नरसिंहपुराण अध्याय ९

नरसिंहपुराण अध्याय ९

नरसिंहपुराण अध्याय ९ में यमाष्टक- यमराज का अपने दूत के प्रति उपदेश का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय ९

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ९

Narasingha puran chapter 9

नरसिंह पुराण नवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय ९ 

श्रीनरसिंहपुराण नवमोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

श्रीव्यास उवाच

स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं वदति यमः किल तस्य कर्णमूले ।

परिहर मधुसूदनप्रपन्नान् प्रभुरहमन्यनृणां न वैष्णवानाम् ॥१॥

अहममरगणार्चितेन धात्रा यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः ।

हरिगुरुविमुखान् प्रशास्मि मर्त्यान् हरिचरणप्रणतान्नमस्करोमि ॥२॥

सुगतिमभिलषामि वासुदेवादहमपि भागवते स्थितान्तरात्मा ।

मधुवधवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः प्रभवति संयमने ममापि कृष्णः ॥३॥

भगवति विमुखस्य नास्ति सिद्धिर्विषममृतं भवतीति नेदमस्ति ।

वर्षशतमपीह पच्यमानं व्रजति न काञ्चनतामयः कदाचित् ॥४॥

नहि शशिकलुषच्छविः कदाचिदविरमति नो रवितामुपैति चन्द्रः ।

भगवति च हरावनन्यचेता भृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः ॥५॥

महदपि सुविचार्य लोकतत्त्वं भगवदुपास्तिमृते न सिद्धिरस्ति ।

सुरगुरुसुदृढप्रसाददौ तौ हरिचरणौ स्मरतापवर्गहेतोः ॥६॥

शुभमिदमुपलभ्य मानुषत्वं सुकृतशतेन वृथेन्द्रियार्थहेतोः ।

रमयति कुरुते न मोक्षमार्ग दहयाति चन्दनमाशु भस्महेतोः ॥७॥

मुकुलितकरकुडमलैः सुरेन्द्रैः सततनमस्कृतपादपङ्कजो यः ।

अविहतगतये सनातनाय जगति जनिं हरते नमोऽग्रजाय ॥८॥

श्रीव्यासजी बोले - अपने किंकरको हाथमें पाश लिये कहीं जानेको उद्यत देखकर यमराज उसके कानमें कहते हैं - ''दूत ! तुम भगवान् मधुसूदनकी शरणमें गये हुए प्राणियोंको छोड़ देना; क्योंकि मेरी प्रभूता दूसरे मनुष्योंपर ही चलती है, वैष्णवोंपर मेरा प्रभुत्व नहीं हैं । देवपूजित ब्रह्माजीने मुझे ' यम ' कहकर लोगोंके पुण्यपापका विचार करनेके लिये नियुक्त किया है । जो विष्णु और गुरुसे विमुख हैं, मैं उन्हीं मनुष्योंका शासन करता हूँ । जो श्रीहरिके चरणोंमें शीश झुकानेवाले हैं, उन्हें तो मैं स्वयं ही प्रणाम करता हूँ । भगवद्भक्तोंके चिन्तन एवं स्मरणमें अपना मन लगाकर मैं भी भगवान् वासुदेवसे अपनी सुगति चाहता हूँ । मैं मधुसूदनके वशमें हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ । भगवान् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करनेमें समर्थ हैं । जो भगवानसे विमुख है, उसे कभी सिद्धि ( मुक्ति ) नहीं प्राप्त हो सकती; विष अमृत हो जाय, ऐसा कभी सम्भव नहीं हैं; लोहा सैकड़ों वर्षोंतक आगमें तपाया जाय, तो भी कभी सोना नहीं हो सकता; चन्द्रमाकी कलङ्कित कान्ति कभी निष्कलङ्क नहीं हो सकती; वह कभी सूर्यके समान प्रकाशमान नहीं हो सकता; परंतु जो अनन्यचित्त होकर भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा है, वह मनुष्य अपने शरीरसे अत्यन्त मलिन होनेपर भी बड़ी शोभा पाता है । महान् लोकतत्त्वका अच्छी तरह विचार करनेपर भी यही निश्चित होता है कि भगवानकी उपासनाके बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती; इसलिये देवगुरु बृहस्पतिके ऊपर सुदृढ अनुकम्पा करनेवाले भगवच्चरणोंका तुमलोग मोक्षके लिये स्मरण करते रहो । जो लोग सैकड़ों पुण्योंके फलस्वरुप इस सुन्दर मनुष्य - शरीरको पाकर भी व्यर्थ विषयसुखोंमें रमण करते हैं, मोक्षपथका अनुसरण नहीं करते, वे मानो राखके लिये जल्दी - जल्दी चन्दनकी लकड़ीको फूँक रहे हैं । बड़े - बड़े देवेश्वर हाथ जोड़कर मुकुलित कर पङ्कज - कोषद्वारा जिन भगवानके चरणारविन्दोंको प्रणाम करते हैं तथा जिनकी गति कभी और कहीं भी प्रतिहत नहीं होती , उन भवजन्मनाशक एवं सबके अग्रज सनातन पुरुष भगवान् विष्णुको नमस्कार है'' ॥१ - ८॥

यमाष्टकमिदं पुण्यं पठते यः श्रृणोति वा ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥९॥

इतीदमुक्तं यमवाक्यमुत्तमं मयाधुना ते हरिभक्तिवर्द्धनम् ।

पुनः प्रवक्ष्यामि पुरातनीं कथां भृगोस्तु पौत्रेण च या पुरा कृता ॥१०॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - इस पवित्र यमाष्टक को जो पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोक को चला जाता है । भगवान् विष्णु की भक्तिको बढ़ानेवाला यमराज का यह उत्तम वचन मैंने इस समय तुमसे कहा हैं; अब पुनः उसी पुरानी कथा को अर्थात् भृगु के पौत्र मार्कण्डेयजी ने पूर्वकाल में जो कुच किया था, उसको कहूँगा ॥९ - १०॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे यमाष्टकनाम नवमोऽध्यायः ॥९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'यमाष्टक नाम' नवाँ पूरा हुआ ॥९॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 10 

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