श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५ "राजा बलि की स्वर्ग पर विजय"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५                                                              

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १५                                                                 

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ पञ्चदशोऽद्ध्ययाः - १५ ॥

राजोवाच

बलेः पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरिरयाचत ।

भूत्वेश्वरः कृपणवल्लब्धार्थोऽपि बबन्ध तम् ॥ १॥

एतद्वेदितुमिच्छामो महत्कौतूहलं हि नः ।

यज्ञेश्वरस्य पूर्णस्य बन्धनं चाप्यनागसः ॥ २॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन-हीन की भाँति राजा बलि से तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जाने पर भी उन्होंने बलि को बाँधा क्यों? मेरे हृदय में इस बात का बड़ा कौतुहल है कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान् के द्वारा याचना और निरपराध का बन्धन-ये दोनों ही कैसे सम्भव हुए? हम लोग यह जानना चाहते हैं।

श्रीशुक उवाच

पराजितश्रीरसुभिश्च हापितो

हीन्द्रेण राजन् भृगुभिः स जीवितः ।

सर्वात्मना तानभजद्भृगून् बलिः

शिष्यो महात्मार्थनिवेदनेन ॥ ३॥

तं ब्राह्मणा भृगवः प्रीयमाणा

अयाजयन् विश्वजिता त्रिणाकम् ।

जिगीषमाणं विधिनाभिषिच्य

महाभिषेकेण महानुभावाः ॥ ४॥

ततो रथः काञ्चनपट्टनद्धो

हयाश्च हर्यश्वतुरङ्गवर्णाः ।

ध्वजश्च सिंहेन विराजमानो

हुताशनादास हविर्भिरिष्टात् ॥ ५॥

धनुश्च दिव्यं पुरटोपनद्धं

तूणावरिक्तौ कवचं च दिव्यम् ।

पितामहस्तस्य ददौ च माला-

मम्लानपुष्पां जलजं च शुक्रः ॥ ६॥

एवं स विप्रार्जितयोधनार्थः

तैः कल्पितस्वस्त्ययनोऽथ विप्रान् ।

प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणामः

प्रह्लादमामन्त्र्य नमश्चकार ॥ ७॥

अथारुह्य रथं दिव्यं भृगुदत्तं महारथः ।

सुस्रग्धरोऽथ सन्नह्य धन्वी खड्गी धृतेषुधिः ॥ ८॥

हेमाङ्गदलसद्बाहुः स्फुरन्मकरकुण्डलः ।

रराज रथमारूढो धिष्ण्यस्थ इव हव्यवाट् ॥ ९॥

तुल्यैश्वर्यबलश्रीभिः स्वयूथैर्दैत्ययूथपैः ।

पिबद्भिरिव खं दृग्भिर्दहद्भिः परिधीनिव ॥ १०॥

वृतो विकर्षन् महतीमासुरीं ध्वजिनीं विभुः ।

ययाविन्द्रपुरीं स्वृद्धां कम्पयन्निव रोदसी ॥ ११॥

रम्यामुपवनोद्यानैः श्रीमद्भिर्नन्दनादिभिः ।

कूजद्विहङ्गमिथुनैर्गायन्मत्तमधुव्रतैः ॥ १२॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सम्पत्ति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इस पर शुक्राचार्य जी के शिष्य महात्मा बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढ़ा दिया और वे तन-मन से गुरुजी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे। इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने की इच्छा वाले बलि का महाभिषेक की विधि से अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नाम का यज्ञ कराया। यज्ञ की विधि से हविष्यों के द्वारा जब अग्नि देवता की पूजा की गयी, तब यज्ञ कुण्ड में से सोने की चद्दर से मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला। फिर इन्द्र के घोड़ों-जैसे हरे रंग के घोड़े और सिंह के चिह्न से युक्त रथ पर लगाने की ध्वजा निकली। साथ ही सोने के पत्र से मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होने वाले दो अक्षय तरकश और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लाद जी ने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्य ने एक शंख दिया।

