श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय १०
"भागवत के दस लक्षण"
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः १०
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः
दशम अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध
दसवाँ अध्याय
द्वितीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
{द्वितीय
स्कन्ध:}
【दशम
अध्याय:】
श्रीशुक उवाच ।
(अनुष्टुप्)
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं
पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो
मुक्तिराश्रयः ॥ १ ॥
दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह
लक्षणम् ।
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन
चाञ्जसा ॥ २ ॥
भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग
उदाहृतः ।
ब्रह्मणो गुणवैषम्यात् विसर्गः
पौरुषः स्मृतः ॥ ३ ॥
स्थितिर्वैकुण्ठविजयः पोषणं
तदनुग्रहः ।
मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः
कर्मवासनाः ॥ ४ ॥
अवतारानुचरितं
हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।
पुंसां ईशकथाः प्रोक्ता नानाख्यान
उपबृंहिताः ॥ ५ ॥
निरोधोऽस्यानुशयनं आत्मनः सह
शक्तिभिः ।
मुक्तिः हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण
व्यवस्थितिः ॥ ॥ ६ ॥
आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति
शब्द्यते ॥ ७ ॥
योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसौ
एवाधिदैविकः ।
यः तत्र उभय विच्छेदः स
स्मृतोह्याधिभौतिकः ॥ ८ ॥
एकं एकतराभावे यदा न उपलभामहे ।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा
स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९ ॥
पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदाऽसौ स
विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन् अपः अस्राक्षीच्छुचिः
शुचीः ॥ १० ॥
तास्ववात्सीत् स्वसृष्टासु सहस्रं
परिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः
॥ ११ ॥
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव
एव च ।
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यद्
उपेक्षया ॥ १२ ॥
एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात्
समुत्थितः ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया
व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
अधिदैवं अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति
प्रभुः ।
अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत
तच्छृणु ॥ १४ ॥
अन्तः शरीर आकाशात् पुरुषस्य
विचेष्टतः ।
ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान्
असुः ॥ १५ ॥
अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु
।
अपानंतं अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥
१६ ॥
प्राणेन आक्षिपता क्षुत् तृड्
अन्तरा जायते विभोः ।
पिपासतो जक्षतश्च प्राङ् मुखं
निरभिद्यत ॥ १७ ॥
मुखतः तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र
उपजायते ।
ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया
योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥
विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग्
व्याहृतं तयोः ।
जले वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥
१९ ॥
नासिके निरभिद्येतां दोधूयति
नभस्वति ।
तत्र वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि
जिघृक्षतः ॥ २० ॥
यदाऽऽत्मनि निरालोकं आत्मानं च
दिदृक्षतः ।
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिः
चक्षुः गुणग्रहः ॥ २१ ॥
बोध्यमानस्य ऋषिभिः आत्मनः तत्
जिघृक्षतः ।
कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं
गुणग्रहः ॥ २२ ॥
वस्तुनो मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्ण
शीतताम् ।
जिघृक्षतः त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां
रोम महीरुहाः ।
तत्र चान्तर्बहिर्वातः त्वचा
लब्धगुणो वृतः ॥ २३ ॥
हस्तौ रुरुहतुः तस्य नाना कर्म
चिकीर्षया ।
तयोस्तु बलमिन्द्रश्च आदानं
उभयाश्रयम् ॥ २४ ॥
गतिं जिगीषतः पादौ
रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां यज्ञः स्वयं हव्यं
कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥
निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्द
अमृतार्थिनः ।
उपस्थ आसीत् कामानां प्रियं तद्
उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
उत्सिसृक्षोः धातुमलं निरभिद्यत वै
गुदम् ।
ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग
उभयाश्रयः ॥ २७ ॥
आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारं
अपानतः ।
तत्र अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं
उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥
आदित्सोः अन्नपानानां आसन्
कुक्ष्यन्न नाडयः ।
नद्यः समुद्राश्च तयोः तुष्टिः
पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥
निदिध्यासोः आत्ममायां हृदयं
निरभिद्यत ।
ततो मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव
च ॥ ३० ॥
त्वक् चर्म मांस रुधिर मेदो
मज्जास्थि धातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो
व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥
गुणात्मकान् इंद्रियाणि भूतादि
प्रभवा गुणाः ।
मनः सर्व विकारात्मा
बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥
एतद् भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं
मया ।
मह्यादिभिश्च आवरणैः अष्टभिः
बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
अतः परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं
निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ् मनसः
परम् ॥ ३४ ॥
अमुनी भगवद् रूपे मया ते
ह्यनुवर्णिते ।
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे
विपश्चितः ॥ ३५ ॥
स वाच्य वाचकतया भगवान्
ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः
परः ॥ ३६ ॥
प्रजापतीन् मनून् देवान् ऋषीन्
पितृगणान् पृथक् ।
सिद्धचारणगन्धर्वान् विद्याध्रासुर
गुह्यकान् ॥ ३७ ॥
किन्नराप्सरसो नागान् सर्पान्
किम्पुरुषोरगान् ।
मातृरक्षःपिशाचांश्च
प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८ ॥
कूष्माण्दोन्माद वेतालान्
यातुधानान् ग्रहानपि ।
खगान् मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन्
नृप सरीसृपान् ॥ ३९ ॥
द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जल
स्थल वनौकसः ।
कुशला-अकुशला मिश्राः कर्मणां
गतयस्त्विमाः ॥ ४० ॥
सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः
सुर-नृ-नारकाः ।
तत्राप्येकैकशो राजन् भिद्यन्ते
गतयस्त्रिधा ।
यद् एकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव
उपहन्यते ॥ ४१ ॥
स एवेदं जगद्धाता भगवान्
धर्मरूपधृक् ।
पुष्णाति स्थापयन् विश्वं
तिर्यङ्नरसुरादिभिः ॥ ४२ ॥
ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टं
इदमात्मनः ।
सं नियच्छति तत्काले घनानीकं
इवानिलः ॥ ४३ ॥
इत्थं भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः
।
न इत्थं भावेन हि परं द्रष्टुं
अर्हन्ति सूरयः ॥ ४४ ॥
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्य
अनुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं
हि तत् ॥ ४५ ॥
अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प
उदाहृतः ।
विधिः साधारणो यत्र सर्गाः
प्राकृतवैकृताः ॥ ४६ ॥
परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षण
विग्रहम् ।
यथा पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं
कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥
शौनक उवाच ।
यदाह नो भवान् सूत क्षत्ता
भागवतोत्तमः ।
चचार तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा
बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥
क्षत्तुः कौशारवेः तस्य
संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा स भगवान् तस्मै पृष्टः
तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥
ब्रूहि नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य
विचेष्टितम् ।
बन्धुत्याग निमित्तं च यथैव आगतवान्
पुनः ॥ ५० ॥
सूत उवाच ।
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत्
महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये श्रृणुत राज्ञः
प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध दशम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
परीक्षित्! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग,
स्थान, पोषण, ऊति,
मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध,
मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है ।
इसमें जो दसवाँ आश्रय-तत्व है, उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने
के लिये कहीं श्रुति से, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के
अनुकूल अनुभव से महात्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है
। ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पंचभूत,
शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महतत्व की उत्पत्ति होती है, उसो ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुष से उत्पन्न
ब्रम्हाजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’। प्रतिपद
नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान् विष्णु की जो
श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’
है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तो के ऊपर उनकी जो कृपा
होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजापालन रूप शुद्ध धर्म का
अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’
कहते हैं। जीवों की वे वासनाएँ, जो कर्म के
द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊति’ नाम से कही जाती हैं ।
भगवान् के विभिन्न अवतारों के और
उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईश्कथा’ हैं । जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन
करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो
जाना ‘निरोध’ है। अज्ञान कल्पित
कार्तृत्व, भोगतृत्व आदि अनात्म भाव का परित्याग करके अपने
वास्तविक स्वरुप परमात्मा में स्थित होना ही ‘मुक्ति’
है ।
परीक्षित्! इस चराचर जगत् की
उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रम्ह ही ‘आश्रय’ है।
शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है । जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी
द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सूर्य
आदि के रूप में भी हैं और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है । इन तीनों में यदि एक का भी अभाव हो जाय
तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं
। जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रम्हाण्ड को फोड़कर निकला, तब
वह अपने रहने का स्थान ढूँढने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-संकल्प पुरुष ने
अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की । विराट् पुरुष रूप ‘नर’
से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम ‘नार’
पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’
में वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा, इसी से
उसका नाम ‘नारायण’ हुआ । उन नारायण
भगवान् की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल,
स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का
अस्तित्व नहीं रहता । उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने
की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रम्हाण्ड के बीज स्वरुप सुवर्णमय
वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत।
परीक्षित्! विराट् पुरुष का एक ही
वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो
सुनो । विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहने वाले आकाश से इन्द्रियबल,
मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न
हुआ ।
जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के
पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सबके
शरीरों में प्राण के प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह
सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती
हैं। जब प्राण जोर-जोर से आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुष को
भूख-प्यास अनुभव हुआ। खाने-पीने की इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख
प्रकट हुआ। मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार
के रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है। जब उनकी
इच्छा बोलने की हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ देवता
अग्नि और उसका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए।
इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में
ही वे रुके रहे। श्वास के वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की
इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर
बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलाने वाले वायुदेव प्रकट हुए। पहले उनके शरीर में
प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को
देखने की इच्छा हुई, तब नेत्रों के छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हीं से रूप का
ग्रहण होने लगा। जब वेद रूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे,
तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी
अधिष्ठातृ देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसी से शब्द सुनायी पड़ता
है। जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और
शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ।
पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते
हैं,
उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहने वाला
वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करने वाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीर
में चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्श का अनुभव होने लगा। जब उन्हें अनेकों
प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन
हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उसके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए
और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहण रूप कर्म भी प्रकट हो गया। जब उन्हें अभीष्ट
स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये।
चरणों के साथ ही चरण-इन्द्रिय के अधिष्ठाता रूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान्
विष्णु स्थित हो गये और उन्हीं में चलना रप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी
चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं। सन्तान, रति
और स्वर्ग-भोग की कामना होने पर विराट् पुरुष के शरीर में लिंग की उत्पत्ति हुई।
उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहें वाला काम सुख
का आविर्भाव हुआ। जब उन्हें मल त्याग की इच्छा हुई, तब गुदा
द्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए।
उन्हीं दोनों के द्वारा मल त्याग की क्रिया सम्पन्न होती है। अपान मार्ग द्वारा एक
शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने नाभि द्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और
मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी
मृत्यु होती है।
जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण
करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँते और नाड़ियाँ उत्पन्न हुईं। साथ कुक्षि के देवता समुद्र, नाड़ियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये
दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए। जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा,
तब ह्रदय की उत्पत्ति हुई। उससे मन रूप इन्द्रिय और मन से उसका
देवता चन्द्रमा, तथा विषय, कामना और
संकल्प प्रकट हुए। विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और
तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं—त्वचा, चर्म,
मांस, रुधिर, मेद,
मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु
से प्राणों की उत्पत्ति हुई। श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण
करने वाली है। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्ति स्थान
है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध कराने वाली है। मैंने भगवान् के स्थूल रूप का
वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल,
तेज, वायु, आकाश,
अहंकार, महतत्व और प्रकृति—इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है।
इससे परे भगवान् का अत्यन्त
सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन
की वहाँ तक पहुँच नहीं । मैंने तुम्हें भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन
दोनों को ही स्वीकार नहीं कर। वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही
वे सक्रीय बनते हैं। फिर तो वे ब्रम्हा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं।
परीक्षित्! प्रजापति,
मनु, देवता, ऋषि,
पितर, सिद्ध, चारण,
गन्धर्व, विद्याधर, असुर,
यक्ष, किन्नर, अप्सरयाएँ,
नाग, सर्प, किम्पुरुष,
उरग, मातृकाएँ, राक्षस,
पिशाच, प्रेत, भूत,
विनायक, कुष्माण्ड, उन्माद,
वेताल, यातुधान, ग्रह,
पक्षी, मृग, पशु,
वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि
जितने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान् के ही हैं। संसार
में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज,
स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और
मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं । सत्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ
मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दूसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है,
तब प्रत्येक गति के तीन-तीन भेद और हो जाते हैं। वे भगवान् जगत् के
धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य
और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का
पालन-पोषण करते हैं। प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को
कालाग्निस्वरुप रूद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं,
वैसे वायु मेघमाला को।
परीक्षित्! महात्माओं ने
अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्वज्ञानी पुरुषों को
केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करने वाले रूप
में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे
भी हैं।
सृष्टि की रचना आदि कर्मों का
निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह
तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृत्व का निषेध करने के लिये ही है। यह मैंने
ब्रम्हाजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में
सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में
प्रकृति क्रमशः महतत्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में प्राकृत
सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर
प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है। परीक्षित्! काल का परिमाण,
कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम
पाद्म कल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो।
शौनकजी ने पूछा ;-
सूतजी! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने
अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोड़कर पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण
किया था। उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत
कहाँ हुई तथा मैत्रेयजी ने उनके प्रश्न करने पर किस तत्व का उपदेश किया ? सूतजी! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये।
उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ?
सूतजी ने कहा ;-
शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित् ने भी यही बात पूछी थी। उनके
प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही अं आप लोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये।
।। इस प्रकार "श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय
स्कन्ध:" के १० अध्याय समाप्त हुये ।।
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु
॥
(अब तृतीय स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)