श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३०
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३० दानधर्म की महिमा, आतुरकाल के दान का वैशिष्ट्य, वैतरणी –गोदान की महिमा का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) त्रिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 30
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प तीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३०
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३० का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
३०
श्रीकृष्ण उवाच ।
शृणु तार्क्ष्य परं गुह्यं दानानां
दानमुत्तमम् ।
परमं सर्वदानानां परं गोप्यं
दिवौकसाम् ॥ २,३०.१ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य !
देवताओं के लिये परम गोपनीय दानों में उत्तम और सभी दानों में श्रेष्ठ दान को
सुनो-
देयमेकं महादानं कार्पासं
चोत्तमोत्तमम् ।
येन दत्तेन प्रीयन्ते भूर्भुवः
स्वरिति क्रमात् ॥ २,३०.२ ॥
ब्रह्माद्या देवताः सर्वाः
कार्याच्च प्रीतिमाप्नुयुः ।
देयमेतन्महादानं प्रेतोद्धरणहेतवे ॥
२,३०.३ ॥
चिरं वसेद्रुद्रलोके ततो राजा
भवेदिह ।
रूपवान्सुभगो वाग्मी श्रीमानतुल
विक्रमः ।
यमलोकं विनिर्जित्य स्वर्गं ताक्ष्य
स गच्छति ॥ २,३०.४ ॥
गां तिलांश्च क्षितं हेम यो ददाति
द्विजन्मने ।
तस्य जन्मार्जिर्त पापं
तत्क्षणादेवनश्यति ॥ २,३०.५ ॥
तिला गावो महादानं महापातकनाशनम् ।
तद्द्वयं दीयते विप्रे नान्यवर्णे
कदाचन ॥ २,३०.६ ॥
कल्पितं दीयते दानं तिला
गावश्चमेदिनी ।
अन्येषु नैव वर्णेषु पोष्यवर्गे
कदाचन ॥ २,३०.७ ॥
पोष्यवर्गे तथा स्त्रीषु दानं
देयमकल्पितम् ।
आतुरे वोपरागे च द्वयं दानं
विशिष्यते ।
आतुरे दीयते दानं तत्काले
चोपतिष्ठति ॥ २,३०.८ ॥
जीवतस्तु
पुनर्दत्तमुपतिष्ठत्यसंस्कृतम् ।
सत्यंसत्यं पुनः सत्यं यद्दत्तं
विकलेन्द्रिये ॥ २,३०.९ ॥
यच्चानु मोदते पुत्रस्तच्च
दानमनन्तकम् ।
अतो दद्यात्स पुत्रो वा
यावज्जीवत्ससौ चिरम् ।
अतिवाहस्तथा प्रेतो भोगांश्च लभते
यतः ॥ २,३०.१० ॥
अस्वस्था तुरकाले तु देहपाते
क्षितिस्थिते ।
देहे तथातिवाहस्य परतः प्रीणनं
भवेत् ॥ २,३०.११ ॥
पङ्गावन्धे च काणे च
ह्यर्धोन्मीलितलोचने ।
तिलेषु दर्भान्संस्तीर्य दानमुक्तं
तदक्षयम् ॥ २,३०.१२ ॥
हे गरुड ! रुई का दान सभी दानों में
उत्तम तथा महान् है । उसका दान मनुष्य को अवश्य करना चाहिये,
उसके दान से भूः भुवः स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष
और स्वर्ग – ये तीनों लोक प्रसन्न हो उठते हैं। इस कार्य से
ब्रह्मा आदि सभी देवों को प्रसन्नता होती है। प्रेत का उद्धार करने के लिये इस
महादान को करना चाहिये। ऐसे महादान का दाता चिरकाल तक रुद्रलोक में रहता है,
तदनन्तर इस लोक में जन्म लेकर रूपसम्पन्न, सौभाग्यशाली,