इस प्रकार ब्राह्मणों की कृपा से युद्ध की सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जाने पर राजा बलि ने उन ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लाद जी से सम्भाषण करके उनके चरणों में नमस्कार किया। फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणों के दिये हुए दिव्य रथ पर सवार हुए। जब महारथी राजा बलि ने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकश आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादा की दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई। उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथ पर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो। उनके साथ उन्हीं के समान ऐश्वर्य, बल और विभूति वाले दैत्य सेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाश को पी जायेंगे और अपने क्रोध भरे प्रज्वलित नेत्रों से समस्त दिशाओं को, क्षितिज को भस्म कर डालेंगे।

राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेना को लेकर उसका युद्ध के ढंग से संचालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावती पर चढ़ाई की। देवताओं की राजधानी अमरावती में बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दनवन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनों में पक्षियों के जोड़े चहकते रहते हैं। मधु लोभी भौंरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं।

प्रवालफलपुष्पोरुभारशाखामरद्रुमैः ।

हंससारसचक्राह्वकारण्डवकुलाकुलाः ।

नलिन्यो यत्र क्रीडन्ति प्रमदाः सुरसेविताः ॥ १३॥

आकाशगङ्गया देव्या वृतां परिखभूतया ।

प्राकारेणाग्निवर्णेन साट्टालेनोन्नतेन च ॥ १४॥

रुक्मपट्टकपाटैश्च द्वारैः स्फटिकगोपुरैः ।

जुष्टां विभक्तप्रपथां विश्वकर्मविनिर्मिताम् ॥ १५॥

सभाचत्वररथ्याढ्यां विमानैर्न्यर्बुदैर्वृताम् ।

श‍ृङ्गाटकैर्मणिमयैर्वज्रविद्रुमवेदिभिः ॥ १६॥

यत्र नित्यवयोरूपाः श्यामा विरजवाससः ।

भ्राजन्ते रूपवन्नार्यो ह्यर्चिर्भिरिव वह्नयः ॥ १७॥

सुरस्त्रीकेशविभ्रष्टनवसौगन्धिकस्रजाम् ।

यत्रामोदमुपादाय मार्ग आवाति मारुतः ॥ १८॥

हेमजालाक्षनिर्गच्छद्धूमेनागुरुगन्धिना ।

पाण्डुरेण प्रतिच्छन्नमार्गे यान्ति सुरप्रियाः ॥ १९॥

मुक्तावितानैर्मणिहेमकेतुभि-

र्नानापताकावलभीभिरावृताम् ।

शिखण्डिपारावतभृङ्गनादितां

वैमानिकस्त्रीकलगीतमङ्गलाम् ॥ २०॥

मृदङ्गशङ्खानकदुन्दुभिस्वनैः

सतालवीणामुरजर्ष्टिवेणुभिः ।

नृत्यैः सवाद्यैरुपदेवगीतकै-

र्मनोरमां स्वप्रभया जितप्रभाम् ॥ २१॥

यां न व्रजन्त्यधर्मिष्ठाः खला भूतद्रुहः शठाः ।

मानिनः कामिनो लुब्धा एभिर्हीना व्रजन्ति यत् ॥ २२॥

तां देवधानीं स वरूथिनीपति-

र्बहिः समन्ताद्रुरुधे पृतन्यया ।

आचार्यदत्तं जलजं महास्वनं

दध्मौ प्रयुञ्जन् भयमिन्द्रयोषिताम् ॥ २३॥

मघवांस्तमभिप्रेत्य बलेः परममुद्यमम् ।

सर्वदेवगणोपेतो गुरुमेतदुवाच ह ॥ २४॥

लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पों से कल्पवृक्षों की शाखाएँ लदी रहती हैं। वहाँ के सरोवरों में हंस, सारस, चकवे और बतखों की भीड़ लगी रहती है। उन्हीं में देवताओं के द्वारा सम्मानित देवांगनाएँ जल क्रीड़ा करती रहती हैं। ज्योतिर्मय आकाशगंगा ने खाई की भाँति अमरावती को चारों ओर से घेर रखा है। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सोने का परकोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी अटारियाँ बनी हुई हैं। सोने के किवाड़ द्वार-द्वार पर लगे हुए हैं और स्फटिक मणि के गोपुर (नगर के बाहरी फाटक) हैं। उसमें विश्वकर्मा ने ही उस पुरी का निर्माण किया है। सभा के स्थान, खेल के चबूतरे और रथ के चलने के बड़े-बड़े भागों से वह शोभायमान है। दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते हैं और मणियों के बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मूँगे की वेदियाँ बनी हुई हैं। वहाँ की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की-सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूप की छटा से इस प्रकार देदीप्यमान होती है, जैसे अपनी ज्वालाओं से अग्नि।

