श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३० दानधर्म की महिमा, आतुरकाल के दान का वैशिष्ट्य, वैतरणी –गोदान की महिमा का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३०

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) त्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 30

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प तीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३०                 

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३० का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३०            

श्रीकृष्ण उवाच ।

शृणु तार्क्ष्य परं गुह्यं दानानां दानमुत्तमम् ।

परमं सर्वदानानां परं गोप्यं दिवौकसाम् ॥ २,३०.१ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य ! देवताओं के लिये परम गोपनीय दानों में उत्तम और सभी दानों में श्रेष्ठ दान को सुनो-

देयमेकं महादानं कार्पासं चोत्तमोत्तमम् ।

येन दत्तेन प्रीयन्ते भूर्भुवः स्वरिति क्रमात् ॥ २,३०.२ ॥

ब्रह्माद्या देवताः सर्वाः कार्याच्च प्रीतिमाप्नुयुः ।

देयमेतन्महादानं प्रेतोद्धरणहेतवे ॥ २,३०.३ ॥

चिरं वसेद्रुद्रलोके ततो राजा भवेदिह ।

रूपवान्सुभगो वाग्मी श्रीमानतुल विक्रमः ।

यमलोकं विनिर्जित्य स्वर्गं ताक्ष्य स गच्छति ॥ २,३०.४ ॥

गां तिलांश्च क्षितं हेम यो ददाति द्विजन्मने ।

तस्य जन्मार्जिर्त पापं तत्क्षणादेवनश्यति ॥ २,३०.५ ॥

तिला गावो महादानं महापातकनाशनम् ।

तद्द्वयं दीयते विप्रे नान्यवर्णे कदाचन ॥ २,३०.६ ॥

कल्पितं दीयते दानं तिला गावश्चमेदिनी ।

अन्येषु नैव वर्णेषु पोष्यवर्गे कदाचन ॥ २,३०.७ ॥

पोष्यवर्गे तथा स्त्रीषु दानं देयमकल्पितम् ।

आतुरे वोपरागे च द्वयं दानं विशिष्यते ।

आतुरे दीयते दानं तत्काले चोपतिष्ठति ॥ २,३०.८ ॥

जीवतस्तु पुनर्दत्तमुपतिष्ठत्यसंस्कृतम् ।

सत्यंसत्यं पुनः सत्यं यद्दत्तं विकलेन्द्रिये ॥ २,३०.९ ॥

यच्चानु मोदते पुत्रस्तच्च दानमनन्तकम् ।

अतो दद्यात्स पुत्रो वा यावज्जीवत्ससौ चिरम् ।

अतिवाहस्तथा प्रेतो भोगांश्च लभते यतः ॥ २,३०.१० ॥

अस्वस्था तुरकाले तु देहपाते क्षितिस्थिते ।

देहे तथातिवाहस्य परतः प्रीणनं भवेत् ॥ २,३०.११ ॥

पङ्गावन्धे च काणे च ह्यर्धोन्मीलितलोचने ।

तिलेषु दर्भान्संस्तीर्य दानमुक्तं तदक्षयम् ॥ २,३०.१२ ॥

हे गरुड ! रुई का दान सभी दानों में उत्तम तथा महान् है । उसका दान मनुष्य को अवश्य करना चाहिये, उसके दान से भूः भुवः स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग ये तीनों लोक प्रसन्न हो उठते हैं। इस कार्य से ब्रह्मा आदि सभी देवों को प्रसन्नता होती है। प्रेत का उद्धार करने के लिये इस महादान को करना चाहिये। ऐसे महादान का दाता चिरकाल तक रुद्रलोक में रहता है, तदनन्तर इस लोक में जन्म लेकर रूपसम्पन्न, सौभाग्यशाली, वाक्चतुर, लक्ष्मीवान् और अप्रतिहत- पराक्रमी राजा होता है। अपने सुकृतों से यमलोक को जीतकर वह स्वर्गलोक में जाता है। जो प्राणी ब्राह्मण को गौ, तिल, भूमि तथा स्वर्ण का दान देता है, उसके जन्म-जन्मार्जित सभी पाप उसी क्षण विनष्ट हो जाते हैं। तिल और गौ का दान महादान है, इसमें महापापों को नाश करने की शक्ति होती है। ये दोनों दान केवल विप्र को देने चाहिये, अन्य वर्णों को नहीं । दान के रूप में संकल्पित तिल, गौ तथा पृथ्वी आदि द्रव्य, अपने पोष्य वर्ग एवं ब्राह्मणेतर वर्ण को न दे। पोष्यवर्ग और स्त्री जाति को असंकल्पित वस्तु दान में देनी चाहिये। रुग्णावस्था में अथवा सूर्य एवं चन्द्रग्रहण के अवसर पर दिये गये दान विशेष महत्त्व रखते हैं। रोगी के लिये जो दान दिया जाता है, वह उसके लिये तत्काल यथोचित फल देनेवाला होता है। यदि रोगी दान देने के बाद रोगमुक्त होकर पुन: जीवन प्राप्त कर लेता है तो उसके निमित्त दिया गया दान निश्चित ही उसे प्राप्त होता है। विकलेन्द्रिय की विकलाङ्गता को नष्ट करने के लिये जो दान दिया जाता है वह दान भी अवश्य ही यथायोग्य फलदायक होता है । जिस दान का पुत्र अनुमोदन करता है, उस दान का फल अनन्त होता है। अतः उसके सगे-सम्बन्धी अथवा पुत्र को तबतक दान देना चाहिये, जबतक उसका आतुर सम्बन्धी या पिता जीवित हो; क्योंकि अतिवाहिक प्रेत उसका भोग करता है। अस्वस्थ अवस्था में- आतुरकाल में देहपात हो जाने पर पृथ्वी पर पड़े रहने की स्थिति में दिया गया दान अतिवाहिक शरीर के लिये प्रीतिकारक होता है। लँगड़े, अंधे, काने और अर्धनिमीलित नेत्रवाले रोगी के लिये तिल के ऊपर कुश बिछाकर उसके ऊपर आतुर को लिटाकर दिया गया दान उत्तम और अक्षय होता है ।

तिला लौहं हिरण्यञ्च कार्पासं लवणं तथा ।

सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं स्मृतम् ॥ २,३०.१३ ॥

लोहदानाद्यमस्तुष्येद्धर्म राजस्तिलार्पणात् ।

लवणे दीयमाने तु न भयं विद्यते यमात् ॥ २,३०.१४ ॥

कर्पासस्य तु दानेन न भूतेभ्यो भयं भवेत् ।

तारयन्ति नरं गावस्त्रिविधाश्चैव पातकात् ॥ २,३०.१५ ॥

हेमदानात्सुखं स्वर्गे भूमिदानान्नृपो भवेत् ।

हेमभूमिप्रदानाच्च न पीडा नरके भवेत् ॥ २,३०.१६ ॥

सर्वेऽपि यमदूताश्च यमरूपा विभीषणाः ।

सर्वे ते वरदा यान्ति सप्तधान्येन प्रीणिताः ॥ २,३०.१७ ॥

तिल, लौह, स्वर्ण, रुई, नमक, सप्तधान्य, भूमि तथा गौये एक से बढ़कर एक पवित्र माने गये हैं। लौह-दान से यमराज और तिल – दान से धर्मराज संतुष्ट होते हैं। नमक का दान करने पर प्राणी को यमराज से भय नहीं रह जाता। रुई का दान देने पर भूतयोनि से भय नहीं रहता । दान में दी गयी गायें मनुष्य को त्रिविध पापों से निर्मुक्त करती हैं । स्वर्ण-दान से दाता को स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। भूमि दान से दाता राजा होता है। स्वर्ण और भूमि- इन दोनों का दान देने से प्राणी को नरक में किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती । यमलोक में जितने भी यमराज के दूत हैं, वे सभी उसी यम के समान ही महाभयंकर हैं । सप्तधान्य का दान देने से वे प्रसन्न होकर दानदाताओं के लिये वरदाता बन जाते हैं।

