श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६ "नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: षड्विंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २६                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध छब्बीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ षड्विंशोऽध्यायः ॥

राजोवाच

महर्ष एतद्वैचित्र्यं लोकस्य कथमिति ॥ १॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- महर्षे! लोगों को जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है?

ऋषिरुवाच

त्रिगुणत्वात्कर्तुः श्रद्धया कर्मगतयः पृथग्विधाः

सर्वा एव सर्वस्य तारतम्येन भवन्ति ॥ २॥

अथेदानीं प्रतिषिद्धलक्षणस्याधर्मस्य तथैव कर्तुः

श्रद्धाया वैसादृश्यात्कर्मफलं विसदृशं भवति या

ह्यनाद्यविद्यया कृतकामानां तत्परिणामलक्षणाः

सृतयः सहस्रशः प्रवृत्तास्तासां प्राचुर्येणा-

नुवर्णयिष्यामः ॥ ३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! कर्म करने वाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामस- तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मों की गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिक रूप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओं को प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करने वालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविद्या के वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मों के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे।

राजोवाच

नरका नाम भगवन् किं देशविशेषा अथवा

बहिस्त्रिलोक्या आहोस्विदन्तराल इति ॥ ४॥

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- भगवन्! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोकी से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह हैं?

ऋषिरुवाच

अन्तराल एव त्रिजगत्यास्तु दिशि दक्षिणस्या-

मधस्ताद्भूमेरुपरिष्टाच्च जलाद्यस्यामग्निष्वात्तादयः

पितृगणा दिशि स्वानां गोत्राणां परमेण समाधिना

सत्या एवाशिष आशासाना निवसन्ति ॥ ५॥

यत्र ह वाव भगवान् पितृराजो वैवस्वतः स्वविषयं

प्रापितेषु स्वपुरुषैर्जन्तुषु सम्परेतेषु यथा कर्मावद्यं

दोषमेवानुल्लङ्घितभगवच्छासनः सगणो दमं

धारयति ॥ ६॥

तत्र हैके नरकानेकविंशतिं गणयन्ति अथ तांस्ते

राजन् नामरूपलक्षणतोऽनुक्रमिष्यामस्तामिस्रो-

ऽन्धतामिस्रो रौरवो महारौरवः कुम्भीपाकः

कालसूत्रमसिपत्रवनं सूकरमुखमन्धकूपः

कृमिभोजनः सन्दंशस्तप्तसूर्मिर्वज्रकण्टक-

शाल्मली वैतरणी पूयोदः प्राणरोधो विशसनं

लालाभक्षः सारमेयादनमवीचिरयःपानमिति

किञ्च क्षारकर्दमो रक्षोगणभोजनः शूलप्रोतो

दन्दशूकोऽवटनिरोधनः पर्यावर्तनः सूचीमुखमि-

त्यष्टाविंशतिर्नरका विविधयातनाभूमयः ॥ ७॥

तत्र यस्तु परवित्तापत्यकलत्राण्यपहरति स हि

कालपाशबद्धो यमपुरुषैरतिभयानकैस्तामिस्रे

नरके बलान्निपात्यते अनशनानुदपानदण्ड-

ताडनसन्तर्जनादिभिर्यातनाभिर्यात्यमानो

जन्तुर्यत्र कश्मलमासादित एकदैव मूर्च्छामुपयाति

तामिस्रप्राये ॥ ८॥

एवमेवान्धतामिस्रे यस्तु वञ्चयित्वा पुरुषं दारादी-

नुपयुङ्क्ते यत्र शरीरी निपात्यमानो यातनास्थो

वेदनया नष्टमतिर्नष्टदृष्टिश्च भवति यथा वनस्पति-

र्वृश्च्यमानमूलस्तस्मादन्धतामिस्रं तमुपदिशन्ति ॥ ९॥

यस्त्विह वा एतदहमिति ममेदमिति भूतद्रोहेण

केवलं स्वकुटुम्बमेवानुदिनं प्रपुष्णाति स तदिह

विहाय स्वयमेव तदशुभेन रौरवे निपतति ॥ १०॥

ये त्विह यथैवामुना विहिंसिता जन्तवः परत्र

यमयातनामुपगतं त एव रुरवो भूत्वा तथा

तमेव विहिंसन्ति तस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति

सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्यापदेशः ॥ ११॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वे त्रिलोकी के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरों के लिये मंगलकामना किया करते हैं। उन नरकलोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकों के सहित रहते हैं तथा भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दण्ड देते हैं।