देवांगनाओं के जूड़े से गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पों की सुगन्ध लेकर वहाँ के मार्गों में मन्द-मन्द हवा चलती रहती है। सुनहली खिड़कियों में से अगर की सुगन्ध से युक्त सफ़ेद धूआँ निकल-निकलकर वह के मार्गों को ढक दिया करता है। उसी मार्ग से देवांगनाएँ जाती-आती हैं। स्थान-स्थान पर मोतियों की झालरों से सजाये हुए चँदोवे तने रहते हैं। सोने की मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं। छज्जों पर अनेकों झंडियाँ लहराती रहती हैं। मोर, कबूतर और भौंरे कलगान करते रहते हैं। देवांगनाओं के मधुर संगीत से वहाँ सदा ही मंगल छाया रहता है। मृदंग, शंख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं। गन्धर्व बाजों के साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं। इनसे अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटा से छटा की अधिष्ठात्री देवी को भी जीत लिया है।

उस पुरी में अधर्मी, दुष्ट, जीव द्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते। जो इन दोषों से रहित हैं, वे ही वहाँ जाते हैं। असुरों की सेना के स्वामी राजा बलि ने अपनी बहुत बड़ी सेना से बाहर की ओर सब ओर से अमरावती को घेर लिया लिया और इन्द्रपत्नियों के हृदय में भय का संचार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्य जी के दिये हुए महान् शंख को बजाया। उस शंख की ध्वनि सर्वत्र फैल गयी।

इन्द्र ने देखा कि बलि ने युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। अतः सब देवताओं के साथ वे अपने गुरु बृहस्पति जी के पास गये और उनसे बोले‌‌‌‌- भगवन! मेरे पुराने शत्रु बलि ने इस बार युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हम लोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्ति से इनकी इतनी बढ़ती हो गयी है।

भगवन्नुद्यमो भूयान् बलेर्नः पूर्ववैरिणः ।

अविषह्यमिमं मन्ये केनासीत्तेजसोर्जितः ॥ २५॥

नैनं कश्चित्कुतो वापि प्रतिव्योढुमधीश्वरः ।

पिबन्निव मुखेनेदं लिहन्निव दिशो दश ।

दहन्निव दिशो दृग्भिः संवर्ताग्निरिवोत्थितः ॥ २६॥

ब्रूहि कारणमेतस्य दुर्धर्षत्वस्य मद्रिपोः ।

ओजः सहो बलं तेजो यत एतत्समुद्यमः ॥ २७॥

मैं देखता हूँ कि इस समय बलि को कोई भी किसी प्रकार से रोक नहीं सकता। वे प्रलय की आग से समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुख से इस विश्व को पी जायेंगे, जीभ से दसों दिशाओं को चाट जायेंगे और नेत्रों की ज्वाला से दिशाओं को भस्म कर देंगे। आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रु की इतनी बढ़ती का, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है? इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना बल और इतना तेज कहाँ से आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है

गुरुरुवाच

जानामि मघवन् शत्रोरुन्नतेरस्य कारणम् ।

शिष्यायोपभृतं तेजो भृगुभिर्ब्रह्मवादिभिः ॥ २८॥

(ओजस्विनं बलिं जेतुं न समर्थोऽस्ति कश्चन ।

विजेष्यति न कोऽप्येनं ब्रह्मतेजःसमेधितम् ॥)