विष्णोः स्मरणमात्रेण प्राप्यते परमा गतिः ।

एतत्ते सर्वमाख्यातं मर्त्यैर्या गतिराप्यते ॥ २,३०.१८ ॥

तस्मात्पुत्रं प्रशंसन्ति ददाति पितुराज्ञया ।

भूमिष्ठं पितरं दृष्ट्वा ह्यर्धोन्मीलितलोचनम् ॥ २,३०.१९ ॥

तस्मिन् काले सुतो यस्तु सर्वदानानि दापयेत् ।

गयाश्राद्धाद्विशिष्येत स पुत्रः कुलनन्दनः ॥ २,३०.२० ॥

स्वस्थानाच्चलितश्चासौ विकलस्य पितुस्तदा ।

पुत्रैर्यत्नेन कर्तव्या पितरं तारयन्ति ते ॥ २,३०.२१ ॥

हे गरुड ! भगवान् विष्णु का स्मरणमात्र करने से प्राणी को परम गति प्राप्त होती है। मनुष्य जो गति प्राप्त करता है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया । पिता की आज्ञा से जो पुत्र दान देता है, उसकी सभी प्रशंसा करते हैं। भूमि पर सुलाये गये मरणासन्न पिता के उद्देश्य से जो पुत्र सभी प्रकार का दान देता है, वह पुत्र कुलनन्दन है। उसके द्वारा दिया गया दान गया- तीर्थ में किये गये श्राद्ध से भी बढ़कर है। वह पुत्र अपने कुल को आनन्दित करनेवाला होता है । जिस समय अपने लोक को छोड़कर बेचैन पिता की परलोक यात्रा का काल समीप हो, उस समय पुत्रों को प्रयत्नपूर्वक दान देना चाहिये; क्योंकि वे ही दान पिता को पार करते हैं । पुत्र को पिता की अन्त्येष्टि-क्रिया अवश्य सम्पन्न करनी चाहिये ।

किं दत्तैर्बहुभिर्दानैः पितुरन्त्येष्टिमाचरेत् ।

अश्वमेधो महायज्ञः कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २,३०.२२ ॥

धर्मात्मा स नु पुत्रो वैदेवैरपि सुपूज्यते ।

दापयेद्यस्तु दानानि ह्यातुरं पितरं भुवि ॥ २,३०.२३ ॥

इतना करनेमात्र से अन्य सभी बहुविध दानों का फल प्राप्त हो जाता है; क्योंकि अश्वमेध - जैसा महायज्ञ भी इस पुण्य के सोलहवें अंश की क्षमता नहीं रखता । पृथ्वी पर पड़े हुए आतुर पिता से जो धर्मात्मा पुत्र दान दिलाता है, उसकी पूजा देवता भी करते हैं ।

लोहदानञ्च दातव्यं भूमियुक्तेन पाणिना ।

यमं भीमञ्च नाप्नोति न गच्छेत्तस्य वेश्मनि ॥ २,३०.२४ ॥

कुठारो मुसलो दण्डः खड्गश्च च्छुरिका तथा ।

एतानि यमहस्तेषु दृश्यानि पापकर्मिणाम् ॥ २,३०.२५ ॥

तस्माल्लोहस्य दानन्तु ब्राह्मणायातुरो ददेत् ।

यमायुधानां सन्तुष्ट्यै दानमेतदुदाहृतम् ॥ २,३०.२६ ॥

गर्भस्थाः शिशवो ये च युवानः स्थविरास्तथा ।

एभिर्दानविशेषैस्तु निर्दहेयुः स्वपातकम् ॥ २,३०.२७ ॥

छुरिणः श्यामशबलौ षण्डामर्का उदुम्बराः ।

शबला श्यामदूता ये लोहदानेन प्रीणिताः ॥ २,३०.२८ ॥

पुत्राः पौत्रास्तथा बन्धुः सगोत्राः सुहहृदस्तथा ।

ददते नातुरे दानं ब्रह्मघ्नैस्तु समा हि ते ॥ २,३०.२९ ॥

लौह का दान करनेवाला दाता महाभयानक आकृतिवाले यमराज के निकट न तो जाता है और न तो नारकीय लोक को ही प्राप्त करता है। पापियों को भयभीत करने के लिये यमराज के हाथों में कुठार, मूसल, दण्ड, खड्ग और छुरिका रहती है; इसलिये प्राणी को चाहिये कि वह ब्राह्मण को लौह- दान दे। यह दान यमराज के आयुधों की संतुष्टि के लिये कहा गया है। गर्भस्थ प्राणी, शिशु, युवा और वृद्धये जो भी हैं, इन दानों से अपने समस्त पापों को जला देते हैं। श्याम एवं शबल वर्ण के षण्ड तथा मर्क और गूलर के सदृश मांसल, हाथ में छूरी धारण करनेवाले, काले- चितकबरे यम के दूत लौह-दान से प्रसन्न होते हैं। यदि पुत्र-पौत्र, बन्धु- बान्धव, सगोत्री और मित्र अपने रोगी के लिये दान नहीं देते तो वे ब्रह्महन्ता के समान ही पापी हैं।

पञ्चत्वे भूमियुक्तस्य शृणु तस्य च या गतिः ।

अतिवाहः पुनः प्रेतोवर्षोर्ध्वं सुकृतं लभेत् ॥ २,३०.३० ॥

अग्नित्रयं त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रयोऽमराः ।

कालत्रयं त्रिसन्ध्यं च त्रयो वर्णास्त्रिशक्तयः ॥ २,३०.३१ ॥

पादादूर्ध्वं कटिं यावत्तावद्ब्रह्याधितिष्ठति ।

ग्रीवां यावद्धरिर्नाभेः शरीरे मनुजस्य च ॥ २,३०.३२ ॥

मस्तके तिष्ठतीशानो व्यक्ताव्यक्तो महेश्वरः ।

एकमूर्तेस्त्रयो भागा ब्रह्मा विष्णुहेश्वराः ॥ २,३०.३३ ॥

हे पक्षीन्द्र ! भूमि पर स्थित प्राणी की मृत्यु हो जाने पर उसकी क्या गति होती है, इसे सुनो ! अतिवाहिक शरीरवाला प्रेत वर्ष समाप्त होने के पश्चात् पुनः पुण्य का लाभ प्राप्त करता है । इस संसार में तीन अग्नि, तीन लोक, तीन वेद, तीन देवता, तीन काल, तीन संधियाँ, तीन वर्ण तथा तीन शक्तियाँ मानी गयी हैं। मनुष्य के शरीर में पैर से ऊपर कटिप्रान्ततक ब्रह्मा निवास करते हैं । नाभि से लेकर ग्रीवा – भागतक हरि का वास रहता है और उसके ऊपर मुख से लेकर मस्तकतक व्यक्त तथा अव्यक्त-स्वरूपवाले महादेव शिव का निवास है । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इनका शरीर में तीन भागों में अवस्थान है।

