श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०  

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०  

"भागवत के दस लक्षण"

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः १०

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः दशम अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध दसवाँ अध्याय

द्वितीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण       

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:

श्रीशुक उवाच ।

(अनुष्टुप्)

अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।

मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥ १ ॥

दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।

वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥ २ ॥

भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृतः ।

ब्रह्मणो गुणवैषम्यात् विसर्गः पौरुषः स्मृतः ॥ ३ ॥

स्थितिर्वैकुण्ठविजयः पोषणं तदनुग्रहः ।

मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः ॥ ४ ॥

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।

पुंसां ईशकथाः प्रोक्ता नानाख्यान उपबृंहिताः ॥ ५ ॥

निरोधोऽस्यानुशयनं आत्मनः सह शक्तिभिः ।

मुक्तिः हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥ ॥ ६ ॥

आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।

स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७ ॥

योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसौ एवाधिदैविकः ।

यः तत्र उभय विच्छेदः स स्मृतोह्याधिभौतिकः ॥ ८ ॥

एकं एकतराभावे यदा न उपलभामहे ।

त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९ ॥

पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदाऽसौ स विनिर्गतः ।

आत्मनोऽयनमन्विच्छन् अपः अस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १० ॥

तास्ववात्सीत् स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।

तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्‍भवाः ॥ ११ ॥

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।

यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यद् उपेक्षया ॥ १२ ॥

एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थितः ।

वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥

अधिदैवं अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति प्रभुः ।

अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत तच्छृणु ॥ १४ ॥

अन्तः शरीर आकाशात् पुरुषस्य विचेष्टतः ।

ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान् असुः ॥ १५ ॥

अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।

अपानंतं अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥ १६ ॥

प्राणेन आक्षिपता क्षुत् तृड् अन्तरा जायते विभोः ।

पिपासतो जक्षतश्च प्राङ् मुखं निरभिद्यत ॥ १७ ॥

मुखतः तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र उपजायते ।

ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥

विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग् व्याहृतं तयोः ।

जले वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९ ॥

नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।

तत्र वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २० ॥

यदाऽऽत्मनि निरालोकं आत्मानं च दिदृक्षतः ।

निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिः चक्षुः गुणग्रहः ॥ २१ ॥

बोध्यमानस्य ऋषिभिः आत्मनः तत् जिघृक्षतः ।

कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः ॥ २२ ॥

वस्तुनो मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्ण शीतताम् ।

जिघृक्षतः त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां रोम महीरुहाः ।

तत्र चान्तर्बहिर्वातः त्वचा लब्धगुणो वृतः ॥ २३ ॥

हस्तौ रुरुहतुः तस्य नाना कर्म चिकीर्षया ।

तयोस्तु बलमिन्द्रश्च आदानं उभयाश्रयम् ॥ २४ ॥

गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।

पद्‍भ्यां यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥

निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्द अमृतार्थिनः ।

उपस्थ आसीत् कामानां प्रियं तद् उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥

उत्सिसृक्षोः धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।

ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७ ॥

आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारं अपानतः ।

तत्र अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥

आदित्सोः अन्नपानानां आसन् कुक्ष्यन्न नाडयः ।

नद्यः समुद्राश्च तयोः तुष्टिः पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥

निदिध्यासोः आत्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।

ततो मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३० ॥

त्वक् चर्म मांस रुधिर मेदो मज्जास्थि धातवः ।

भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥

गुणात्मकान् इंद्रियाणि भूतादि प्रभवा गुणाः ।

मनः सर्व विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥

एतद् भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।

मह्यादिभिश्च आवरणैः अष्टभिः बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥

अतः परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं निर्विशेषणम् ।

अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ् मनसः परम् ॥ ३४ ॥

अमुनी भगवद् रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते ।

उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ३५ ॥

स वाच्य वाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।

नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ३६ ॥

प्रजापतीन् मनून् देवान् ऋषीन् पितृगणान् पृथक् ।

सिद्धचारणगन्धर्वान् विद्याध्रासुर गुह्यकान् ॥ ३७ ॥

किन्नराप्सरसो नागान् सर्पान् किम्पुरुषोरगान् ।

मातृरक्षःपिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८ ॥

कूष्माण्दोन्माद वेतालान् यातुधानान् ग्रहानपि ।

खगान् मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन् नृप सरीसृपान् ॥ ३९ ॥