भवद्विधो भवान् वापि वर्जयित्वेश्वरं हरिं

नास्य शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्य यथा जनाः ॥ २९॥

तस्मान्निलयमुत्सृज्य यूयं सर्वे त्रिविष्टपम् ।

यात कालं प्रतीक्षन्तो यतः शत्रोर्विपर्ययः ॥ ३०॥

एष विप्रबलोदर्कः सम्प्रत्यूर्जितविक्रमः ।

तेषामेवापमानेन सानुबन्धो विनङ्क्ष्यति ॥ ३१॥

एवं सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना ।

हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणाः कामरूपिणः ॥ ३२॥

देवेष्वथ निलीनेषु बलिर्वैरोचनः पुरीम् ।

देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्रयम् ॥ ३३॥

तं विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सलाः ।

शतेन हयमेधानामनुव्रतमयाजयन् ॥ ३४॥

ततस्तदनुभावेन भुवनत्रयविश्रुताम् ।

कीर्तिं दिक्षु वितन्वानः स रेज उडुराडिव ॥ ३५॥

बुभुजे च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम् ।

कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानो महामनाः ॥ ३६॥

देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा ;- ‘इन्द्र! मैं तुम्हारे शत्रु बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियों ने अपने शिष्य बलि को महान् तेज देकर शक्तियों का खजाना बना दिया है। सर्वशक्तिमान् भगवान् को छोड़कर तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलि के सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे काल के सामने प्राणी। इसलिये तुम लोग स्वर्ग को छोड़कर कहीं छिप जाओ और उस समय की प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रु का भाग्यचक्र पलटे। इस समय ब्राह्मणों के तेज से बलि की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणों का तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकर के साथ नष्ट हो जायेगा।

बृहस्पति जी देवताओं के समस्त स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओं को सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोड़कर चले गये। देवताओं के छिप जाने पर विरोचननन्दन बलि ने अमरावतीपुरी पर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों को जीत लिया।

जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियों ने अपने अनुगत शिष्य से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये। उन यज्ञों के प्रभाव से बलि की कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकों से बाहर भी दशों दिशाओं में फैल गयी और वे नक्षत्रों के राजा चन्द्रमा के समान शोभायमान हुए। ब्राह्मण-देवताओं की कृपा से प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारता से उपभोग करने लगे और अपने को कृतकृत्य-सा मानने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४ "मनु आदि के पृथक्-पृथक् कर्मों का निरूपण"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्दश:  अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४                                                               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १४ 

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥

राजोवाच

मन्वन्तरेषु भगवन् यथा मन्वादयस्त्विमे ।

यस्मिन् कर्मणि ये येन नियुक्तास्तद्वदस्व मे ॥ १॥

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! आपके द्वारा वर्णित ये मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि आदि अपने-अपने मन्वन्तर में किसके द्वारा नियुक्त होकर कौन-कौन-सा काम किस प्रकार करते हैं- यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

ऋषिरुवाच

मनवो मनुपुत्राश्च मुनयश्च महीपते ।

इन्द्राः सुरगणाश्चैव सर्वे पुरुषशासनाः ॥ २॥

यज्ञादयो याः कथिताः पौरुष्यस्तनवो नृप ।

मन्वादयो जगद्यात्रां नयन्त्याभिः प्रचोदिताः ॥ ३॥

चतुर्युगान्ते कालेन ग्रस्तान् श्रुतिगणान् यथा ।

तपसा ऋषयोऽपश्यन् यतो धर्मः सनातनः ॥ ४॥

ततो धर्मं चतुष्पादं मनवो हरिणोदिताः ।

युक्ताः सञ्चारयन्त्यद्धा स्वे स्वे काले महीं नृप ॥ ५॥

पालयन्ति प्रजापाला यावदन्तं विभागशः ।

यज्ञभागभुजो देवा ये च तत्रान्विताश्च तैः ॥ ६॥

इन्द्रो भगवता दत्तां त्रैलोक्यश्रियमूर्जिताम् ।

भुञ्जानः पाति लोकांस्त्रीन् कामं लोके प्रवर्षति ॥ ७॥

ज्ञानं चानुयुगं ब्रूते हरिः सिद्धस्वरूपधृक् ।

ऋषिरूपधरः कर्म योगं योगेशरूपधृक् ॥ ८॥

सर्गं प्रजेशरूपेण दस्यून् हन्यात्स्वराड्वपुः ।

कालरूपेण सर्वेषामभावाय पृथग्गुणः ॥ ९॥

स्तूयमानो जनैरेभिर्मायया नामरूपया ।

विमोहितात्मभिर्नानादर्शनैर्न च दृश्यते ॥ १०॥

एतत्कल्पविकल्पस्य प्रमाणं परिकीर्तितम् ।

यत्र मन्वन्तराण्याहुश्चतुर्दश पुराविदः ॥ ११॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता- सबको नियुक्त करने वाले स्वयं भगवान् ही हैं।