अहं प्राणः शरीरस्थो भूतग्रामचतुष्टये ।

धर्माधर्मे मतिं दद्यात्सुखदुःखे कृताकृते ॥ २,३०.३४ ॥

जन्तोर्वुद्धिं समास्थाय पूर्वमर्माधिवासिताम् ।

अहमेव तथा जीवान्प्रेरयामि च कर्मसु ।

स्वर्गं च नरकं मोक्षं प्रयान्ति प्राणिनो ध्रुवम् ॥ २,३०.३५ ॥

स्वर्गस्थं नरकस्थं वा श्राद्धे वाप्यायनं भवेत् ।

तस्माच्छ्राद्धानि कुर्वीत त्रिविधानि विचक्षणः ॥ २,३०.३६ ॥

मत्स्यं कर्मं च वाराहं नारसिंहञ्च वामनम् ।

रामं रामं च कृष्णं च बुद्धं चैव सकल्किनम् ।

एतानि दश नामानि स्मर्तव्यानि सदा बुधैः ॥ २,३०.३७ ॥

स्वर्गं जीवाः सुखं यान्ति च्युताः स्वर्गाच्च मानवाः ।

लब्ध्वा सुखं च वित्तं च दयादाक्षिण्यसंयुताः ।

पुत्रपौत्रैर्धनैराढ्या जीवेयुः शरदां शतम् ॥ २,३०.३८ ॥

आतुरे च ददेद्दानं विष्णुपूजाञ्च कारयेत् ।

अष्टाक्षरं तथा मन्त्रं जपेद्वा द्वादशाक्षरम् ॥ २,३०.३९ ॥

मैं ही जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज के शरीरों में प्राणरूप से स्थित रहता हूँ । धर्म-अधर्म, सुख-दुःख तथा कृत-अकृत में बुद्धि को मैं ही प्रेरित करता हूँ। मैं ही स्वयं प्राणी की बुद्धि में बैठकर पूर्व कर्म के अनुसार उसको फल प्रदान करता हूँ। प्राणियों को मैं ही कर्म में प्रेरित करता हूँ । उसी के अनुसार प्राणी निश्चित ही स्वर्ग, नरक और मोक्ष प्राप्त करता है। स्वर्ग अथवा नरक में गये हुए प्राणी की तृप्ति श्राद्ध के द्वारा होती है, इसलिये विद्वान् व्यक्ति को तीनों प्रकार का श्राद्ध करना चाहिये । मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि ये दस नाम सदैव मनीषियों के लिये स्मरण करने योग्य हैं। इनका स्मरण करने से स्वर्ग में गये हुए प्राणी सुख का भोग करते हैं और स्वर्ग से पुन: इस लोक में आने पर सुख और धन-धान्य से पूर्ण होकर दया- दाक्षिण्य आदि सद्गुणों से भरे रहते हैं, वे पुत्र-पौत्र से युक्त और धनाढ्य होकर सौ वर्षतक जीते हैं। रोगग्रस्त होने पर मनुष्य के लिये दान देना चाहिये और भगवान् विष्णु की पूजा करनी या करानी चाहिये। उस समय उसे अष्टाक्षर अथवा द्वादशाक्षर महामन्त्र का जप करना चाहिये ।

पूजयेच्छुक्लपुष्पैश्च नैवेद्यैर्घृतपाचितैः ।

तथा गन्धैश्च धूपैश्च श्रुतिस्मृतिमनूदितैः ॥ २,३०.४० ॥

श्वेत पुष्प से, घी में पकाये गये नैवेद्य से, गन्ध- धूप से भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिये तथा श्रुतियों और स्मृतियों में अभिवर्णित स्तुतियों से भगवान् विष्णु की स्तुति इस प्रकार करनी चाहिये-

विष्णुर्माता पिता विष्णुर्विष्णुः स्वजनबान्धवाः ।

यत्र विष्णुं न पश्यामि तेन वासेन किं मम ॥ २,३०.४१ ॥

जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके ।

ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्वं विष्णुमयं जगत् ॥ २,३०.४२ ॥

'विष्णु ही माता हैं, विष्णु ही पिता हैं, विष्णु ही अपने स्वजन और बान्धव हैं। जहाँ पर मैं विष्णु को नहीं देखता हूँ, वहाँ निवास करने से मुझे क्या लाभ ? विष्णु जल में हैं, विष्णु स्थल में हैं, विष्णु पर्वत की चोटी पर हैं और विष्णु चारों ओर से मालारूप में घिरी हुई ज्वालामाला से व्याप्त स्थान में अवस्थित हैं । यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुमय है।'

वयमापो वयं पृथ्वी वयं दर्भा वयं तिलाः ।

वयं गावो वयं राजा वयं वायुर्वयं प्रजाः ॥ २,३०.४३ ॥

वयं हेम वयं धान्यं वयं मधु वयं घृतम् ।

वयं विप्रा वयं देवा वयं शम्भुश्च भूर्भुवः ॥ २,३०.४४ ॥

अहं दाता अहं ग्राही अहं यज्वा अहं क्रतुः ।

अहं हर्ता अहं धर्मो अहं पृथ्वी ह्यहं जलम् ॥ २,३०.४५ ॥

धर्माधर्मे मतिं दद्यां कर्मभिस्तु शुभाशुभैः ।

यत्कर्म क्रियते क्वापि पूर्वजन्मार्जितं खग ॥ २,३०.४६ ॥

धर्मे मतिमहं दद्यामधर्मेऽप्यहमेव च ।

यातनां कुरुते सोऽपि धर्मे मुक्तिं ददाम्यहम् ॥ २,३०.४७ ॥

ब्राह्मण, जल, पृथ्वी आदि जितने भी पदार्थ हैं, उन्हें अपना ही स्वरूप समझना चाहिये। इसलिये हे खगेश ! किसी भी स्थान पर मनुष्य पूर्वजन्मार्जित पाप-पुण्य के अनुसार जिस कर्म को करता है, उसका फलदाता मैं ही हूँ। मैं ही प्राणी की बुद्धि को धर्म में नियुक्त करता हूँ और मुक्ति मैं ही देता हूँ ।