परीक्षित! कोई-कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं- तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मती, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख- ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान हैं।

जो पुरुष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बाँधकर बलात् तामिस्र नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीड़ित किया जाता है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर वह एकाएक मुर्च्छित हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसी से इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं।

जो पुरुष इस लोक में यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैंऐसी बुद्धि से दूसरे प्राणियों से द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्ब के ही पालन-पोषण में लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़ने पर अपने पाप के कारण स्वयं ही रौरव नरक में गिरता है। इस लोक में उसने जिन जीवों को जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता है, परलोक में यमयातना का समय आने पर वे जीव रुरुहोकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिय इस नरक का नाम रौरवहै। रुरुसर्प से भी अधिक क्रूर स्वभाव वाले एक जीव का नाम है।

एवमेव महारौरवो यत्र निपतितं पुरुषं क्रव्यादा

नाम रुरवस्तं क्रव्येण घातयन्ति यः केवलं

देहम्भरः ॥ १२॥

यस्त्विह वा उग्रः पशून् पक्षिणो वा प्राणत

उपरन्धयति तमपकरुणं पुरुषादैरपि विगर्हितममुत्र

यमानुचराः कुम्भीपाके तप्ततैले उपरन्धयन्ति ॥ १३॥

यस्त्विह पितृविप्रब्रह्मध्रुक् स कालसूत्रसंज्ञके

नरके अयुतयोजनपरिमण्डले ताम्रमये तप्तखले

उपर्यधस्तादग्न्यर्काभ्यामतितप्यमानेऽभिनिवेशितः

क्षुत्पिपासाभ्यां च दह्यमानान्तर्बहिःशरीर आस्ते

शेते चेष्टतेऽवतिष्ठति परिधावति च

यावन्ति पशुरोमाणि तावद्वर्षसहस्राणि ॥ १४॥

यस्त्विह वै निजवेदपथादनापद्यपगतः पाखण्डं

चोपगतस्तमसिपत्रवनं प्रवेश्य कशया प्रहरन्ति

तत्र हासावितस्ततो धावमान उभयतो धारै-

स्तालवनासिपत्रैश्छिद्यमानसर्वाङ्गो हा हतो-

ऽस्मीति परमया वेदनया मूर्च्छितः पदे पदे

निपतति स्वधर्महा पाखण्डानुगतं फलं भुङ्क्ते ॥ १५॥

यस्त्विह वै राजा राजपुरुषो वा अदण्ड्ये दण्डं

प्रणयति ब्राह्मणे वा शरीरदण्डं स पापीयान्

नरकेऽमुत्र सूकरमुखे निपतति तत्रातिबलै-

र्विनिष्पिष्यमाणावयवो यथैवेहेक्षुखण्ड

आर्तस्वरेण स्वनयन् क्वचिन्मूर्च्छितः

कश्मलमुपगतो यथैवेहादृष्टदोषा उपरुद्धाः ॥ १६॥

यस्त्विह वै भूतानामीश्वरोपकल्पितवृत्तीना-

मविविक्तपरव्यथानां स्वयं पुरुषोपकल्पित-

वृत्तिर्विविक्तपरव्यथो व्यथामाचरति स

परत्रान्धकूपे तदभिद्रोहेण निपतति तत्र हासौ

तैर्जन्तुभिः पशुमृगपक्षिसरीसृपैर्मशकयूका-

मत्कुणमक्षिकादिभिर्ये के चाभिद्रुग्धास्तैः

सर्वतोऽभिद्रुह्यमाणस्तमसि विहतनिद्रानिर्वृति-

रलब्धावस्थानः परिक्रामति यथा कुशरीरे जीवः ॥ १७॥

ऐसा ही महारौरव नरक है। इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसी की परवा न कर केवल अपने ही शरीर का पालन-पोषण करता है। वहाँ कच्चा मांस खाने वाले रुरु इसे मांस के लोभ से काटते हैं। जो क्रूर मनुष्य इस लोक में पेट पालने के लिये जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृदयहीन, राक्षसों से भी गये-बीते पुरुष को यमदूत कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं।