राजन! भगवान् के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार शरीरों का वर्णन मैंने किया है, उन्हीं की प्रेरणा से मनु आदि विश्व-व्यवस्था का संचालन करते हैं। चतुर्युगी के अन्त में समय के उलट-फेर से जब श्रुतियाँ नष्ट प्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्या से पुनः उसका साक्षात्कार करते हैं। उन श्रुतियों से ही सनातन धर्म की रक्षा होती है। राजन्! भगवान् की प्रेरणा से अपने-अपने मन्वन्तर में बड़ी सावधानी से सब-के-सब मनु पृथ्वी पर चारों चरण से परिपूर्ण धर्म का अनुष्ठान करवाते हैं। मनुपुत्र मन्वन्तरभर काल और देश दोनों का विभाग करके प्रजापालन तथा धर्मपालन का कार्य करते हैं। पंच-महायज्ञ आदि कर्मों में जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदि का सम्बन्ध है- उनके साथ देवता उस मन्वन्तर में यज्ञ का भाग स्वीकार करते हैं।

इन्द्र भगवान् की दी हुई त्रिलोकी की अतुल सम्पत्ति का उपभोग और प्रजा का पालन करते हैं। संसार में यथेष्ट वर्षा करने का अधिकार भी उन्हीं को है। भगवान् युग-युग में सनक आदि सिद्धों का रूप धारण करके ज्ञान का, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों का रूप धारण करके कर्म का और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरों के रूप में योग का उपदेश करते हैं। वे मरीचि आदि प्रजापतियों के रूप में सृष्टि का विस्तार करते हैं, सम्राट् के रूप में लुटेरों का वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणों को धारण करके कालरूप से सबको संहार की ओर ले जाते हैं। नाम और रूप की माया से प्राणियों की बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकार के दर्शनशास्त्रों के द्वारा महिमा तो भगवान् की ही गाते हैं, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते।

परीक्षित! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्प का परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्व के विद्वानों ने प्रत्येक अवान्तर कल्प में चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३ "आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३                                                              