वाक्चतुर, लक्ष्मीवान् और अप्रतिहत- पराक्रमी
राजा होता है। अपने सुकृतों से यमलोक को जीतकर वह स्वर्गलोक में जाता है। जो
प्राणी ब्राह्मण को गौ, तिल, भूमि तथा
स्वर्ण का दान देता है, उसके जन्म-जन्मार्जित सभी पाप उसी
क्षण विनष्ट हो जाते हैं। तिल और गौ का दान महादान है, इसमें
महापापों को नाश करने की शक्ति होती है। ये दोनों दान केवल विप्र को देने चाहिये,
अन्य वर्णों को नहीं । दान के रूप में संकल्पित तिल, गौ तथा पृथ्वी आदि द्रव्य, अपने पोष्य वर्ग एवं ब्राह्मणेतर
वर्ण को न दे। पोष्यवर्ग और स्त्री जाति को असंकल्पित वस्तु दान में देनी चाहिये।
रुग्णावस्था में अथवा सूर्य एवं चन्द्रग्रहण के अवसर पर दिये गये दान विशेष
महत्त्व रखते हैं। रोगी के लिये जो दान दिया जाता है, वह
उसके लिये तत्काल यथोचित फल देनेवाला होता है। यदि रोगी दान देने के बाद रोगमुक्त
होकर पुन: जीवन प्राप्त कर लेता है तो उसके निमित्त दिया गया दान निश्चित ही उसे
प्राप्त होता है। विकलेन्द्रिय की विकलाङ्गता को नष्ट करने के लिये जो दान दिया
जाता है वह दान भी अवश्य ही यथायोग्य फलदायक होता है । जिस दान का पुत्र अनुमोदन
करता है, उस दान का फल अनन्त होता है। अतः उसके सगे-सम्बन्धी
अथवा पुत्र को तबतक दान देना चाहिये, जबतक उसका आतुर
सम्बन्धी या पिता जीवित हो; क्योंकि अतिवाहिक प्रेत उसका भोग
करता है। अस्वस्थ अवस्था में- आतुरकाल में देहपात हो जाने पर पृथ्वी पर पड़े रहने की
स्थिति में दिया गया दान अतिवाहिक शरीर के लिये प्रीतिकारक होता है। लँगड़े,
अंधे, काने और अर्धनिमीलित नेत्रवाले रोगी के
लिये तिल के ऊपर कुश बिछाकर उसके ऊपर आतुर को लिटाकर दिया गया दान उत्तम और अक्षय
होता है ।
तिला लौहं हिरण्यञ्च कार्पासं लवणं
तथा ।
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं
स्मृतम् ॥ २,३०.१३ ॥
लोहदानाद्यमस्तुष्येद्धर्म
राजस्तिलार्पणात् ।
लवणे दीयमाने तु न भयं विद्यते
यमात् ॥ २,३०.१४ ॥
कर्पासस्य तु दानेन न भूतेभ्यो भयं
भवेत् ।
तारयन्ति नरं गावस्त्रिविधाश्चैव
पातकात् ॥ २,३०.१५ ॥
हेमदानात्सुखं स्वर्गे
भूमिदानान्नृपो भवेत् ।
हेमभूमिप्रदानाच्च न पीडा नरके
भवेत् ॥ २,३०.१६ ॥
सर्वेऽपि यमदूताश्च यमरूपा विभीषणाः
।
सर्वे ते वरदा यान्ति सप्तधान्येन
प्रीणिताः ॥ २,३०.१७ ॥
तिल, लौह, स्वर्ण, रुई, नमक, सप्तधान्य, भूमि तथा गौ—ये एक से बढ़कर एक पवित्र माने गये हैं। लौह-दान से यमराज और तिल – दान से
धर्मराज संतुष्ट होते हैं। नमक का दान करने पर प्राणी को यमराज से भय नहीं रह
जाता। रुई का दान देने पर भूतयोनि से भय नहीं रहता । दान में दी गयी गायें मनुष्य को
त्रिविध पापों से निर्मुक्त करती हैं । स्वर्ण-दान से दाता को स्वर्ग का सुख
प्राप्त होता है। भूमि दान से दाता राजा होता है। स्वर्ण और भूमि- इन दोनों का दान