द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जल स्थल वनौकसः ।

कुशला-अकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः ॥ ४० ॥

सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुर-नृ-नारकाः ।

तत्राप्येकैकशो राजन् भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।

यद् एकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते ॥ ४१ ॥

स एवेदं जगद्धाता भगवान् धर्मरूपधृक् ।

पुष्णाति स्थापयन् विश्वं तिर्यङ्नरसुरादिभिः ॥ ४२ ॥

ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टं इदमात्मनः ।

सं नियच्छति तत्काले घनानीकं इवानिलः ॥ ४३ ॥

इत्थं भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः ।

न इत्थं भावेन हि परं द्रष्टुं अर्हन्ति सूरयः ॥ ४४ ॥

नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्य अनुविधीयते ।

कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ॥ ४५ ॥

अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः ।

विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ॥ ४६ ॥

परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षण विग्रहम् ।

यथा पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥

शौनक उवाच ।

यदाह नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।

चचार तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥

क्षत्तुः कौशारवेः तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।

यद्वा स भगवान् तस्मै पृष्टः तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥

ब्रूहि नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।

बन्धुत्याग निमित्तं च यथैव आगतवान् पुनः ॥ ५० ॥

सूत उवाच ।

राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत् महामुनिः ।

तद्वोऽभिधास्ये श्रृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वितीयस्कंधे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध दशम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रयइन दस विषयों का वर्णन है । इसमें जो दसवाँ आश्रय-तत्व है, उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिये कहीं श्रुति से, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से महात्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है । ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पंचभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महतत्व की उत्पत्ति होती है, उसो सर्गकहते हैं। उस विराट् पुरुष से उत्पन्न ब्रम्हाजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम विसर्ग। प्रतिपद नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम स्थानहै। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तो के ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है पोषण। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजापालन रूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे मन्वन्तरकहते हैं। जीवों की वे वासनाएँ, जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊतिनाम से कही जाती हैं ।

भगवान् के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ईश्कथाहैं । जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना निरोधहै। अज्ञान कल्पित कार्तृत्व, भोगतृत्व आदि अनात्म भाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा में स्थित होना ही मुक्तिहै ।

परीक्षित्! इस चराचर जगत् की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रम्ह ही आश्रयहै। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है । जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सूर्य आदि के रूप में भी हैं और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है । इन तीनों में यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान आश्रयतत्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं । जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रम्हाण्ड को फोड़कर निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-संकल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की । विराट् पुरुष रूप नरसे उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम नारपड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए नारमें वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा, इसी से उसका नाम नारायणहुआ । उन नारायण भगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता । उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रम्हाण्ड के बीज स्वरुप सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दियाअधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत।

परीक्षित्! विराट् पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो । विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहने वाले आकाश से इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ।

जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सबके शरीरों में प्राण के प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं। जब प्राण जोर-जोर से आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुष को भूख-प्यास अनुभव हुआ। खाने-पीने की इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ। मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार के रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है। जब उनकी इच्छा बोलने की हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि और उसका विषय बोलनाये तीनों प्रकट हुए।

इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में ही वे रुके रहे। श्वास के वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलाने वाले वायुदेव प्रकट हुए। पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को देखने की इच्छा हुई, तब नेत्रों के छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हीं से रूप का ग्रहण होने लगा। जब वेद रूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसी से शब्द सुनायी पड़ता है। जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ।

पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहने वाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करने वाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीर में चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्श का अनुभव होने लगा। जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उसके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहण रूप कर्म भी प्रकट हो गया। जब उन्हें अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणों के साथ ही चरण-इन्द्रिय के अधिष्ठाता रूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हीं में चलना रप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं। सन्तान, रति और स्वर्ग-भोग की कामना होने पर विराट् पुरुष के शरीर में लिंग की उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहें वाला काम सुख का आविर्भाव हुआ। जब उन्हें मल त्याग की इच्छा हुई, तब गुदा द्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। उन्हीं दोनों के द्वारा मल त्याग की क्रिया सम्पन्न होती है। अपान मार्ग द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने नाभि द्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी मृत्यु होती है।

जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँते और नाड़ियाँ उत्पन्न हुईं। साथ कुक्षि के देवता समुद्र, नाड़ियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टिये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए। जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा, तब ह्रदय की उत्पत्ति हुई। उससे मन रूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा, तथा विषय, कामना और संकल्प प्रकट हुए। विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईंत्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई। श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली है। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्ति स्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध कराने वाली है। मैंने भगवान् के स्थूल रूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व और प्रकृतिइन आठ आवरणों से घिरा हुआ है।