जो मनुष्य इस लोक में माता-पिता, ब्राह्मण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरक में ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबे की है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपर से सूर्य और नीचे से अग्नि के दाह से जलता रहता है। वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतर से जलने लगता है। उसकी बेचैनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर-पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है।

जो पुरुष किसी प्रकार की आपत्ति न आने पर भी अपने वैदिक मार्ग को छोड़कर अन्य पाखण्डपूर्ण धर्मों का आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं। जब मार से बचने के लिये वह इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब उसके सारे अंग तालवन के तलवार के समान पैने पत्तों से, जिनमें दोनों ओर धारें होती हैं, टूक-टूक होने लगते हैं। तब वह अत्यन्त वेदना से हाय, मैं मरा!इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पद पर मुर्च्छित होकर गिरने लगता है। अपने धर्म को छोड़कर पाखण्ड मार्ग में चलने से उसे इस प्रकार अपने कुकर्म का फल भोगना पड़ता है।

इस लोक में जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्य को दण्ड देता है अथवा ब्राह्मण को शरीर दण्ड देता है, वह महापापी मरकर सूकरमुख नरक में गिरता है। वहाँ जब महाबली यमदूत उसके अंगों को कुचलते हैं, तब वह कोल्हू में पेरे जाते हुए गन्नों के समान पीड़ित होकर, जिस प्रकार इस लोक में उसके द्वारा सताये हुए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आर्त स्वर से चिल्लाता और कभी मुर्च्छित हो जाता है। जो पुरुष इस लोक में खटमल आदि जीवों की हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करने के कारण अन्धकूप नरक में गिरता है। क्योंकि स्वयं भगवान् ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरों को कष्ट पहुँचने का ज्ञान भी नहीं है; किन्तु मनुष्य की वृत्ति भगवान् ने विधि-निषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरों के कष्ट का ज्ञान भी है। वहाँ वे पशु, मृग, पक्षी, साँप आदि रेंगने वाले जन्तु, मच्छर, जूँ, खटमल और मक्खी आदि जीव-जिनसे उसने द्रोह किया था-उसे सब ओर से काटते हैं। इससे उसकी निद्रा और शान्ति भंग हो जाती है और स्थान न मिलने पर भी वह बेचैनी के कारण उस घोर अन्धकार में इस प्रकार भटकता रहता है, जैसे रोगग्रस्त शरीर में जीव छटपटाता करता है।