देने से प्राणी को नरक में किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती । यमलोक में जितने भी
यमराज के दूत हैं, वे सभी उसी यम के समान ही महाभयंकर हैं ।
सप्तधान्य का दान देने से वे प्रसन्न होकर दानदाताओं के लिये वरदाता बन जाते हैं।
विष्णोः स्मरणमात्रेण प्राप्यते
परमा गतिः ।
एतत्ते सर्वमाख्यातं मर्त्यैर्या
गतिराप्यते ॥ २,३०.१८ ॥
तस्मात्पुत्रं प्रशंसन्ति ददाति
पितुराज्ञया ।
भूमिष्ठं पितरं दृष्ट्वा ह्यर्धोन्मीलितलोचनम्
॥ २,३०.१९ ॥
तस्मिन् काले सुतो यस्तु सर्वदानानि
दापयेत् ।
गयाश्राद्धाद्विशिष्येत स पुत्रः
कुलनन्दनः ॥ २,३०.२० ॥
स्वस्थानाच्चलितश्चासौ विकलस्य
पितुस्तदा ।
पुत्रैर्यत्नेन कर्तव्या पितरं
तारयन्ति ते ॥ २,३०.२१ ॥
हे गरुड ! भगवान् विष्णु का स्मरणमात्र
करने से प्राणी को परम गति प्राप्त होती है। मनुष्य जो गति प्राप्त करता है,
वह सब मैंने तुम्हें बता दिया । पिता की आज्ञा से जो पुत्र दान देता
है, उसकी सभी प्रशंसा करते हैं। भूमि पर सुलाये गये मरणासन्न
पिता के उद्देश्य से जो पुत्र सभी प्रकार का दान देता है, वह
पुत्र कुलनन्दन है। उसके द्वारा दिया गया दान गया- तीर्थ में किये गये श्राद्ध से
भी बढ़कर है। वह पुत्र अपने कुल को आनन्दित करनेवाला होता है । जिस समय अपने लोक को
छोड़कर बेचैन पिता की परलोक यात्रा का काल समीप हो, उस समय
पुत्रों को प्रयत्नपूर्वक दान देना चाहिये; क्योंकि वे ही
दान पिता को पार करते हैं । पुत्र को पिता की अन्त्येष्टि-क्रिया अवश्य सम्पन्न
करनी चाहिये ।
किं दत्तैर्बहुभिर्दानैः
पितुरन्त्येष्टिमाचरेत् ।
अश्वमेधो महायज्ञः कलां नार्हति
षोडशीम् ॥ २,३०.२२ ॥
धर्मात्मा स नु पुत्रो वैदेवैरपि सुपूज्यते
।
दापयेद्यस्तु दानानि ह्यातुरं पितरं
भुवि ॥ २,३०.२३ ॥
इतना करनेमात्र से अन्य सभी बहुविध
दानों का फल प्राप्त हो जाता है; क्योंकि
अश्वमेध - जैसा महायज्ञ भी इस पुण्य के सोलहवें अंश की क्षमता नहीं रखता । पृथ्वी पर
पड़े हुए आतुर पिता से जो धर्मात्मा पुत्र दान दिलाता है, उसकी
पूजा देवता भी करते हैं ।
लोहदानञ्च दातव्यं भूमियुक्तेन
पाणिना ।
यमं भीमञ्च नाप्नोति न गच्छेत्तस्य
वेश्मनि ॥ २,३०.२४ ॥
कुठारो मुसलो दण्डः खड्गश्च
च्छुरिका तथा ।
एतानि यमहस्तेषु दृश्यानि
पापकर्मिणाम् ॥ २,३०.२५ ॥
तस्माल्लोहस्य दानन्तु
ब्राह्मणायातुरो ददेत् ।
यमायुधानां सन्तुष्ट्यै
दानमेतदुदाहृतम् ॥ २,३०.२६ ॥
गर्भस्थाः शिशवो ये च युवानः
स्थविरास्तथा ।
एभिर्दानविशेषैस्तु निर्दहेयुः
स्वपातकम् ॥ २,३०.२७ ॥
छुरिणः श्यामशबलौ षण्डामर्का
उदुम्बराः ।
शबला श्यामदूता ये लोहदानेन
प्रीणिताः ॥ २,३०.२८ ॥
पुत्राः पौत्रास्तथा बन्धुः
सगोत्राः सुहहृदस्तथा ।
ददते नातुरे दानं ब्रह्मघ्नैस्तु
समा हि ते ॥ २,३०.२९ ॥
लौह का दान करनेवाला दाता महाभयानक
