वामनपुराण अध्याय ३

वामनपुराण अध्याय ३ 

वामनपुराण के अध्याय ३ में शंकरजी का ब्रह्महत्या से छूटने के लिये तीर्थों में भ्रमण; बदरिकाश्रम में नारायण की स्तुति; वाराणसी में ब्रह्महत्या से मुक्ति एवं कपाली नाम पड़ना का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय ३

श्रीवामनपुराण अध्याय ३ 

Vaman Purana chapter

श्रीवामनपुराणम् तृतीयोऽध्यायः       

वामनपुराणम् अध्यायः ३ 

वामन पुराण तीसरा अध्याय

श्रीवामनपुराण तृतीय अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय ३ 

पुलस्त्य उवाच

ततः करतले रुद्रः कपाले दारुणे स्थिते ।

संतापमगमद् ब्रह्मंश्चिन्तया व्याकुलेन्द्रियः ॥१॥

ततः समागता रौद्रा नीलाञ्जनचयप्रभा ।

संरक्तमूर्द्धजा भीमा ब्रह्महत्या हरान्तिकम् ॥२॥

तामागतां हरो दृष्ट्वा पप्रच्छ विकरालिनीम् ।

काऽसि त्वमागता रौद्रे केनाप्यर्थेन तद्वद ॥३॥

कपालिनमथोवाच ब्रह्महत्या सुदारुणा ।

ब्रह्मवध्याऽस्मि सम्प्राप्ता मां प्रतीच्छ त्रिलोचन ॥४॥

पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! तत्पश्चात् शिवजी को अपने करतल में भयंकर कपाल के सट जाने से बड़ी चिन्ता हुई । उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं । उन्हें बड़ा संताप हुआ । उसके बाद कालिख के समान नीले रंग की, रक्तवर्ण के केशवाली भयंकर ब्रह्महत्या शंकर के निकट आयी । उस विकराल रुपवाली स्त्री को आयी देखकर शंकरजी ने पूछा - ओ भयावनी स्त्री ! यह बतलाओ कि तुम कौन हो एवं किसलिये यहाँ आयी हो ? इस पर उस अत्यन्त दारुण ब्रह्महत्या ने उनसे कहा - मैं ब्रह्महत्या हूँ; हे त्रिलोचन ! आप मुझे स्वीकार करें - इसलिये यहाँ आयी हूँ ॥१ - ४॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्महत्या विवेश ह ।

त्रिशूलपाणिनं रुद्रं सम्प्रतापितविग्रहम् ॥५॥

ब्रह्महत्याभीभूतश्च शर्वो बदरिकाश्रमम् ।

आगच्छन्न ददर्शाथ नरनारायणावृषी ॥६॥

अदृष्ट्वा धर्मतनयौ चिन्ताशोकसमन्वितः ।

जगाम यमुनां स्नातुं साऽपि शुष्कजलाऽभवत् ॥७॥

कालिन्दीं शुष्कसलिलां निरीक्ष्य वृषकेतनः ।

प्लक्षजां स्नातुमगमदन्तर्द्धानं च सा गता ॥८॥

ऐसा कहकर ब्रह्महत्या संताप से जलते शरीरवाले त्रिशूलपाणि शिव के शरीर में समा गयी । ब्रह्महत्या से अभिभूत होकर श्रीशंकर बदरिकाश्रम में आये; किंतु वहाँ नर एवं नारायण ऋषियों के उन्हें दर्शन नहीं हुए । धर्म के उन दोनों पुत्रों को वहाँ न देखकर वे चिन्ता और शोक से युक्त हो यमुनाजी में स्नान करने गये; परंतु उसका जल भी सूख गया । यमुनाजी को निर्जल देखकर भगवान् शंकर सरस्वती में स्नान करने गये; किंतु वह भी लुप्त हो गयी ॥५ - ८॥

ततो नु पुष्करारण्यं मागधारण्यमेव च ।

सैन्धवारण्यमेवासौ गत्वा स्नातो यथेच्छया ॥९॥

तथैव नैमिषारण्यं धर्मारण्यं तथेश्वरः ।

स्नातो नैव च सा रौद्रा ब्रह्महत्या व्यमुञ्चत ॥१०॥

सरित्सु तीर्थेषु तथाश्रमेषु पुण्येषु देवायतनेषु शर्वः ।

समायुतो योगयुतोऽपि पापान्नावाप मोक्षं जलदध्वजोऽसौ ॥११॥

ततो जगाम निर्विण्णः शंकरः कुरुजाङ्गलम् ।

तत्र गत्वा ददर्शाथ चक्रपाणिं खगध्वजम् ॥१२॥

तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम् ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा हरः स्तोत्रमुदीरयत् ॥१३॥

फिर पुष्करारण्य, धर्मारण्य और सैन्धवारण्य में जाकर उन्होंने बहुत समय तक स्नान किया । उसी प्रकार वे नैमिषारण्य तथा सिद्धपुर में भी गये और स्नान किये; फिर भी उस भयंकर ब्रह्महत्या ने उन्हें नहीं छोड़ा । जीमूतकेतु शंकर ने अनेक नदियों, तीर्थों, आश्रमों एवं पवित्र देवायतनों की यात्रा की; पर योगी होने पर भी वे पाप से मुक्ति न प्राप्त कर सके । तत्पश्चात् वे खिन्न होकर कुरुक्षेत्र गये । वहाँ जाकर उन्होंने गरुडध्वज चक्रपाणि (विष्णु) - को देखा और उन शङ्ख - चक्र - गदाधारी पुण्डरीकाक्ष ( श्रीनारायण ) - का दर्शनकर वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे - ॥९ - १३॥

विष्णुस्तोत्रम् 

हर उवाच

नमस्ते देवतानाथ नमस्ते गरुडध्वज ।

शङ्खचक्रगदापाणे वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥१४॥

भगवान् शंकर बोले - हे देवताओं के स्वामी ! आपको नमस्कार है । गरुडध्वज ! आपको प्रणाम है । शङ्ख - चक्र - गदाधारी वासुदेव ! आपको नमस्कार हैं ।

नमस्ते निर्गुणानन्त अप्रतर्क्याय वेधसे ।

ज्ञानाज्ञान निरालम्ब सर्वालम्ब नमोऽस्तु ते ॥१५॥

निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता ! आपको नमस्कार है । ज्ञानाज्ञानस्वरुप, स्वयं निराश्रय किंतु सबके आश्रय ! आपको नमस्कार है ।

रजोयुक्त नमस्तेऽस्तु ब्रह्ममूर्ते सनातन ।

त्वया सर्वमिदं नाथ जगत्सृष्टं चराचरम् ॥१६॥

रजोगुण, सनातन, ब्रह्ममूर्ति ! आपको नमस्कार है । नाथ ! आपने इस सम्पूर्ण चराचर विश्व की रचना की है ।

सत्त्वाधिष्ठित लोकेश विष्णुमूर्ते अधोक्षज ।

प्रजापाल महाबाहो जनार्दन नमोऽस्तु ते ॥१७॥

सत्त्वगुण के आश्रय लोकेश ! विष्णुमूर्ति, अधोक्षज, प्रजापालक, महाबाहु, जनार्दन ! आपको नमस्कार है ।

तमोमूर्ते अहं ह्येष त्वदंशक्रोधसंभवः ।

गुणाभीयुक्त देवेश सर्वव्यापिन् नमोऽस्तु ते ॥१८॥

हे तमोमूर्ति ! मैं आपके अंशभूत क्रोध से उत्पन्न हूँ । हे महान् गुणवाले सर्वव्यापी देवेश ! आपको नमस्कार है।

भूरियं त्वं जगन्नाथ जलाम्बरहुताशनः ।

वायुर्बुद्धिर्मनश्चापि शर्वरी त्वं नमोऽस्तु ते ॥१९॥

जगन्नाथ ! आप ही पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु, बुद्धि, मन एवं रात्रि हैं; आपको नमस्कार है ।

धर्मो यज्ञस्तपः सत्यमहिंसा शौचमार्जवम् ।

क्षमा दानं दया लक्ष्मीर्ब्रह्मचर्यं त्वमीश्वर ॥२०॥

ईश्वर ! आप ही धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, सरलता, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी एवं ब्रह्मचर्य हैं ।

त्वं साङ्गाश्चतुरो वेदास्त्वं वेद्यो वेदपारगः ।

उपवेदा भवानीश सर्वोऽसि त्वं नमोऽस्तु ते ॥२१॥

हे ईश ! आप अङ्गोंसहित चतुर्वेदस्वरुप, वेद्य एवं वेदपारगामी हैं । आप ही उपवेद हैं तथा सभी कुछ आप ही हैं; आपको नमस्कार है ।

नमो नमस्तेऽच्युत चक्रपाणे

नमोऽस्तु ते माधव मीनमूर्ते ।

लोके भवान् कारुणिको मतो

मे त्रायस्व मां केशव पापबन्धात् ॥२२॥

ममाशुभं नाशय विग्रहस्थं

यद् ब्रह्महत्याऽभिभवं बभूव ।

अच्युत ! चक्रपाणि ! आपको बारंबार नमस्कार है । मीनमूर्तिधारी ( मत्स्यावतारी ) माधव ! आपको नमस्कार है। मैं आपको लोक में दयालु मानता हूँ । केशव ! आप मेरे शरीर में स्थित ब्रह्महत्या से उत्पन्न अशुभ को नष्ट कर मुझे पाप- बन्धन से मुक्त करें ।

दग्धोऽस्मि नष्टोऽस्म्यसमीक्ष्यकारी

पुनीहि तीर्थोऽसि नमो नमस्ते ॥२३॥

बिना विचार किये कार्य करनेवाला मैं दग्ध एवं नष्ट हो गया हूँ। आप साक्षात् तीर्थ हैं, अतः आप मुझे पवित्र करें। आपको बारंबार नमस्कार है ।

पुलस्त्य उवाच

इत्थं स्तुतश्चक्रधरः शंकरेण महात्मना ।

प्रोवाच भगवान् वाक्यं ब्रह्महत्याक्षयाय हि ॥२४॥

पुलस्त्यजी ने कहा - भगवान् शंकर द्वारा इस प्रकार स्तुत होने पर चक्रधारी भगवान् विष्णु शंकर की ब्रह्महत्या को नष्ट करने के लिये उनसे वचन बोले - ॥२४॥

हरिरुवाच

महेश्वर श्रृणुष्वेमां मम वाचं कलस्वनाम् ।

ब्रह्महत्याक्षयकरीं शुभदां पुण्यवर्धनीम् ॥२५॥

भगवान् विष्णु बोले - महेश्वर ! आप ब्रह्महत्या को नष्ट करनेवाली मेरी मधुर वाणी सुनें । यह शुभप्रद एवं पुण्य को बढ़ानेवाली है ।

योऽसौ प्राङ्मण्डले पुण्ये मदंशप्रभवोऽव्ययः ।

प्रयागे वसते नित्यं योगशायीति विश्रुतः ॥२६॥

चरणाद् दक्षिणात्तस्य विनिर्याता सरिद्वरा ।

विश्रुता वरणेत्येव सर्वपापहरा शुभा ॥२७॥

सव्यादन्या द्वितीया च असिरित्येव विश्रुता ।

ते उभे तु सरिच्छ्रेष्ठे लोकपूज्ये बभूवतुः ॥२८॥

यहाँ से पूर्व प्रयाग में मेरे अंश से उत्पन्न 'योगशायी' नाम से विख्यात देवता हैं । वे अव्यय - विकाररहित पुरुष हैं। वहाँ उनका नित्य निवास है । वहीं से उनके दक्षिण चरण से 'वरणा' नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ नदी निकली है । वह सब पापों को हरनेवाली एवं पवित्र है । वहीं उनके वाम पाद से 'असि' नाम से प्रसिद्ध एक दूसरी नदी भी निकली है । ये दोनों नदियाँ श्रेष्ठ एवं लोकपूज्य हैं ॥२५ - २८॥

ताभ्यां मध्ये तु यो देशस्तत्क्षेत्रं योगशायिनः ।

त्रैलोक्यप्रवरं तीर्थं सर्वपापप्रमोचनम् ।

न तादृशोऽस्ति गगने न भूम्यां न रसातले ॥२९॥

तत्रास्ति नगरी पुण्या ख्याता वाराणसी शुभा ।

यस्यां हि भोगिनोऽपीश प्रयान्ति भवतो लयम् ॥३०॥

विलासिनीनां रशनास्वनेन श्रुतिस्वनैर्ब्राह्मणपुंगवानाम् ।

शुचिस्वरत्वं गुरवो निशम्य हास्यादशासन्त मुहुर्मुहुस्तान् ॥३१॥

व्रजत्सु योषित्सु चतुष्पथेषु पदान्यलक्तारुणितानि दृष्ट्वा ।

ययौ शशी विस्मयमेव यस्यां किंस्वित् प्रयाता स्थलपदमिनीयम् ॥३२॥

तुङ्गानि यस्यां सुरमन्दिराणि रुन्धान्ति चन्द्रं रजनीमुखेषु ।

दिवाऽपि सूर्यं पवनाप्लुताभिर्दीर्घाभीरेवं सुपताकिकाभिः ॥३३॥

उन दोनों के मध्य का प्रदेश योगाशायी का क्षेत्र हैं । वह तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापों से छुडा देनेवाला तीर्थ हैं । उसके समान अन्य कोई तीर्थ आकाश, पृथ्वी एवं रसातल में नही है । ईश ! वहाँ पवित्र शुभप्रद विख्यात वाराणसी नगरी है, जिसमें भोगी लोग भी आपके लोक को प्राप्त करते हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मणों की वेदध्वनि विलासिनी स्त्रियों की करधनी की ध्वनि से मिश्रित होकर मङ्गल स्वर का रुप धारण करती है । उस ध्वनि को सुनकर गुरुजन बारंबार उपहासपूर्वक उनका शासन करते हैं । जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली स्त्रियोंझके अलक्त ( महावर ) - से अरुणित चरणोंको देखकर चन्द्रमाको स्थल - पद्मिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है और जहाँ रात्रिका आरम्भ होनेपर ऊँचे - ऊँचे देवमन्दिर चन्द्रमाका ( मानो ) अवरोध करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित ( हवासे फहरा रही ) दीर्घ पताकाओंसे सूर्य भी छिपे रहते हैं ॥२९ - ३३॥

भृङ्गाश्च यस्यां शशिकान्तभित्तौ प्रलोभ्यमानाः प्रतिबिम्बितेषु ।

आलेख्ययोषिद्विमलाननाब्जेष्वीयुर्भ्रमान्नैव च पुष्पकान्तरम् ॥३४॥

परिभ्रमंश्चापि पराजितेषु नरेषु संमोहनलेखनेन ।

यस्यां जलक्रीडनसंगतासु न स्त्रीषु शंभो गृहदीर्घिकासु ॥३५॥

न चैव कश्चित् परमान्दिराणि रुणद्धि शंभो सहसा ऋतेऽक्षान् ।

न चाबलानां तरसा पराक्रमं करोति यस्यां सुरतं हि मुक्त्वा ॥३६॥

पाशग्रन्थिर्गजेन्द्राणां दानच्छेदो मदच्युतौ ।

यस्यां मानमदौ पुंसां करिणां यौवनागमे ॥३७॥

जिस ( वाराणसी ) - में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियोंपर प्रतिबिम्बित चित्रमें निर्मित स्त्रियोंके निर्मल मुखकमलोंको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते हैं और दूसरे पुष्पोंकी ओर नहीं जाते । हे शम्भो ! वहाँ सम्मोहनलेखनसे पराजित पुरुषोंमें तथा घरकी बावलियोंमें जाता है, अन्यत्र किसीको ' भ्रमण ' ( चक्कर रोग ) नहीं होता ।* द्यूतक्रीडा ( जुआके खेल ) - के पासोंके सिवाय अन्य कोई भी दूसरेके ' पाश ' ( बन्धन ) - में नहीं डाला जाता तथा सुरत - समयके सिवाय स्त्रियोंके साथ कोई आवेगयुक्त पराक्रम नहीं करता ! जहाँ हाथियोंके बन्धनमें ही पाशग्रन्थि ( रस्सीकी गाँठ ) होती है, उनकी मदच्युतिमें ( मदके चूनेमें ) ही ' दानच्छेद ' ( मदकी धाराका टूटना ) एवं तर हाथियोंके यौवनागममें ही ' मान ' और ' मद ' होते हैं, अन्यत्र नहीं; तात्पर्य यह कि दान देनेकी धारा निरन्तर चलती रहती है और अभिमानी एवं मदवाले लोग नहीं हैं ॥३४ - ३७॥

* यहाँ सर्वत्र परिसंख्यालंकार है। परिसंख्यालंकार वहाँ होता है, जहाँ किसी वस्तु का एक स्थान से निषेध करके उसका दूसरे स्थान में स्थापन हो। ऐसा वर्णन आनन्दरामायण के अयोध्या-वर्णन में, कादम्बरी में, काशीखण्ड में काशी आदि के वर्णन में भी प्राप्त होता है।

प्रियदोषाः सदा यस्यां कौशिका नेतरे जनाः ।

तारागणेऽकुलीनत्वं गद्ये वृत्तच्युतिर्विभो ॥३८॥

भूतिलुब्धा विलासिन्यो भुजंगपरिवारिताः ।

चन्द्रभूषितदेहाश्च यस्यां त्वमिव शंकर ॥३९॥

ईदृशायां सुरेशान वाराणस्यां महाश्रमे ।

वसते भगवाँल्लोलः सर्वपापहरो रविः ॥४०॥

दशाश्वमेधं यत्प्रोक्तं मदंशो यत्र केशवः ।

तत्र गत्वा सुरश्रेष्ठ पापमोक्षमवास्यसि ॥४१॥

विभो ! जहाँ उलूक ही सदा दोषा ( रात्रि ) - प्रिय होते हैं, अन्य लोग दोषों के प्रेमी नहीं है । तारागणों में ही अकुलीनता ( पृथ्वी में न छिपना) हैं, लोगों में कहीं अकुलीनता का नाम नहीं है; गद्य में ही वृत्तच्युति (छन्दोभङ्ग) होती हैं, अन्यत्र वृत्त (चरित्र) - च्युति नहीं दीखती । शंकर ! जहाँ की विलासिनियाँ आपके सदृश (भस्म)' भूतिलुब्धा' 'भुजंग (सर्प) - परिवारिता' एवं 'चन्द्रभूषितदेहा' होती हैं । (यहाँ पक्षान्तर में – विलासिनियों के पक्ष में – संगति के लिये, 'भूति' पद 'भस्म' और 'धन' के अर्थ में, 'भुजङ्ग' पद 'सर्प' एवं 'जार' के अर्थ में तथा 'चन्द्र' पद 'चन्द्राभूषण' के अर्थ में प्रयुक्त हैं । ) सुरेशान ! इस प्रकार की वाराणसी के महान् आश्रम में सभी पापों को दूर करनेवाले भगवान् 'लोल' नाम के सूर्य निवास करते हैं । सुरश्रेष्ठ ! वहीं दशाश्वमेध नाम का स्थान है तथा वहीं मेरे अंशस्वरुप केशव स्थित हैं । वहाँ जाकर आप पाप से छुटकारा प्राप्त करेंगे ॥३८ - ४१॥

इत्येवमुक्तो गरुडध्वजेन वृषध्वजस्तं शिरसा प्रणम्य ।

जगाम वेगाद् गरुडो यथाऽसौ वाराणसीं पापविमोचनाय ॥४२॥

गत्वा सुपुण्यां नगरीं सुतीर्थां दृष्ट्वा च लोलं सदशाश्वमेधम् ।

स्नात्वा च तीर्थेषु विमुक्तपापः स केशवं द्रष्टुमुपाजगाम ॥४३॥

केशवं शंकरो दृष्ट्वा प्रणिपत्येदमब्रवीत् ।

त्वत्प्रसादादधृषीकेश ब्रह्महत्या क्षयं गता ॥४४॥

नेदं कपालं देवेश मद्धस्तं परिमुञ्चति ।

कारणं वेद्मि न च तदेतन्मे वक्तुमर्हसि ॥४५॥

भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर शिवजी ने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । फिर वे पाप छुड़ाने के लिये गरुड़ के समान तेज वेग से वाराणसी गये । वहाँ परमपवित्र तथा तीर्थभूत नगरी में जाकर दशाश्वमेध के साथ 'असी' स्थान में स्थित भगवान् लोलार्क का दर्शन किया तथा ( वहाँ के ) तीर्थों में स्नान कर और पाप- मुक्त होकर वे ( वरुणासंगम पर ) केशव का दर्शन करने गये । उन्होंने केशव का दर्शन करके प्रणाम कर कहा - हृषीकेश ! आपके प्रसाद से ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी, पर देवेश ! यह कपाल मेरे हाथ को नहीं छोड़ रहा है । इसका कारण मैं नहीं जानता । आप ही मुझे यह बतला सकते हैं ॥४२ - ४५॥

पुलस्त्य उवाच

महादेववचः श्रुत्वा केशवो वाक्यमब्रवीत् ।

विद्यते कारणं रुद्र तत्सर्वं कथयामि ते ॥४६॥

योऽसौ ममाग्रतो दिव्यो हदः पद्मोत्पलैर्युतः ।

एष तीर्थवरः पुण्यो देवगन्धर्वपूजितः ॥४७॥

एतस्मिन्प्रवरे तीर्थे स्नानं शंभो समाचर ।

स्नातमात्रस्य चाद्यैव कपालं परिमोक्ष्यति ॥४८॥

तत: कपाली लोके च ख्यातो रुद्र भविष्यसि ।

कपालमोचनेत्येवं तीर्थं चेदं भविष्यति ॥४९॥

पुलस्त्यजी बोले – महादेव का वचन सुनकर केशव ने यह वाक्य कहा - रुद्र ! इसके समस्त कारणों को मैं तुम्हें बतलाता हूँ । मेरे सामने कमलों से भरा यह जो दिव्य सरोवर है, यह पवित्र तथा तीर्थों में श्रेष्ठ है एवं देवताओं तथा गन्धर्वों से पूजित है । शिवजी ! आप इस परम श्रेष्ठ तीर्थ में स्नान करें । स्नान करनेमात्र से आज ही यह कपाल (आपके हाथ को) छोड़ देगा । इससे रुद्र ! संसार में आप 'कपाली' नाम से प्रसिद्ध होंगे तथा यह तीर्थ भी 'कपालमोचन' नाम से प्रसिद्ध होगा ॥४६ - ४९॥

पुलस्त्य उवाच

एवमुक्तः सुरेशेन केशवेन महेश्वरः ।

कपालमोचने सस्नौ वेदोक्तबिधिना मुने ॥५०॥

स्नातस्य तीर्थे त्रिपुरान्तकस्य परिच्युतं हस्ततलात् कपालम् ।

नाम्ना बभूवाथ कपालमोचनं तत्तीर्थवर्यं भगवत्प्रसादात् ॥५१॥

पुलस्त्यजी बोले - मुने ! सुरेश्वर केशव के ऐसा कहने पर महेश्वर ने कपालमोचनतीर्थ में वेदोक्त विधि से स्नान किया । उस तीर्थ में स्नान करते ही उनके हाथ से ब्रह्म- कपाल गिर गया । तभी से भगवान की कृपा से उस उत्तम तीर्थ का नाम 'कपालमोचन' पड़ा* ॥५० - ५१॥

* कपालमोचन तीर्थ काशी के परिसर में बकरियाकुण्ड से १ मील पर स्थित है।

इति श्रीवामपुराणे तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥३॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 4 

वामनपुराण अध्याय २

वामनपुराण अध्याय २

वामनपुराण के अध्याय २ में शरदागम होने पर शंकरजी का मन्दरपर्वत पर जाना और दक्ष यज्ञ का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय २

श्रीवामनपुराण अध्याय २

Vaman Purana chapter 2 

श्रीवामनपुराणम् द्वितीयोऽध्यायः       

वामनपुराणम् अध्यायः २

वामन पुराण दूसरा अध्याय

श्रीवामनपुराण द्वितीय अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय २

पुलस्त्य उवाच

ततस्त्रिनेत्रस्य गतः प्रावृट्कालो घनोपरि।

लोकानन्दकरी रम्या शरत् समभवन्मुने ॥१॥

त्यजन्ति नीलाम्बुधरा नभस्तलं वृक्षांश्च कङ्काः सरितस्तटानि।

पद्माः सुगन्धं निलयानि वायसा रुरुर्विषाणं कलुषं जलाशयः ॥२॥

विकासमायन्ति त पङ्कजानि चन्द्रांशवो भान्ति लताः सुपुष्पाः।

नन्दन्ति हृष्टान्यपि गोकुलानि सन्तश्च संतोषमनुव्रजन्ति ॥३॥

सरस्सु पद्म गगने च तारका जलाशयेष्वेव तथा पयांसि।

सतां च चित्तं हि दिशां मुखैः समं

वैमल्यमायान्ति शशङ्ककान्तयः ॥४॥

पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकार तीन नयनवाले भगवान् शिव का वर्षाकाल मेघों पर बसते हुए ही व्यतीत हो गया। हे मुने ! तत्पश्चात् लोगों को आनन्द देनेवाली रमणीय शरद ऋतु आ गयी ! इस ऋतु में नीले मेघ आकाश को और बगुले वृक्षों को छोड़कर अलग हो जाते हैं । नदियाँ भी तट को छोड़कर बहने लगती हैं । इसमें कमलपुष्प सुगन्ध फैलाते हैं, कौवे भी घोसलों को छोड़ देते हैं । रुरुमृगों के श्रृङ्ग गिर पड़ते हैं और जलाशय सर्वथा स्वच्छ हो जाते हैं । इस समय कमल विकसित होते हैं, शुभ्र चन्द्रमा की किरणें आनन्ददायिनी होकर फैल जाती हैं, लताएँ पुष्पित हो जाती हैं, गौवें हष्ट - पुष्ट होकर आनन्द से विहरती हैं तथा संतों को बड़ा सुख मिलता है । तालाबों में कमल, गगन में तारागण, जलाशयों में निर्मल जल और दिशाओं के मुखमण्डल के साथ सज्जनों का चित्त तथा चन्द्रमा की ज्योति भी सर्वथा स्वच्छ एवं निर्मल हो जाती हैं ॥१- ४॥

एतादृशे हरः काले मेघपृष्ठाधिवासिनीम्।

सतीमादाय शैलेन्द्रं मन्दरं समुपाययौ ॥५॥

ततो मन्दरपृष्ठेऽसौ स्थितः समशिलातले।

रराम शंभुर्भगवान् सत्या सह महाद्युतिः ॥६॥

ततो व्यतीते शरदि प्रतिबुद्धे च केशवे।

दक्षः प्रजापतिश्रेष्ठो यष्टुमारभत क्रतुम् ॥७॥

द्वादशेव स चादित्यान् शक्रादींश्च सुरोत्तमान्।

सकश्यपान् समामन्त्र्य सदस्यान् समचीकरत् ॥८॥

ऐसी शरद- ऋतु में शंकरजी मेघ के ऊपर वास करनेवाली सत्ती को साथ लेकर श्रेष्ठ मन्दरपर्वत पर पहुँचे और महातेजस्वी ( महाकान्तिमान् ) भगवान् शंकर मन्दराचल के ऊपरी भाग में एक समतल शिला पर अवस्थित होकर सती के साथ विश्राम करने लगे । उसके बाद शरद- ऋतु के बीत जाने पर तथा भगवान् विष्णु के जाग जाने पर प्रजापतियों में श्रेष्ठ दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । उन्होंने द्वादश आदित्यों तथा कश्यप आदि ( ऋषियों ) - के साथ ही इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओं को भी निमन्त्रित कर उन्हें यज्ञ का सदस्य बनाया ॥५ - ८॥

अरुन्धत्या च सहितं वसिष्ठं शंसितव्रतम्।

सहानसूययाऽत्रिं च सह धृत्या च कौशिकम् ॥९॥

अहल्यया गौतमं च भरद्वाजममायया।

चन्द्रया सहितं ब्रह्मन्नृषिमङ्गिरसं तथा ॥१०॥

आमन्त्र्य कृतवान्दक्षः सदस्यान् यज्ञसंसदि।

विद्वान् गुणसंपन्नान् वेदवेदाड्गपारगान् ॥११॥

धर्मं च स समाहूय भार्ययाऽहिंसया सह।

निमन्त्र्य यज्ञवाटस्य द्वारपालत्वमादिशत् ॥१२॥

नारदजी ! उन्होंने अरुन्धतीसहित प्रशस्तव्रतधारी वसिष्ठ को, अनसूयासहित अत्रिमुनि को, धृति के सहित कौशिक ( विश्वामित्र ) मुनि को, अहल्या के साथ गौतम को, अमाया के सहित भरद्वाज को और चन्द्रा के साथ अङ्गिरा ऋषि को आमन्त्रित किया । विद्वान् दक्ष ने इन गुणसम्पन्न वेद - वेदाङ्गपारगामी विद्वान् ऋषियों को निमन्त्रित कर उन्हें अपने यज्ञ में धर्म को भी उनकी पत्नी अहिंसा के साथ निमन्त्रित कर यज्ञमण्डप का द्वारपाल नियुक्त किया ॥९ - १२॥

अरिष्टनेमिनं चक्रे इध्माहरणकारिणम्।

भृगुं च मन्त्रसंस्कारे सम्यग् दक्षं प्रयुक्तवान् ॥१३॥

तथा चन्द्रमसं देवं रोहिण्या सहितं शुचिम्।

धनानामाधिपत्ये च युक्तवान् हि प्रजापतिः ॥१४॥

जामातृदुहितुश्वैव दौहित्रांश्च प्रजापतिः।

सशंकरां सतीं मुक्त्वा मखे सर्वान् न्यमन्त्रयत् ॥१५॥

दक्ष ने अरिष्टनेमि को समिधा लाने का कार्य सौंपा और भृगु को समुचित मन्त्र – पाठ में नियुक्त किया । फिर दक्षप्रजापति ने रोहिणीसहित 'अर्थशुचि' चन्द्रमा को कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया । इस प्रकार दक्षप्रजापति ने केवल शंकरसहित सती को छोड़कर अपने सभी जामाताओं, पुत्रियों एवं दौहित्रों को यज्ञ में आमन्त्रित किया ॥१३ - १५॥

नारद उवाच

किमर्थं लोकपतिना धनाध्यक्षो महेश्वरः।

ज्येष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठोऽपि आद्योऽपि न निमन्त्रितः ॥१६॥

नारदजी ने कहा ( पूछा ) - ( पुलस्त्यजी महाराज ! ) लोकस्वामी दक्ष ने महेश्वर को सबसे बड़े, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, सबके आदि में रहनेवाले एवं समग्र ऐश्वर्यों के स्वामी होने पर भी ( यज्ञ में ) क्यों नहीं निमन्त्रित किया ? ॥१६॥

पुलस्त्य उवाच

ज्येष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठोऽपि आद्योऽपि भगवान् शिवः।

कपालीति विदित्वेशो दक्षेण न निमन्त्रितः ॥१७॥

पुलस्त्यजी ने कहा - ( नारदजी ! ) ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ तथा अग्रगणी होने पर भी भगवान् शिव को कपाली जानकर प्रजापति दक्ष ने उन्हें ( यज्ञ में ) निमन्त्रित नहीं किया ॥१७॥

नारद उवाच

किमर्थं देवताश्रेष्ठः शूलपाणिस्त्रिलोचनः

कपाली भगवाञ्जातः कर्मणा केन शंकरः ॥१८॥

नारदजी ने ( फिर ) पूछा - ( महाराज ! ) देवश्रेष्ठ शूलपाणि, त्रिलोचन भगवान् शंकर किस कर्म से और किस प्रकार कपाली हो गये, यह बतलायें ॥१८॥

श्रृणुष्वावहितो भूत्वा कथामेतां पुरातनीम्।

प्रोक्तमादिपुराणे च ब्रह्मणाऽव्यक्तमूर्त्तिना ॥१९॥

पुरा त्वेकार्णवं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।

नष्टचन्द्रार्कनक्षत्रं प्रणष्टपवनानलम् ॥२०॥

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं भावाभावविवर्जितम्।

निमग्नपर्वततरु तमोभूतं सुदुर्दशम् ॥२१॥

तस्मिन् स शेते भगवान् निद्रां वर्षसहस्रिकीम्।

रात्र्यन्ते सृजते लोकान् राजसं रूपमास्थितः ॥२२॥

पुलस्त्यजी ने कहा - नारदजी ! आप ध्यान देकर सुनें ! यह पुरानी कथा आदिपुराण में अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजी के द्वारा कही गयी है । ( मैं उसी प्राचीन कथा को आपसे कहता हूँ । ) प्राचीन समय में समस्त स्थावर- जङ्गमात्मक जगत् एकीभूत महासमुद्र में निमग्न ( डूबा हुआ ) था । चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, वायु एवं अग्नि – किसी का भी कोई ( अलग ) अस्तित्व नहीं था । 'भाव ' एवं 'अभाव' से रहित जगत की उस समय की अवस्था का कोई ठीक - ठीक ज्ञान, विचार, तर्कना या वर्णन सम्भव नहीं है । सभी पर्वत एवं वृक्ष जल में निमग्न थे तथा सम्पूर्ण जगत् अन्धकार से व्याप्त एवं दुर्दशाग्रस्त था । ऐसे समय में भगवान् विष्णु हजारों वर्षों की निद्रा में शयन करते हैं एवं रात्रि के अन्त में राजस रुप ग्रहणकर वे सभी लोकों की रचना करते हैं ॥१९ - २२॥

राजसः पञ्चवदनो वेदवेदाङ्गपारगः।

स्रष्टा चराचरस्यास्य जगतोऽद्भुतदर्शनः ॥२३॥

तमोमयस्तथैवान्यः समुद्भूतस्त्रिलोचनः।

शूलपाणिः कपर्द्दी च अक्षमालां च दर्शयन् ॥२४॥

ततो महात्मा ह्यसृजदहंकारं सुदारुणम्।

येनाक्रान्तावुभौ देवौ तावेव ब्रह्मशंकरौ ॥२५॥

अहंकारावृतो रुद्रः प्रत्युवाच पितामहम्।

को भवानिह संप्राप्तः केन सृष्टोऽसि मां वद ॥२६॥

इस चराचरात्मक जगत का स्त्रष्टा भगवान् विष्णु का वह अद्भुत राजस स्वरुप पञ्चमुख एवं वेद – वेदाङ्गों का ज्ञाता था । उसी समय तमोमय, त्रिलोचन, शूलपाणि, कपदीं तथा रुद्राक्षमाला धारण किया हुआ एक अन्य पुरुष भी प्रकट हुआ । उसके बाद भगवान ने अतिदारुण अहंकार की रचना की, जिससे ब्रह्मा तथा शंकर - वे दोनों ही देवता आक्रान्त हो गये । अहंकार से व्याप्त शिव ने ब्रह्मा से कहा - तुम कौन हो और यहाँ कैसे आये हो ? तुम मुझे यह भी बतलाओ कि तुम्हारी सृष्टि किसने की है ? ॥२३ - २६॥

पितामहोऽप्यहंकारात् प्रत्युवाचाथ को भवान्।

भवतो जनकः कोऽत्र जननी वा तदुच्यताम् ॥२७॥

इत्यन्योन्यं पुरा ताभ्यां ब्रह्मेशाभ्यां कलिप्रिय।

परिवादोऽभवत् तत्र उत्पत्तिर्भवतोऽभवत् ॥२८॥

भवानप्यन्तरिक्षं हि जातमात्रस्तदोत्पतत्।

धारयन्नतुलां वीणां कुर्वन् किलकिलाध्वनिम् ॥२९॥

ततो विनिर्जितः शंभुर्मानिना पद्मयोनिना।

तस्थावधोमुखो दीनो ग्रहाक्रान्तो यथा शशी ॥३०॥

 ( फिर ) इस पर ब्रह्मा ने भी अहंकार से उत्तर दिया - आप भी बतलाइये कि आप कौन हैं तथा आपके माता - पिता कौन हैं ? लोक – कल्याण के लिये कलह को प्रिय माननेवाले नारदजी ! इस प्रकार प्राचीनकाल में ब्रह्मा और शंकर के बीच एक – दूसरे से दुर्विवाद हुआ । उसी समय आपका भी प्रादुर्भाव हुआ । आप उत्पन्न होते ही अनुपम वीणा धारण किये किलकिला शब्द करते हुए अन्तरिक्ष की ओर ऊपर चले गये । इसके बाद भगवान् शिव मानो ब्रह्मा द्वारा पराजित - से होकर राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान दीन एवं अधोमुख होकर खड़े हो गये ॥२७ - ३०॥

पराजिते लोकपतौ देवेन परमेष्टिना।

क्रोधान्धकारितं रुद्रं पञ्चमोऽथ मुखोऽब्रवीत् ॥३१॥

अहं ते प्रतिजानामि तमोमूर्तो त्रिलोचन।

दिग्वासा वृषभारूढो लोकक्षयकरो भवान् ॥३२॥

इत्युक्ताः शंकरः क्रुद्धो वदनं घोरचक्षुषा।

निर्दग्धुकामस्त्वनिशं ददर्श भगवानजः ॥३३॥

ततस्त्रिनेत्रस्य समुद्भवन्ति वक्त्राणि पञ्चाथ सुदर्शनानि।

श्वेतं च रक्तं कनकावदातं नीलं तथा पिङ्गजटं च शुभ्रम् ॥३४॥

 ( ब्रह्मा के द्वारा ) लोकपति ( शंकर ) - के पराजित हो जाने पर क्रोध से अन्धे हुए रुद्र से ( श्रीब्रह्माजी के ) पाँचवें मुख ने कहा - तमोमूर्ति त्रिलोचन ! मैं आपको जानता हूँ । आप दिगम्बर, वृषारोही एवं लोकों को नष्ट करनेवाले ( प्रलयंकारीं ) हैं । इस पर अजन्मा भगवान् शंकर अपने तीसरे घोर नेत्र द्वारा भस्म करने की इच्छा से ब्रह्मा के उस मुख को एकटक देखने लगे । तदनन्तर श्रीशंकर के श्वेत, रक्त, स्वर्णिम, नील एवं पिंगल वर्ण के सुन्दर पाँच मुख समुदभूत हो गये ॥३१ - ३४॥

वक्त्राणि दृष्ट्वाऽर्कसमानि सद्यः पैतामहं वक्त्रमुवाच वाक्यम्।

समाहतस्याथ जलस्य बुद्बुदा भवन्ति किं तेषु पराक्रमोऽस्ति ॥३५॥

तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तेन शंकरेण महात्मना।

नखाग्रेण शिरश्छिन्नं ब्राह्‌मं परुषवादिनम् ॥३६॥

तच्छिन्नं शंकरस्यैव सव्ये करतलेऽपतत्।

पतते न कदाचिच्च तच्छंकरकराच्छिरः ॥३७॥

अथ क्रोधावृतेनापि ब्रह्मणाऽद्भुतकर्मणा।

सृष्टस्तु पुरुषो धीमान् कवची कुण्डली शरी ॥३८॥

धनुष्पाणिर्महाबाहुर्बाणशक्तिधरोऽव्ययः।

चतुर्भुजो महातूणी आदित्यसमदर्शनः ॥३९॥

सूर्य के समान दीप्त ( उन ) मुखों को देखकर पितामह के मुख ने कहा – जल में आघात करने से बुदबुद तो उत्पन्न होते हैं, पर क्या उनमें कुछ शक्ति भी होती है ? यह सुनकर क्रोधभरे भगवान् शंकर ने ब्रह्मा के काठोर भाषण करनेवाले सिर को अपने नख के अग्रभाग से काट डाला; पर वह कटा हुआ ब्रह्माजी का सिर शंकरजी के ही वाम हथेली पर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकर के उस हथेली पर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकर के उस हथेली से ( इस प्रकार चिपक गया कि गिराने पर भी ) किसी प्रकार न गिरा । इस पर अद्भुतकर्मी ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हो गये । उन्होंने कवच - कुण्डल एवं शर धारण करनेवाले धनुर्धर विशाल बाहुवाले एक पुरुष की रचना की। वह अव्यय, चतुर्भूज बाण, शक्ति और भारी तरकस धारण किये था तथा सूर्य के समान तेजस्वी दीख पड़ता था ॥३५ - ३९॥

स प्राह गच्छ दुर्बुद्धे मा त्वां शूलिन् निपातये।

भवान् पापसमायुक्तः पापिष्ठं को जिघांसति ॥४०॥

इत्युक्ताः शंकरस्तेन पुरुषेण महात्मना।

त्रपायुक्तो जगामाथ रुद्रो बदरिकाश्रमम् ॥४१॥

नरनारायणस्थानं पर्वते हि हिमाश्रये।

सरस्वती यत्र पुण्या स्यन्दते सरितां वरा ॥४२॥

तत्र गत्वा च तं दृष्ट्वा नारायणमुवाच ह।

भिक्षां प्रयच्छ भगवन् महाकापालिकोऽस्मि भोः ॥४३॥

इत्युक्तो धर्मपुत्रस्तु रुद्रं वचनमब्रवीत्।

सव्यं भुजं ताडयस्व त्रिशूलेन महेश्वर ॥४४॥

उस नये पुरुष ने शिवजी से कहा - दुर्बुद्धि शूलधारी शंकर ! तुम शीघ्र ( यहाँ से ) चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हें मार डालूँगा । पर तुम पापयुक्त हो; भला, इतने बड़े पापी को कौन मारना चाहेगा ? जब उस महापुरुष ने शंकर से इस प्रकार कहा, तब शिवजी लज्जित होकर हिमालय पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम को चले गये, जहाँ नर – नारायण का स्थान हैं और जहाँ नदियों में श्रेष्ठ पवित्र सरस्वती नदी बहती है । वहाँ जाकर और उन नारायण को देखकर शंकर ने कहा - भगवन् ! मैं महाकापालिक हूँ । आप मुझे भिक्षा दें । ऐसा कहने पर धर्मपुत्र ( नारायण ) - ने रुद्र से कहा महेश्वर ! तुम अपने त्रिशूल के द्वारा मेरी बायीं भुजा पर ताड़ना करो ॥४० - ४४॥

नारायणवचः श्रुत्वा त्रिशूलेन त्रिलोचनः।

सव्यं नारायणभुजं ताडयामास वेगवान् ॥४५॥

त्रिशूलाभिहतान्मार्गात् तिस्रो धारा विनिर्ययुः।

एका गगनमाक्रम्य स्थिता ताराभिमण्डिता ॥४६॥

द्वितीया न्यपतद् भूमौ तां जग्राह तपोधनः।

अत्रिस्तस्मात् समुद्भूतो दुर्वासाः शंकरांशतः ॥४७॥

तृतीया न्यपतद् धारा कपाले रौद्रदर्शने।

तस्माच्छिशुः समभवत् सन्नद्धकवचो युवा ॥४८॥

श्यामावदातः शरचापपाणिर्गर्जन्यथा प्रावृषि तोयदोऽसौ।

इत्थं ब्रुवन् कस्य विशातयामि स्कन्धाच्छिरस् तालफलं यथैव ॥४९॥

शिवजी ने नारायण की बात सुनकर त्रिशूल द्वारा बड़े वेग से उनकी वाम भुजा पर आघात किया । त्रिशूल द्वारा (भुजा पर) प्रताड़ित मार्ग से जल की तीन धाराएँ निकल पड़ीं । एक धारा आकाश में जाकर ताराओं से मण्डित आकाशगङ्गा हुई; दूसरी धारा पृथ्वी पर गिरी, जिसे तपोधन अत्रि ने ( मन्दाकिनी के रुप में ) प्राप्त किया । शंकर के उसी अंश से दुर्वासा का प्रादुर्भाव हुआ । तीसरी धारा भयानक दिखायी पड़नेवाले कपाल पर गिरी, जिससे एक शिशु उत्पन्न हुआ । वह ( जन्म लेते ही ) कवच बाँधें, श्यामवर्ण का युवक था । उसके हाथों में धनुष और बाण था । फिर वह वर्षाकाल में मेघ – गर्जन के समान कहने लगा - ' मैं किसके स्कन्ध से सिर को तालफल के सदृश काट गिराऊँ ? ' ॥४५ - ४९॥

तं शंकरोऽभ्येत्य वचो बभाषे नरं हि नारायणबाहुजातम्।

निपातयैनं नर दुष्टवाक्यं ब्रह्मात्मजं सूर्यशतप्रकाशम् ॥५०॥

इत्येवमुक्तः स तु शंकरेण आद्यं धनुस्त्वाजगवं प्रसिद्धम्।

जग्राह तूणानि तथाऽक्षयाणि युद्धाय वीरः स मतिं चकार ॥५१॥

ततः प्रयुद्धौ सुभृशं महाबलौ ब्रह्मात्मजो बाहुभवश्च शार्वः।

दिव्यं सहस्रं परिवत्सराणां ततो हरोऽभ्येत्य विरञ्चिमूचे ॥५२॥

जितस्त्वदीयः पुरुषः पितामह नरेण दिव्यद्भुतकर्मणा बली।

महापृषत्कैरभिपत्य ताडितस्तदद्भुतं चेह दिशो दशैव ॥५३॥

ब्रह्मा तमीशं वचनं बभाषे नेहास्य जन्मान्यजितस्य शंभो।

पराजितश्चेष्यतेऽसौ त्वदीयो नरो मदीयः पुरुषो महात्मा ॥५४॥

इत्येवमुक्तो वचनं त्रिनेत्रश्चिक्षेप सूर्ये पुरुषं विरिञ्चेः।

नरं नरस्यैव तदा स विग्रहे चिक्षेप धर्मप्रभवस्य देवः ॥५५॥

श्रीनारायण की बाहु से उत्पन्न उस पुरुष के समीप जाकर श्रीशंकर ने कहा - हे नर ! तुम सूर्य के समान प्रकाशमान, पर कटुभाषी, ब्रह्मा से उत्पन्न इस पुरुष को मार डालो । शंकरजी के ऐसा कहने पर उस वीर नर ने प्रसिद्ध आजगव नाम का धनुष एवं अक्षय तूणीर ग्रहणकर युद्ध का निश्चय किया । उसके बाद ब्रह्मात्मज और नारायण की भुजा से उत्पन्न दोनों नरों में सहस्त्र दिव्य वर्षों तक प्रबल युद्ध होता रहा । तत्पश्चात् श्रीशंकरजी ने ब्रह्मा के पास जाकर कहा - पितामह ! यह एक अद्भुत बात है कि दिव्य एवं अद्भुत कर्मवाले ( मेरे ) नर ने दसों दिशाओं में व्याप्त महान् बाणों के प्रहार से ताडित कर आपके पुरुष को जीत लिया । ब्रह्मा ने उस ईश से कहा कि इस अजित का जन्म यहाँ दूसरों द्वारा पराजित होने के लिये नहीं हुआ है । यदि किसी को पराजित कहा जाना अभीष्ट है तो यह तेरा नर ही है । मेरा पुरुष तो महाबली है - ऐसा कहे जाने पर श्रीशंकरजी ने ब्रह्माजी के पुरुष को सूर्यमण्डल में फेंक दिया तथा उन्हीं शंकर ने उस नर को धर्मपुत्र नर के शरीर में फेंक दिया ॥५० - ५५॥

इति श्रीवामनपुराणे द्वितीयोध्यायः ॥२॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥२॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 3