यस्त्विह वा असंविभज्याश्नाति यत्किञ्चनो-

पनतमनिर्मितपञ्चयज्ञो वायससंस्तुतः स

परत्र कृमिभोजने नरकाधमे निपतति तत्र

शतसहस्रयोजने कृमिकुण्डे कृमिभूतः स्वयं

कृमिभिरेव भक्ष्यमाणः कृमिभोजनो यावत्त-

दप्रत्ताप्रहूतादोऽनिर्वेशमात्मानं यातयते ॥ १८॥

यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद्वा हिरण्यरत्नादीनि

ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुष-

स्तममुत्र राजन् यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डैः

सन्दंशैस्त्वचि निष्कुषन्ति ॥ १९॥

यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियमगम्यं वा पुरुषं

योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्त-

स्तिग्मया सूर्म्या लोहमय्या पुरुषमालिङ्गयन्ति

स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या ॥ २०॥

यस्त्विह वै सर्वाभिगमस्तममुत्र निरये वर्तमानं

वज्रकण्टकशाल्मलीमारोप्य निष्कर्षन्ति ॥ २१॥

ये त्विह वै राजन्या राजपुरुषा वा अपाखण्डा

धर्मसेतून् भिन्दन्ति ते सम्परेत्य वैतरण्यां

निपतन्ति भिन्नमर्यादास्तस्यां निरयपरिखा-

भूतायां नद्यां यादोगणैरितस्ततो भक्ष्यमाणा

आत्मना न वियुज्यमानाश्चासुभिरुह्यमानाः

स्वाघेन कर्मपाकमनुस्मरन्तो विण्मूत्रपूयशोणित-

केशनखास्थिमेदोमांसवसावाहिन्यामुपतप्यन्ते ॥ २२॥

ये त्विह वै वृषलीपतयो नष्टशौचाचारनियमा-

स्त्यक्तलज्जाः पशुचर्यां चरन्ति ते चापि प्रेत्य

पूयविण्मूत्रश्लेष्ममलापूर्णार्णवे निपतन्ति

तदेवातिबीभत्सितमश्नन्ति ॥ २३॥

ये त्विह वै श्वगर्दभपतयो ब्राह्मणादयो मृगया-

विहारा अतीर्थे च मृगान् निघ्नन्ति तानपि

सम्परेतान् लक्ष्यभूतान् यमपुरुषा इषुभिर्विध्यन्ति ॥ २४॥

ये त्विह वै दाम्भिका दम्भयज्ञेषु पशून् विशसन्ति

तानमुष्मिन् लोके वैशसे नरके पतितान् निरयपतयो

यातयित्वा विशसन्ति ॥ २५॥

यस्त्विह वै सवर्णां भार्यां द्विजो रेतः पाययति

काममोहितस्तं पापकृतममुत्र रेतःकुल्यायां

पातयित्वा रेतः सम्पाययन्ति ॥ २६॥

जो मनुष्य इस लोक में बिना पंच महायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दूसरे को दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौए के समान कहा गया है। वह परलोक में कृमिभोजन नामक निकृष्ट नरक में गिरता है। वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कीड़ों का कुण्ड है। उसी में उसे भी कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और जब तक अपने पापों का प्रायश्चित न करने वाले उस पापी के-बिना दिये और बिना हवन किये खाने के-दोष का अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तब तक वह उसी में पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता रहता है। वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कीड़ों को खाता है।

राजन्! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण के अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरुष के सुवर्ण और रत्नादि का हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत सन्दंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और संड़सी से उसकी खाल नोचते हैं। इस लोक में यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से व्यभिचार करती है, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में ले जाकर कीड़ों से पीटते हैं तथा पुरुष को तपाये हुए लोहे की स्त्री-मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरुष-प्रतिमा से आलिंगन कराते हैं। जो पुरुष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्रकण्टकशाल्मली नरक में गिराते हैं और वज्र के समान कठोर काँटों वाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं।

जो राजा या राजपुरुष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मर्यादा का उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पटके जाते हैं। यह नदी नरकों की खाई के समान है; उसमें मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरने पर उन्हें इधर-उधर से जल के जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पाप के कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गति को अपनी करनी का फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं। जो लोग शौच और आचार के नियमों का परित्याग कर तथा लज्जा को तिलांजलि देकर इस लोक में शूद्राओं के साथ सम्बन्ध गाँठकर पशुओं के समान आचरण करते हैं, वे भी मरने के बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मल से भरे हुए पूयोद नामक समुद्र में गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओं को ही खाते हैं।

इस लोक में जो ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदि में लगे रहते हैं तथा शास्त्र के विपरीत पशुओं का वध करते हैं, मरने के पश्चात् वे प्राणरोध नरक में डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणों से बींधते हैं। जो पाखण्डी लोग पाखण्डपूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस (विशसन) नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं। जो द्विज कामातुर होकर अपनी स्वर्णा भार्या को वीर्यपान कराता है, उस पापी को मरने के बाद यमदूत वीर्य की नदी (लालभक्ष नामक नरक) में डालकर वीर्य पिलाते हैं।

ये त्विह वै दस्यवोऽग्निदा गरदा ग्रामान् सार्थान् वा

विलुम्पन्ति राजानो राजभटा वा तांश्चापि हि

परेत्य यमदूता वज्रदंष्ट्राः श्वानः सप्तशतानि

विंशतिश्च सरभसं खादन्ति ॥ २७॥

यस्त्विह वा अनृतं वदति साक्ष्ये द्रव्यविनिमये

दाने वा कथञ्चित्स वै प्रेत्य नरकेऽवीचिमत्यधःशिरा

निरवकाशे योजनशतोच्छ्रायाद्गिरिमूर्ध्नः सम्पात्यते

यत्र जलमिव स्थलमश्मपृष्ठमवभासते तदवीचिम-

त्तिलशो विशीर्यमाणशरीरो न म्रियमाणः पुनरारोपितो

निपतति ॥ २८॥

यस्त्विह वै विप्रो राजन्यो वैश्यो वा सोमपीथस्तत्कलत्रं

वा सुरां व्रतस्थोऽपि वा पिबति प्रमादतस्तेषां निरयं

नीतानामुरसि पदाऽऽक्रम्यास्ये वह्निना द्रवमाणं

कार्ष्णायसं निषिञ्चन्ति ॥ २९॥

अथ च यस्त्विह वा आत्मसम्भावनेन स्वयमधमो

जन्मतपोविद्याचारवर्णाश्रमवतो वरीयसो न

बहुमन्येत स मृतक एव मृत्वा क्षारकर्दमे निरये-

ऽवाक्शिरा निपातितो दुरन्ता यातना ह्यश्नुते ॥ ३०॥

ये त्विह वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजन्ते याश्च स्त्रियो

नृपशून् खादन्ति तांश्च ते पशव इव निहता यमसदने

यातयन्तो रक्षोगणाः सौनिका इव स्वधितिनावदाया-

सृक् पिबन्ति नृत्यन्ति च गायन्ति च हृष्यमाणा यथेह

पुरुषादाः ॥ ३१॥

ये त्विह वा अनागसोऽरण्ये ग्रामे वा वैश्रम्भकैरुपसृता-

नुपविश्रम्भय्य जिजीविषून् शूलसूत्रादिषूपप्रोतान्

क्रीडनकतया यातयन्ति तेऽपि च प्रेत्य यमयातनासु

शूलादिषु प्रोतात्मानः क्षुत्तृड्भ्यां चाभिहताः कङ्कवटादिभि-

श्चेतस्ततस्तिग्मतुण्डैराहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति ॥ ३२॥

ये त्विह वै भूतान्युद्वेजयन्ति नरा उल्बणस्वभावा यथा

दन्दशूकास्तेऽपि प्रेत्य नरके दन्दशूकाख्ये निपतन्ति

यत्र नृप दन्दशूकाः पञ्चमुखाः सप्तमुखा उपसृत्य

ग्रसन्ति यथा बिलेशयान् ॥ ३३॥

जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोक में किसी के घर में आग लगा देते हैं, किसी को विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मरने के पश्चात् सारमेयादन नामक नरक में वज्र की-सी दाढ़ों वाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काटने लगते हैं। इस लोक में जो पुरुष किसी की गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधारशून्य अवीचिमान् नरक में पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़ के शिखर से निचे को सिर करके गिराया जाता है। उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है। वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार-बार ऊपर ले जाकर पटका जाता है।

जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उन्हें यमदूत अयःपान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुँह में आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं। जो पुरुष इस लोक में निम्न श्रेणी का होकर भी अपने को बड़ा मानने के कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के ही समान है। उसे मरने पर क्षारकर्दम नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं।

जो पुरुष इस लोक में नरमेधादि के द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदि का यजन करते हैं और जो स्त्रियाँ पशुओं के समन पुरुषों को खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओं की तरह मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस होकर तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं और रक्षोगण भोजन नामक नरक में कसाइयों के समान कुल्हाड़ी से काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं तथा जिस प्रकार वे मांसभोजीपुरुष इस लोक में उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं। इस लोक में जो लोग वन या गाँव के निरपराध जीवों को-जो सभी अपने प्राणों को रखना चाहते हैं-तरह-तरह के उपायों से फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं, फिर उन्हें काँटें से बेधकर या रस्सी से बाँधकर खिलवाड़ करते हुए तरह-तरह की पीड़ाएँ देते हैं, उन्हें भी मरने के पश्चात् यमयातनाओं के समय शूलप्रोत नामक नरक में शूलों से बेधा जाता है। उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती है और कंक, बटेर आदि तीखी चोंचों वाले नरक के भयानक पक्षी नोचने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं।

