नरसिंहपुराण अध्याय ५

नरसिंहपुराण अध्याय ५

नरसिंहपुराण अध्याय ५ में रुद्र आदि सर्गों और अनुसर्गों का वर्णन तथा दक्ष प्रजापति के कन्याओं का संतति विस्तार का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय ५

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ५

Narasingha puran chapter 5

नरसिंह पुराण पांचवां अध्याय   

नरसिंहपुराण अध्याय ५ 

श्रीनरसिंहपुराण पञ्चमोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

भरद्वाज उवाच

रुद्रसर्गं तु मे ब्रूहि विस्तरेण महामते ।

पुनः सर्वे मरीच्याद्याः ससृजुस्ते कथं पुनः ॥१॥

मित्रावरुणपुत्रत्वं वसिष्ठस्य कथं भवेत् ।

ब्रह्मणो मनसः पूर्वमुत्पन्नस्य महामते ॥२॥

श्रीभरद्वाजजी बोले - महामते ! अब मुझसे ' रुद्रसर्ग ' का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि मरीचि आदि ऋषियोंने पहले किस प्रकार सृष्टि की ? महाबुद्धिमान् सूत ! वसिष्ठजी तो पहले ब्रह्माजीके मनसे उत्पन्न हुए थे; फिर वे मित्रवारुणके पुत्र कैंसे हो गये ? ॥१ - २॥

सूत उवाच

रुद्रसृष्टिं प्रवक्ष्यामि तत्सर्गाश्चैव सत्तम ।

प्रतिसर्गं मुनीतां तु विस्तराद्वदतः श्रृणु ॥३॥

कल्पादावात्मनस्तुल्यं सुतं प्रध्यायतसतः ।

प्रादुरासीत् प्रभोरङ्के कुमारो नीललोहितः ॥४॥

अर्धनारीनरवपुः प्रचण्डोऽतिशरीरवान् ।

तेजसा भासयन् सर्वा दिशश्च प्रदिशश्च सः ॥५॥

तं दृष्ट्वा तेजसा दीप्तं प्रत्युवाच प्रजापतिः ।

विभजात्मानमद्य त्वं मम वाक्यान्महामते ॥६॥

इत्युक्तो ब्रह्मणा विप्र रुद्तस्तेन प्रतापवान् ।

स्त्रीभावं पुरुषत्वं च पृथक् पृथगथाकरोत् ॥७॥

बिभेद पुरुषत्वं च दशधा चैकधा च सः ।

तेषां नामानि वक्ष्यामि श्रृणु मे द्विजसत्तम ॥८॥

अजैकपादहिर्बुध्न्यः कपाली रुद्र एव च ।

हरश्च बहुरुपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः ॥९॥

वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रैवतस्तथा ।

एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः ॥१०॥

स्त्रीत्वं चैव तथा रुद्रो बिभेद दशधैकधा ।

उमैव बहुरुपेण पत्नी सैव व्यवस्थिता ॥११॥

सूतजी बोले - साधुशिरोमणे ! आपके प्रश्नानुसार मैं अब रुद्र - सृष्टिका तथा उसमें होनेवाले सर्गोका वर्णन करुँगा, साथ ही मुनियोंद्वारा सम्पादित प्रतिसर्ग ( अनुसर्ग ) - को भी मैं विस्तारके साथ बताऊँगा; आपलोग ध्यानसे सुनें। कल्पके आदिमें प्रभु ब्रह्माजी अपने ही समान शक्तिशाली पुत्र होनेका चिन्तन कर रहे थे । उस समय उनकी गोदमें एक नीललोहित वर्णका बालक प्रकट हुआ । उसका आधा शरीर स्त्रीका और आधा पुरुषका था । वह प्रचण्ड एवं विशालकाय था और अपने तेजसे दिशाओं तथा अवान्तर दिशाओंको प्रकाशित कर रहा था । उसे तेजसे देदीप्यमान देख प्रजापतिने कहा - ' महामते ! इस समय मेरे कहनेसे तुम अपने शरीरके दो भाग कर लो । ' विप्र ! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी रुद्रने अपने स्त्रीरुप और पुरुषरुपको उन्होंनें ग्यारह स्वरुपोंमें विभक्त किया; मैं उन सबके नाम बतलाता हूँ, सुनें । अजैकपात, अहिर्बुन्ध, कपाली, हर, बहुरुप, त्र्यम्बक, अपाराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी और रैवत - ये ' ग्यारह रुद्र ' कहे गये हैं, जो तीनोम भुवनेकि स्वामी हैं । पुरुषकी भाँति स्त्रीरुपके भी रुद्रने ग्यारह विभाग किये । भगवती उमा ही अनेक रुप धारण कर इन सबकी पत्नी हैं ॥३ - ११॥

तपः कृत्वा जले घोरमुत्तीर्णः स यदा पुरा ।

तदा स सृष्टवान् देवो रुद्रस्तत्र प्रतापवान् ॥१२॥

तपबलेन विप्रेन्द्र भूतानि विविधानि च ।

पिशाचान् राक्षसांश्चैव सिंहोष्टमकराननान् ॥१३॥

वेतालप्रमुखान् भूतानन्यांश्चैव सहस्रशः ।

विनायकानामुग्राणां त्रिंशत्कोट्यर्धमेव च ॥१४॥

अन्यकार्यं समुद्दिश्य सृष्टवान् स्कन्दमेव च ।

एवं प्रकारो रुद्रोऽसौ मया ते कीर्तितः प्रभुः ॥१५॥

विप्रेन्द ! पूर्वकालमें प्रतापी रुद्रदेव जलमें घोर तपस्या करके जब चाहर निकले, तब अपेने तपोबलसे उन्होंने वहाँ नाना प्रकारके भूतोंकी सृष्टि की । सिंह, ऊँट और मगरके समान मुँहवाले पिशाचों, राक्षसों तथा वेताल आदि अन्य सहस्त्रों भूतोंको उत्पन्न किया । साढ़े तीस करोड उग्र स्वभाववाले विनायकगणोंकी सृष्टि की तथा दूसरे कार्यके उद्देश्यसे स्कन्दकरो किया । इस प्रकार भगवान् रुद्र तत्था उनके सर्गका मैंने आपसे वर्णन किया ॥१२ - १५॥

अनुसर्गं मरीच्यादेः कथयामि निबोध मे ।

देवादिस्थावरान्ताश्च प्रजाः सृष्टाः स्वयम्भुवा ॥१६॥

यदास्य च प्रजाः सर्वा न व्यवर्धन्त धीमतः ।

तदा मानसपुत्रान् स सदृशानात्मनोऽसृजत् ॥१७॥

मरीचिमत्र्यङ्गिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।

प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं चैव महामतिम् ॥१८॥

नव ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ।

अग्निश्च पितरश्चैव ब्रह्मपुत्रौ तु मानसौ ॥१९॥

सृष्टिकाले महाभागौ ब्रह्मन् स्वायम्भुवोद्गतौ ।

शतरुपां च सृष्ट्वा तु कन्यां स मनवे ददौ ॥२०॥

अब मरीचि आदि ऋषियोंके अनुसर्गका वर्णन करता हूँ, आप सुनें । स्वयम्भू ब्रह्माजीने देवताओंसे लेकर स्थावरोंतक सारी प्रजाओंकी सृष्टि की । किंतु इन बुद्धिमान् ब्रह्माजीकी ये सब प्रजाएँ जब वृद्धिको प्राप्त नहीं हुईं, तब इन्होंने अपने ही समान मानस - पुत्रोंकी सृष्टि की । मरीचि अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ और महाबुद्धिमान् भृगुको उत्पन्न किया । ये लोग पुराणमें नौ ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं । ब्रह्मन् ! अग्नि और पितर भी ब्रह्माके ही मानस - पुत्र हैं । इन दोनों महाभागोंको सृष्टिकालमें स्वयम्भू ब्रह्मजीने उत्पन्न किया । फिर उन्होंने ' शतरुपा ' नामक कन्याकी सृष्टि करके उसे मनुको दे दिया ॥१६ - २०॥

तस्माच्च पुरुषाद्देवी शतरुपा व्यजायत ।

प्रियव्रतोत्तानपादौ प्रसूतिं चैव कन्यकाम् ॥२१॥

ददौ प्रसूतिं दक्षाय मनुः स्वायम्भुवः सुताम् ।

प्रसूत्यां च तदा दक्षश्चतुर्विशतिकं तथा ॥२२॥

ससर्ज कन्यकास्तासां श्रृणु नामानि मेऽधुना ।

श्रद्धा लक्ष्मीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिर्मेधा तथा क्रिया ॥२३॥

बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदशी ।

अपत्यार्थं प्रजग्राह धर्मो दाक्षायणीः प्रभुः ॥२४॥

श्रद्धादीनां तु पत्नीनां जाताः कामादयः सुताः ।

धर्मस्य पुत्रपौत्राद्यैर्थर्मवंशो विवर्धितः ॥२५॥

उन स्वायम्भुव मनुसे देवी शतरुपाने ' प्रियव्रत ' और ' उत्तानपाद ' नामक दो पुत्र उत्पन्न किये और ' प्रसूति ' नामवाली एक कन्याको जन्म दिया । स्वायम्भुव मनुने अपनी कन्या प्रसूति दक्षको ब्याह दी । दक्षने प्रसूतिसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न कीं । अब मुझसे उन कन्याओंके नाम सुनें - श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति थी । भगवान् धर्मने संतानोत्पत्तिके लिये इन ते ह कन्याओंका पाणिग्रहण किया । धर्मकी इन श्रद्धा आदि पत्नियोंके गर्भसे काम आदि पुत्र उत्पन्न हुए । अपने पुत्र और पौत्र आदिसे धर्मका वंश खूब बढ़ा ॥२१ - २५॥

ताभ्यः शिष्टा यवीयस्यस्तासां नामानि कीर्तये ।

सम्भूतिश्चाथ च स्मृतिः प्रीतिः क्षमा तथा ॥२६॥

संनतिश्चाथ सत्या च ऊर्जा ख्यातिर्द्विजोत्तम ।

तद्वत्पुत्रौ महाभागौ मातरिश्चाथ सत्यवान् ॥२७॥

स्वाहाथ दशमी ज्ञेया स्वधा चैकादशी स्मृता ।

एताश्च दत्ता दक्षेण ऋषीणां भावितात्मनाम् ॥२८॥

द्विजश्रेष्ठ ! श्रद्धा आदिसे छोटी अवस्थावाली जो उनकी शेष बहनें थीं, उनके नाम बता रहा हूँ - सम्भूति, अनसूया, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, सत्या, ऊर्जा, ख्याति, दसवीं स्वाहा और ग्यारहवीं स्वधा है । दक्षके ' मातरिश्चा ' और ' सत्यवान् ' नामक दो महाभाग पुत्र भी हुए । उपर्युक्त ग्यारह कन्याओंको दक्षने पुण्यात्मा ऋषियोंको दिया ॥२६ - २८॥