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १३                                                                 

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥

श्रीशुक उवाच

मनुर्विवस्वतः पुत्रः श्राद्धदेव इति श्रुतः ।

सप्तमो वर्तमानो यस्तदपत्यानि मे श्रृणु ॥ १॥

इक्ष्वाकुर्नभगश्चैव धृष्टः शर्यातिरेव च ।

नरिष्यन्तोऽथ नाभागः सप्तमो दिष्ट उच्यते ॥ २॥

करूषश्च पृषध्रश्च दशमो वसुमान् स्मृतः ।

मनोर्वैवस्वतस्यैते दशपुत्राः परन्तप ॥ ३॥

आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।

अश्विनावृभवो राजन्निन्द्रस्तेषां पुरन्दरः ॥ ४॥

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।

जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः ॥ ५॥

अत्रापि भगवज्जन्म कश्यपाददितेरभूत् ।

आदित्यानामवरजो विष्णुर्वामनरूपधृक् ॥ ६॥

सङ्क्षेपतो मयोक्तानि सप्तमन्वन्तराणि ते ।

भविष्याण्यथ वक्ष्यामि विष्णोः शक्त्यान्वितानि च ॥ ७॥

विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे ।

संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तव ॥ ८॥

तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञासुतास्त्रयः ।

यमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुताञ्छृणु ॥ ९॥

सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या ।

शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ ॥ १०॥

अष्टमेऽन्तर आयाते सावर्णिर्भविता मनुः ।

निर्मोकविरजस्काद्याः सावर्णितनया नृप ॥ ११॥

तत्र देवाः सुतपसो विरजा अमृतप्रभाः ।

तेषां विरोचनसुतो बलिरिन्द्रो भविष्यति ॥ १२॥

दत्त्वेमां याचमानाय विष्णवे यः पदत्रयम् ।

राद्धमिन्द्रपदं हित्वा ततः सिद्धिमवाप्स्यति ॥ १३॥

योऽसौ भगवता बद्धः प्रीतेन सुतले पुनः ।

निवेशितोऽधिके स्वर्गादधुनाऽऽस्ते स्वराडिव ॥ १४॥

गालवो दीप्तिमान् रामो द्रोणपुत्रः कृपस्तथा ।

ऋष्यश‍ृङ्गः पितास्माकं भगवान् बादरायणः ॥ १५॥

इमे सप्तर्षयस्तत्र भविष्यन्ति स्वयोगतः ।

इदानीमासते राजन् स्वे स्व आश्रममण्डले ॥ १६॥

देवगुह्यात्सरस्वत्यां सार्वभौम इति प्रभुः ।

स्थानं पुरन्दराद्धृत्वा बलये दास्यतीश्वरः ॥ १७॥

नवमो दक्षसावर्णिर्मनुर्वरुणसम्भवः ।

भूतकेतुर्दीप्तकेतुरित्याद्यास्तत्सुता नृप ॥ १८॥

पारा मरीचिगर्भाद्या देवा इन्द्रोऽद्भुतः स्मृतः ।

द्युतिमत्प्रमुखास्तत्र भविष्यन्त्यृषयस्ततः ॥ १९॥

आयुष्मतोऽम्बुधारायामृषभो भगवत्कला ।

भविता येन संराद्धां त्रिलोकीं भोक्ष्यतेऽद्भुतः ॥ २०॥

दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो महान् ।

तत्सुता भूरिषेणाद्या हविष्मत्प्रमुखा द्विजाः ॥ २१॥

हविष्मान् सुकृतिः सत्यो जयो मूर्तिस्तदा द्विजाः ।

सुवासनविरुद्धाद्या देवाः शम्भुः सुरेश्वरः ॥ २२॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विवस्वान् के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत) मनु हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तान का वर्णन मैं करता हूँ।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र हैं- इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करुष, पृषध्र और वसुमान।

परीक्षित! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु- ये देवताओं के प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है। कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज- ये सप्तर्षि हैं। इस मन्वन्तर में भी कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से आदित्यों के छोटे भाई वामन के रूप में भगवान् विष्णु ने अवतार ग्रहण किया था।

परीक्षित! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें सात मन्वन्तरों का वर्णन सुनाया; अब भगवान् की शक्ति से युक्त अगले (आने वाले) सात मन्वन्तरों का वर्णन करता हूँ। परीक्षित! यह तो मैं तुम्हें पहले (छठे स्कन्ध में) बता चुका हूँ कि विवस्वान् (भगवान् सूर्य) की दो पत्नियाँ थीं- संज्ञा और छाया। ये दोनों ही विश्वकर्मा की पुत्री थीं। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनकी एक तीसरी पत्नी वडवा भी थी। (मेरे विचार से तो संज्ञा का ही नाम वडवा हो गया था।) उन सूर्यपत्नियों में संज्ञा से तीन सन्तानें हुईं- यम, यमी और श्राद्धदेव। छाया के भी तीन सन्तानें हुईं- सावर्णि, शनैश्चर और तपती नाम की कन्या जो संवरण की पत्नी हुई। जब संज्ञा ने वडवा का रूप धारण कर लिया, तब उससे दोनों अश्विनीकुमार हुए।

आठवें मन्वन्तर में सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि। परीक्षित! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। उन देवताओं के इन्द्र होंगे विरोचन के पुत्र बलि। विष्णु भगवान् ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हीं से तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परन्तु इन्होंने उनको सारी त्रिलोकी दे दी। राजा बलि को एक बार तो भगवान् ने बाँध दिया था, परन्तु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्ग से भी श्रेष्ठ सुतल लोक का राज्य दे दिया। वे इस समय वहीं इन्द्र के समान विराजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपद का भी परित्याग करके परमसिद्धि प्राप्त करेंगे।

गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यश्रृंग और हमारे पिता भगवान् व्यास- ये आठवें मन्वन्तर में सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योग बल से अपने-अपने आश्रम मण्डल में स्थित हैं। देवगुह्य की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नामक भगवान् का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्र से स्वर्ग का राज्य छीनकर राजा बलि को दे देंगे।

परीक्षित! वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे। पार, मारीचिगर्भ आदि देवताओं के गण होंगे और अद्भुत नाम के इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तर में द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे। आयुष्यमान् की पत्नी अम्बुधारा के गर्भ से ऋषभ के रूप में भगवान् का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हीं की दी हुई त्रिलोकी का उपभोग करेंगे। दसवें मनु होंगे उपश्लोक के पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्यमान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओं के गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु।