मनुजानां हिता तार्क्ष्य अन्ते वैतरणी स्मृता ।

तयावमत्य पापौघं विष्णुलोकं स गच्छति ॥ २,३०.४८ ॥

बालत्वे यच्च कौमारे यच्च परिणतौ च यत् ।

सर्वावम्थाकृतं पापं यच्च जन्मान्तरेष्वपि ॥ २,३०.४९ ॥

यन्निशायां तथा प्रातर्यन्मध्याह्नापराह्नयोः ।

सन्ध्ययोर्यत्कृतं कर्म कर्मणा मनसा गिरा ॥ २,३०.५० ॥

दत्त्वा वरां सकृदपि कपिलां सर्वकामिकाम् ।

उद्धरेदन्तकाले स आत्मानं पापसञ्चयात् ॥ २,३०.५१ ॥

हे तार्क्ष्य! अन्त-समय आने पर मनुष्यों का हित करनेवाली वैतरणी नदी मानी गयी है। उसी के जल से अपने पाप-समूह को धोकर प्राणी विष्णुलोक को जाता है । बाल्यावस्था का जो पाप है, कुमारावस्था में जो पाप हुआ है, यौवनावस्था का जो पाप है और जन्म-जन्मान्तर में समस्त अवस्थाओं के बीच भी जो पाप किया गया है, रात्रि - प्रातः, मध्याह्न - अपराह्न तथा दोनों संध्याओं के मध्य मन, वाणी और कर्म से जो पाप हुआ है, उन सभी पापों के समूह से प्राणी अपना उद्धार अन्तिम क्षण में सर्वकामनाओं को सिद्ध करनेवाली एक भी श्रेष्ठतमा कपिला गौ का दान दे करके कर सकता है। [ गोदान करते समय परमात्मा से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये - परमात्मन् ! ]

गावो ममाग्रतः सन्तु पृष्ठतः पार्श्वतस्तथा ।

गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ २,३०.५२ ॥

या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवे व्यवस्थिता ।

धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ॥ २,३०.५३ ॥

'गायें ही मेरे आगे रहें, गायें ही मेरे पीछे और पार्श्वभाग में रहें, गायें ही मेरे हृदय में निवास करें, मैं गायों के बीच में ही रहूँ। जो सभी प्राणियों की लक्ष्मीस्वरूपा हैं, जो देवताओं में प्रतिष्ठित हैं, वे गौरूपिणी देवी मेरे सभी पापों को विनष्ट करें।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे नानादाननिरूपणं नाम त्रिंसोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 31

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प के पूर्व के अंक पढ़ें-

अध्याय 1               अध्याय 2           अध्याय  3          अध्याय  4      अध्याय  5

अध्याय 6                अध्याय 7          अध्याय 8           अध्याय 9       अध्याय 10

अध्याय 11              अध्याय 12         अध्याय 13         अध्याय 14     अध्याय 15

अध्याय 16              अध्याय 17         अध्याय 18         अध्याय 19     अध्याय 20 

अध्याय 21              अध्याय 22         अध्याय 23         अध्याय 24      अध्याय 25

अध्याय 26              अध्याय 27         अध्याय 28-29 

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २८-२९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २८-२९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २८-२९ प्रेतत्वमुक्ति के उपाय का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २८-२९

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अष्टाविंशतितमोऽध्यायः,नवविंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter २८-२९ 

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अट्ठाईसवाँ, उन्तीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २८-२९                 

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २८-२९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २८-२९           

गरुड उवाच ।

सर्वेपामनुकम्पार्थं ब्रूहि मे मधुसूदन ।

प्रेतत्वान्मुच्यते येन दानेन सुकृतेन वा ॥ २,२८.१ ॥

गरुडजी ने कहा- हे मधुसूदन ! जिस दान या सत्कर्म से प्राणी की प्रेतयोनि छूट जाती है, उसे बताने की कृपा करें, इसके ज्ञान से लोगों का बड़ा कल्याण होगा।

श्रीकृष्ण उवाच ।

शृणु दानं प्रवक्ष्यामि सर्वाशु भविनाशनम् ।

सन्तप्तहाटकमयं घटकं विधाय ब्रह्मेशकेशवयुतं सह लोकपालैः ।

क्षीराज्यपूर्णविविरं प्रणिपत्य भक्त्या विप्राय देहि तव दानशतैः किमन्यैः ॥ २,२८.२ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिराज ! सुनो! मैं तुम्हें समस्त अमङ्गलों को विनष्ट करनेवाले दान को बता रहा हूँ। शुद्ध स्वर्ण का घट बनाकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा लोकपालोंसहित उसकी पूजाकर दुग्ध और घृत से परिपूर्ण उस घट को सुपात्र ब्राह्मण को दान में देने से प्रेतत्व से मुक्ति मिल जाती है।

हे गरुड ! पुत्रहीन व्यक्ति की सद्गति नहीं होती, अतः यथाविधान पुत्र उत्पन्न करना चाहिये । मृत व्यक्ति को गोबर से लीपी गयी मण्डलाकार भूमि में स्थापित करना चाहिये । भूमि गोबर से लीपने पर पवित्र हो जाती है तथा मण्डल का निर्माण करने से उस स्थान पर देवताओं का वास हो जाता है। ऐसे ही मृत व्यक्ति के नीचे तिल और कुश बिछाने से जीव को उत्तम गति की प्राप्ति होती है, साथ ही मृत व्यक्ति के मुँह में पञ्चरत्न डालने से जीव को शुभ गति मिलती है ।

हे तार्क्ष्य ! तिल मेरे पसीने से उत्पन्न हैं, इसलिये वे सदा पवित्र हैं'मम स्वेदसमुद्भूतास्तिलास्तार्क्ष्य पवित्रकाः।' (२९।१५ ) । इसी प्रकार कुश की उत्पत्ति मेरे रोम से हुई है 'दर्भा मल्लोमसम्भूताः। ( २९ । १७) । कुशयुक्त भूमि अपने ऊपर विद्यमान मृत जीव को निःसंदेह स्वर्ग पहुँचा देती है। कुश में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव- ये तीनों देव प्रतिष्ठित रहते हैं- 'त्रयो देवाः कुशे स्थिताः । ' हे पक्षिराज ! ब्राह्मण, मन्त्र, कुश, अग्नि तथा तुलसी- ये बार- बार प्रयोग में लाये जाने पर भी पर्युषित (बासी) नहीं होते-

विप्रा मन्त्राः कुशा वह्निस्तुलसी च खगेश्वर ।

नैते निर्माल्यतां यान्ति क्रियमाणाः पुनः पुनः ॥(२९।२१)

इसी तरह विष्णु, एकादशीव्रत, भगवद्गीता, तुलसी, ब्राह्मण तथा गौ - ये छ: इस संसारसागर से मुक्ति दिलानेवाले हैं,-

विष्णुरेकादशीगीतातुलसीविप्रधेनवः ।

अपारे दुर्गसंसारे षट्पदी मुक्तिदायिनी ॥(२९ । २४)

इसीलिये हे गरुड ! तिल, कुश और तुलसी- ये आतुर व्यक्ति की दुर्गति को रोककर उसे सद्गति दिलाते हैं। आतुर – काल में दान की भी विशेष महिमा है । भगवान् विष्णु की देह से लवण का प्रादुर्भाव हुआ है, अतः आतुर – काल में लवण-दान करने से भी जीव की दुर्गति नहीं होती। *

* २८वें तथा २९वें अध्याय का विषय प्रथम तथा द्वितीय अध्याय में पूर्णरूप से आ गया है, इसलिये इसे यहाँ संक्षिप्तरूप में दिया गया है। पूर्ण विवरण प्रथम तथा द्वितीय अध्याय में देखना चाहिये ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे और्ध्वदहिककर्म कालक्रियमाणनानादानादिफलप्रश्रनिरूपणं नामाष्टाविंशोऽध्यायः॥

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे प्रेतकल्पे धर्मकाण्डे श्रीकृष्णगरुडसंवादे और्ध्वदेहिककर्मणि पुत्रदर्भतिलतुलसीगोभूलेपताम्रपात्रदाना दीनामावश्यकत्वनिरूपणं नामैकोनत्रिशोऽध्यायः॥

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श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २७

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २७

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २७ बभ्रुवाहन की कथा का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २७

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तविंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 27

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प सत्ताईसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २७                

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २७           

तार्क्ष्य उवाच ।

कथं प्रेता वसन्त्यत्र कीदृग्रूपा भवन्ति ते ।

महाप्रेताः पिशाचाश्च कैःकैः कर्मफलैर्विभो ।

सर्वेषामनुकम्पार्थं ब्रूहि मे मधुसूदन ॥ २,२७.१ ॥

प्रेतत्वान्मुच्यते येन दानेन च शुभे न च ।

तन्मे कथय देवेश मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ २,२७.२ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- हे विभो ! आपने जिन प्रेतों का वर्णन किया है, वे इस धरती पर कैसे निवास करते हैं; उनके रूप किस प्रकार के होते हैं, वे कौन- कौन-से कर्म-फलों के द्वारा महाप्रेत और पिशाच जाते हैं और किस शुभ दान से प्राणी की प्रेतयोनि छूट जाती है ? हे मधुसूदन ! समस्त जगत्के कल्याणार्थ मुझको यह सब बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

साधु पृष्टं त्वया तार्क्ष्य मानुषाणां हिताय वै ।

शृणुचावहितो भूत्वा यद्वच्मि प्रेतलक्षणम् ॥ २,२७.३ ॥

गुह्यद्गुह्यतरं ह्येतन्नाख्येयं यस्य कस्यचित् ।

भक्तस्त्वं हि महाबाहो तेन ते कथयाम्यहम् ॥ २,२७.४ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य ! तुमने मानव- कल्याण के लिये बहुत अच्छी बात पूछी। प्रेत का लक्षण मैं कह रहा हूँ, उसे सावधान होकर सुनो। यह अत्यन्त गुप्त है । जिस किसी के सामने इसको नहीं कहना चाहिये। तुम मेरे भक्त हो, इसलिये मैं तुम्हारे सामने इसे कह रहा हूँ ।

पुरा त्रेतायुगे तात राजासीद्बभ्रुवाहनः ।

महोदयपुरे रम्ये धर्मनिष्ठो महाबलः ॥ २,२७.५ ॥

यज्वा दानपतिः श्रीमान्ब्रह्मण्यः साधुसंमतः ।

शीलाचारगुणोपेतो दयादाक्षिण्यसंयुतः ॥ २,२७.६ ॥

प्रजाः पालयते नित्यं पुत्रानिव महाबलः ।

क्षत्त्रधर्मरतो नित्यं स दण्ड्यान्दण्डयन्नृपः ॥ २,२७.७ ॥

स कदाचिन्महाबाहुः ससैन्योमृगयां गतः ।

वनं विवेश गहनं नानावृक्षसमन्वितम् ॥ २,२७.८ ॥

शार्दूलशतसंजुष्टं नानापक्षिनिनादितम् ।

वनमध्ये तदा राजा मृगं दूरादपश्यत ॥ २,२७.९ ॥

तेन विद्धो मृगोऽतीव बाणेन सुदृढेन च ।

बाणमादाय तं तस्य स वनेऽदर्शनं ययौ ॥ २,२७.१० ॥

कक्षे तच्छोणितस्त्रावात्स राजानुजगाम तम् ।

ततो मृगप्रसङ्गेन वनमन्यद्विवेश सः ॥ २,२७.११ ॥

हे पुत्र गरुड ! पुराने समय में बभ्रुवाहन नाम का एक राजा था, जो महोदय (कान्यकुब्ज) नामक सुन्दर नगर में रहता था । वह धर्मनिष्ठ, महापराक्रमी, यज्ञपरायण, दानशील, लक्ष्मीवान्, ब्राह्मणहितकारी, साधुसम्मत, सुशील, सदाचारी तथा दया- दाक्षिण्यादि सद्गुणों से संयुत था। वह महाबली राजा सदैव अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् करता तथा क्षत्रिय- धर्म का सम्यक् पालन करते हुए सदैव अपराधियों को दण्डित किया करता। कभी विशाल भुजाओं वाले उस राजा ने अपनी सेना के सहित शिकार करने के लिये नाना प्रकार के वृक्षों से भरे हुए सैकड़ों सिंहों से परिव्याप्त, विभिन्न प्रकार के पक्षियों के कलरव से निनादित एक घनघोर वन में प्रवेश किया। वन के बीच में जाकर राजा ने दूर से ही एक मृग को देखा और उसके ऊपर अपने बाण को छोड़ दिया। उसके द्वारा छोड़े गये उस कठिन बाण से वह मृग अत्यन्त आहत हो उठा और शरीर में बिंधे हुए उस बाण सहित वह मृग वहाँ से भागकर वन में लुप्त हो गया, किंतु उसकी काँख से बह रहे रक्त के चिह्नों से राजा ने उसका पीछा किया। इस प्रकार उसके पीछे-पीछे वह राजा दूसरे वन में जा पहुँचा ।

क्षुत्क्षामकण्ठो नृपतिः श्रमसन्तापमूर्छितः ।

जलस्थानं समासाद्य साश्व एवावगाहत ॥ २,२७.१२ ॥

पीत्वा तदु दकं शीतं पद्मगन्धाधिवासितम् ।

तत उत्तीर्य सलिलाद्विमलाद्बभ्रुवाहनः ॥ २,२७.१३ ॥

न्यग्रोधवृक्षमासाद्य शीतच्छायं मनोहरम् ।

महाविटपिनं हृद्यं पक्षिसङ्घातनादितम् ॥ २,२७.१४ ॥

वनस्य तस्य सर्वस्य केतुभूतमिवोच्छ्रितम् ।

तं महातरुमासाद्य निषसाद महीपतिः ॥ २,२७.१५ ॥

अथ प्रेतं ददर्शासौ क्षुत्तृष्णाव्याकुलेन्द्रियम् ।

उत्कचं मलिनं कुब्जं (रूक्षं) निर्मांसं भीमदर्शनम् ॥ २,२७.१६ ॥

स्नायुबद्धास्थिचरणं धावमानमितस्ततः ।

अन्यैश्च बहुभिः प्रेतैः समन्तात्परिवारितम् ॥ २,२७.१७ ॥

तं दृष्ट्वा विकृतं घोरं विस्मितो बभ्रुवाहनः ।

प्रेतोऽपि दृष्ट्वा तां घोरामटवीमागतं नृपम् ॥ २,२७.१८ ॥

तदा हृष्टमना भूत्वा तस्यान्तिकमुपागतः ।

अब्रवीत्स तदा तार्क्ष्य प्रेतराजो नृपं वचः ॥ २,२७.१९ ॥

भूख और प्यास से उसका कण्ठ सूख रहा था तथा परिश्रम करने के कारण अत्यन्त थकान का अनुभव करता हुआ वह मूर्च्छित-सा हो गया था; उसको वहाँ एक जलाशय दिखायी दिया। जलाशय देखकर घोड़े के सहित उसने वहाँ स्नान किया और कमलपराग से सुवासित शीतल जल का पान किया। तत्पश्चात् उस जल से निकलकर राजा बभ्रुवाहन विशाल वटवृक्ष की मनमोहक शीतल छाया के नीचे बैठ गया, जो पक्षियों के कलरव से निनादित तथा उस समूचे वन की पताका के रूप में अवस्थित था । इसके बाद उस राजा ने वहाँ पर भूख-प्यास से व्याकुल इन्द्रियोंवाले एक प्रेत को देखा, जिसके सिर की केशराशि ऊपर की ओर खड़ी थी । उसका शरीर मलिन, कुब्जा (रूक्ष), मांसरहित और देखने में महाभयंकर लगता था । मात्र शरीर में शेष स्नायु – तन्त्रिकाओं से जुड़ी हुई हड्डियोंवाला वह अपने पैरों से इधर-उधर दौड़ रहा था और अन्य बहुत से प्रेत उसको चारों ओर से घेरे हुए थे । तार्क्ष्य ! उस विकृत प्रेत को देखकर बभ्रुवाहन विस्मित हो गया और उस प्रेत को भी महाभयंकर वन में आये हुए राजा को देखकर कम आश्चर्य नहीं हुआ । प्रसन्नचित्त होकर प्रेत ने उस राजा के पास जाकर कहा-

प्रेतभावो मया त्यक्तः प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम् ।

त्वत्संयोगान्महाबाहो नास्तिधन्यतरो मम ॥ २,२७.२० ॥

प्रेत ने कहा- हे महाबाहो ! आज आपके दर्शन का यह संयोग प्राप्त कर मैंने प्रेतभाव को त्यागकर परम गति प्राप्त कर ली है । मुझसे बढ़कर धन्य कोई नहीं है।

नृपतिरुवाच ।

कृष्णवर्णः करालास्यस्त्वं प्रेत इव लक्ष्यसे ।

कथयस्व मम प्रीत्या यथैवं चासि तत्त्वतः ॥ २,२७.२१ ॥

तथा पृष्टः स वै राज्ञा प्रोवाच सकलं स्वकम् ॥ २,२७.२२ ॥

राजा ने कहाहे प्रेत! तुम मुझे कृष्णवर्णवाले भयंकर प्रेत के समान दिखायी दे रहे हो। तुम्हें इस प्रकार का स्वरूप जैसे प्राप्त हुआ है वैसा मुझे बताओ ।

राजा के ऐसा कहने पर उस प्रेत ने अपने सम्पूर्ण जीवनवृत्त को इस प्रकार कहा-

प्रेत उवाच ।

कथयामि नृपश्रेष्ठ सर्वमेवादितस्तव ।

प्रेतत्वे कारणं श्रुत्वा दयां कर्तुं ममार्हसि ॥ २,२७.२३ ॥

वैदिशं नाम नगरं सर्वसम्पत्समन्वितम् ।

नानाजनपदाकीर्णं नानारत्नसमाकुलम् ।

नानापुण्यसमायुक्तं नानावृक्षसमाकुलम् ॥ २,२७.२४ ॥

तत्राहं न्यवसं भूयो देवार्चनरतः सदा ।

वैश्यो जात्या सुदेवोऽहं नाम्ना विदितमस्तु ते ॥ २,२७.२५ ॥

हव्येन तर्पिता देवाः कव्येन पितरस्तथा ।

विविधैर्दानयोगैश्च विप्राः सन्तर्पिता मया ॥ २,२७.२६ ॥

आवाहाश्च विवाहाश्च मया वै सुनिवेशिताः ।

दीनानाथविशिष्टेभ्यो मया दत्तमनेकधा ॥ २,२७.२७ ॥

तत्सर्वं विफलं तात मम दैवादुपागतम् ।

यथा मे निष्फलं जातं सुकृतं तद्वदामि ते ॥ २,२७.२८ ॥

प्रेत ने कहा हे नृपश्रेष्ठ ! मैं अपने सम्पूर्ण जीवन-वृत्त का विवरण आपको आदि से सुना रहा हूँ, मेरे इस प्रेतत्व का कारण सुन करके आप दया अवश्य करेंगे। हे राजन् ! नाना रत्नों से युक्त तथा अनेक जनपदों में व्याप्त समस्त सम्पदाओं से भरा हुआ, विभिन्न पुण्यों से प्रख्यात अनेकानेक वृक्षों से आच्छादित विदिशा नाम का एक नगर है। मैं वहीं पर निरन्तर देवपूजा में अनुरक्त रहकर निवास करता था । उस जन्म में मेरी जाति वैश्य की थी और नाम मेरा सुदेव था । मैं उस जन्म में हव्य से देवताओं को, कव्य से पितरों को तथा नाना प्रकार के दान से ब्राह्मणों को सदैव संतृप्त किया करता था। मेरे द्वारा दीन-हीन, अनाथ और विशिष्ट जनों की अनेक प्रकार से सहायता की गयी थी, किंतु दुर्भाग्यवश वह सब कुछ मेरा निष्फल हो गया। मेरे वे पुण्य जिस प्रकार से विफल हुए, मैं आपको वह सुनाता हूँ ।

न मेऽस्ति सन्ततिस्तात न सुहृन्न च बान्धवः ।

न च मित्रं हि मे तादृग्यः कुर्यादौर्ध्वदैहिकम् ॥ २,२७.२९ ॥

प्रेतत्वं सुस्थिरं तेन मम जातं नृपोत्तम ।

एकादशं त्रिपक्षं च षाण्मासिकमथाब्दिकम् ।

प्रतिमास्यानि चान्यानि एवं श्राद्धानि षोडश ॥ २,२७.३० ॥

यस्यैतानि न दीयन्ते प्रेतश्राद्धानि भूपते ।

प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ २,२७.३१ ॥

एवं ज्ञात्वा महाराज प्रेतत्वादुद्धरस्व माम् ।

वर्णानां चापि सर्वेषां राजा बन्धुरिहोच्यते ॥ २,२७.३२ ॥

तन्मां तारय राजेन्द्र मणिरत्नं ददामि ते ।

यथा मम शुभावाप्तिर्भवेन्नृपवरोत्तम ॥ २,२७.३३ ॥

तथा कार्यं महाबाहो कृपा यदि मयीष्यते ।

आत्मनश्च कुरु क्षिप्रं सर्वमेवौर्ध्वेदैहिकम् ॥ २,२७.३४ ॥

हे तात! पूर्वजन्म में न मेरे कोई संतान हुई, न कोई ऐसा बन्धु-बान्धव या मित्र ही रहा जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करता । हे नृपोत्तम ! उसी के कारण मुझे यह प्रेतयोनि प्राप्त हुई है। हे राजन् ! एकादशाह, त्रिपक्ष, षाण्मासिक, सांवत्सरिक, प्रतिमासिक और इसी प्रकार के अन्य जो षोडश श्राद्ध हैं, वे जिस प्रेत के लिये सम्पन्न नहीं किये जाते हैं, उस प्रेत की प्रेतयोनि बाद में स्थिरता को प्राप्त कर लेती है, भले ही बाद में क्यों न उसके लिये सैकड़ों श्राद्ध किये जायँ । हे महाराज ! ऐसा जानकर आप मेरा इस प्रेतयोनि से उद्धार करें। राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा जाता है। मैं आपको एक मणिरत्न दे रहा हूँ । हे राजेन्द्र ! इस नरक से मुझे उबार लें। हे नृपश्रेष्ठ! हे महाबाहो ! यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो जिस प्रकार से मुझे शुभ गति प्राप्त हो मेरे लिये वही उपाय करें और आप अपना भी समस्त प्रकार से और्ध्वदैहिक कार्य करें।