इससे परे भगवान् का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन की वहाँ तक पहुँच नहीं । मैंने तुम्हें भगवान् के स्थूल और सूक्ष्मव्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं कर। वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रीय बनते हैं। फिर तो वे ब्रम्हा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचकशब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं।

परीक्षित्! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सरयाएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कुष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान् के ही हैं। संसार में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं । सत्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दूसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गति के तीन-तीन भेद और हो जाते हैं। वे भगवान् जगत् के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं। प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरुप रूद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, वैसे वायु मेघमाला को।

परीक्षित्! महात्माओं ने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करने वाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं।

सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृत्व का निषेध करने के लिये ही है। यह मैंने ब्रम्हाजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में प्रकृति क्रमशः महतत्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है। परीक्षित्! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्म कल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो।

शौनकजी ने पूछा ;- सूतजी! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोड़कर पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण किया था। उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजी ने उनके प्रश्न करने पर किस तत्व का उपदेश किया ? सूतजी! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ?

सूतजी ने कहा ;- शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित् ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही अं आप लोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये।

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध:" के १० अध्याय समाप्त हुये ।।

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

(अब तृतीय स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९  

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९  

"ब्रम्हाजी का भगवद्धाम दर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः ९

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः नवम अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध नौवाँ अध्याय

द्वितीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:

श्रीशुक उवाच ।

(अनुष्टुप्)

आत्ममायामृते राजन् पन्परस्यानुभवात्मनः ।

न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १ ॥

बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।

रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २ ॥

यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।

रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३ ॥

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।

ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४ ॥

स आदिदेवो जगतां परो गुरुः

    स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।

तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां

    प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५ ॥

स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि

    उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः ।

स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं

    निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६ ॥

निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो

    विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।

स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं

    तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७ ॥

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो

    जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।

अतप्यत स्माखिललोकतापनं

    तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥ ८ ॥

तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः

    सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।

व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं

    स्वदृष्टवद्‌भिः विबुधैरभिष्टुतम् ॥ ९ ॥

प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः

    सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः ।

न यत्र माया किमुतापरे हरेः

    अनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः ॥ १० ॥

श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः

    पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।

सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि

    प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।

प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः

    परिस्फुरत्कुण्डल मौलिमालिनः ॥ ११ ॥

भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते

    लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम् ।

विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः

    सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ॥ १२ ॥

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः

    करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।

प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः

    विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३ ॥

ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं

    श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।

सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः

    स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४ ॥

भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं

    प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।

किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं

    पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५ ॥

अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं

    वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।

युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः

    स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६ ॥

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो

    हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः ।

ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग्

    यत् पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ॥ १७ ॥

तं प्रीयमाणं समुपस्थितं कविं

    प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् ।

बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा

    प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन् ॥ १८ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

(अनुष्टुप्)

त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया ।

चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ॥ १९ ॥

वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।

ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसां मद्दर्शनावधिः ॥ २० ॥

मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम् ।

यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः ॥ २१ ॥

प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।

तपो मे हृदयं साक्षाद् आत्माऽहं तपसोऽनघ ॥ २२ ॥

सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।

बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः ॥ २३ ॥

ब्रह्मोवाच

भगवन् सर्वभूतानां अध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम् ।

वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम् ॥ २४ ॥

तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् ।

परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः ॥ २५ ॥

यथात्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम् ।

विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना ॥ २६ ॥

क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते ।

तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव ॥ २७ ॥

भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः ।

नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं यदनुग्रहात् ॥ २८ ॥

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः

    प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।

अविक्लबस्ते परिकर्मणि स्थितो

    मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

(अनुष्टुप्)

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३० ॥

यावानहं यथाभावो यद् रूपगुणकर्मकः ।

तथैव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१ ॥

अहमेवासमेकोऽग्रे नान्यत् यत्सदसत्परम् ।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२ ॥