आकृतिवाले यमराज के निकट न तो जाता है और न तो नारकीय लोक को ही प्राप्त करता है।
पापियों को भयभीत करने के लिये यमराज के हाथों में कुठार,
मूसल, दण्ड, खड्ग और
छुरिका रहती है; इसलिये प्राणी को चाहिये कि वह ब्राह्मण को
लौह- दान दे। यह दान यमराज के आयुधों की संतुष्टि के लिये कहा गया है। गर्भस्थ
प्राणी, शिशु, युवा और वृद्ध– ये जो भी हैं, इन दानों से अपने समस्त पापों को जला
देते हैं। श्याम एवं शबल वर्ण के षण्ड तथा मर्क और गूलर के सदृश मांसल, हाथ में छूरी धारण करनेवाले, काले- चितकबरे यम के
दूत लौह-दान से प्रसन्न होते हैं। यदि पुत्र-पौत्र, बन्धु-
बान्धव, सगोत्री और मित्र अपने रोगी के लिये दान नहीं देते
तो वे ब्रह्महन्ता के समान ही पापी हैं।
पञ्चत्वे भूमियुक्तस्य शृणु तस्य च
या गतिः ।
अतिवाहः पुनः प्रेतोवर्षोर्ध्वं
सुकृतं लभेत् ॥ २,३०.३० ॥
अग्नित्रयं त्रयो लोकास्त्रयो
वेदास्त्रयोऽमराः ।
कालत्रयं त्रिसन्ध्यं च त्रयो
वर्णास्त्रिशक्तयः ॥ २,३०.३१ ॥
पादादूर्ध्वं कटिं यावत्तावद्ब्रह्याधितिष्ठति
।
ग्रीवां यावद्धरिर्नाभेः शरीरे
मनुजस्य च ॥ २,३०.३२ ॥
मस्तके तिष्ठतीशानो व्यक्ताव्यक्तो
महेश्वरः ।
एकमूर्तेस्त्रयो भागा ब्रह्मा
विष्णुहेश्वराः ॥ २,३०.३३ ॥
हे पक्षीन्द्र ! भूमि पर स्थित
प्राणी की मृत्यु हो जाने पर उसकी क्या गति होती है, इसे सुनो ! अतिवाहिक शरीरवाला प्रेत वर्ष समाप्त होने के पश्चात् पुनः
पुण्य का लाभ प्राप्त करता है । इस संसार में तीन अग्नि, तीन
लोक, तीन वेद, तीन देवता, तीन काल, तीन संधियाँ, तीन
वर्ण तथा तीन शक्तियाँ मानी गयी हैं। मनुष्य के शरीर में पैर से ऊपर कटिप्रान्ततक
ब्रह्मा निवास करते हैं । नाभि से लेकर ग्रीवा – भागतक हरि का वास रहता है और उसके
ऊपर मुख से लेकर मस्तकतक व्यक्त तथा अव्यक्त-स्वरूपवाले महादेव शिव का निवास है ।
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इनका शरीर में तीन भागों
में अवस्थान है।
अहं प्राणः शरीरस्थो
भूतग्रामचतुष्टये ।
धर्माधर्मे मतिं दद्यात्सुखदुःखे
कृताकृते ॥ २,३०.३४ ॥
जन्तोर्वुद्धिं समास्थाय
पूर्वमर्माधिवासिताम् ।
अहमेव तथा जीवान्प्रेरयामि च कर्मसु
।
स्वर्गं च नरकं मोक्षं प्रयान्ति
प्राणिनो ध्रुवम् ॥ २,३०.३५ ॥
स्वर्गस्थं नरकस्थं वा श्राद्धे
वाप्यायनं भवेत् ।
तस्माच्छ्राद्धानि कुर्वीत
त्रिविधानि विचक्षणः ॥ २,३०.३६ ॥
मत्स्यं कर्मं च वाराहं नारसिंहञ्च
वामनम् ।
रामं रामं च कृष्णं च बुद्धं चैव
सकल्किनम् ।
एतानि दश नामानि स्मर्तव्यानि सदा
बुधैः ॥ २,३०.३७ ॥
स्वर्गं जीवाः सुखं यान्ति च्युताः स्वर्गाच्च
मानवाः ।
लब्ध्वा सुखं च वित्तं च
दयादाक्षिण्यसंयुताः ।
पुत्रपौत्रैर्धनैराढ्या जीवेयुः
शरदां शतम् ॥ २,३०.३८ ॥
आतुरे च ददेद्दानं विष्णुपूजाञ्च
कारयेत् ।
अष्टाक्षरं तथा मन्त्रं जपेद्वा