विष्वक्सेनो विषूच्यां तु शम्भोः सख्यं करिष्यति ।

जातः स्वांशेन भगवान् गृहे विश्वसृजो विभुः ॥ २३॥

मनुर्वै धर्मसावर्णिरेकादशम आत्मवान् ।

अनागतास्तत्सुताश्च सत्यधर्मादयो दश ॥ २४॥

विहङ्गमाः कामगमा निर्वाणरुचयः सुराः ।

इन्द्रश्च वैधृतस्तेषामृषयश्चारुणादयः ॥ २५॥

आर्यकस्य सुतस्तत्र धर्मसेतुरिति स्मृतः ।

वैधृतायां हरेरंशस्त्रिलोकीं धारयिष्यति ॥ २६॥

भविता रुद्रसावर्णी राजन् द्वादशमो मनुः ।

देववानुपदेवश्च देवश्रेष्ठादयः सुताः ॥ २७॥

ऋतधामा च तत्रेन्द्रो देवाश्च हरितादयः ।

ऋषयश्च तपोमूर्तिस्तपस्व्याग्नीध्रकादयः ॥ २८॥

स्वधामाख्यो हरेरंशः साधयिष्यति तन्मनोः ।

अन्तरं सत्यसहसः सूनृतायाः सुतो विभुः ॥ २९॥

मनुस्त्रयोदशो भाव्यो देवसावर्णिरात्मवान् ।

चित्रसेनविचित्राद्या देवसावर्णिदेहजाः ॥ ३०॥

देवाः सुकर्मसुत्रामसंज्ञा इन्द्रो दिवस्पतिः ।

निर्मोकतत्त्वदर्शाद्या भविष्यन्त्यृषयस्तदा ॥ ३१॥

देवहोत्रस्य तनय उपहर्ता दिवस्पतेः ।

योगेश्वरो हरेरंशो बृहत्यां सम्भविष्यति ॥ ३२॥

मनुर्वा इन्द्रसावर्णिश्चतुर्दशम एष्यति ।

उरुगम्भीरबुद्ध्याद्या इन्द्रसावर्णिवीर्यजाः ॥ ३३॥

पवित्राश्चाक्षुषा देवाः शुचिरिन्द्रो भविष्यति ।

अग्निर्बाहुः शुचिः शुद्धो मागधाद्यास्तपस्विनः ॥ ३४॥

सत्रायणस्य तनयो बृहद्भानुस्तदा हरिः ।

वितानायां महाराज क्रियातन्तून् वितायिता ॥ ३५॥

राजंश्चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते ।

प्रोक्तान्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः ॥ ३६॥

विश्वसृज की पत्नी विषूचि के गर्भ से भगवान् विष्वक्सेन के रूप में अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्र से मित्रता करेंगे।

ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्म सावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे। विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओं के गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे वैधृत नाम के इन्द्र होंगे। आर्यक की पत्नी वैधृता के गर्भ से धर्मसेतु के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में वे त्रिलोकी की रक्षा करेंगे।

परीक्षित! बारहवें मनु होंगे रुद्र सार्वणि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे। उस मन्वन्तर में ऋतुधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्नीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे। सत्यसहाय की पत्नी सूनृता के गर्भ से स्वधाम के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान उस मन्वन्तर का पालन करेंगे।

तेरहवें मनु होंगे परम जितेन्द्रिय देवसावर्णि। चित्रसेन, विचित्र आदि उनके पुत्र होंगे। सुकर्म और सुत्राम आदि देवगण होंगे तथा इन्द्र का नाम होगा दिवस्पति। उस समय निर्मोक और तत्त्वदर्श आदि सप्तर्षि होंगे। देवहोत्र कि पत्नी बृहती के गर्भ से योगेश्वर के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान् दिवस्पति को इन्द्रपद देंगे।

महराज! चौदहवें मनु होंगे इन्द्र सावर्णि। उरू, गम्भीर, बुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे। उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्र का नाम होगा शुचि। अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे। उस समय सत्रायण की पत्नी विताना के गर्भ से बृहद्भानु के रूप में भगवान अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्ड का विस्तार करेंगे।

परीक्षित! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों ही काल में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगी वाले कल्प के समय की गणना की जाती है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः