श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय ३-५
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड
अध्याय ३ – ५ नारायण से सृष्टि का
प्रादुर्भाव तथा तत्त्वाभिमानी देवों का प्राकट्य का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् ब्रह्मकाण्डः (मोक्षकाण्डः) तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः पञ्चमोऽध्यायः
Garud mahapuran Brahmakand chapter 3-5
श्रीगरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड तीसरा चौथा पांचवा अध्याय
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय ३-५
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय ३-५ का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण ने कहा- हे विनतासुत गरुड
! योगनिद्रा से जागने पर भगवान् विष्णु की सृष्टि करने की इच्छा हुई । यद्यपि
इच्छाशक्ति उनमें सदा ही विद्यमान रहती है फिर भी उस समय उन्होंने उसी इच्छाशक्ति से
लौकिक स्वरूप धारण किया और अपने उस रूप के द्वारा प्रलयकालीन अन्धकार को नष्ट किया
।
महाविष्णु के सभी अवतार पूर्ण कहे
गये हैं । उनका परस्वरूप भी पूर्ण है और पूर्ण से ही पूर्ण उत्पन्न हुआ । विष्णु का
परत्व और अपरत्व व्यक्तिमात्र है। देश और काल के सामर्थ्य से परत्व और अपरत्व नहीं
है। उनका पूर्ण रूप है, उस पूर्ण से पूर्ण का
ही विस्तार होता है और अन्त में उस रूप को ग्रहण करके पुनः पूर्ण ही बच जाता है ।
पृथ्वी के भार का रक्षण आदि जो कार्य है वह उनका लौकिक व्यवहार है। अपनी गुणमयी
माया में भगवान् अपनी शक्ति का आधान करते हैं। वे वीर्यस्वरूपी भगवान् वासुदेव सभी
देश तथा सभी काल में सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। इसी कारण वे पुरुष ईश्वर कहलाते
हैं ।
हे विनतापुत्र! अपनी माया में प्रभु
हरि स्वयं वीर्य का आधान करते हैं। वीर्यस्वरूप ही भगवान् वासुदेव हैं और सभी
कालों में सभी अर्थों से युक्त हैं।
इनके अचिन्त्यवीर्य और चिन्त्यवीर्य
के भेद से दो रूप हैं, एक स्त्रीरूप है और
दूसरा पुरुषरूप । हे खगेन्द्र ! दोनों स्वरूप वीर्यवान् हैं; इनमें अभेद का चिन्तन करना चाहिये ।
देवी लक्ष्मी परमात्मा से कभी
वियुक्त नहीं हैं, वे नित्य उनकी सेवा
में अनुरक्त रहती हैं। नारायण नाम से प्रसिद्ध हरि यद्यपि पूर्ण स्वतन्त्र हैं
किंतु लक्ष्मी के बिना वे अकेले कैसे रह सकते हैं । मुकुन्द हरि के चरणारविन्द में
परम आदर से शुश्रूषा करती हुईं वे लक्ष्मी सदा विराजमान रहती हैं । हरि के बिना
देवी श्री भी किसी देश और काल में पृथक् नहीं हैं । माया में वे वीर्यवान्
परमात्मा अपनी शक्ति का आधान करते हैं। पुरुष नामक विभु उन हरि ने तीनों गुणों की
सृष्टि की है।
श्रीकृष्ण ने पुनः कहा- जिस प्रकार
भगवान् हरि ने प्रकृति के तीन गुणों की सृष्टि की, उसी प्रकार से लक्ष्मी ने भी तीन रूप धारण किये, जिनका
नाम है— श्री, भू और दुर्गा। इनमें से सत्त्वाभिमानी
रूप को श्रीदेवी, रजोगुणाभिमानी रूप को भूदेवी और तमोऽभिमानी
रूप को दुर्गादेवी कहा गया है। तीनों रूपों में अन्तर नहीं जानना चाहिये। हे
खगेश्वर ! गुणों के सम्बन्ध से ही दुर्गा आदि तीन रूप हैं। इनमें अन्तर नहीं है।
इनमें जो अन्तर मानते हैं, वे परम अन्धतमस् नरक में जाते
हैं। साक्षात् परमात्मा पुरुष हरि ने भी तीन रूप धारण किये, जो
ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहे गये हैं।
लोकों की वृद्धि (पालन) करने के
लिये स्वयं साक्षात् हरि सत्त्वगुण से विष्णु नामवाले कहलाये । सृष्टि करने के
लिये साक्षात् हरि ने रजोगुण के आधिक्य से ब्रह्मा में प्रवेश किया और संहार करने के
लिये वे हरि तमोगुण से सम्पन्न होकर रुद्र में प्रविष्ट हुए। वे अव्यय हरि त्रिगुण
में प्रविष्ट होकर जब सृष्टि- कार्योन्मुख होते हैं तो उनमें क्षोभ उत्पन्न होता
है,
फलस्वरूप तीनों गुणों से महत्तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। पुनः
उस महान्से ब्रह्मा और वायु का प्राकट्य हुआ। यह महत्तत्त्व रजः प्रधान है। इस
सृष्टि को गुणवैषम्य नामक सृष्टि जानना चाहिये ।
इस प्रकार के विशिष्ट महत्तत्त्व में
लक्ष्मी के साथ स्वयं हरि प्रविष्ट हुए। हे महाभाग ! उसके बाद उन्होंने उस महत्तत्त्व
को क्षुब्ध किया । क्षोभ के फलस्वरूप उससे ज्ञान - द्रव्य - क्रियात्मक अहम्
तत्त्व उत्पन्न हुआ ।
इस अहंतत्त्व से तत्त्वाभिमानी देव
शेष उत्पन्न हुए तथा गरुड और हर उत्पन्न हुए । हे खग ! इस अहं तत्त्व में साक्षात्
हरि प्रविष्ट हुए। लक्ष्मी के साथ भगवान् हरि ने स्वयं उस अहंतत्त्व को संक्षुब्ध
किया। वैकारिक, तामस और तैजस-भेद से अहम् तीन
प्रकार का है, उस अहम्के नियामक रुद्र भी तीन प्रकार के हुए।
वैकारिक अहम्में स्थित रुद्र वैकारिक कहे गये हैं । तामस में स्थित रुद्र तामस कहे
गये और तैजस में स्थित रुद्र लोक में तैजस कहे गये । तैजस अहंतत्त्व में लक्ष्मी के
साथ स्वयं हरि ने प्रविष्ट होकर उसे संक्षुब्ध किया। इससे वह दस प्रकार का हुआ जो
श्रोत्र, चक्षु, स्पर्श, रसना और घ्राण तथा वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ- इन कर्मेन्द्रियों तथा
ज्ञानेन्द्रियों के रूप में दस प्रकार का कहा जाता है। वैकारिक अहंतत्त्व में
प्रविष्ट होकर हरि ने उसे संक्षुब्ध किया । महत्तत्व से एकादश इन्द्रियों के एकादश
अभिमानी देवता प्रकट हुए। प्रथम मन के अभिमानी इन्द्र और कामदेव उत्पन्न हुए।
अनन्तर अन्य इन्द्रियों के अभिमानी देवों का प्रादुर्भाव हुआ । इसी प्रकार अष्ट
वसु आदि का भी प्राकट्य हुआ । द्रोण, प्राण, ध्रुव आदि ये आठ वसु देवता हैं ।
रुद्रों की संख्या दस जाननी चाहिये।
मूल रुद्र भव कहे जाते हैं । हे पक्षिश्रेष्ठ! रैवन्तेय,
भीम, वामदेव, वृषाकपि,
अज, समपाद, अहिर्बुध्न्य,
बहुरूप तथा महान् ये दस रुद्र कहे गये हैं । हे पक्षीन्द्र ! अब
आदित्यों को सुनें— उरुक्रम, शक्र,
विवस्वान्, वरुण, पर्जन्य,
अतिवाहु, सविता, अर्यमा,
धाता, पूषा, त्वष्टा तथा
भग-ये बारह आदित्य हैं। प्रभव और अतिवह आदि उनचास मरुद्गण कहे गये हैं । हे
खगेश्वर ! विश्वेदेव दस हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-
पुरूरवा, आर्द्रव, धुरि, लोचन, क्रतु, दक्ष, सत्य, वसु, काम तथा काल ।
इन्द्रियों के अभिमानी देवों के
समान ही स्पर्श, रूप, रस
आदि तत्त्वों के अभिमानी अपान, व्यान, उदान
आदि वायुदेवों की उत्पत्ति हुई। ऐसे ही च्यवन को महर्षि भृगु और उतथ्य को बृहस्पति
का पुत्र कहा गया है। रैवत, चाक्षुष, स्वारोचिष,
उत्तम, ब्रह्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि,
देवसावर्णि, दक्षसावर्णि तथा धर्मसावर्णि
इत्यादि मनु कहे गये हैं। ऐसे ही पितरों के सात गण भी प्रादुर्भूत हुए और इनसे
वरुण आदि की पत्नीरूप में गङ्गादि का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार परमात्मा श्रीहरि से
सभी देवों का प्रादुर्भाव हुआ और वे नारायण लक्ष्मी के साथ उनमें प्रविष्ट हुए ।
गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड
अध्याय ३-५ का मूलपाठ
अध्यायः ३ श्रीगरुडमहापुराणम्
श्रीकृष्ण उवाच ।
बभूवेच्छा मम देवस्य विष्णोः
स्रष्टुं सृज्यान्मोक्षयोग्यांश्च मोक्तुम् ।
इच्छाशक्तिः सर्वदैवास्ति
विष्णोस्तथापि तद्व्याहरणं च लौकिकम् ॥ ३,३.१ ॥
तदा हरिर्जगृहे लौकिकं च तमः पानं
तेन रूपेण चक्रे ।
तद्रूपमाहुः प्राकृतं वै तदज्ञा
ह्यन्धं तमः प्रविशन्त्येव सर्वे ॥ ३,३.२
॥
अवतारा महाविष्णोः सर्वे पूर्णाः
प्रकीर्तिताः ।
पूर्णं च तत्परं रूपं
पूर्णात्पूर्णाः समुद्गताः ॥ ३,३.३
॥
परावरत्वं तेषां तु
व्यक्तिमात्रविशेषतः ।
न देशकालसामर्थ्यात्पारावर्यं
कथञ्चन ॥ ३,३.४ ॥
पूर्वरूपं च पूर्णं च पूर्णं
पदवितारगम्? ।
रूपं तदात्मन्यादाय
पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ३,३.५ ॥
लौकिकव्यवहारोयं भूभारक्षपणादिकः ।
तस्य दृर्ष्टि विना नान्यो लयः
कृष्णादिना क्वचित् ॥ ३,३.६ ॥
तत्त्वे पीडा न कर्तव्या तया दुः
खानि विन्दति ।
अत्यन्तपीडनात्तस्य रोगस्तस्य न
संशयः ॥ ३,३.७ ॥
ज्ञातव्यांशे तु पीडा तु कर्तव्या
गुरुणा सह ।
तमन्तेवासिनं चाहुः स एव चु गुरुः
स्मृतः ॥ ३,३.८ ॥
ये कुर्वन्ति हरेस्तत्त्वविचारं तु
परस्परम् ।
तावेव गुरुशिष्यौ तु विनतानन्दसंयुत
॥ ३,३.९ ॥
गुरुणापि समं हास्यं कर्तव्यं
कुटिलं विना ।
हर्षामर्षयुतः शिष्यो गुरुः
कौटिल्यसंयुतः ॥ ३,३.१० ॥
उभौ तौ निरयं यातो
यावदाचन्द्रतारकम् ।
साक्षाद्धरिः पुरुषः पिङ्गलाक्षः
स्वमायायां गुणमय्यां महात्मा ।
स्वपौरुषेणैव सुमङ्गलेन अधात्तु
वीर्यं भगवान्वीर्यवांश्च ॥ ३,३.११
॥
गरुड उवाच ।
वीर्यस्वरूपं ब्रूहि मे वासुदेव
वीर्ये त्वदीये संशयो मे विभाति ।
किं वीर्यमीशस्य स्वरूपभूतं किं वा
विभिन्नं वद साधु वेत्सि ॥ ३,३.१२
॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
यद्वीर्यमाधत्त हरिः स्वयं
प्रभुर्मायाभिधायां विनतातनूज ।
तद्वीर्यमाहुर्नृहरेः स्वरूपं
विपश्चितो निश्चिततत्त्वदर्शिनः ॥ ३,३.१३
॥
भिन्नं तदाहुः प्राकृतमेव चाहुः
स्वनाभिपद्मादिकवच्च बोध्यम् ।
नैतावता ज्ञानरूपस्य विष्णोर्न
वीर्यहानिरिति चिन्तनीयम् ॥ ३,३.१४
॥
वीर्यस्वरूपी भगवान्वा सुदेवः
सर्वत्र देशेपि च सर्वकाले ।
सर्वार्थवान्यदि न स्यात्खगेन्द्र
तर्हीश्वरः पुरुषो नैव स स्यात् ॥ ३,३.१५
॥
अचिन्त्यवीर्यैश्चिन्त्यवीर्यैर्द्विरूपः
स्त्रीरूपमेकं पुरुषं तथा परम् ।
उभे रूपे वीर्यवती खगेन्द्र
तयोरभेदश्चिन्तनीयो हि सम्यकू ॥ ३,३.१६
॥
स्त्रीरूपवान्यदि न
स्यात्खर्गेद्रस्त्रीणां कथं प्रतिबिंबत्वमेव ॥ ३,३.१७ ॥
स्त्रीरूपमस्माद्ब्रह्मजं
(द्वास्तवं) चिन्तनीयं स्वरूपमेतन्नान्यथा चिन्तनीयम् ।
स्त्रीरूपवन्नैव विचिन्तनीयं
नपुंसकं त्बस्य जन्यं हि विद्धि ॥ ३,३.१८
॥
नपुंसकं नवैव स्वरूपभूतमतो हरौ
नास्ति विचिन्तनीयम् ।
स्त्रीबिंबभूते हरिरूपे खगेन्द्र
श्रीरूपमस्तीति विचिन्तनीयम् ॥ ३,३.१९
॥
गरुड उवाच ।
स्त्रिया स्त्रियश्च संयोगं
व्यर्थमहुर्मनीषिणः ।
स्त्रीरूपभूते विंबे तु स्त्रीरूपाः
सन्ति सर्वदा ॥ ३,३.२० ॥
स्थितौ तत्र निमित्तं च ब्रूहि
कृष्ण मम प्रभो ॥ ३,३.२१ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
स्त्रीबिंबभूतस्त्रीरूपे लक्ष्मीर्न
स्यात्खगेश्वर ।
नित्यावियोगिनी देवी कथं
स्यात्परमात्मनः ॥ ३,३.२२ ॥
हरेरनन्तरूपाणां स्त्रीरूपाणां
खगेश्वर ।
अनन्तानन्तरूपेण नित्यं शुश्रूषणे
रता ॥ ३,३.२३ ॥
अतो लक्ष्म्या वियोगस्तु शङ्कनीयः
कथञ्चन ।
नारायणो नाम हरिः स्वतन्त्रः श्रिया
विना नास्ति कदापि तार्क्ष्य ।
हरेर्मुकुन्दस्य पदारविन्दे
शुश्रूषमाणा परमादरेण ॥ ३,३.२४ ॥
हरिं विना श्रीरपि देशकाले नास्तीति
मोक्षेच्छुभिरेव वेद्यम् ।
यस्यामधाद्वीर्यमनुक्षणं च सा
मामिका चेन्द्रजाला त्मिकेति ॥ ३,३.२५
॥
वदन्ति ये असुरा मूढरूपा अधंमतः
प्रविशन्त्येव सर्वे ।
माया नाम प्रकृतिस्त्वेमाहुः
सुसूक्ष्मरूपा न तु चेन्द्रजालिका ॥ ३,३.२६
॥
तस्याभिमानः श्रीरिति वेदितव्यो
वीर्याधानं तत्र तेषां च मेलः ।
कार्योन्मुखं मेलनं चाहुरार्या इतो
रूपं नाहुराय्याश्च विष्णोः ॥ ३,३.२७
॥
सानादि नित्या सत्यरूपा च
विष्णोर्मिथ्या रूपा सा कथं स्यात्खगेन्द्र ।
सत्या तनुः प्रकृतेस्तन्निगूढा
सत्यत्वमाहुर्व्यवहारार्थरूपम् ॥ ३,३.२८
॥
व्यवहाररूपा सत्यता
चेत्प्रकृत्यास्तदा कथं स्याद्यदनादिभूता ।
अनादिनित्या यदि न स्यात्खगेन्द्र
सुशूक्ष्मरूपेण न कारणं स्यात् ॥ ३,३.२९
॥
सूक्ष्मेण रूपेण च कारणं
स्यात्तर्हि प्रपञ्चस्य च कारणं वद ।
अविद्याया वशतो विष्णुरेव
नानारूपैर्दृश्यते विष्णुरेव ॥ ३,३.३०
॥
शास्त्रज्ञानान्नाशमेति ह्यविद्या न
संशयो हरिणा चैक्यमेति ।
एवं ब्रूषे यदि वादत्खगेन्द्र
वक्ष्येहं ते तत्र युक्तिं शृणु त्वम् ॥ ३,३.३१ ॥
सर्वज्ञरूपस्य हि मे मुरारेः कथं
हरेर्घटते ह्यज्ञता च ।
सूर्ये यथा तमो नास्ति तथा नारायणे
हरौ ।
अज्ञानं नास्ति पक्षीद्र कथं तत्वं
ब्रवीष्यहो ॥ ३,३.३२ ॥
अतो नाहं ब्राह्मणस्त्वादिकालादुपाधिसंबन्धवशादज्ञताचेत्
।
सर्वज्ञोसौ कुत्र पक्षीन्द्र
विष्णुरल्पज्ञजीवो ज्ञानशून्यश्च कुत्र ॥ ३,३.३३ ॥
विरुद्धयोश्चानयोः सर्वदैव कथं
चैक्यं संवादिष्यन्ति वेदाः ।
देशे काले सर्वदा द्दुः खहीनो
जगत्कर्ता पूर्णशक्तिः सदैव ॥ ३,३.३४
॥
जीवः सदा स्वल्पकर्तास्ति पूर्णः
संसाररूपे दुः खरूपे च नित्यम् ।
विरुद्धयोश्चानयोरैक्यमाहुरीशस्य
मायावशतो मायिनश्च ॥ ३,३.३५ ॥
ये वैष्णवा वैष्णवदासवश्यास्तेषां
द्रोहं सर्वदा संचरेद्यः ।
हरिप्रीतिस्तेन भवेन्न
नित्यमानन्दवृद्धिस्तेन भवेन्न मुक्तौ ॥ ३,३.३६ ॥
मायी सदा मायिभृत्यस्तथापि
भेदज्ञानान्निन्द्यते कार्यते च ।
तेनापि तेषां दुः खवृद्धिर्भवेच्च
ह्यधं तमः पुनरावृत्तिहीनम् ॥ ३,३.३७
॥
खगेन्द्रातः प्रकृतिः सूक्ष्मरूपा
सा नित्या सा सत्यभूता सदैव ।
एवं स्वयं कालवाय्वादिकानां परा
(रमा)णवः सत्यरूपाश्च सन्ति ॥ ३,३.३८
॥
परा (माणू)नां लक्षणं वेदितव्यं
ज्ञानेच्छुभिर्नान्यथा वेदितव्यम् ।
पदार्थानां पार्थिवानां खगेन्द्र
विशेषाणां चरमाख्यो विशेषः ॥ ३,३.३९
॥
स एवः स्यात्परमाणुर्द्विजेन्द्र
योन्त्योवि (व) शेषोवयवश्च स स्मृतः ॥ ३,३.४० ॥
गरुड उवाच ।
हे कृष्ण हे माधव सात्त्वतां पते
पदार्थानां चरमांशः पराणु ॥ ३,३.४१
॥
इति प्रोक्तं तत्र मे संशयोस्ति
योन्त्यो विशेषः स तु नांशयुक्तः ।
यो ह्यंशयुक्तो न तु सोंत्यो विशेष
एवं ममाभाति वचस्तु तथ्यम् ॥ ३,३.४२
॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
य एव लोके संस्थिता मानुषास्तु
विशेषाणां दर्शने शक्तियुक्ताः ।
तथापि ते यस्य चांशित्वमेव विशेषं
वै नैव द्रष्टुं समर्थाः ॥ ३,३.४३
॥
तमेवाहुश्चरमांशं विशेषं ये
चैवमाहुर्मुनयस्तेन चान्ये ।
ये काणादा गौतमाद्याः खगेन्द्र
निरंशकं परमाणुं वदन्ति ॥ ३,३.४४
॥
अनन्तांशैः संयुतत्वेपि तांश्च
निरंशिनो भ्रान्तिदृष्ट्या वदन्ति ।
तस्मात्परा (रमा) णोः परमाणुत्वमस्ति
तदंशानां विनतागर्भजात ॥ ३,३.४५
॥
परा (रमा) णूनामेकदेशे खगेन्द्र
तन्नो संति प्राणिनां राशयश्च ।
प्रत्येकश संति रूपा हरेश्च ह्यतश्च
तत्परमाणोरणीयः ॥ ३,३.४६ ॥
यो वा त्वणीयान्परमस्य विष्णोः स एव
रूपो महतो महीयान् ।
तेषामन्योन्यं न विशेषोस्ति कश्चिदचिन्त्यरूपे
च विचिन्तनीयः ॥ ३,३.४७ ॥
कालकोटिविहीनत्वं कालानन्त्यं
विदुर्बुधाः ।
देशकोटिविहीनत्वं देशानन्त्यं
विदुर्बुधाः ॥ ३,३.४८ ॥
गुणानामप्रमेयत्वे गुणानन्त्यं
विदुर्बुधाः ।
आनन्त्यं त्रिविधं नित्यं
हरेर्नान्यस्य कस्यचित् ॥ ३,३.४९
॥
तस्य सर्वस्वरूपेषु चानन्त्यं तु
त्रिलक्षणम् ।
तथापि देशतस्तस्य परिच्छेदोपि
युज्यते ॥ ३,३.५० ॥
परिच्छेदस्तथा व्याप्तेरेकरूपेपि
युज्यते ।
तस्याचिन्त्याद्भुतैश्वर्यं
व्यवहारार्थमेव च ॥ ३,३.५१ ॥
गुणतः कालतश्चैव परिच्छेदो न
कुत्रचित् ।
व्याप्तत्वं देशतो ह्यस्ति
सर्वभूतेषु यद्यापि ॥ ३,३.५२ ॥
न च भेदः क्वचित्तस्य ह्यणुमात्रेपि
युज्यते ।
तथापि विद्यतेणुत्वं
तस्मादैश्वर्ययोगतः ॥ ३,३.५३ ॥
तस्माद्विद्ध्यवतारार्थं
व्याप्तत्वं चापि भण्यते ।
यत्तस्य व्यापकं रूपं परं नारायणं
विदुः ॥ ३,३.५४ ॥
अतश्च परमाणूनां
पार्थिवाऽनन्त्यवादिनाम् ।
भेदः परस्परं ज्ञेयस्तथेशस्य
महात्मनः ॥ ३,३.५५ ॥
जडेशयोर्जडानां च जीवानां च
परस्परम् ।
तथैव जडजीवानां नित्यं भेदो जडेशयोः
॥ ३,३.५६ ॥
पञ्च भेदा इमे नित्यं सर्वावस्थासु
सर्वशः ।
एतादृश्यां तु मायायां वीर्यमाधत्त
वीर्यवान् ॥ ३,३.५७ ॥
पुरुषाख्यो हरिस्तस्मात्त्रिगुणानसृजत्प्रभुः
॥ ३,३.५८ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे तृतीयांशे
ब्रह्मकाण्डे भगवद्वीर्यस्वरूपतदाधानद्वारकगुणत्रय सृष्टिजडेशभेदादिनिरूपणं नाम
तृतीयोऽध्यायः॥
अध्यायः ४ श्रीगरुडमहापुराणम्
श्रीकृष्ण उवाच ।
यथा ससर्ज भगवांस्त्रीन्
गुणान्प्रकृतेस्तदा ।
लक्ष्मीस्त्रिरूपा संभूता
श्रीर्भूर्दुर्गोति संज्ञिता ॥ ३,४.१
॥
सत्त्वाभिमानिनी श्रीस्तु भूर्देवी
रजमानिनी ।
तमोभिमानिनी दुर्गा
ह्येवमाहुर्मनीषिणः ॥ ३,४.२ ॥
अन्तरं न विजानीयाद्रूपाणां च
परस्परम् ।
गुणानां चैव संबन्धाद्दुर्गादीनां
खगेश्वर ॥ ३,४.३ ॥
अन्तरं ये विजानन्ति ते
यान्त्यन्धन्तमः परम् ।
पुरुषस्तु
त्रिरूपोभूद्विष्णुर्ब्रह्मा भवेतिसः ॥ ३,४.४ ॥
सत्त्वेन लोकान्वर्धयितुं विष्णुः
साक्षाद्धरिः स्वयम् ।
सृष्टिं कर्तुं च रजसा ब्रह्मणि
प्राविशद्धरिः ॥ ३,४.५ ॥
आद्यो ब्रह्मा स विज्ञेयो न तु
साक्षाद्धरिः स्वयम् ।
तमसापि समान्हन्तुं रुद्रे च
प्राविशद्धरिः ॥ ३,४.६ ॥
रुद्रे स्थितो रुद्रसंज्ञो न
रुद्रस्तु हरिः स्वयम् ।
विष्णुरेव हरिः साक्षात्तावुभौन हरी
स्मृतौ ॥ ३,४.७ ॥
आविष्टरूपौ विज्ञेयौ
ब्रह्मरुद्राभिधायकौ ।
एवं ज्ञात्वा मोक्षमेति नान्यथा तु
कथञ्चन ॥ ३,४.८ ॥
विष्णुब्रह्मादिरूपाणामैक्यं
जानन्ति ये द्विजाः ।
ते यान्ति नरकं घोरं
पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥ ३,४.९ ॥
गुणत्रयं प्रविष्टस्तु पुरुषो
हरिरव्ययः ।
कार्योन्मुखं यथा भूयात्क्षोभयामास
वै तथा ॥ ३,४.१० ॥
जातक्षोभाद्भगवतो
महानासीद्गुणत्रयात् ।
गुणत्रये विद्यमानाद्भागादेव न संशयः
॥ ३,४.११ ॥
महतो ब्रह्मवायू च जज्ञाते
खाभिमानिनौ ।
तस्य संवत्सरात्पश्चाद्यमलौ
संबभूवतुः ॥ ३,४.१२ ॥
रजः प्रधानं यत्तत्वं
महत्तत्तवमितीरितम् ।
सर्गं त्विमं
विजानीयाद्गुणवैषम्यनामकम् ॥ ३,४.१३
॥
गरुड उवाच ।
महत्तत्तवस्वरूपस्य ज्ञानार्थं
देवकीसुत ।
त्वयोक्ता गुणवैषम्यनामिका
सृष्टिरुत्तमा ॥ ३,४.१४ ॥
गुणवैषम्यशब्दार्थं मम ब्रूहि
महाप्रभो ।
श्रीकृष्ण उवाच ।
गुणवैषम्यशब्दार्थज्ञापनाय खगेश्वर
॥ ३,४.१५ ॥
अपिक्षितं च तत्रादौ गुणसाम्यं न
संशयः ।
सम्यग्ज्ञापयितुं तत्र खादौ
तावत्स्वगेश्वर ॥ ३,४.१६ ॥
राशिभूतं गुणानां तु दर्शयिष्ये
स्थितिं च वै ।
राशीभूतस्य तसमः सकाशाद्विनतासुत ॥
३,४.१७ ॥
राशीभूतं रजो ज्ञेयन्द्विगुणं तत्तु
नान्यथा ।
राशीभूतस्य रजसः सकाशाद्विनतासुत ॥
३,४.१८ ॥
राशीभूतं तथा सत्त्वं द्विगुणं
समुदाहृतम् ।
मूलप्रकृतिजा ह्येते न मूला
प्रकृतिः स्मृता ॥ ३,४.१९ ॥
यतः प्रकृतिरूपाणां परिच्छेदो न
विद्यते ।
अतः प्रकृतिजा ज्ञेया न मूलास्ते
खगेश्वर ॥ ३,४.२० ॥
एवं तव गुणानाञ्च परिमाणं खगेश्वर ।
उक्तं स्वरूपं तेषां तु तव
सम्यक्खगेश्वर ॥ ३,४.२१ ॥
तत्र राशित्रये सत्त्वं केवलं
समुदाहृतम् ।
रजस्तमोभ्यां गरुड ह्यविमिश्रं
ह्यतस्तु तत् ॥ ३,४.२२ ॥
केवलं सत्त्वमित्युक्तं न तु
श्रेष्ठत्वतः प्रभो ।
सृष्टिकाले केवलं स्यात्प्रलये
मिश्रितं भवेत् ॥ ३,४.२३ ॥
सर्वदाप्यविमिश्रं च सत्त्वराशिं
खगेश्वर ।
सर्वदापि विमिश्रं च सत्त्वराशिं
द्विजोत्तम ॥ ३,४.२४ ॥
ये विजानन्ति ते सर्वे विशन्ति
ह्यधरं तमः ।
रजस्तमोगुणौ वीन्द्र इतराभ्यां
विमिश्रितौ ॥ ३,४.२५ ॥
सृष्टौ प्रलयकालेपि मिश्रावेव
खगेश्वर ।
राशिभूतेपि रजसि रजोभागाच्छताधिकम्
॥ ३,४.२६ ॥
सत्त्वं च मिश्रितं ज्ञेयं नान्यथा
पक्षिसत्तम ।
रजसः शतभागानां मध्ये तु विनतासुत ॥
३,४.२७ ॥
य एको भाग उद्दिष्टस्तावत्परिमितं
तमः ।
राशिभूतेपि रजसि मिश्रितं
परिकीर्तितम् ॥ ३,४.२८ ॥
रजोराशिस्थितिस्त्वेवं तात व्याप्तं
तमोगुणैः ।
राशिभूतेपि तमसि सत्त्वं च विनतासुत
॥ ३,४.२९ ॥
तमः सकाशाद्गरुड दशभागाधिकेन च ।
मिश्रितं भवतीत्येवं ज्ञातव्यं
नात्र संशयः ॥ ३,४.३० ॥
तमसो दशभागानां मध्ये तु विनतासुत ।
य एको भाग उद्दिष्टस्तावत्परिमितं
रजः ॥ ३,४.३१ ॥
राशिभूतेपि तमसि मिश्रितं भवति
ध्रुवम् ।
तमोराशिस्थितिस्त्वेवं ज्ञातव्या
पक्षिसत्तम ॥ ३,४.३२ ॥
गरुड उवाच ।
रशिभूतेपि रजसि राशिभूते तमस्यपि ।
सत्त्वांशा ह्यधिकाः संतीत्येवमुक्तं
मयानघ ॥ ३,४.३३ ॥
तत्र मे संशयो ह्यस्ति शृणु त्वं
सात्त्वतां पते ।
यद्राश्यां यद्रा शिभागा ह्यधिकाः
संति यावता ॥ ३,४.३४ ॥
तावता व्यवहारः स्यात्क्षीरनीरमिव
प्रभो ।
श्रुत्वा स गरुडेनोक्तं
भगवान्पुरुषोत्तमः ॥ ३,४.३५ ॥
उवाच पर मप्रीत्या संस्तुवन् गरुडं
हरिः ।
श्रीकृष्ण उवाच ।
रजोराश्या तमोराश्या
सत्त्वराश्यधिका सदा ॥ ३,४.३६ ॥
मिश्रितं चापि पक्षीन्द्र न
सत्तवमिति कीर्त्यते ।
रजोराशिस्तमोराशिरित्येवं विबुधा
विदुः ॥ ३,४.३७ ॥
विषं तु चरुदुग्धस्थं
विषमित्युच्यते यथा ।
एवं मयोक्ता गरुड गुणानां
निजसंस्थितिः ॥ ३,४.३८ ॥
साम्यावस्थां गुणानां च शृण्विदानीं
खगेश्वर ।
राशीकृताच्च रजसः जन्यं यच्च
कगेश्वर ॥ ३,४.३९ ॥
महत्तत्त्वे प्रविष्टं च यद्रजः
परिकीर्तितम् ।
प्रलये समनुप्राप्ते महत्तत्त्वे
स्थितं रजः ॥ ३,४.४० ॥
द्वादशांशेन तु ह्यद्धा विभक्तं
भवतिं प्रभो ।
राशीभूते हि सत्त्वे तु दशभागेन
मिश्रितम् ॥ ३,४.४१ ॥
सम्यक्भवति पक्षीन्द्र तथैकांशेन
चाण्डज ।
तमोराश्या मिश्रितं च भवत्येव न
संशयः ॥ ३,४.४२ ॥
अन्येनैकेन भागेन रजोराश्या खगेश्वर
।
मिश्रितं भवतीत्येवं ज्ञातव्यं
नान्यथा क्वचित् ॥ ३,४.४३ ॥
गुणत्रयेपि भगवान्महत्तत्त्वस्य चाण्डज
।
एवं लयस्तु ज्ञातव्यो हृदि
तत्त्वार्थवोदिभिः ॥ ३,४.४४ ॥
एवं गुणत्रयाणां च
मिश्रितत्त्वात्खगेश्वर ।
गुणसाम्यमिति प्राहुरेवं जानीहि वै
खग ॥ ३,४.४५ ॥
अन्यथा ये विजानन्ति ते यान्ति
ह्यधरं तमः ।
गरुड उवाच ।
राशीकृतगुणानां च त्रयाणां परमेश्वर
॥ ३,४.४६ ॥
विशालानां परं ब्रह्मन्प्रलये
गुणसाम्यता ।
कथं ब्रूहि महाभाग एतत्तत्त्वं
समासतः ॥ ३,४.४७ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
राशीभूतगुणानां तु त्रयणामपि सत्तम
।
तदा विमिश्रितत्वेन ह्यवस्थानं
विदुर्बुधाः ॥ ३,४.४८ ॥
इदानीं गुणवैषम्यं शृणु सम्यङ्मम
प्रिय ।
सृष्टिकाले तु संप्राप्ते यत्पूर्वं
प्रलये खग ॥ ३,४.४९ ॥
दशभागैश्च सत्त्वे तु मिश्रितं यद्र
जस्तथा ।
तमस्यप्येकभागेन प्रविष्टं यत्तु
तद्रजः ॥ ३,४.५० ॥
रजस्यप्येकभागेन प्रविष्टं यच्च
तद्रजः ।
एवं द्वादशभागैश्च प्रविष्टं सर्वशो
रजः ॥ ३,४.५१ ॥
सत्त्वस्तैर्दशभागैश्च तथैकेन
रजोंशिना ।
एवमेकादशैर्भागैस्तमस्थांशेन वै
व्दिज ॥ ३,४.५२ ॥
मिश्रितं भवति ह्यद्धा महत्तत्त्वं
तदा स्मृतम् ।
एतदन्यो विशेषश्च मन्तध्यो विनतासुत
॥ ३,४.५३ ॥
एकांशस्तामसो ज्ञेयो महत्तत्त्वे न
संशयः ।
एवं त्रयोदशैर्भागैर्मिश्रितं तच्च
सत्तम ॥ ३,४.५४ ॥
एवमेतद्विजानीयान्नान्यथा तु कथञ्चन
।
गरुड उवाच ।
चतुर्मुखाच्छ्रुतं पूर्वं
भगवन्सात्त्वतां पते ॥ ३,४.५५ ॥
चतुर्भागात्समुत्पन्नं
महत्तत्त्वमिति प्रभो ।
तत्रैकांशस्तमः प्रोक्तः त्रिभागो
रज एव च ॥ ३,४.५६ ॥
तदाहुर्ब्रह्मणो रूपं
गुणवैषम्यनामकम् ।
चतुर्भागात्मकं प्रोक्तं
महत्तत्त्वं श्रुतं मया ॥ ३,४.५७
॥
त्रयोदशांशैः संभूतमिति प्रोक्तं
त्वयानघ ।
तदेतत्संशयं छिन्धि कृपालो
भक्तवत्सल ॥ ३,४.५८ ॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
ब्रह्मोक्तम्य मयोक्तस्य विवादो
नास्ति सर्वथा ।
मूलसत्त्वे मिश्रितं च दशभागेन
यद्रजः ॥ ३,४.५९ ॥
तत्सर्वं च मिलित्वैव त्वेको
भागस्तु कीर्तितः ।
मूले रजसि यच्चोक्तो रजोभागः
खगेश्वर ॥ ३,४.६० ॥
भागे द्वितीये विज्ञेयस्तद्रजो
नात्र संशयः ।
मूले तमसि यच्चोक्तो रजोभागस्तथैव च
॥ ३,४.६१ ॥
तृतीयभागो विज्ञेयो नात्र कार्या
विचारणा ।
तथा मूले च तमसि ह्येको भागस्तमः
स्मृतः ॥ ३,४.६२ ॥
एवं त्रिभागो रजसः एकांशस्तमसः
स्मृतः ।
तदाहुर्ब्रह्मणो देहं
गुणवैषम्यनामकम् ॥ ३,४.६३ ॥
गरुड उवाच ।
महत्तत्त्वस्य चत्वारो भागास्तेषु
रजस्त्रयः ।
तमसस्त्वेक एवेति त्वयोक्तं
गरुडध्वज ॥ ३,४.६४ ॥
रजोभागात्मको देहोः ब्रह्मणः
परमेष्ठिनः ।
इति प्रतीयते ब्रह्मन्वचनात्तव माधव
॥ ३,४.६५ ॥
शुद्धसत्त्वात्मको देहो ब्रह्मणः
परमेष्ठिनः ।
एवं हि श्रूयते कृष्ण संशयो मेत्र
बाधते ॥ ३,४.६६ ॥
तमेवं संशयं छिन्धि यद्धि
तच्छ्रोतुमर्हति ।
श्रीकृष्ण उवाच ।
त्रिभागभूते रजसि तथा द्वादशधापि च
॥ ३,४.६७ ॥
रजसोपेक्षया सत्त्वं दशांशाधिकमेव च
।
प्रविष्टमस्तीति खग ज्ञातव्यं
तच्छणु द्विज ॥ ३,४.६८ ॥
तमसोपेक्षया सत्त्वं दशांशाधिकमेव
वै ।
प्रविष्टमस्तीति खग वक्तव्यं नात्र
संशयः ॥ ३,४.६९ ॥
तमसोपेक्षया तत्र तम एकादशं स्मृतम्
।
एकांशस्तु रजो
ज्ञेयमेवमाहुर्मनीषिणः ।
एवं च मिलितान्भागान्वक्ष्ये शृणु
महामते ॥ ३,४.७० ॥
महत्तत्त्वसमुत्पत्ता उपादानं
खगेश्वर ।
त्रयोदशांशा विज्ञेया द्वादशाशं रजः
स्मृतम् ॥ ३,४.७१ ॥
एकांशस्तमसो ज्ञेयस्तत्र भागाञ्छृणु
द्विजा ।
आदौ तु द्वादशांशेषु
भागान्वक्ष्यामि तच्छृणु ॥ ३,४.७२
॥
एकांशस्तमसो ज्ञेयस्तद्दशां शाधिकं
रजः ।
तच्छतांशाधिकं
सत्त्वमेवमाहुर्मनीषिणः ॥ ३,४.७३
॥
एकांशतमसि ह्येवं विभागाञ्छृणु
सत्तम ।
एकांशस्तु रजो ज्ञेयस्तमो ह्येका
दशाधिकम् ॥ ३,४.७४ ॥
तमोभागास्तु
विज्ञेयास्तद्दशांशाधिकः स्मृतः ।
सत्त्वभाग इति ज्ञेयो महत्तत्त्वे
खगेश्वर ॥ ३,४.७५ ॥
सत्त्वांशो बहुलो
यस्माच्छुद्धसत्त्वं चतुर्मुखः ।
उत्पत्तिर्महतश्चोक्ता एवं च
विनतासुत ॥ ३,४.७६ ॥
तज्ज्ञानान्मोक्षमाप्नोति नान्यथा
तु कथञ्चन ॥ ३,४.७७ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे कृष्ण गरुडसंवादे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे
गुणवैषम्यभेदब्रह्मदेहस्वरूपगुणसाम्यनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥
अध्यायः ५ श्रीगरुडमहापुराणम्
एतादृशे महत्तत्त्वे लक्ष्म्या सह
हरिः स्वयम् ।
प्रविवेश महाभाग क्षोभयामास वै हरिः
॥ ३,५.१ ॥
अहन्तत्त्वमभूत्तस्माज्ज्ञानद्रव्यक्रियात्मकम्
।
अहङ्कारसमुत्पत्तावेकांशस्तमसि
स्मृतः ॥ ३,५.२ ॥
तद्दशांशाधिकरजस्तद्दशांशाधिकं
प्रभो ।
सत्त्वमित्युच्यते
सद्भिर्ह्येतदात्मा त्वहं स्मृतम् ॥ ३,५.३
॥
अहन्तत्त्वाभिमानी तु आदौ शेषो
बभूवह ।
सहस्राब्दाच्च पश्चात्तौ जातौ खगहरौ
द्विज ॥ ३,५.४ ॥
अहन्तत्त्वे खग ह्येषु प्रविष्टो
हरिरव्ययः ।
क्षोभयामास भगवाल्लङ्क्ष्म्या सह
हरिः स्वयम् ॥ ३,५.५ ॥
वैकारिकस्तामसश्च तैजसश्चेत्यहं
त्रिधा ।
त्रिधा बभूव रुद्रोपि यतस्तेषां
नियामकः ॥ ३,५.६ ॥
वैकारिकस्थितो रुद्रो वैकारिक इति
स्मृतः ।
तामसे तु स्थितो रुद्रस्तामसो
ह्यभिधीयते ॥ ३,५.७ ॥
तैजसे तु स्थितो रुद्रो लोके वै
तैजसः स्मृतः ।
तैजसे तु ह्यहन्तत्त्वे लक्ष्म्या
सह हरिः स्वयम् ॥ ३,५.८ ॥
विशित्वा क्षोभयामास तदासौ दशधा
त्वभूत् ।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं
घ्राणमेव च ॥ ३,५.९ ॥
वाक्पाणिपादं पायुश्च उपस्थेति दश
स्मृताः ।
वैकारिके ह्यहन्तत्त्वे प्रविश्य
क्षोभयद्धरिः ॥ ३,५.१० ॥
महत्तत्त्वादिमा अदाविन्द्रियाणां च
देवताः ।
एकादशविधा आसन्क्रमेण तु खगेश्वर ॥
३,५.११ ॥
मनोभिमानि नी ह्यादौ वारुणी
त्वभवत्तदा ।
अनन्तरं च सौपर्णी गौरोजापि तथैव च
॥ ३,५.१२ ॥
शेषादनन्तरास्तासां दशवर्षादनंरम् ।
उत्पत्तिरिति विज्ञेयं क्रमेण तु
खगेश्वर ॥ ३,५.१३ ॥
मनोभिमानिनावन्याविन्द्रकामौ
प्रजज्ञतुः ।
तार्क्ष्य ह्यनन्तरौ ज्ञेयौ मुक्तौ
संसार एव च ॥ ३,५.१४ ॥
ततस्त्वगात्मा ह्यभवत्सोहं कारिक
ईरितः ।
ततः पाण्यात्मकाश्चैव जज्ञिरे
पक्षिसत्तम ॥ ३,५.१५ ॥
शची रतिश्चानिरुद्धस्तथा स्वायंभुवो
मनुः ।
बृहस्पतिस्तथा दक्ष एते
पाण्यात्मकाः स्मृताः ॥ ३,५.१६ ॥
दक्षस्यानन्तरं जज्ञे प्रवाहो नाम
चाण्डज ।
स एवोक्तश्चातिंवाहो
यापयत्यात्मचोदितः ॥ ३,५.१७ ॥
हस्तादनन्तरं ज्ञेयो न तु
शच्यादिवत्स्मृतः ।
ततोभवन्महाभाग चक्षुरिद्रियमात्मनः
॥ ३,५.१८ ॥
स्वायंभुवमनोर्भार्या शतरूपा
यमस्तथा ।
चन्द्रसूर्यौ तु चत्त्वारश्चक्षुरिन्द्रियमानिनः
॥ ३,५.१९ ॥
चन्द्रः श्रोत्राभिमानीति तथा
ज्ञेयः खगेश्वर ।
जिह्वेन्द्रियात्मा वरुणः
सूर्यस्यानन्तरोभवत् ॥ ३,५.२० ॥
वागिन्द्रियाभिमानिन्यो
ह्यभवन्वरुणादनु ।
दक्षपत्नी प्रसूतिश्च
भृगुरग्निस्तर्थव च ॥ ३,५.२१ ॥
तत्र वैते महात्मानो वागिन्द्रियनियामकाः
।
ये
क्रव्यादादयश्चोक्तास्तेनन्तत्त्वनियामकाः ॥ ३,५.२२ ॥
साम्यत्वाच्च तथैवोक्तिर्न तु
तत्त्वाभिमानितः ।
उपस्थमानिनो वीन्द्र
बभूवुस्तदनन्तरम् ॥ ३,५.२३ ॥
विश्वामित्रो वसिष्टोत्रिर्मरीचिः
पुलहः क्रतुः ।
पुलस्त्योङ्गिरसश्चैव तथा वैवस्वतो
मनुः ॥ ३,५.२४ ॥
मन्वादयोनन्तसंख्या उपस्थात्मान
ईरिताः ।
पायोश्च मानिनो वीन्द्र जज्ञिरे
तदनन्तरम् ॥ ३,५.२५ ॥
सूर्येषु द्वादशस्वेको मित्रस्तारा
गुरोः प्रिया ।
कोणाधिपो निरृतिश्च प्रवहप्रिया ॥ ३,५.२६ ॥
चत्त्वार एते पक्षीन्द्र
वायुतत्त्वाभिमानिनः ।
घ्राणाभिमानिनः सर्वे जज्ञिरे
द्विजसत्तम ॥ ३,५.२७ ॥
विष्ववसेनो वायुपुत्रौ ह्यश्विनौ
गणपस्तथा ।
वित्तपः सप्त वसव उक्तो
ह्याग्निस्तथाष्टमः ॥ ३,५.२८ ॥
सत्यानां शृणु नामानि द्रोणः प्राणो
ध्रुवस्तथा ।
अर्के दोषस्तथा वस्कः सप्तमस्तु
विभावसुः ॥ ३,५.२९ ॥
दशरुद्रास्तथा ज्ञेया मूलरुद्रो भवः
स्मृतः ।
दश रुद्रस्य नामानि शृणुष्व
द्विजसत्तम ॥ ३,५.३० ॥
रैवन्तेयस्तथा भीमो वामदेवो
वृषाकपिः ।
अजैकपादहिर्वुध्न्यो बहुरूपो
महानिति ॥ ३,५.३१ ॥
दश रुद्रा इति प्रोक्ताः
षडादित्याञ्छृणु द्विज ।
उरुक्रमस्तथा शक्रो
विवस्वान्वरुणस्तथा ॥ ३,५.३२ ॥
पर्जन्योतिबाहुरेत उक्ताः पूर्वं
द्विजोत्तम ।
पर्जन्यव्यतिरिक्तास्तु पञ्चैवोक्ता
न संशयः ॥ ३,५.३३ ॥
गङ्गासमस्तु पर्जन्य इति चोक्तः
खगेश्वर ।
सविता ह्यर्यमा धाता पूषा त्वष्टा
तथा भगः ॥ ३,५.३४ ॥
चत्वारिंशत्तथा सप्त महतः
परिकीर्तिताः ।
द्वावुक्ताविति विज्ञेयो प्रवहोतिवहस्तथा
॥ ३,५.३५ ॥
तथा दशविधा ज्ञेया विश्वेदेवाः
खगेश्वर ।
शृणु नामानि तेषां तु
पुरूरवार्द्रवसंज्ञकौ ॥ ३,५.३६ ॥
धूरिलोचनसंज्ञौ द्वौ
क्रतुदक्षेतिसंज्ञकौ ।
द्वौ सत्यवसुसंज्ञौ च
कामकालकसंज्ञकौ ॥ ३,५.३७ ॥
एवं दशविधा ज्ञेया विश्वेदेवाः
प्रकीर्तिताः ।
तथा ऋभुगणश्चोक्तस्तथा च
पितरस्त्रयः ॥ ३,५.३८ ॥
द्यावा पृथिव्यौ विज्ञेयौ एते च
षडशीतयः ।
देवाः प्रजज्ञिरे सर्वे
नासिकद्रियमानिनः ॥ ३,५.३९ ॥
आकाशस्याभिमानी तु गणपः सुदाहृतः ।
उभयत्राभि मानीति ज्ञेयं
तत्त्वार्थवेदिभिः ॥ ३,५.४० ॥
विष्वक्सेनं विना सर्वे जयाद्या विष्णुपार्षदाः
।
अभवन्समहीनाश्च विष्वक्सेनादनन्तरम्
॥ ३,५.४१ ॥
एतेपि नासिकायाश्च अवान्तरनियामकाः
।
अतस्ते तत्त्वमानिभ्यो ह्यवरास्ते
प्रकीर्तिताः ॥ ३,५.४२ ॥
स्पर्शतत्त्वाभिमानी तु
अपानश्चेत्युदाहृतः ।
रूपाभिमानी संजज्ञे व्यानो नाम
महान्प्रभो ॥ ३,५.४३ ॥
रसात्मक उदानश्च समानो गन्धनामकः ।
अपां नाथाश्च चत्वारो मरुतः
परिकीर्तिताः ॥ ३,५.४४ ॥
जयाद्यनन्तरान्वक्ष्ये
समुत्पन्नान्खगेश्वर ।
प्रधानाग्रे प्रथमजः पावकः
समुदाहृतः ॥ ३,५.४५ ॥
भृगोर्महर्षेः पुत्रश्च च्यवनः
समुदाहृतः ।
बृहस्पतेश्च पुत्रस्तु उतथ्यः
परिकीर्तितः ॥ ३,५.४६ ॥
रैवतश्चाक्षुषश्चैव तथा स्वारोचिषः
स्मृतः ।
उत्तमो ब्रह्मसावर्णी
रुद्रसावर्णिरेव च ॥ ३,५.४७ ॥
देवसावर्णिसावर्णिरिन्द्रसावर्णिरेवच
।
तथैव दक्षसावर्णिर्धर्मभावर्णिरेव च
॥ ३,५.४८ ॥
एकादशविधा ह्येवं मनवः परिकीर्तिताः
।
पितॄणां सप्तकं चैवेत्याद्याः संजज्ञिरे
खग ॥ ३,५.४९ ॥
तदनन्तरमुत्पन्नास्तेभ्यो नीचाः
शृणु द्विज ।
वरुणस्य पत्नी गङ्गा पर्जन्याख्यो
विभावसुः ॥ ३,५.५० ॥
यमभार्या श्यामला तु
ह्यनिरुद्धप्रिया विराट् ।
ब्रह्माण्डमानिनी सैव ह्युषानाम्ना
सुशब्दिता ॥ ३,५.५१ ॥
रोहिणी चन्द्रभार्योक्ता सूर्यभार्या
तु संज्ञका ।
एता गङ्गादिषटूसंख्या जज्ञिरे
विनतासुत ॥ ३,५.५२ ॥
गङ्गाद्यनन्तरं जज्ञे स्वाहा वै
मन्त्रदेवता ।
स्वाहानामाग्निभार्योक्ता
गङ्गादिभ्योधमा श्रुता ॥ ३,५.५३
॥
स्वाहानन्तरजो ज्ञेयो ज्ञानात्मा
बुधनामकः ।
बुधस्तु चन्द्रपुत्रो यः स्वाहाया
अधमः स्मृतः ॥ ३,५.५४ ॥
उषा नाम तथा जज्ञे बुधस्यानन्तरं खग
।
उषानामा भिमानी तु ह्यश्विभार्या
प्रकीर्तिता ॥ ३,५.५५ ॥
बुधाधमा सा विज्ञेया नात्र कार्या
विचारणा ।
ततः शनैश्चरो जज्ञे पृथिव्यात्मेति
विश्रुतः ॥ ३,५.५६ ॥
उषाधमस्तु विज्ञेयस्ततो जज्ञेथ
पुष्करः ।
कर्माभिमानी विज्ञेयः शनैश्चर
इतीरितः ॥ ३,५.५७ ॥
तत्त्वाभिमानिनो देवानेवं सृष्ट्वा
हरिः स्वयम् ।
प्रविवेश स देवेशस्तत्त्वेषु रमया
सहा ॥ ३,५.५८ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे तृतीयांशे
ब्रह्मकाण्डे तत्त्वाभिमानि देवतोत्पत्तितत्तारतम्यनिरूपणं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण ब्रह्मकाण्ड अध्याय 6
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