मरीच्यादीनां तु ये पुत्रास्तानहं कथयामि ते ।

पत्नी मरीचेः सम्भूतिर्जज्ञे सा कश्यपं मुनिम् ॥२९॥

स्मृतिश्चाङ्गिरसः पत्नी प्रसूता कन्यकास्तथा ।

सिनीवाली कुहूश्चैव राका चानुमतिस्तथा ॥३०॥

अनसूया तथा चात्रेर्जज्ञे पुत्रानकल्मषान् ।

सोमं दुर्वाससं चैव दत्तात्रेयं च योगिनम् ॥३१॥

योऽसावग्रेरभीमानी ब्रह्मणस्तनयोऽग्रजः ।

तस्मात् स्वाहा सुताँल्लेभे त्रीनुदारौजसो द्विज ॥३२॥

पावकं पवमानं च शुचिं चापि जलाशिनम् ।

तेषां तु संततावन्ये चत्वारिंशच्च पञ्च च ॥३३॥

कथ्यन्ते वहयश्चैते पिता पुत्रत्रयं च यत् ।

एवमेकोनपञ्चाशद्वहयः परिकीर्तिताः ॥३४॥

पितरो ब्रह्मणा सृष्टा व्याख्याता ये मया तव ।

तेभ्यः स्वधा सुते जज्ञे मेनां वै धारिणीं तथा ॥३५॥

मरीचि आदि मुनियोंके जो पुत्र हुए, उन्हें मैं आपसे बतलाता हूँ । मरीचिकी पत्नी सम्भूति थी । उसने कश्यप मुनिको जन्म दिया । अङ्गिराकी भार्या स्मृति थी । उसने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति - इन चार कन्याओंको उत्पन्न किया । इसी प्रकार अत्रि मुनिकी पत्नी अनसूयाने सोम, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय - इन तीन पापरहित पुत्रोंको जन्म दिया । द्विज ! ब्रह्माजीका ज्येष्ठ पुत्र, जो अग्निका अभिमानी देवता है, उससे उसकी पत्नी स्वाहाने पावक, पवमान और जलका भक्षण करनेवाले शुचिइन अत्यन्त तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया । इन तीनोंके ( प्रत्येकके पंद्रह - पंद्रहके क्रमसे ) अन्य पैंतालीस अग्निस्वरुप संतानें हुईं । पिता अग्नि, उसके तीनों पुत्र तथा उनके भी ये पूर्वोक्त पैतालीस पुत्र सब मिलकर ' अग्नि ' ही कहलाते हैं । इस प्रकार उनचास अग्नि कहे गये हैं। ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये जिन पितरोंका मैंने आपके समक्ष वर्णन किया था, उनसे उनकी पत्नी स्वधाने मेना और धारिणी - इन दो कन्याओंको जन्म दिया ॥२९ - ३५॥

प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्व दक्षः स्वयम्भुवा ।

यथा ससर्ज भूतानि तथा मे श्रृणु सत्तम ॥३६॥

मनसैव हि भूतानि पूर्वं दक्षोऽसृजन्मुनिः ।

देवानृषींश्च गन्धर्वानसुरान् पन्नगांस्तथा ॥३७॥

यदास्य मनसा जाता नाभ्यवर्धन्त ते द्विज ।

तदा संचिन्त्य स मुनिः सृष्टिहेतोः प्रजापतिः ॥३८॥

मैथुनेनैव धर्मेण सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।

असिक्नीमुद्वहन् कन्यां वीरणस्य प्रजापतेः ॥३९॥

षष्टिं दक्षोऽसृजत् कन्या वीरण्यामिति नः श्रुतम् ।

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ॥४०॥

सप्तविंशति सोमाय चतस्त्रोऽरिष्टनेमिने ।

द्वे चैव बहुपुत्राय द्वे चैवाङ्गिरसे तथा ॥४१॥

द्वे कृशाश्चाय विदुषे तदपत्यानि मे श्रृणु ।

साधुशिरोमणे ! पूर्वकालमें स्वयम्भू ब्रह्मजीके द्वारा ' तुम प्रजाकी सृष्टि करो ' यह आज्ञा पाकर दक्षने जिस प्रकार सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि की थी, उसे सुनिये । विप्रवर ! दक्षमुनिने पहले देवता, ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प - इन सभी भूतोंको मनसे ही उत्पन्न किया । परंतु जब मनसे उत्पन्न किये हुए ये देवादि सर्ग वृद्धिको प्राप्त नहीं हुए, तब उन दक्ष प्रजापति ऋषिने सृष्टिके लिये पूर्णतः विचार करके मैथुनधर्मके द्वारा ही नाना प्रकारकी सृष्टि रचनेकी इच्छा मनमें लिये वीरण प्रजापतिकी कन्या असिक्नीके साथ विवाह किया । हमने सुना है कि दक्ष प्रजापतिने वीरण - कन्या असिक्नीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं । उनमेंसे दस कन्याएँ उन्होंने धर्मको और तेरह कश्यप मुनिको ब्याह दीं । फिर सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको, चार अरिष्टनेमिको, दो बहुपुत्रको, दो अङ्गिराको और दो कन्याएँ विद्वान् कृशाश्चको समर्पित कर दीं । अब इन सबकी संतानोंका वर्णन सुनिये ॥३६ - ४११/२॥