नृपतिरुवाच ।

कथं प्रेता भवन्तीह कृतैरप्यौर्ध्वदैहिकैः ।

पिशाचाश्च भवन्तीह कर्मभिः कैश्च तद्वद ॥ २,२७.३५ ॥

राजा ने कहा- हे प्रेत ! और्ध्वदैहिक कर्म करने पर भी प्राणी कैसे प्रेत हो जाते हैं ? किन कर्मों को करने से उन्हें पिशाच होना पड़ता है ? तुम उसे भी बताओ ।

प्रेत उवाच ।

देवद्रव्यं च ब्रह्मस्वं स्त्रीबालधनसञ्चयम् ।

ये हरन्ति नृपश्रेष्ठ प्रेतयोनिं व्रजन्ति ते ॥ २,२७.३६ ॥

तापसीं च सगोत्रां च अगम्यां ये भजन्ति हि ।

भवन्ति ते महाप्रेता अम्बुजानि हरन्ति ये ॥ २,२७.३७ ॥

प्रवालवज्रहर्तारो ये च वस्त्रापहारकाः ।

तथा हिरण्यहर्तारः संयुगेऽसन्मुखागताः ॥ २,२७.३८ ॥

कृतघ्ना नास्तिका रौद्रास्तथा साहसिका नराः ।

पञ्चयज्ञविनिर्मुक्ता महादानरताश्च ये ॥ २,२७.३९ ॥

स्वामिद्रोहकरा मित्रब्राह्मद्रोहकराश्च ये ।

तीर्थपापकरा राजञ्जायन्ते प्रेतयोनयः ।

एवमाद्या महाराज जायन्ते प्रेतयोनयः ॥ २,२७.४० ॥

प्रेत ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ ! जो लोग देवद्रव्य, ब्राह्मण-द्रव्य और स्त्री एवं बालकों के संचित धन का अपहरण करते हैं, वे प्रेतयोनि प्राप्त करते हैं। जिनके द्वारा तपस्विनी, सगोत्रा एवं अगम्या स्त्री का भोग किया जाता है, जो कमलपुष्पों की चोरी करते हैं, वे महाप्रेत होते हैं। हे राजन्! जो हीरा - मूँगा - सोना और वस्त्र के अपहर्ता हैं, जो युद्ध में पीठ दिखाते हैं, जो कृतघ्न, नास्तिक, क्रूर तथा दुःसाहसी हैं, जो पञ्चयज्ञ नहीं करते, किंतु बहुत बड़े-बड़े दान देने में अनुरक्त रहते हैं, जो अपने स्वामी से वैर करते हैं, जो मित्र और ब्राह्मणद्रोही हैं, जो तीर्थ में जाकर पापकर्म करते हैं, वे प्रेतयोनि में जन्म लेते हैं। हे महाराज ! इस प्रकार इन सभी प्राणियों का जन्म प्रेतयोनि में होता है।

राजोवाच ।

कथं मुक्ता भवन्तीह प्रेतत्वात्त्वं च तेऽपि च ।

कथं चापि मया कार्यमौर्ध्वदैहिकमात्मनः ।

विधिना केन तत्कार्यं सर्वमेतद्वदस्व मे ॥ २,२७.४१ ॥

राजा ने कहा- हे प्रेतराज ! इस प्रेतत्व से तुम्हें और तुम्हारे साथियों को कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है ? मैं किस प्रकार से अपना और्ध्वदैहिक कर्म कर सकता हूँ? वह कार्य किस विधान से सम्भव है ? यह सब कुछ मुझे बताओ।

प्रेत उवाच ।

शृणु राजेन्द्र संक्षेपाद्विधिं नारायणात्मकम् ।

सच्छास्त्रश्रवणं विष्णोः पूजा सज्जनसंगतिः ॥ २,२७.४२ ॥

प्रेतयोनिविनाशाय भवन्तीति मया श्रुतम् ।

अतो वक्ष्यामि ते विष्णुपूजां प्रेतत्वनाशिनीम् ॥ २,२७.४३ ॥

प्रेत ने कहा- हे राजेन्द्र ! संक्षेप में नारायणबलि की विधि सुनें। मैंने सुना है कि सद्ग्रन्थों का श्रवण, विष्णु का पूजन तथा सज्जनों का साथ प्रेतयोनि को विनष्ट करने में समर्थ होता है। अतः मैं आपको प्रेतत्वभाव को नष्ट करनेवाली विष्णुपूजा का विधान बताऊँगा ।

सुवर्णद्वयमाहृत्य मूर्तिं भूप प्रकल्पयेत् ।

नारायणस्य देवस्य सर्वाभरणभूषिताम् ॥ २,२७.४४ ॥

पीतवस्त्रयुगाच्छन्नां चन्दनागुरुचर्चिताम् ।

स्नापयेद्विविधैस्तोयैरधिवास्य यजेत्ततः ॥ २,२७.४५ ॥

पूर्वे तु श्रीधरं देवं दक्षिणे मधुसूदनम् ।

पश्चिमे वानमं देवमुत्तरे च गदाधरम् ॥ २,२७.४६ ॥

मध्ये पितामहं पूज्य तथा देवं महेश्वरम् ।

पूजयेच्च विधानेन गन्धपुष्पादिभिः पृथक् ॥ २,२७.४७ ॥

ततः प्रदक्षिणीकृत्य अग्नौ सन्तर्प्य देवताः ।

घृतेन दध्ना क्षीरेण विश्वान्देवांस्तथा नृप ॥ २,२७.४८ ॥

ततः स्नातो विनीतात्मा यजमानः समाहितः ।

नारायणाग्रे विधिवत्स्वक्रियामौर्ध्वदैहिकीम् ॥ २,२७.४९ ॥

आरभेत विनीतात्मा क्रोधलोभविवर्जितः ।

श्राद्धानि कुर्यात्सर्वाणि वृषस्योत्सर्जनं तथा ॥ २,२७.५० ॥

त्रयोदशानां विप्राणां वस्त्रच्छत्राण्युपानहौ ।

अङ्गुलीयकमुक्तानि भाजनासनभोजनैः ॥ २,२७.५१ ॥

सान्नाश्च सोदका देया घटाः प्रेतहिताय वै ।

शय्यादानमथो दत्त्वा घटं प्रेतस्य निर्वपेत् ॥ २,२७.५२ ॥

नारायणेति सन्नाम संपुटस्थं समर्चयेत् ।

एवं कृत्वाथ विधिवच्छुभाशुभफलं लभेत् ॥ २,२७.५३ ॥

हे राजन्! दो सुवर्ण* ले करके उससे भगवान् नारायण की सभी आभूषणों से विभूषित प्रतिमा का निर्माण करवाना चाहिये । मूर्ति को दो पीले वस्त्रों से आच्छादित करके चन्दन तथा अगुरु से सुवासित करे। तदनन्तर नाना तीर्थों से लाये गये पवित्र जल के द्वारा सविधि स्नान कराकर तथा अधिवासित कर पूर्व में भगवान् श्रीधर, दक्षिण में भगवान् मधुसूदन, पश्चिम में भगवान् वामन, उत्तर में भगवान् गदाधर, मध्यभाग में पितामह ब्रह्मा और भगवान् महेश्वर की विधिवत् पूजा गन्ध-पुष्पादि से पृथक् पृथक् रूप में की जाय । तत्पश्चात् उस देवमण्डल की प्रदक्षिणा करके अग्नि में देवताओं की संतुष्टि के लिये आहुति दे । घृत, दही और दूध से विश्वेदेवों को संतृप्त करे। उसके बाद यजमान फिर से स्नान करके विनम्रतापूर्वक एकाग्रचित्त से भगवान् नारायण के सामने विधिवत् अपनी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करे । विनीतभाव से क्रोध एवं लोभरहित होकर कार्य आरम्भ करना चाहिये। इस अवसर पर सभी श्राद्ध और वृषोत्सर्ग करने चाहिये । तेरह ब्राह्मणों को वस्त्र, छत्र, जूता, मुक्तामणिजटित अँगूठी, पात्र, आसन और भोजन देकर संतुष्ट करे। उसके बाद प्रेतकल्याण के लिये अन्न और जलपूर्ण कुम्भ का दान देना चाहिये। शय्यादान करके घटदान भी प्रेत के उद्देश्य से करे। तदनन्तर 'नारायण' नाम ही सत्य हैऐसा कहकर सम्पुट में स्थित भगवान् नारायण की पूजा करे। ऐसा विधिवत् करने पर निश्चित ही प्राणी को शुभ फल प्राप्त होता है।

राजोवाच ।

कथं प्रेतघटं कुर्याद्दद्यात्केन विधानतः ।

ब्रूहि सर्वानुकम्पार्थं घटं प्रेतविमुक्तिदम् ॥ २,२७.५४ ॥

राजा ने कहा- हे प्रेत ! प्रेतघट कैसा होना चाहिये, उसको प्रदान करने का क्या विधान है ? सभी प्राणियों पर कृपा करने के लिये तुम प्रेत के लिये मुक्तिदायक घट के विषय में मुझे बताओ ।

प्रेत उवाच ।

साधु पृष्टं महाराज कथयामि निबोध ते ।

प्रेतत्वं न भवेद्येन दानेन सुदृढेन च ॥ २,२७.५५ ॥

प्रेत ने कहाहे महाराज ! आपने बड़ा अच्छा प्रश्न किया है। जिस दान से प्रेतत्व प्राप्त नहीं होता, उसे मैं कहता हूँ, सुनें।

दानं प्रेतघटं नाम सर्वाशुभविनाशनम् ।

दुर्लभं सर्वलोकानां दुर्गतिक्षयकारकम् ॥ २,२७.५६ ॥

सन्तप्तहाटकमयं तु घटं विधाय ब्रह्मोशकेशवयुतं सह लोकपालैः ।

क्षीराज्यपूर्णविवरं प्रणिपत्य भक्त्या विप्राय देहि तव दानशतैः किमन्यैः ॥ २,२७.५७ ॥

ब्रह्मा मध्ये तथा विष्णुः शङ्करः शङ्करोऽव्ययः ।

प्राच्यादिषु च तत्कण्ठे लोकपालान्क्रमेण तु ॥ २,२७.५८ ॥

सम्पूज्य विधिवद्राजन्धूपैः कुसुमचन्दनैः ।

ततो दुग्धाज्यसहितं घटं देयं हिरण्मयम् ॥ २,२७.५९ ॥

सर्वदानाधिकञ्चैतन्महापातकनाशनम् ।

कर्तव्यं श्रद्धया राजन्प्रेतत्वविनिवृत्तये ॥ २,२७.६० ॥

प्रेतघट नाम का दान समस्त अमङ्गलों का विनाशक है । दुर्गति को क्षय करनेवाला यह प्रेतघट का दान सभी लोकों में दुर्लभ है। संतप्त स्वर्णमय घट बनवाकर उसे घृत और दूध से परिपूर्ण करके लोकपालोंसहित ब्रह्मा, शिव और केशव को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर ब्राह्मण को दान में दे । अन्य सैकड़ों दान देने से क्या लाभ? इसके मध्यभाग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा पूर्वादिक सभी दिशाओं में और कण्ठभाग में यथाक्रम लोकपालों की विधिवत् पुष्प, धूप एवं चन्दनादि से पूजा करके उसे दूध और घी से पूर्ण स्वर्णमय घट दान में देना चाहिये। यह सभी दानों से बढ़कर दान है। इस दान से सभी महापातकों का विनाश हो जाता है। प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये श्रद्धापूर्वक यह दान अवश्य करना चाहिये।

श्रीभागवानुवाच ।

एवं संजल्षतस्तस्य प्रेतेन नियतात्मनः ।

सेनाजगामानुपदं हस्त्यश्वरथसंकुला ॥ २,२७.६१ ॥

ततो बले समायाते दत्त्वा राज्ञे महामणिम् ।

नमस्कृत्य पुनः प्रार्थ्य प्रेतोऽदर्शनमीयिवान् ॥ २,२७.६२ ॥

तस्माद्वनाद्विनिष्क्रम्य राजापि स्वपुरं ययौ ।

स्वपुरं स समासाद्य सर्वं तत्प्रेतभाषितम् ॥ २,२७.६३ ॥

चकार विधिवत्पक्षिन्नौर्ध्वदेहादिकं विधिम् ।

तस्य पुण्यप्रदानेन प्रेतो मुक्तो दिवं ययौ ॥ २,२७.६४ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे वैनतेय ! उस प्रेत के साथ इस प्रकार का वार्तालाप राजा का चल ही रहा था कि उसी समय उनके पदचिह्नों का अनुगमन करती हुई हाथी, घोड़े तथा रथ से परिव्याप्त उनकी सेना वहाँ आ पहुँची । सेना के वहाँ आ जाने पर प्रेत ने राजा को एक महामणि देकर प्रणाम किया और अपने प्रेतत्व- विमुक्ति की प्रार्थना करके अदृश्य हो गया। उस वन से निकलकर राजा भी अपने नगर को चला गया। हे पक्षिन्! नगर में पहुँचकर राजा ने उस प्रेत के द्वारा कही गयी सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक क्रिया को विधि-विधान से सम्पन्न किया। उसके पुण्य से वह प्रेत बन्धन- विमुक्त होकर स्वर्ग चला गया।

श्राद्धेन परदत्तेन गतः प्रेतोऽपि सद्गतिम् ।

किं पुनः पुत्रदत्तेन पिता यातीति चात्भुतम् ॥ २,२७.६५ ॥

इतिहासमिमं पुण्यं शृणोति श्रावयेच्च यः ।

न तौ प्रेतत्वमायातः पापाचारयुतावपि ॥ २,२७.६६ ॥

हे गरुड ! पुत्र द्वारा दिये गये श्राद्ध से पिता को सद्गति प्राप्त होती है, इसमें आश्चर्य क्या है ? जो मनुष्य इस पुण्यदायक इतिहास को सुनता है और जो सुनाता है, वह पापाचार से युक्त होने पर भी प्रेतत्व- योनि को प्राप्त नहीं होता है ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे बभ्रुवाहनप्रेतसंवादे प्रेतत्वहेतुतन्निवृत्त्युपायनिरूपणं नाम सप्तविंशोऽध्यायः

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 28