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।

तद्विद्याद् आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ ३३ ॥

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

प्रविष्टानि अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३४ ॥

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ३५ ॥

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ३६ ॥

श्रीशुक उवाच ।

सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।

पश्यतः तस्य तद् रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७ ॥

अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।

सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८ ॥

प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान् ।

भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९ ॥

तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।

शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४० ॥

मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः ।

महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१ ॥

तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।

देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२ ॥

तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।

प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३ ॥

नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।

ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासाय अमिततेजसे ॥ ४४ ॥

यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।

यथासीत् तदुपाख्यास्ते प्रश्नान् अन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ 

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध नवम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! जैसे स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थों के साथ उसे देखने वाले का कोई सबंध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभव स्वरप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । विविध रूप वाली माया के कारण वह विविध रूप वाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणों में रम जाता हूँ तब यह मैं हूँ, यह मेरा हैइस प्रकार मानने लगता है । किन्तु जब यह गुणों के क्षुब्ध करने वाले काल और मोह उत्पन्न करने वाली मायाइन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरुप में मोह रहित होकर रमण करने लगता हैआत्माराम हो जाता है; तब यह मैं, मेराका भाव छोड़कर पूर्ण उदासीनगुणातीत हो जाता है ।

ब्रम्हाजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) । तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रम्हाजी अपने जन्म स्थान कमल पर कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञान दृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापार के लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई । एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर तथा को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित्! महात्मा लोग इस तप को इस वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमल पर बैठ गये और मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली हैऐसा निश्चय कर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया । ब्रम्हाजी तपस्वियों से सबसे बड़े तपस्वी हैं। उसका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने एक समय एक सहस्त्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्र चित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उनकी स्तुति करते रहते हैं । वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान् के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं । उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोअल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान है। अंग-अंग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान हैं। उनके कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभायमान हैं ।

जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैस ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता है । उस वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान् की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुण-गान करने लगते हैं । ब्रम्हाजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं।

सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं । उनका मुख कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त हैं। आँखों में लाल-लाल डोरियों हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे। सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं । वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं।

पुरुष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूतये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्यइन छः नित्य सिद्ध स्वरुपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरुप में ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं । उनका दर्शन करते ही ब्रम्हाजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रम्हाजी ने भगवान् के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्ति मार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया । ब्रम्हाजी के प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रम्हाको प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रम्हाजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहाश्रीभगवान् ने कहा ;- ब्रम्हाजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते । तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लग। क्योंकि मैं मुँह माँगी वस्तु देने में समर्थ हूँ।

ब्रम्हाजी! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है । तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसी से मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है । तुम उस समय सृष्टि रचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसी से मैंने तुम्हें तपस्या मेरा करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप! तपस्या मेरा ह्रदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ।

मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लंघ्य शक्ति है । ब्रम्हाजी ने कहाभगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी रूप से विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ । नाथ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूप रहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप माया के स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध-शक्ति सम्पन्न जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने-आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं।

 इस प्रकार आप कैसे करते हैंइस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये । आप मुझे पर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान बँध न जाऊँ । प्रभो! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवासृष्टिरचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ।

श्रीभगवान् ने कहा ;- अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरुप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो । मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैंमेरी कृपा से तुम उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीति हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीति हो रही है अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूतरहित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ।

यह ब्रम्ह नहीं, यह ब्रम्ह नहींइस प्रकार निषेध की पद्धति से, और यह ब्रम्ह है, यह ब्रम्ह हैइस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरुप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने कि आवश्यकता है । ब्रम्हाजी! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टिरचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- लोकपितामह ब्रम्हाजी को इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान् ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूप को छिपा लिया । जब सर्वभूतस्वरुप ब्रम्हाजी ने देखा कि भगवान् ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरुप को हमारे नेत्रों के सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्प में जैसी सृष्टि थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की । एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रम्हाजी ने सारी जनता का कल्याण हो, अपने इस स्वार्थ को पूर्ति के लिये विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया । उस समय उनके पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजी ने मायापति भगवान् की माया का तत्व जानने की इच्छा से बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवा से ब्रम्हाजी को ही सन्तुष्ट कर लिया ।

 परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे लोक पितामह पिताजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो । उनके प्रश्न से ब्रम्हाजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षण वाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया, जिसका स्वयं भगवान् ने उन्हें उपदेश किया था । परीक्षित्! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वती के तट पर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया । तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट्पुरुष से इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराण के रूप में देता हूँ ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया द्वितीय स्कन्ध नवम अध्याय समाप्त हुआ ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