिष्ठजी मित्रावरुण के पुत्र कैसे हो गये?' उसी पुरातन पवित्र कथा को कहूँगा । भरद्वाजजी ! आप एकाग्रचित्त हो, विशेष सावधानी के साथ उसे सुनिये ॥१ - ३॥

सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञः सर्ववेदविदां वरः ।

पारगः सर्वविद्यानां दक्षो नाम प्रजापतिः ॥४॥

तेन दत्ताः शुभाः कन्याः सर्वाः कमललोचनाः ।

सर्वलक्षणसम्पूर्णाः कश्यपाय त्रयोदश ॥५॥

तासां नामानि वक्ष्यामि निबोधत ममाधुना ।

अदितिर्दितिर्दनुः काला मुहूर्ता सिंहिका मुनिः ॥६॥

इरा क्रोधा च सुरभिर्विनता सुरसा खसा ।

कद्रू सरमा चैव या तु देवशुनी स्मृता ॥७॥

दक्षस्यैता दुहितरस्ताः प्रादात् कश्यपाय सः ।

तासां ज्येष्ठा वरिष्ठा च अदितिर्नामतो द्विज ॥८॥

सम्पूर्ण धर्म और अर्थों के तत्त्व को जाननेवाले, समस्त वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ तथा समग्र विद्याओं के पारदर्शी 'दक्ष' नामक प्रजापति ने अपनी तेरह सुन्दरी कन्याओं को, जो सभी कमल के समान नेत्रोंवाली और समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न थीं, कश्यप मुनि को दिया था । उनके नाम बतलाता हूँ, आप लोग इस इस समय मुझसे उनके नाम जान लें - अदिति, दिति, दनु, काला, मुहूर्ता, सिंहिका, मुनि, इरा, क्रोधा, सुरभि, विनता, सुरसा, खसा, कद्रू और सरमा, जो देवताओं की कुतिया कही गयी हैं - ये सभी दक्षप्रजापति की कन्याएँ हैं । इनको दक्ष ने कश्यपजी को समर्पित किया था । विप्रवर ! अदिति नाम की जो कन्या थी, वही इन सबमें श्रेष्ठ और बड़ी थी ॥४ - ८॥

अदितिः सुषुवे पुत्रान् द्वादशाग्निसमप्रभान् ।

तेषां नामानि वक्ष्यामि श्रृणुष्व गदतो मम ॥९॥

यैरिदं वासरं नक्तं वर्तते क्रमशः सदा ।

भर्गोऽशुस्त्वर्यमा चैव मित्रोऽथ वरुणस्तथा ॥१०॥

सविता चैव धाता च विवस्वांश्च महामते ।

त्वष्टा पूषा तथैवेन्द्रो विष्णुर्द्वादशमः स्मृतः ॥११॥

एते च द्वादशादित्यास्तपन्ते वर्षयन्ति च ।

अदितिने बारह पुत्रों को उत्पन्न किया, जो अग्नि के समान कान्तिमान् एवं तेजस्वी थे । उन सबके नाम बतला रहा हूँ, आप मुझसे उन्हें सुनें । उन्हीं के द्वारा सर्वदा क्रमशः दिन और रात होते रहते हैं । भग, अंशु, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान् , त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु हैं । ये बारह आदित्य तपते वर्षा करते हैं ॥९ - १११/२॥

तस्याश्च मध्यमः पुत्रो वरुणो नाम नामतः ॥१२॥

लोकपाल इति ख्यातो वारुण्यां दिशि शब्द्यते ।

पश्चिमस्य समुद्रस्य प्रतीच्यां दिशि राजते ॥१३॥

जातरुपमयः श्रीमानास्ते नाम शिलोच्चयः ।

सर्वरत्नमयैः श्रृङ्गैर्धातुप्रस्रवणान्वितैः ॥१४॥

संयुक्तो भाति शैलेशो नानारत्नमयः शुभः ।

महादरीगुहाभिश्च सिंहशार्दूलनादितः ॥१५॥

नानाविविक्तभूमीषु सिद्धगन्धर्वसेवितः ।

यस्मिन् गते दिनकरे तमसाऽऽपूर्यते जगत् ॥१६॥

तस्य श्रृङ्गे महादिव्या जाम्बूनदमयी शुभा ।

रम्या मणिमयैः स्तम्भैर्विहिता विश्वकर्मणा ॥१७॥

पुरी विश्वावती नाम समृद्धा भोगसाधनैः ।

तस्यां वरुण आदित्यो दीप्यमानः स्वतेजसा ॥१८॥

पाति सर्वानिमाँल्लोकान् नियुक्तो ब्रह्मणा स्वयम् ।

उपास्यमानो गन्धर्वैस्तथैवाप्सरसां गणैः ॥१९॥

अदिति के मध्यम पुत्र वरुण 'लोकपाल' कहे गये हैं; इनकी स्थिति वरुण- दिशा (पश्चिम)- में बतलायी जाती हैं । ये पश्चिम दिशा में पश्चिम समुद्र के तट पर सुशोभित होते हैं । वहाँ एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत हैं । उसके शिखर सब रत्नमय हैं । उन पर नाना प्रकार की धातुएँ और झरने हैं । इनसे युक्त और नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण वह सुन्दर पर्वत बड़ी शोभा पाता है । उसमें बड़े-बड़े दरें और गुहाएँ हैं, जहाँ बाघ और सिंह दहाड़ते रहते हैं । वहाँ के अनेकानेक एकान्त स्थलों पर सिद्ध और गन्धर्व वास करते हैं । जब सुर्य वहाँ पहुँचते हैं, तब समस्त संसार अन्धकार से पूर्ण हो जाता है । उसी पर्वत के शिखर पर विश्वकर्मा की बनायी हुई एक 'विश्वावती' नाम की शोभनपुरी है, जो बड़ी, दिव्य तथा सुवर्ण से बनी हुई है और उसमें मणियों के खंभे लगे हैं । इस प्रकार वह पुरी रमणीय एवं सम्पूर्ण भोग- साधनों से सम्पन्न है । उसी में अपने तेज से प्रकाशित होते हुए 'वरुण' नामक आदित्य ब्रह्माजी की प्रेरणा से इन सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं । वहाँ उनकी सेवा में गन्धर्व और अप्सराएँ रहा करती हैं ॥१२ - १९॥

दिव्यगन्धानुलिप्ताङ्गो दिव्याभरणभूषितः ।

कदाचिद्वरुणो यातो मित्रेण सहितो वनम् ॥२०॥

कुरुक्षेत्रे शुभे रम्ये सदा ब्रह्मर्षिसेविते ।

नानापुष्पफलोपेते नानातीर्थसमाकुले ॥२१॥

आश्रमा यत्र दृश्यन्ते मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।

तस्मिंस्तीर्थे समाश्रित्य बहुपुष्पफलोदके ॥२२॥

चीरकृष्णाजिनधरौ चरन्तौ तप उत्तमम् ।

तत्रैकस्मिन् वनोद्देशे विमलोदो हदः शुभः ॥२३॥

बहुगुल्मलताकीर्णो नानापक्षिनिषेवितः ।

नानातरुवनच्छन्नो नलिन्या चोपशोभितः ॥२४॥

पौण्डरीक इति ख्यातो मीनकच्छपसेवितः ।

ततस्तु मित्रावरुणौ भ्रातरौ वनचारिणौ ।

तं तु देशं गतौ देवौ विचरत्नौ यदृच्छया ॥२५॥

एक दिन वरुण अपने अङ्गों में दिव्य चन्दन का अनुलेप लगाये, दिव्य आभूषणों से विभूषित हो 'मित्र' के साथ वन को गये । ब्रह्मर्षिगण सदा जिसका सेवन करते हैं, जो नाना प्रकार के फल और फूलों से युक्त तथा अनेक तीर्थो से व्याप्त है; जहाँ ऊर्ध्वरेता मुनियों के आश्रम दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो प्रचुर फल - फूल और जल से पूर्ण हैं, उस सुन्दर सुरम्य कुरुक्षेत्र तीर्थ में पहुँचकर वे दोनों देवता चीर और कृष्णमृगचर्म धारण करके तपस्या करने लगे । वहाँ पर वन के एक भाग में निर्मल जल से भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर हैं जो बहुत - सी झाड़ियों और बेलों से आवृत्त है; अनेकानेक पक्षी उसका सेवन करते हैं । वह भाँति- भाँति के वृक्षसमूहों से आच्छन्न और कमलों से सुशोभित है । उस सरोवर की 'पौण्डरीक' नाम से प्रसिद्धि है । उसमें बहुत- सी मछलियाँ और कछुए निवास करते हैं । तप आरम्भ करने के पश्चात् वे दोनों भाई- मित्र और वरुणदेवता एक दिन वन में विचरण करते और स्वेच्छानुसार घूमते हुए उस सरोवर की ओर गये ॥२० - २५॥

ताभ्यां तत्र तदा दृष्टा उर्वशी तु वराप्सराः ।

स्नायन्ती सहितान्याभिः सखीभिः सा वरानना ।

गायन्ती च हसन्ती च विश्वस्ता निर्जने वने ॥२६॥

गौरी कमलगर्भाभा स्निग्धकृष्णशिरोरुहा ।

पद्मपत्रविशालाक्षी रक्तोष्ठी मृदुभाषिणी ॥२७॥

शङ्खकुन्देन्दुधवलैर्दन्तैरविरलैः समैः ।

सुभ्रूः सुनासा सुमुखी सुललाटा मनस्विनी ॥२८॥

सिंहवत् सूक्ष्ममध्याङ्गी पीनोरुजघनस्तनी ।

मधुरालापचतुरा सुमध्या चारुहासिनी ॥२९॥

रक्तोत्पलकरा तन्वी सुपदी विनयान्विता ।

पूर्णचन्द्रनिभा बाला मत्तद्विरदगामिनी ॥३०॥

दृष्ट्वा तस्यास्तु तद्रूपं तौ देवौ विस्मयं गतौ ।

तस्या हास्येन लास्येन स्मितेन ललितेन च ॥३१॥

मृदुना वायुना चैव शीतानिलसुगन्धिना ।

मत्तभ्रमरगीतेन पुंस्कोकिलरुतेन च ॥३२॥

सुस्वरेण हि गीतेन उर्वश्या मधुरेण च ।

ईक्षितो च कटाक्षेण स्कन्दतुस्तावुभावपि ।

निमेः शापादथोत्क्रम्य स्वदेहान्मुनिसत्तम ॥३३॥

वहाँ उन दोनों ने उस समय श्रेष्ठ एवं सुन्दरी अप्सरा उर्वशी को देखा, जो अपनी अन्य सहेलियों के साथ स्नान कर रही थी । वह सुमुखी अप्सरा उस निर्जन वन में विश्वस्त होकर हँसती और गाती थी । उसका वर्ण गोरा था । कमल के भीतरी भाग के समान उसकी कान्ति थी । उसकी अलकें काली - काली और चिकनी थीं, आँखें कमल – दल के समान बड़ी - बड़ी थीं, होठ लाल थे, उसका भाषण बहुत ही मधुर था । उसके दाँत शङ्ख, कुन्द और चन्द्रमा के समान श्वेत, परस्पर मिले हुए और बराबर थे । उस मनस्विनी की भौंहें, नासिका, मुख और ललाट - सभी सुन्दर थे । कटिभाग सिंह के कटिप्रदेश की भाँति पतला था । उरोज, ऊरु और जघन - ये मोटे और घने थे । वह मधुर भाषण करने में चतुर थी । उसका मध्यभाग सुन्दर और मुस्कान मनोहर थी । दोनों हाथ लाल कमल के समान सुन्दर एवं कोमल थे । शरीर पतला और पैर सुन्दर थे । वह बाला बड़ी ही विनीता थी । उसका मुख पूर्णचन्द्र के समान आह्वादजनक और गति मत्त गजराज के समान मन्द थी । उर्वशी के उस दिव्य रुप को देखकर वे दोनों देवता विस्मय में पड़ गये । उसके लास्य (नृत्य), हास्य, ललितभाव - मिश्रित मन्द मुसकान और मधुर सुरीले गान से तथा शीतल - मन्द - सुगन्धित मलयानिल के स्पर्श से एवं मतवाले भौंरों के संगीत और कोकिलों के स्पर्श से एवं मतवाले भौरों के संगीत और कोकिलों के कलरव से उन दोनों का मज और भी मुग्ध हो गया । साथ ही उर्वशी की तिरछी चितवन के शिकार होकर वे दोनों ही वहाँ स्खलित हो गये (उनके वीर्य का पतन हो गया) । मुनिसत्तम ! इसके बाद निमि के शापवश वसिष्ठजी का जीवात्मा अपने शरीर से पृथक् होकर (मित्रावरुण के वीर्य में आविष्ट हुआ) ॥२६ - ३३॥

वसिष्ठ मित्रावरुणात्मजोऽसी त्यथोचुरागत्य हि विश्वदेवाः ।

रेतस्त्रिभागं कमलेऽचरत्तद् वसिष्ठ एवं तु पितामहोक्तेः ॥३४॥

त्रिधा समभवद्रेतः कमलेऽथ स्थले जले ।

अरविन्दे वसिष्ठस्तु जातः स मुनिसत्तमः ।

स्थले त्वगस्त्यः सम्भूतो जले मत्स्यो महाद्युतिः ॥३५॥

स तत्र जातो मतिमान् वसिष्ठः

कुम्भे त्वगस्त्यः सलिलेऽथ मत्स्यः ।

स्थानत्रये तत्पतितं समानं

मित्रस्य यस्माद्वरुणस्य रेतः ॥३६॥

एतस्मिन्नेव काले तु गता सा उर्वशी दिवम् ।

उपेत्य तानृषीन् देवौ गतौ भूयः स्वमाश्रमम् ।

यमावपि तु तप्येते पुनरुग्रं परं तपः ॥३७॥

'वसिष्ठ ! तुम मित्रावरुण के पुत्र होगोगे' - इस प्रकार विश्वेदेवों ने (निमि के शुक्र में) आकर कहा था तथा ब्रह्मजी का भी यही कथन था; अतएव मित्रावरुण के तीन स्थानों पर गिरे हुए वीर्य में से जो भाग कमल पर गिरा था, उसी से वसिष्ठजी हुए । उन दोनों देवताओं का वीर्य तीन भागों में विभक्त होकर कमल, जल और स्थल पर (घड़े में) गिरा । कमल पर गिरे हुए वीर्य से मुनिवर वसिष्ठ उत्पन्न हुए, स्थल पर गिरे हुए रेतस से अगस्त्य और जल में गिरे हुए शुक्र से अत्यन्त कान्तिमान् मत्स्य की उत्पत्ति हुई । इस तरह उस कमल पर बुद्धिमान् वसिष्ठ, कुम्भ में अगस्त्य और जल में मत्स्य का आविर्भाव हुआ; क्योंकि मित्रावरुण का वीर्य तीनों स्थानों पर बराबर गिरा था । इसी समय उर्वशी स्वर्गलोक में चली गयी । वसिष्ठ और अगस्त्य- इन दोनों ऋषियों को साथ लेकर वे दोनों देवता पुनः अपने आश्रम में लौट आये और पुनः उन दोनों ने अत्यन्त उग्र तप आरम्भ किया ॥३४ - ३७ ॥

तपसा प्राप्तुकामौ तौ परं ज्योतिः सनातनम् ।

तपस्यन्तौ सुरश्रेष्ठौ ब्रह्माऽऽगत्येदमब्रवीत् ॥३८॥

मित्रावरुणकौ देवौ पुत्रवन्तौ महाद्युती ।

सिद्धिर्भविष्यति यथा युवयोर्वैष्णवी पुनः ॥३९॥

स्वाधिकारेण स्थीयेतामधुना लोकसाक्षिकौ ।

इत्युक्त्वान्तर्दधे ब्रह्मा तौ स्थितौ स्वाधिकारकौ ॥४०॥

तपस्या के द्वारा सनातन परम ज्योति (ब्रह्मधाम) - को प्राप्त करने की इच्छावाले उन दोनों तपस्वी देवेश्वरों से ब्रह्माजी ने आकर यह कहा - 'महान् कान्तिमान् और पुत्रवान् मित्र तथा वरुण देवताओ ! तुम दोनों को पुनः वैष्णवी सिद्धि प्राप्त होगी । इस समय संसार के साक्षीरुप से तुम लोग अपने अधिकार पर स्थित हो जाओ ।' यों कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और वे दोनों देवता अपने अधिकृत पद पर स्थित हुए ॥३८ - ४०॥

एवं ते कथितं विप्र वसिष्ठस्य महात्मनः ।

मित्रावरुणपुत्रत्वमगस्त्यस्य च धीमतः ॥४१॥

इदं पुंसीयमाख्यानं वारुणं पापनाशनम् ।

पुत्रकामास्तु ये केचिच्छृण्वन्तीदं शुचिव्रताः ।

अचिरादेव पुत्रांस्ते लभन्ते नात्र संशयः ॥४२॥

यश्चैतत्पठते नित्यं हव्यकव्ये द्विजोत्तमः ।

देवाश्च पितरस्तस्य तृप्ता यान्ति परं सुखम् ॥४३॥

यश्चैतच्छृणुयान्नित्यं प्रातरुत्थाय मानवः ।

नन्दते स सुखं भूमौ विष्णुलोकं स गच्छति ॥४४॥

इत्येतदाख्यानमिदं मयेरितं पुरातनं वेदविदैरुदीरितम् ।

पठिष्यते यस्तु श्रृणोति सर्वदा स याति शुद्धो हरिलोकञ्जसा ॥४५॥

ब्राह्मण ! इस प्रकार महात्मा वसिष्ठजी और बुद्धिमान् अगस्त्यजी जिस तरह मित्रावरुण के पुत्र हुए थे, वह सब प्रसङ्ग मैंने आपसे कह दिया । यह वरुणदेवता- सम्बन्धी पुंसनाख्यान पाप नष्ट करनेवाला है । जो लोग पुत्र की कामना से शुद्ध व्रत का आचरण करते हुए इसका श्रवण करते हैं, वे शीघ्र ही नेक पुत्र प्राप्त करते हैं - इसमें संदेह नहीं है । जो उत्तम ब्राह्मण हव्य (देवयाग) और कव्य (पितृयाग) - में इसका पाठ करता है, उसके देवता तथा पितर तृप्त होकर अत्यन्त सुख प्राप्त करते हैं । जो वह पृथ्वी पर सुखपूर्वक प्रसन्नता के साथ रहता है और फिर विष्णुलोक को प्राप्त करता है । वेदवेत्ताओं के द्वारा प्रतिपादित इस पुरातन उपाख्यान को, जिसे मैंने कहा है, जो लोग सादर पढ़ेंगे और सुनेंगे, वे शुद्ध होकर अनायास ही विष्णुलोक को प्राप्त कर लेंगे ॥४१ - ४५॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे पुंसवनाख्यानं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'पुंसवन' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥६॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 7

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