द्वादशाक्षरम् ॥ २,३०.३९ ॥
मैं ही जरायुज,
अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज के शरीरों में
प्राणरूप से स्थित रहता हूँ । धर्म-अधर्म, सुख-दुःख तथा
कृत-अकृत में बुद्धि को मैं ही प्रेरित करता हूँ। मैं ही स्वयं प्राणी की बुद्धि में
बैठकर पूर्व कर्म के अनुसार उसको फल प्रदान करता हूँ। प्राणियों को मैं ही कर्म में
प्रेरित करता हूँ । उसी के अनुसार प्राणी निश्चित ही स्वर्ग, नरक और मोक्ष प्राप्त करता है। स्वर्ग अथवा नरक में गये हुए प्राणी की
तृप्ति श्राद्ध के द्वारा होती है, इसलिये विद्वान् व्यक्ति को
तीनों प्रकार का श्राद्ध करना चाहिये । मत्स्य, कूर्म,
वराह, नारसिंह, वामन,
परशुराम, श्रीराम, कृष्ण,
बुद्ध तथा कल्कि ये दस नाम सदैव मनीषियों के लिये स्मरण करने योग्य
हैं। इनका स्मरण करने से स्वर्ग में गये हुए प्राणी सुख का भोग करते हैं और स्वर्ग
से पुन: इस लोक में आने पर सुख और धन-धान्य से पूर्ण होकर दया- दाक्षिण्य आदि
सद्गुणों से भरे रहते हैं, वे पुत्र-पौत्र से युक्त और
धनाढ्य होकर सौ वर्षतक जीते हैं। रोगग्रस्त होने पर मनुष्य के लिये दान देना
चाहिये और भगवान् विष्णु की पूजा करनी या करानी चाहिये। उस समय उसे अष्टाक्षर अथवा
द्वादशाक्षर महामन्त्र का जप करना चाहिये ।
पूजयेच्छुक्लपुष्पैश्च नैवेद्यैर्घृतपाचितैः
।
तथा गन्धैश्च धूपैश्च
श्रुतिस्मृतिमनूदितैः ॥ २,३०.४० ॥
श्वेत पुष्प से,
घी में पकाये गये नैवेद्य से, गन्ध- धूप से
भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिये तथा श्रुतियों और स्मृतियों में अभिवर्णित
स्तुतियों से भगवान् विष्णु की स्तुति इस प्रकार करनी चाहिये-
विष्णुर्माता पिता विष्णुर्विष्णुः
स्वजनबान्धवाः ।
यत्र विष्णुं न पश्यामि तेन वासेन
किं मम ॥ २,३०.४१ ॥
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः
पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्वं
विष्णुमयं जगत् ॥ २,३०.४२ ॥
'विष्णु ही माता हैं, विष्णु ही पिता हैं, विष्णु ही अपने स्वजन और बान्धव
हैं। जहाँ पर मैं विष्णु को नहीं देखता हूँ, वहाँ निवास करने
से मुझे क्या लाभ ? विष्णु जल में हैं, विष्णु स्थल में हैं, विष्णु पर्वत की चोटी पर हैं
और विष्णु चारों ओर से मालारूप में घिरी हुई ज्वालामाला से व्याप्त स्थान में
अवस्थित हैं । यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुमय है।'
वयमापो वयं पृथ्वी वयं दर्भा वयं
तिलाः ।
वयं गावो वयं राजा वयं वायुर्वयं
प्रजाः ॥ २,३०.४३ ॥
वयं हेम वयं धान्यं वयं मधु वयं
घृतम् ।
वयं विप्रा वयं देवा वयं शम्भुश्च
भूर्भुवः ॥ २,३०.४४ ॥
अहं दाता अहं ग्राही अहं यज्वा अहं
क्रतुः ।
अहं हर्ता अहं धर्मो अहं पृथ्वी
ह्यहं जलम् ॥ २,३०.४५ ॥
धर्माधर्मे मतिं दद्यां कर्मभिस्तु
शुभाशुभैः ।
यत्कर्म क्रियते क्वापि
पूर्वजन्मार्जितं खग ॥ २,३०.४६ ॥
धर्मे मतिमहं दद्यामधर्मेऽप्यहमेव च
।
यातनां कुरुते सोऽपि धर्मे मुक्तिं
ददाम्यहम् ॥ २,३०.४७ ॥
ब्राह्मण,
जल, पृथ्वी आदि जितने भी पदार्थ हैं, उन्हें अपना ही स्वरूप समझना चाहिये। इसलिये हे खगेश ! किसी भी स्थान पर
मनुष्य पूर्वजन्मार्जित पाप-पुण्य के अनुसार जिस कर्म को करता है, उसका फलदाता मैं ही हूँ। मैं ही प्राणी की बुद्धि को धर्म में नियुक्त
करता हूँ और मुक्ति मैं ही देता हूँ ।
मनुजानां हिता तार्क्ष्य अन्ते
वैतरणी स्मृता ।
तयावमत्य पापौघं विष्णुलोकं स
गच्छति ॥ २,३०.४८ ॥
बालत्वे यच्च कौमारे यच्च परिणतौ च
यत् ।
सर्वावम्थाकृतं पापं यच्च
जन्मान्तरेष्वपि ॥ २,३०.४९ ॥
यन्निशायां तथा
प्रातर्यन्मध्याह्नापराह्नयोः ।
सन्ध्ययोर्यत्कृतं कर्म कर्मणा मनसा
गिरा ॥ २,३०.५० ॥
दत्त्वा वरां सकृदपि कपिलां
सर्वकामिकाम् ।
उद्धरेदन्तकाले स आत्मानं
पापसञ्चयात् ॥ २,३०.५१ ॥
हे तार्क्ष्य! अन्त-समय आने पर
मनुष्यों का हित करनेवाली वैतरणी नदी मानी गयी है। उसी के जल से अपने पाप-समूह को
धोकर प्राणी विष्णुलोक को जाता है । बाल्यावस्था का जो पाप है,
कुमारावस्था में जो पाप हुआ है, यौवनावस्था का
जो पाप है और जन्म-जन्मान्तर में समस्त अवस्थाओं के बीच भी जो पाप किया गया है,
रात्रि - प्रातः, मध्याह्न - अपराह्न तथा
दोनों संध्याओं के मध्य मन, वाणी और कर्म से जो पाप हुआ है,
उन सभी पापों के समूह से प्राणी अपना उद्धार अन्तिम क्षण में सर्वकामनाओं
को सिद्ध करनेवाली एक भी श्रेष्ठतमा कपिला गौ का दान दे करके कर सकता है। [ गोदान
करते समय परमात्मा से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये - परमात्मन् ! ]
गावो ममाग्रतः सन्तु पृष्ठतः
पार्श्वतस्तथा ।
गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये
वसाम्यहम् ॥ २,३०.५२ ॥
या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवे
व्यवस्थिता ।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु
॥ २,३०.५३ ॥
'गायें ही मेरे आगे रहें, गायें ही मेरे पीछे और पार्श्वभाग में रहें, गायें ही
मेरे हृदय में निवास करें, मैं गायों के बीच में ही रहूँ। जो
सभी प्राणियों की लक्ष्मीस्वरूपा हैं, जो देवताओं में
प्रतिष्ठित हैं, वे गौरूपिणी देवी मेरे सभी पापों को विनष्ट
करें।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे नानादाननिरूपणं
नाम त्रिंसोऽध्यायः॥
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गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प के पूर्व के अंक पढ़ें-
अध्याय 1
अध्याय 2 अध्याय 3 अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6 अध्याय 7 अध्याय 8 अध्याय 9 अध्याय 10
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