विश्वेदेवांस्तु विश्वा या साध्या साध्यानसूयत ॥४२॥

मरुत्वत्यां मरुत्वन्तो वसोस्तु वसवः स्मृताः ।

भानोस्तु भानवो देवा मुहूर्तायां मुहूर्तजाः ॥४३॥

लम्बायाश्चैव घोषाख्यो नागवीथिश्च जामिजा ।

पृथिवीविषयं सर्वमरुन्धत्यामजायत ॥४४॥

संकल्पायाश्च संकल्पः पुत्रो जज्ञे महामते ।

ये त्वनेकवसुप्राणा देवा ज्योतिः पुरोगमाः ॥४५॥

वसवोऽष्टौ समाख्यातास्तेषां नामानि मे श्रृणु ।

आपो ध्रुवश्च सोमश्च धर्मश्चैवानिलोऽनलः ॥४६॥

प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥४७॥

जो विश्वा नामकी कन्या थी, उसने विश्वेदेवोंको और साध्याने साध्योंको जन्म दिया । मरुत्वतीके मरुत्वान् (वायु), वसुके वसुगण, भानुके भानुदेवता और मुहूर्तके मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए । लम्बासे घोष नामक पुत्र हुआ, जामिस्से नागवीथि नामवाली कन्या हुई और अरुन्धतीसे पृथिवीके समस्त प्राणी उत्पन्न हुए । महाबुद्धे ! संकल्पा नामक कन्यासे संकल्पका जन्म हुआ, अनेक प्रकारके वसु ( तेज अथवा धन ) ही जिनके प्राण हैं, ऐसे जो आठ ज्योतिर्मय वसु देवता कहे गये हैं, उनके नाम सुनिये - आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास - ये ' आठ वसु ' कहलाते हैं । इनके पुत्रों और पौत्रोंकी संख्या सैकड़ों और हजारोंतक पहुँच गयी हैं ॥४२ - ४७॥

साध्याश्च बहवः प्रोक्तास्तत्पुत्राश्च सहस्त्रशः ।

कश्यपस्य तु भार्या यास्तासां नामानि मे श्रृणु ।

अदितिर्दितिर्दनुश्चैव अरिष्टा सुरसा खसा ॥४८॥

सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा ।

कद्रूर्मुनिश्च धर्मज्ञ तदपत्यानि मे श्रृणु ॥४९॥

अदित्यां कश्यपाज्जाताः पुत्रा द्वादश शोभनाः ।

तानहं नामतो वक्ष्ये श्रृणुष्व गदतो मम ॥५०॥

भगोऽशुश्चार्यमा चैव मित्रोऽथ वरुणस्तथा ।

सविता चैव धाता च विवस्वांश्च महामते ॥५१॥

त्वष्टा पूषा तथा चेन्द्रो द्वादशो विष्णुरुच्यते ।

दित्याः पुत्रद्वयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम् ॥५२॥

हिरण्याक्षो महाकायो वाराहेण तु यो हतः ।

हिरण्यकशिपुश्चैव नरसिंहेन यो हतः ॥५३॥

अन्ये च बहवो दैत्या दनुपुत्राश्च दानवाः ।

अरिष्टायां तु गन्धर्वा जज्ञिरे कश्यपात्तथा ॥५४॥

सुरसायामथोत्पन्ना विद्याधरगणा बहु ।

गा वै स जनयामास सुरभ्यां कश्यपो मुनिः ॥५५॥

इसी प्रकार साध्यगणोंकी भी संख्या बहुत है और उनके भी हजारों पुत्र हैं । जो ( दक्ष - कन्याएँ ) कश्यप मुनिकी पत्नियाँ हुए, उनके नाम सुनिये - वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू और मुनि थीं । धर्मज्ञ ! अब आप मुझसे उनकी संतानोंका विवरण सुनिये । महामते ! अदितिके कश्यपजीसे बाराह सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए । उनके नाम बता रहा हूँ, सुनिये - महामते ! भग, अंशु, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान्, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं । दितिके कश्यपजीसे दो पुत्र हुए थे, ऐसा हमने सुना है। पहला महाकाय हिरण्याक्ष हुआ, जिसे भगवान् वाराहने मारा और दूसरा हिरण्यकशिपु हुआ, जो नृसिंहजीके द्वारा मारा गया । इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत - से दैत्य दितिसे उत्पन्न हुए । दनुके पुत्र दानव हुए और अरिष्टाके कश्यपजीसे गन्धर्वगण उत्पन्न हुए । सुरसाचे अनेक विद्याधरगण हुए और सुरभिसे कश्यप मुनिने गौओंको जन्म दिया ॥४८ - ५५॥

विनतायां तु द्वौ पुत्रौ प्रख्यातौ गरुडारुणौ ।

गुरुडो देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः ॥५६॥

वाहनत्वमियात्प्रीत्या अरुणः सूर्यसारथिः ।

ताम्रायां कश्यपाज्जाताः षटपुत्रास्तान्निबोध मे ॥५७॥

अश्वा उष्ट्रा गर्दभाश्च हस्तिनो गवया मृगाः ।

क्रोधायां जज्ञिरे तद्वद्ये भूम्यां दुष्टजातयः ॥५८॥

इरा वृक्षलतावल्लीशणजातीश्च जज्ञिरे ।

खसा तु यक्षरक्षांसि मुनिरप्सरसस्तथा ॥५९॥

कद्रूपुत्रा महानागा दंदशूका विषोल्बणाः ।

सप्तविंशति याः प्रोक्ताः सोमपल्योऽथ सुव्रताः ॥६०॥

तासां पुत्रा महासत्त्वा बुधाद्यास्त्वभवन् द्विज ।

अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह षोडश ॥६१॥

विनताके ' गरुड ' और ' अरुण ' नामक दो विख्यात पुत्र हुए । गरुडजी प्रेमवश अमित - तेजस्वी देवदेव भगवान् विष्णुके वाहन हो गये और अरुण सूर्यके सारथि बने । ताम्राके कश्यपजीसे छः पुत्र हुए, उन्हें आप मुझसे सुनिये - घोड़ा, ऊँट, गदहा, हाथी, गवय और मृग । पृथ्वीपर जितने दुष्ट जीव है, वे क्रोधासे उत्पन्न हुए हैं । इराने वृक्ष, लता, वल्ली और ' सन ' जातिके तृणवर्गको जन्म दिया । खसाने यक्ष और राक्षसों तथा मुनिने अप्सराओंको प्रकट किया । कद्रूके पुत्र प्रचण्ड विषवाले ' दंदशूक ' नामक महासर्प हुए । विप्रवर ! चन्द्रमाकी सुन्दर व्रतवाली जिन सत्ताईस स्त्रियोंकी चर्चा की गयी हैं, उनसे बुध आदि महान् पराक्रमी पुत्र हुए । अरिष्टनेमिकी स्त्रियोंके गर्भसे सोलह संतानें हुई ॥५६ - ६१॥

बहुपुत्रस्य विदुषश्चतस्रो विद्युतः स्मृताः ।

प्रत्यङ्गिरस्सुताः श्रेष्ठा ऋषयश्चर्षिसत्कृताः ॥६२॥

कृशाश्चस्य तु देवर्षेदेवाश्च ऋषयः सुताः ।

एते युगसहस्त्रान्ते जायन्ते पुनरेव हि ॥६३॥

एते कश्यपदायादाः कीर्तिताः स्थाणुजंगमाः ।

स्थितौ स्थितस्य देवस्य नरसिंहस्य धर्मतः ॥६४॥

एता विभूतयो विप्र मया ते परिकीर्तिताः ।

कथिता दक्षकन्यानां मया तेऽपत्यसंततिः ॥६५॥

श्रद्धावान् संस्मरेदेतां स सुसंतानवान् भवेत् ॥६६॥

सर्गानुसर्गी कथितौ मया ते

समासतः सृष्टिविवृद्धिहेतोः ।

पठन्ति ये विष्णुपराः सदा नरा

इदं द्विजास्ते विमला भवन्ति ॥६७॥

विद्वान बहुपुत्रकी संतानें कपिला, अतिलोहिता, पीता और सिता - इन चार वर्णोवाली चार बिजलियाँ कही गयी हैं । प्रत्यङ्गिराके पुत्रगण ऋषियोंद्वारा सम्मानित उत्तम ऋषि हुए । देवर्षि कृशाश्चके पुत्र देवर्षि ही हुए । ये एक - एक हजार युग ( अर्थात् एक कल्प ) - के बीतनेपर पुनः - पुनः उत्पन्न होते रहते हैं । इस प्रकार कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुए चर - अचर प्राणियोंका वर्णन किया गया । विप्रवर ! धर्मपूर्वक पालनकर्ममें लगे हुए भगवान् नरसिंहकी इन विभूतियोंका यहाँ मैंने आपके समक्ष वर्णन किया है । साथ ही दक्षकन्याओंकी वंश - परम्परा भी बतलायी है । जो श्रद्धापूर्वक इन सबका स्मरण करता है, वह सुन्दर संतानसे युक्त होता है । ब्रह्मन ! सृष्टि - विस्तारके लिये ब्रह्मा तथा अन्य प्रजापतियोंद्वारा जो सर्ग और अनुसर्ग सम्पादित हुए, उन सबको मैंने संक्षेपसे आपको बता दिया । जो द्विजाति मानव भगवान् विष्णुमें मन लगाकर इन प्रसङ्गोंको सदा पढेंगें वे निर्मल हो जायँगे ॥६२ - ६७॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे सृष्टिकथने पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें पाँचवाँ अध्याय पुरा हुआ ॥५॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 6

0 Comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box