राजन्! इस लोक में जो सर्पों के समान उग्र स्वभावपुरुष दूसरे जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरने पर दन्दशूक नाम के नरक में गिरते हैं। वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँह वाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहों की तरह निगल जाते हैं।

ये त्विह वा अन्धावटकुसूलगुहादिषु भूतानि निरुन्धन्ति

तथामुत्र तेष्वेवोपवेश्य सगरेण वह्निना धूमेन निरुन्धन्ति ॥ ३४॥

यस्त्विह वा अतिथीनभ्यागतान् वा गृहपतिरसकृ-

दुपगतमन्युर्दिधक्षुरिव पापेन चक्षुषा निरीक्षते तस्य

चापि निरये पापदृष्टेरक्षिणी वज्रतुण्डा गृध्राः

कङ्ककाकवटादयः प्रसह्योरुबलादुत्पाटयन्ति ॥ ३५॥

यस्त्विह वा आढ्याभिमतिरहङ्कृतिस्तिर्यक्प्रेक्षणः

सर्वतोऽभिविशङ्की अर्थव्ययनाशचिन्तया

परिशुष्यमाणहृदयवदनो निर्वृतिमनवगतो ग्रह

इवार्थमभिरक्षति स चापि प्रेत्य तदुत्पादनोत्कर्षण

संरक्षणशमलग्रहः सूचीमुखे नरके निपतति यत्र

ह वित्तग्रहं पापपुरुषं धर्मराजपुरुषा वायका इव

सर्वतोऽङ्गेषु सूत्रैः परिवयन्ति ॥ ३६॥

एवंविधा नरका यमालये सन्ति शतशः सहस्रशस्तेषु

सर्वेषु च सर्व एवाधर्मवर्तिनो ये केचिदिहोदिता

अनुदिताश्चावनिपते पर्यायेण विशन्ति तथैव धर्मानुवर्तिन

इतरत्र इह तु पुनर्भवे त उभयशेषाभ्यां निविशन्ति ॥ ३७॥

निवृत्तिलक्षणमार्ग आदावेव व्याख्यातः एतावानेवा-

ण्डकोशो यश्चतुर्दशधा पुराणेषु विकल्पित उपगीयते

यत्तद्भगवतो नारायणस्य साक्षान्महापुरुषस्य स्थविष्ठं

रूपमात्ममायागुणमयमनुवर्णितमादृतः पठति श्रृणोति

श्रावयति स उपगेयं भगवतः परमात्मनोऽग्राह्यमपि

श्रद्धाभक्तिविशुद्धबुद्धिर्वेद ॥ ३८॥

श्रुत्वा स्थूलं तथा सूक्ष्मं रूपं भगवतो यतिः ।

स्थूले निर्जितमात्मानं शनैः सूक्ष्मं धिया नयेदिति ॥ ३९॥

भूद्वीपवर्षसरिदद्रिनभःसमुद्र-

पातालदिङ्नरकभागणलोकसंस्था ।

गीता मया तव नृपाद्भुतमीश्वरस्य

स्थूलं वपुः सकलजीवनिकायधाम ॥ ४०॥

जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियों को अँधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओं में डाल देते हैं, उन्हें परलोक में यमदूत वैसे ही स्थानों में डालकर विषैली आग के धुएँ में घोंटते हैं। इसीलिये इस नरक को अवटनिरोधन कहते हैं। जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अथ्यागतों की ओर बार-बार क्रोध में भरकर ऐसी कुटिल दृष्टि से देखता है मानो उन्हें भस्म कर देगा, वह जब नरक में जाता है, तब उस पापदृष्टि के नेत्रों को गिद्ध, कंक, काक और बटेर आदि वज्र की-सी कठोर चोंचों वाले पक्षी बलात् निकाल लेते हैं। इस नरक को पर्यावर्तन कहते हैं।

इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान् समझकर अभिमानवश सबको टेढ़ी नजर से देखता है और सभी पर सन्देह रखता है, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके हृदय और मुँह सूखे रहते हैं; अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह-तरह के पाप करता रहता है, वह नराधम मरने पर सूचीमुख नरक में गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अंगों को यमराज के दूत दर्जियों के समान सूई-धागे से सीते हैं।

राजन्! यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नरक हैं। उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मों के अनुसार बारी-बारी से जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादि में जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनसे अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्य-पापरूप कर्मों को लेकर ये फिर इसी लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं। इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्ति मार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीये स्कन्ध में) ही वर्णन हो चुका है। पुराणों में जिसका चौदह भुवन के रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्डकोश इतना ही है। यह साक्षात् परमपुरुष श्रीनारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान् का उपनिषदों में वर्णित निर्गुणस्वरूप यद्यपि मन-बुद्धि की पहुँच के बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूलरूप का वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्ध हो जाती है और वह उस सूक्ष्मरूप का भी अनुभव कर सकता है।

यति को चाहिये कि भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के रूपों का श्रवण करके पहले स्थूलरूप में चित्त को स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँ से हटाकर उसे सूक्ष्म में लगा दे।

परीक्षित! मैंने तुमसे पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकों की स्थिति का वर्णन किया। यही भगवान् का अति अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त जीव समुदाय का आश्रय है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे नरकानुवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६॥

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध:" के 26 अध्याय समाप्त हुये ।।

॥ इति पञ्चमस्कन्धः समाप्तः ॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... अब षष्ठ स्कन्ध: प्रारम्भ होता है

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५                   

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५ "श्रीसंकर्षणदेव का विवरण और स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: पञ्चविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५                                       

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २५                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध पच्चीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ पञ्चविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते या वै

कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया

द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणमहमित्यभिमान-लक्षणं यं

सङ्कर्षणमित्याचक्षते ॥ १॥

यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस

एकस्मिन्नेव शीर्षणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते ॥ २॥

यस्य ह वा इदं कालेनोपसञ्जिहीर्षतोऽमर्षविरचित-

रुचिरभ्रमद्भ्रुवोरन्तरेण साङ्कर्षणो नाम रुद्र एकादश-

व्यूहस्त्र्यक्षस्त्रिशिखं शूलमुत्तम्भयन्नुदतिष्ठत् ॥ ३॥

यस्याङ्घ्रिकमलयुगलारुणविशदनखमणिषण्ड-

मण्डलेषु अहिपतयः सह सात्वतर्षभैरेकान्तभक्ति-

योगेनावनमन्तः स्ववदनानि परिस्फुरत्कुण्डलप्रभा-

मण्डितगण्डस्थलान्यतिमनोहराणि प्रमुदितमनसः

खलु विलोकयन्ति ॥ ४॥

यस्यैव हि नागराजकुमार्य आशिष आशासाना-

श्चार्वङ्गवलयविलसितविशदविपुलधवलसुभग-

रुचिरभुजरजतस्तम्भेष्वगुरुचन्दनकुङ्कुमपङ्कानु-

लेपेनावलिम्पमानास्तदभिमर्शनोन्मथितहृदय-

मकरध्वजावेशरुचिरललितस्मितास्तदनुराग-

मदमुदितमदविघूर्णितारुणकरुणावलोकनयन-

वदनारविन्दं सव्रीडं किल विलोकयन्ति ॥ ५॥

स एव भगवाननन्तोऽनन्तगुणार्णव आदिदेव

उपसंहृतामर्षरोषवेगो लोकानां स्वस्तय आस्ते ॥ ६॥

ध्यायमानः सुरासुरोरगसिद्धगन्धर्वविद्याधर-

मुनिगणैरनवरतमदमुदितविकृतविह्वललोचनः

सुललितमुखरिकामृतेनाप्यायमानः स्वपार्षद-

विबुधयूथपतीनपरिम्लानरागनवतुलसिकामोद-

मध्वासवेन माद्यन् मधुकरव्रातमधुरगीतश्रियं

वैजयन्तीं स्वां वनमालां नीलवासा एककुण्डलो

हलककुदि कृतसुभगसुन्दरभुजो भगवान् माहेन्द्रो

वारणेन्द्र इव काञ्चनीं कक्षामुदारलीलो बिभर्ति ॥ ७॥

य एष एवमनुश्रुतो ध्यायमानो मुमुक्षूणामनादि-

कालकर्मवासनाग्रथितमविद्यामयं हृदयग्रन्थिं

सत्त्वरजस्तमोमयमन्तर्हृदयं गत आशु निर्भिनत्ति

तस्यानुभावान् भगवान् स्वायम्भुवो नारदः सह

तुम्बुरुणा सभायां ब्रह्मणः संश्लोकयामास ॥ ८॥

उत्पत्तिस्थितिलयहेतवोऽस्य कल्पाः

सत्त्वाद्याः प्रकृतिगुणा यदीक्षयाऽऽसन् ।

यद्रूपं ध्रुवमकृतं यदेकमात्मन्

नानाधात्कथमु ह वेद तस्य वर्त्म ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! पाताल लोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान् की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पांचरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे संकर्षणकहते हैं। इन भगवान् अनन्त के एक हजार मस्तक हैं। उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दाने के समान दिखायी देता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रों वाले होते हैं और हाथ में तीन नोकों वाले शूल लिये रहते हैं।

भगवान् संकर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पंक्ति के समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नख मणियों में अपने कुण्डल कान्तिमण्डित कमनीय कपोलों वाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्द से भर जाता है। अनेकों नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाओं से उनके अंगमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुंकुम पंक का लेप करती हैं। उस समय अंग स्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का संचार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुस्कान के साथ सलज्जभाव से निहारने लगती हैं। वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोष के वेग को रोके हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं।

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्त का ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चंचल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अंग पर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हाल की मूठ पर रख रहता है। वे उदार लीलामय भगवान् संकर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की श्रृंखला के समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणों का एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र भगवान् नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्मा जी की सभा में इस प्रकार गान किया था।

जिनकी दृष्टि पड़ने से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंच को अपने में धारण किये हुए हैं-उन भगवान् संकर्षण के तत्त्व को कोई कैसे जान सकता है।

मूर्तिं नः पुरुकृपया बभार सत्त्वं

संशुद्धं सदसदिदं विभाति तत्र ।

यल्लीलां मृगपतिराददेऽनवद्या-

मादातुं स्वजनमनांस्युदारवीर्यः ॥ १०॥

यन्नामश्रुतमनुकीर्तयेदकस्मा-

दार्तो वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा ।

हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यं

कं शेषाद्भगवत आश्रयेन्मुमुक्षुः ॥ ११॥

मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्ध्नो

भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् ।

आनन्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्नः

को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्वः ॥ १२॥

एवम्प्रभावो भगवाननन्तो

दुरन्तवीर्योरुगुणानुभावः ।

मूले रसायाः स्थित आत्मतन्त्रो

यो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ॥ १३॥

एता ह्येवेह नृभिरुपगन्तव्या गतयो यथा

कर्मविनिर्मिता यथोपदेशमनुवर्णिताः कामान्

कामयमानैः ॥ १४॥

एतावतीर्हि राजन् पुंसः प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य

विपाकगतय उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं

व्याचख्ये किमन्यत्कथयाम इति ॥ १५॥

जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा अपने निजजनों का चित्त आकर्षित करने के लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीला को परम पराक्रमी सिंह ने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य संकर्षण भगवान् ने हम पर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है।

जिनके सुने-सुनाये नाम का कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है-ऐसे शेष भगवान् को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है?

यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान् के एक मस्तक पर एक रजःकण के समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है। किसी के हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान् के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है?

वास्तव में उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातल के मूल में अपनी ही महिमा में स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये लीला से ही पृथ्वी को धारण किये हुए हैं।

राजन्! भोगों की कामना वाले पुरुषों की अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली भगवान् की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुख से सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया। मनुष्य को प्रवृत्तिरूप धर्म के परिणाम में प्राप्त होने वाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ और क्या सुनाऊँ?

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भूविवरविध्युपवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २५ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २६