विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १५

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १५        

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय १५ में प्रचेताओं का मारिषा नामक कन्या के सात विवाह, दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति एवं दक्ष की आठ कन्याओं के वंश का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १५

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १५        

Vishnu Purana first part chapter 15 

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः पञ्चदशोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १५    

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश पन्द्रहवाँ अध्याय

श्रीपराशर उवाच

तपश्चरत्सु पृथिवीं प्रचेतःसु महीरुहाः ।

अरक्ष्यमाणामावव्रुर्बभूवाथ प्रजाक्षयः ॥ १,१५.१ ॥

नाशकन्मरुतो वातुं वृतं खमभवद्द्रुमैः ।

दशवर्षसहस्राणि न शकुश्चेष्टितुं प्रजाः ॥ १,१५.२ ॥

तान्दृष्ट्वा जलनिष्क्रान्ताः सर्वे क्रुद्धाः प्रचेतसः ।

मुखेभ्यो वायुमग्निं च तेऽसृजन् जातमन्यवः ॥ १,१५.३ ॥

उन्मूलानथ तान्वृक्षान्कृत्वा वायुरशोषयत् ।

तानग्निरदहद्घोरस्तत्राभूद्द्रुमसंक्षयः ॥ १,१५.४ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– प्रचेताओं के तपस्या में लगे रहने से [ कृषि आदिद्वारा ] किसी प्रकार की रक्षा न होने के कारण पृथ्वी को वृक्षोने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी || || आकाश वृक्षों से भर गया था | इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकार की चेष्टा कर सकी || || जलसे निकलनेपर उन वृक्षों को देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्नि को छोड़ा || || वायु ने वृक्षों को उखाड़-उखाडकर सुखा दिया और प्रचंड अग्नि ने उन्हें जला डाला | इसप्रकार उस समय वहाँ वृक्षों का नाश होने लगा || ||

द्रुमक्षयमथो दृष्ट्वा किञ्चिच्छिष्टेषु शाखिषु ।

उपगम्याब्रवीदेतान्राजा सोमः प्रजापतीन् ॥ १,१५.५ ॥

कोपं यच्छत राजानः शृणुध्वञ्च वचो मम ।

सन्धानं वः करिष्यामि सह क्षितिरुहैरहम् ॥ १,१५.६ ॥

रत्नभूता च कन्येयं वार्क्षेयी वरवर्णिनी ।

भविष्यज्जानता पूर्वं मया गोभिर्विवर्धिता ॥ १,१५.७ ॥

मारिषा नाम नाम्नैषा वृक्षाणामिति निर्मिता ।

भार्या वोऽस्तु महाभागा ध्रुवं वंशविवर्धिनी ॥ १,१५.८ ॥

युष्माकं तेज सोर्धेन मम चार्धेन तेजसः ।

अस्यामुत्पत्स्यते विद्वान्दक्षोनाम प्रजापतिः ॥ १,१५.९ ॥

मम चांशेन संयुक्तो युष्मत्तेजोमयेन वै ।

तेजसाग्निसमो भूयः प्रजाः संवर्धयिष्यति ॥ १,१५.१० ॥

तब वह भयंकर वृक्ष ;– प्रलय देखकर थोड़े-से वृक्षों के रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओं के पास जाकर कहा – || || ‘हे नृपतिगण ! आप क्रोध शांत कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये | मैं वृक्षों के साथ आपलोगों की संधि करा दूँगा || || वृक्षों से उत्पन्न हुई सुंदर व्र्न्वाली रत्नस्वरूपा कन्या का मैंने पहले से ही भविष्य को जानकर अपनी [ अमृतमयी ] किरणों से पालन-पोषण किया है || || वृक्षों की यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, वह महाभागा इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढानेवाली तुम्हारी भार्या हो || || मेरे और तुम्हारे आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न होगा || || वह तुम्हारे तेज के सहित मेरे अंश से युक्त होकर अपने तेज के कारण अग्नि के समान होगा और प्रजा की खूब वृद्धि करेगा || १० ||

कण्डुर्नाम मुनिः पूर्वमासीद्वेदविदां वरः ।

मुरम्ये गोमतीतीरे म तेपे परमं तपः ॥ १,१५.११ ॥

तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण प्रम्लोचाख्या वराप्सराः ।

प्रयुक्ता क्षोभयामास तमृषिं सा शुचिस्मिता ॥ १,१५.१२ ॥

क्षोभितः स तया सार्धं वर्षाणामधिकं शतम् ।

अतिष्ठन्मन्दरद्रोण्यां विषयासक्तमानसः ॥ १,१५.१३ ॥

पूर्वकाल में वेद्वेत्ताओं में श्रेष्ठ एक कंडू नामक मुनीश्वर थे | उन्होंने गोमती नदी के परम रमणीक तटपर घोर तप किया || ११ || तब इंद्र ने उन्हें तपोभ्रष्ट करने के लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सरा को नियुक्त किया | उस मझुहासिनोने उन ऋषिश्रेष्ठ को विचलित कर दिया || १२ || उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौ से भी अधिक वर्षतक विषयासक्त-चित्त से मन्दराचल की कन्दारा में रहे || १३ ||

तं सा प्राह महाभाग गन्तुमिच्छाम्यहं दिवम् ।

प्रसादसुमुखो ब्रह्मन्ननुज्ञां दातुमर्हसि ॥ १,१५.१४ ॥

तयैवमुक्तः स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः ।

दिनानि कतिचिद्भद्रे स्थीयतामित्यभाषत ॥ १,१५.१५ ॥

एवमुक्ता ततस्तेन साग्रं वर्षशतं पुनः ।

बुभुजे विषयांस्तन्वी तेन साकं महात्मना ॥ १,१५.१६ ॥

अनुज्ञां देहि भगवन् व्रजामि त्रिदशालयम् ।

उक्तस्तथेति स पुनः स्थीयतामित्यभाषत ॥ १,१५.१७ ॥

पुनर्गते वर्षशते साधिक सा शुभानना ।

यामीत्याह दिवं ब्रह्मन्प्रणयस्मितशोभनम् ॥ १,१५.१८ ॥

उक्तस्तयैवं स मुनिरुपगुह्यायते क्षणाम् ।

इहास्यतां क्षणं सुभु चिरकालं गमिष्यसि ॥ १,१५.१९ ॥

सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्षिणा पुनः ।

शतद्वयं किञ्चिदूनं वर्षणामन्वतिष्ठत ॥ १,१५.२० ॥

तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कंडू ऋषि से कहा – ‘हे ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गलोक को जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिये’ ||१४ || उसके ऐसा कहनेपर उसमे आसक्त चित्त हुए मुनिने कहा – ‘भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो’ ||१५ || उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरी ने महात्मा कंडू ने साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकार के भोग भोगे || १६ || तब भी, उसके यह पुछ्नेपर कि भगवन ! मुझे स्वर्गलोक को जाने की आज्ञा दीजियेऋषीने यही कहा कि अभी और ठहरो’ || १७ || तदनंतर सौ वर्ष से कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखी ने प्रणययुक्त मुसकान से सुशोभित वचनों में फिर कहा – ‘ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्ग को जाती हूँ’ || १८ || यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षी को आलिंगनकर कहा – ‘अयि सुश्रु ! अब तो तू बहुत दिनों के लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर’ || १९ || तब वह सुश्रोणी (सुंदर कमरवाली) उस ऋषि के साथ क्रीडा करती हुई दो सौ वर्ष से कुछ कम और रही || २० ||

गमनाय महाभाग देवराजनिवेशनम् ।

प्रोक्तः प्रोक्तस्तया तन्व्या स्थीयतामित्यभाषत ॥ १,१५.२१ ॥

तस्य शापभयाद्भीता दाक्षिण्येन च दक्षिणा ।

प्रोक्ता प्रणयभङ्गर्तिवेदिनी न जहौ मुनिम् ॥ १,१५.२२ ॥

तया च रमतस्तस्य परमर्षेरहर्निशम् ।

नवंनवमभूत्प्रम मन्मथाविष्टचेतसः ॥ १,१५.२३ ॥

हे महाभाग ! इसप्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोक को जाने के लिये कहती तभी तभी कंडू ऋषि उससे यही कहते कि अभी ठहर जा’ ||२१ || मुनि के इसप्रकार कहनेपर, प्रणयभंग की पीड़ा को जाननेवाली उस दक्षिणाने [ दक्षिणा नायिका का लक्षण इसप्रकार कहा है या गौरवं भयं प्रेम सद्भावं पूर्वनायके | न मुच्चल्यन्मसक्तापि सा ज्ञेया दक्षिणा वुधै: || अन्य नायक में आसक्त रहते हुए भी जो अपने पूर्व-नायक को गौरव, भय, प्रेम और सद्भाव के कारण न छोडती हो उसे दक्षिणाजानना चाहिये | ] अपने दाक्षिन्यवश तथा मुनि के शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा || २२ || तथा उन महर्षि महोदय का भी, कामासक्तचित्त से उसके साथ अहर्निश रमन करते-करते उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया || २३ ||

एकदा तु त्वरायुक्तो निश्चक्रामोटजान्मुनिः ।

निष्क्रामन्तं च कुत्रेति गम्यते प्राह सा शुभा ॥ १,१५.२४ ॥

इत्युक्तः स तया प्राह परिवृत्तमहः शुभे ।

सन्ध्योपास्तिं करिष्यामि क्रियालोपोन्यथा भवेत् ॥ १,१५.२५ ॥

ततः प्रहस्य सुददी तं सा प्राह महामुनिम् ।

किमद्य सर्वधर्मज्ञ परिवृत्तमहस्तव ॥ १,१५.२६ ॥

बहूनां विप्र वर्षाणां परिवृत्तम हस्तव ।

गतमेतन्न कुरुते विस्मयं कस्य कथ्यताम् ॥ १,१५.२७ ॥

एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रता से अपनी कुटी से निकले | उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली– ‘आप कहाँ जाते हैं’ || २४ || उसके इसप्रकार पुछ्नेपर मुनिने कहा – ‘हे शुभे ! दिन अस्त हो चूका है, इसलिये मैं संध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य-क्रिया नष्ट हो जायगी ‘ || २५ || तब उस सुंदर दाँतोवाली ने उन मुनीश्वर ने हँसकर कहा – ‘हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? || २६ || हे विप्र ! अनेकों वर्षों के पश्चात आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा ? ‘ || २७ ||

मुनिरुवाच

प्रातस्त्वमागता भद्रे नदीतीरमिदं शुभम् ।

मया दृष्टासि तन्वङ्गि प्रविष्टासि ममाश्रमम् ॥ १,१५.२८ ॥

इयं च वर्तते सन्ध्या परिणाममहर्गतम् ।

उपहासः किमर्थोयं सद्भावः कथ्यतां मम ॥ १,१५.२९ ॥

मुनि बोले ;– भद्रे ! नदी के इस सुंदर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो | मैंने आज ही तुमको अपने आश्रम में प्रवेश करते देखा था || २८ || अब दिन के समाप्त होनेपर वह संध्याकाल हुआ है | फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? || २९ ||

प्रम्लोचोवाच

प्रत्यूषस्यागता ब्रह्मन् सत्यमेतन्न तन्मृषा ।

नन्वस्य तस्य कालस्य गतान्यब्दशतानि ते ॥ १,१५.३० ॥

प्रम्लोचा बोली ;– ब्रह्मन ! आपका यह कथन कि तुम सबेरे ही आयी होठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समय को तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके || ३० ||

सोम उवाच

ततः स साध्वसो विप्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम् ।

कथ्यतां भीरु कः कालस्त्वया मे रमतः सह ॥ १,१५.३१ ॥

सोम ने कहा ;– तब उन विप्रवर ने उस विशालाक्षी से कुछ घबडाकर पूछा – ‘अरी भीरु ! ठीक ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ? ‘ || ३१ ||

प्रम्लोचोवाच

सप्तोत्तराम्यतीतानि नववर्षशतानि ते ।

मासाश्च षट्तथैवान्यत्समतीतं दिनत्रयम् ॥ १,१५.३२ ॥

प्रम्लोचा ने कहा ;– अबतक नौ सौ सात वर्ष, छ: महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके है || ३२ ||

ऋषिरुवाच

सत्यं भीरु वदस्येतत्परिहासोऽथवा शुभे ।

दिनमेकमहं मन्येत्वया सार्धमिहासितम् ॥ १,१५.३३ ॥

ऋषि बोले ;– अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती ही, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ || ३३ ||

प्रम्लोचोवाच

वदिष्याम्यनृतं ब्रह्मन्कथमत्र तवान्तिके ।

विशेषेणाद्य भवता पृष्टा मार्गानुवर्तिना ॥ १,१५.३४ ॥

प्रम्लोचा बोली ;– हे ब्रह्मन ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हूँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म-मार्ग का अनुसरण करने में तत्पर होकर मुझसे पूछ रहे है || ३४ ||

सोम उवाच

निशम्य तद्वचः सत्यं स मुनिर्नृपनन्दनाः ।

धिक्धिक्मामित्यतीवेत्थं निनिन्दात्मानमात्मना ॥ १,१५.३५ ॥

सोम ने कहा ;– हे राजकुमारों ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार है ! ऐसा कहकर स्वयं ही अपने को बहुत कुछ भला-बुरा कहा || ३५ ||

मुनिरुवाच

तपांसि मम नष्टनि हतं ब्रह्मविदां धनम् ।

हतो विवेकः केनापि योषिन्मोहाय निर्मिताः ॥ १,१५.३६ ॥

ऊर्मिषट्कातिगं ब्रह्म ज्ञेयमात्मजयेन मे ।

मतिरेषा हृता येन धिक्तं कामं महाग्रहम् ॥ १,१५.३७ ॥

व्रतानि वेदवेद्याप्तिकाराणान्यखिलानि च ।

नरकग्राममर्गेण सङ्गेनापहृतानि मे ॥ १,१५.३८ ॥

मुनि बोले ;– ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओं का धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी | अहो ! स्त्री को किसीने मोह उपजाने के लिये ही रचा है ! ||३६ || ‘मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियों [ क्षुधा, पिपासा, लोभ, मोह, जरा और मृत्यु ये छ: ऊर्मियाँ है ] से अतीत परब्रह्म को जानना चाहिये’ – जिसने मेरी इस प्रकार की बुद्धि को नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रह को धिक्कार है || ३७ || नरकग्राम के मार्गरूप इस स्त्री के संग से वेदवेद्य भगवान की प्राप्ति के कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये || ३८ ||

विनिन्द्येत्थं स धर्मज्ञः स्वयमात्मानमात्मना ।

तामप्सरसमासीनामिदं वचनमब्रवीत् ॥ १,१५.३९ ॥

गच्छ पापे यथाकामं यत्कार्यं तत्कृतं त्वया ।

देवराजस्य मत्क्षोभं कुर्वन्त्या भावचेष्टितैः ॥ १,१५.४० ॥

न त्वां करोण्यहं भस्म क्रोधतीव्रेण वह्निना ।

सतां सप्तपदं मैत्रुमुषि तोहं त्वया सह ॥ १,१५.४१ ॥

अथ वा तव को दोषः किं वा कुप्याम्यहं तव ।

ममैव दोषो नितरां येनाहमजितेन्द्रियः ॥ १,१५.४२ ॥

यया शक्रप्रियार्थिन्या कृतो मे तपसो व्ययः ।

त्वया धिक्तां महामोहमञ्जृषां सुजुगुप्सिताम् ॥ १,१५.४३ ॥

इसप्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवर ने अपने आप ही अपनी निंदा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरा से कहा – || ३९ || ‘अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तूने अपनी भायभंगी से मुझे मोहित करके इंद्र का जो कार्य था वह पूरा कर लिया || ४० || मैं अपने क्रोधसे प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ , क्योंकि सज्जनों की मित्रता सात पग साथ रहने से हो जाती है और मैं तो तेरे साथ निवास कर चूका हूँ || ४१ || अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकि मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हूँ || ४२ || तू महामोह की पिटारी और अत्यंत निंदनिया है | हाय ! तूने इंद्र के स्वार्थ के लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !! || ४३ ||

सोम उवाच

यावदित्थं स विप्रर्षिस्तां ब्रवीति समुध्यमाम् ।

तावद्गलत्स्वेदजला साबभूवातिवेपथुः ॥ १,१५.४४ ॥

प्रवेपमानां सततं खिन्नगात्रलतां सतीम् ।

गच्छ गच्छेति सक्रोधमुवाच मुनिसत्तमः ॥ १,१५.४५ ॥

सोम ने कहा ;– वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरी से जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह [भय के कारण ] पसीने में सराबोर होकर अत्यंत काँपती रही || ४४ || इसप्रकार जिसका समस्त शरीर पसीने में डूबा हुआ था और जो भय से थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचा से मुनिश्रेष्ठ कंडू ने क्रोधपूर्वक कहा – ‘अरी ! तू चली जा ! चली जा !! || ४५ ||

सा तु निर्भर्त्सिता तेन विनाष्क्रम्य तदाश्रमात् ।

आकाशगामिनी स्वेदं ममार्ज तरुपल्लवैः ॥ १,१५.४६ ॥

निर्मार्जमाना गात्राणि गलत्स्वेदजलानि वै ।

वृक्षाद्धृक्षं ययौ बाला तदग्रारुणपल्लवैः ॥ १,१५.४७ ॥

ऋषिणा यस्तदा गर्भस्तस्या देहे समाहितः ।

निर्जगाम स रोमाञ्चस्वेदरूपी तदङ्गतः ॥ १,१५.४८ ॥

तं वृक्षा जगृहुर्गर्भमेकं चक्रे तु मारुतः ।

मया चाप्यायितो गोभिः स तदा ववृधे शनैः ॥ १,१५.४९ ॥

वृक्षाग्रगर्भसम्भूता मारिषाख्या वरानना ।

तां प्रदास्यन्ति वो वृक्षाः कोप एष प्रशाम्यताम् ॥ १,१५.५० ॥

कण्डोरपत्यमेवं सा वृक्षेभ्यश्च समुद्गता ।

ममापत्यं तथा वायोः प्रम्लोचातनया च सा ॥ १,१५.५१ ॥

तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाश-मार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्ष के पत्तों से पोंछा || ४६ || वह बाला वृक्षों के नवीन लाल- लाल पत्तोंसे अपने पसीने से तर शरीर को पोंछती हुई एक वृक्ष से दूसरे वृक्षपर चलती गयी || ४७ || उस समय ऋषीने उसके शरीर में जो गर्भ स्थापित किया था वह भी रोमांच से निकले हुए पसीने के रुपमे उसके शरीरसे बाहर निकल आया || ४८ || उस गर्भ को वृक्षों ने ग्रहण कर लिया, उसे वायु ने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणों से उसे पोषित करने लगा | इससे वह धीरे धीरे बढ़ गया || ४९ || वृक्षाग्र से उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी सुमुखी कन्या तुम्हे वृक्षगण समर्पण करेंगे | अत: अब यह क्रोध शांत करो || ५० || इसप्रकार वृक्षों से उत्पन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचा की पुत्री है तथा कंडू मुनि की, मेरी और वायु की भी सन्तान है || ५१ ||

स चापि भगवान् कण्डुः क्षीणे तपसि सत्तमः ।

पुरुषोत्तमाख्यं मैत्रेय विष्णोरायतनं ययौ ॥ १,१५.५२ ॥

तत्रैकाग्रमतिर्भूत्वा चकाराराधनं हरेः ।

ब्रह्मपारमयं कुर्वञ्जपमेकाग्रमानसः ।

ऊर्ध्वबाहुर्महायोगी स्थित्वासौ भूपनन्दनाः ॥ १,१५.५३ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! साधुश्रेष्ठ भगवा कंडू भी तपके क्षीण हो जाने से पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान विष्णु की निवास-भूमि को गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्र चित्तसे ब्रह्मपार मन्त्र का जप करते हुए ऊर्ध्वबाहू रहकर श्रीविष्णुभगवान् की आराधना करने लगे || ५२ ५३ ||

प्रचेतस ऊचुः

ब्रह्मपारं मुने श्रोतुमिच्छामः परमं स्तवम् ।

जपता कण्डुना देवो येनाराध्यत केशवः ॥ १,१५.५४ ॥

प्रचेतागण बोले ;– हम कंडू मुनिका ब्रहमपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशव की आराधना की थी || ५४ ||

सोम उवाच

पारं परं विष्णुरपारपारः परः परेभ्यः पामारथरूपी ।

सब्रह्पारः परपारभूतः परः पराणामपि पारपारः ॥ १,१५.५५ ॥

स कारणं कारणतस्ततोपि तस्यापि हेतुः ।

कार्येषु चैवं सह कर्मकर्तृरूपैरशेषैरवतीह सर्वम् ॥ १,१५.५६ ॥

ब्रह्म प्रभुर्ब्रह्म स सर्वभूतो ब्रह्म प्रजानां पतिरच्युतोऽसौ ।

ब्रह्माव्ययं नित्यमजं स विष्णुरपक्षयाद्यैरखिलैरसङ्गि ॥ १,१५.५७ ॥

ब्रह्माक्षरमजं नित्यं यथासौ पुरुषोत्तमः ।

तथा रागादयो दोषः प्रयान्तु प्रशमं मम ॥ १,१५.५८ ॥

सोमने कहा ;– [हे राजकुमारों ! वह मन्त्र इस प्रकार है ] – ‘श्रीविष्णुभगवान् संसार-मार्ग की अंतिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशादि ) से भी पर अर्थात अनंत है, अत: सत्यस्वरूप है | तपोनिष्ठ महात्माओं को ही वे प्राप्त हो सकते है, क्योंकि वे पर (अनात्म-प्रपंच) से परे है तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा है और (भक्तों के ) पालक एवं [उनके अभीष्ट को] पूर्ण करनेवाले है || ५५ || वे कारण (पंचभूत) के कारण (पंचतन्मात्रा) के हेतु (तामस-अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्तत्त्व) के हेतु (प्रधान)के भी परम हेतु है और इसप्रकार समस्त कर्म और कर्त्ता आदि के सहित कार्यरूप से स्थित सकल प्रपंच का पालन करते है || ५६ || ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति (रक्षक) तथा अविनाशी है | वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारों से शून्य विष्णु है || ५७ || क्योंकि वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान विष्णु है, इसलिये मेरे राग आदि दोष शांत हो ‘ || ५८ ||

सोम उवाच

एतद्ब्रह्म पराख्यं वै संस्तवं परमं जपन् ।

अवाप परमां सिद्धिं स तमाराध्य केशवम् ॥ १,१५.५९ ॥

इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्र का जप करते हुए श्रीकेशव की आराधना करने से उन मुनीश्वर ने परमसिद्धि प्राप्त की || ५९ ||

इमं स्तवं यः पठति शृणुयाद्वापि नित्यशः ।

स कामदेषैरशिलैर्मुक्तः प्राप्रोति वाञ्छितम् ॥ १,१५.५९।१ ॥

 [ जो पुरुष इस स्तव को नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है | ]

इयं च मारीषा पूर्वमासीद्य तां ब्रवीमि वः ।

कार्यगौरवमेतस्याः कथने फलदायि वः ॥ १,१५.६० ॥

अब मैं तुम्हे यह बताता हूँ कि यह मारिषा पूर्वजन्म में कौन थी | यह बता देने से तुम्हारे कार्य का गौरव सफल होगा | अर्थात तुम प्रजा-वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे || ६० ||

अपुत्रा प्रागियं विष्णुं मृते भर्तरि सत्तमाः ।

भीपपत्नी महाभागा तोषयामास भक्तितः ॥ १,१५.६१ ॥

आराधितस्तया विष्णुः प्राह प्रत्यक्षतां गतः ।

वरं वृणीष्वेति शुभे सा च प्राहात्मवाञ्छितम् ॥ १,१५.६२ ॥

भगवन्बालवैधव्याद्वृथाजन्माहमीदृशी ।

मन्दभाग्या समुद्भुता विफला च जगत्पते ॥ १,१५.६३ ॥

भवन्तु पतयः श्लाघ्या मम जन्मनि जन्मनि ।

त्वत्प्रसादात्तथा पुत्रः प्रजापतिसमोस्तु मे ॥ १,१५.६४ ॥

कुलं शीलं वयः सत्यं दाक्षिण्यं क्षिप्रकारिता ।

अविसंवादिता सत्त्वं वृद्धसेवा कृतज्ञता ॥ १,१५.६५ ॥

रूपसम्पत्समायुक्ता सर्वस्य प्रियदर्शना ।

अयोनिजा च जायेयं त्वन्प्रसादादाधेक्षज ॥ १,१५.६६ ॥

यह साध्वी अपने पूर्व जन्म में एक महारानी थी | पुत्रहीन अवस्था में ही पति के मर जानेपर इस महाभागा ने अपने भक्तिभाव से विष्णुभगवान् को संतुष्ट किया || ६१ || इसकी आराधना से प्रसन्न हो विष्णुभगवान ने प्रकट होकर कहा – ‘हे शुभे ! वर माँग !तब इसने अपनी मनोभिलाषा इसप्रकार कह सुनायी || ६२ || ‘भगवन ! बाल-विधवा होने के कारण मेरा जन्म व्यर्थ हु हुआ | हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन (पुत्रहीन) ही उत्पन्न हुई || ६३ || अत: आपकी कृपा से जन्म-जन्मों मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हो और प्रजापति (ब्रह्माजी) के समान पुत्र हो || ६४ || और हे अधोक्षज ! आपके प्रसाद से मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिन्य (कार्य-कुशलता), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता (उल्टा न कहना), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणों से तथा सुंदर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा (माताके गर्भ से जन्म लिये बिना ) ही उत्पन्न होऊँ || ६५ -६६ ||

सोम उवाच

तयैवमुक्तो देवेशो हृषीकेश उवाच ताम् ।

प्रणामनम्रामुत्थाप्य वरदः परमेश्वरः ॥ १,१५.६७ ॥

सोम बोले ;– उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीह्रषीकेश ने प्रणाम के लिये झुकी हुई उस बाला को उठाकर कहा || ६७ ||

देव उवाच

भविष्यन्ति महावीर्या एकस्मिन्नेव जन्मनि ।

प्रख्यातोदारकर्णाणो भवत्याः पतयो दश ॥ १,१५.६८ ॥

पुत्रञ्च सुमहावीर्यं महाबलपराक्रमम् ।

प्रजापतिगुणैर्युक्तं त्वमवाप्स्यसि शोभने ॥ १,१५.६९ ॥

वंशानां तस्य कर्तृत्वं जगत्यस्मिन्भविष्यति ।

त्रैलोक्यमखिला सूतिस्तस्य चापूरयिष्यति ॥ १,१५.७० ॥

त्वं चाप्ययोनिजा साध्वी रूपौदार्यगुणान्विता ।

मनः प्रीतिकरी नॄणां मत्प्रसादाद्भविष्यसि ॥ १,१५.७१ ॥

इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तां विशालविलोचनाम् ।

सा चेयं मारिषा जाता युष्मत्पत्नी नृपात्मजाः ॥ १,१५.७२ ॥

भगवान बोले ;– तेरे एक ही जन्म में बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसीसमय तुझे प्रजापति के समान एक महावीर्यवान एवं अत्यंत बल-विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा || ६८ -६९ || वह इस संसार में कितने ही वंशों को चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकी में फ़ैल जायगी || ७० || तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूप गुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उत्पन्न होगी || ७१ || हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षी से ऐसा कह भगवान अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषा के रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारी पत्नी है || ७२ ||

श्रीपराशर उवाच

ततः सोमस्य वचनाज्जगृहुस्ते प्रचेतसः ।

संहृत्य कोपं वृक्षेभ्यः पत्नीधर्मोण मारीषाम् ॥ १,१५.७३ ॥

दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यो मारीषायां प्रजापतिः ।

जज्ञे दक्षो महाभागो यः पूर्वं ब्रह्मणोऽभवत् ॥ १,१५.७४ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब सोमदेव के कहने से प्रचेताओं ने अपना क्रोध शांत किया और इस मारिषा को वृक्षों से पत्नीरूप से ग्रहण किया || ७३ || उन दसों प्रचेताओं से मारिषा के महाभाग दक्ष प्रजपतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजी से उत्पन्न हुआ थे || ७४ ||

स तु दक्षो महाभागःसृष्ट्यर्थं सुमहामते ।

पुत्रानुत्पादयामास प्रजासृष्ट्यर्थमात्मनः ॥ १,१५.७५ ॥

अवरांश्च वरांश्चैव द्विपदोथ चतुष्पदान् ।

आदेशं ब्रह्मणः कुर्वन् सृष्ट्यर्थं समुपस्थितः ॥ १,१५.७६ ॥

स सृष्ट्वा मनसा दक्षः पश्चादसृजत स्त्रियः ।

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ।

कालस्य नयने युक्ताः सप्तविंशतिमिन्दवे ॥ १,१५.७७ ॥

तासु देवास्तथा दैत्या नागा गावस्तथा खगाः ।

गन्धर्वाप्सरसश्चैव दानवाद्याश्च जज्ञिरे ॥ १,१५.७८ ॥

ततः प्रभृति मैत्रेय प्रजा मैथुनसम्भवाः ।

संकल्पाद्दर्शनात्स्पर्शात्पूर्वेषामभवन् प्रजाः ।

तपोविशेषैः सिद्धानां तदात्यन्ततपस्विनाम् ॥ १,१५.७९ ॥

हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजी की आज्ञा पालते हुए सर्ग-रचना के लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढाने और सन्तान उत्पन्न करने के लिये नीच-ऊँच तथा द्विपदचतुष्पद आदि नाना प्रकार के जीवों को पुत्ररूप से उत्पन्न किया || ७५ ७६ || प्रजापति दक्ष ने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियों की उत्पत्ति की | उनमें से दस धर्म को और तेरह कश्यप को दी तथा काल-परिवर्तन में नियुक्त [अश्विनी आदि ] सत्ताईस चन्द्रमा को विवाह दीं || ७७ || उन्हींसे देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए || ७८ || हे मैत्रेय ! दक्ष के समय से ही प्रजाका मैथुन (स्त्री-पुरुष सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है | उससे पहले तो अत्यंत तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषों के तपोबल से उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्र से ही प्रजा उत्पन्न होती थी || ७९ ||

श्रीमैत्रेय उवाच

अङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्दक्षः पूर्वं जातो मया श्रुतः ।

कथं प्राचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने ॥ १,१५.८० ॥

एष मे संशयो ब्रह्मन्सुमहान्हृदि वर्तते ।

यद्दैहित्रश्च सोमस्य पुनः श्वशुरतां गतः ॥ १,१५.८१ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्ष का जन्म ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से हुआ था, फिर वे प्रचेताओं के पुत्र किसप्रकार हुए ? || ८० || हे ब्रह्मन ! मेरे ह्रदय में यह बड़ा संदेह है कि सोमदेव के दौहित्र (धेवते) होकर भी फिर वे उनके श्वसुर हुए ! || ८१ ||

श्रीपराशर उवाच

उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यो भूतेषु सर्वाद ।

ऋषयोत्र न सुह्यन्ति ये चान्ये दिव्यचक्षुषः ॥ १,१५.८२ ॥

युगेयुगे भवन्त्येते दक्षाद्या मुनिसत्तम ।

पुनश्चैवं निरुद्ध्यन्ते विद्वांस्तत्र न मुह्यति ॥ १,१५.८३ ॥

कानिष्ठ्यं ज्यैष्ठ्यमप्येषां पूर्वं नाभूद्द्द्विजोत्तम ।

तप एव गरीयोभूत्प्रभा वश्चैव कारणम् ॥ १,१५.८४ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! प्राणियों के उत्पत्ति और नाश [ प्रवाहरूप से ] निरंतर हुआ करते है | इस विषय में ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि पुरुषों को कोई मोह नही होता || ८२ || हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग-युग में होते है और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वान को किसी प्रकार का संदेह नहीं होता || ८३ || हे द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकार की ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी | उस समय तप और प्रभाव ही उनकी जेष्ठ्ता का कारण होता था || ८४ ||

मैत्रेय उवाच

देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।

उत्पत्तिं विस्तरेणेह मम ब्रह्मन्प्रकीर्तय ॥ १,१५.८५ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आप मुझसे देव, दानव, गंधर्व, सर्प और राक्षसों की उत्पत्ति विस्तारपूर्वक कहिये ||८५ ||

श्रीपराशर उवाच

प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा ।

यथा ससर्ज भूतानि तथा शृणु महामुने ॥ १,१५.८६ ॥

मानसान्येव भूतानि पूर्वं दक्षोऽसृजत्तदा ।

देवानृषीन्सगन्धर्वानसुरान्पन्नगांस्तथा ॥ १,१५.८७ ॥

यदास्य सृजमानस्य न व्यवर्धन्त ताः प्रजाः ।

ततः संचिन्त्य स पुनः सृष्टिहेतोः प्रजापतिः ॥ १,१५.८८ ॥

मैथुनेनैव धर्मेण सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।

असक्नीमावहत्कन्यां वीरणस्य प्रजापतेः ।

सुतां सुतपसा युक्तां महतीं लोकधारिणीम् ॥ १,१५.८९ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा होनेपर कि तुम प्रजा उत्पन्न करोदक्ष ने पूर्वकाल में जिसप्रकार प्राणियों की रचना की थी वह सुनो || ८६ || उस समय पहले तो दक्ष ने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियों को ही उत्पन्न किया || ८७ || इसप्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढ़ी तो उन प्रजापति ने सृष्टि की वृद्धि के लिये मन में विचारकर मैथुनधर्म से नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से वीरण प्रजापति की अति तपस्विनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्री से विवाह किया || ८८ ८९ ||

अथ पुत्रसहस्राणै वैरुण्यां पञ्च वीर्यवान् ।

असिक्न्यां जनयामास सर्गहेतोः प्रजापतिः ॥ १,१५.९० ॥

तान्दृष्ट्वा नारदो विप्र संविवर्धयिषून्प्रजाः ।

संगम्य प्रियसंवादो देवर्षिरिदमब्रवीत् ॥ १,१५.९१ ॥

हे हर्यश्वा महावीर्याः प्रजा यूयं करिष्यथ ।

ईदृशो दृश्यते यत्नो भवतां श्रूयतामीदम् ॥ १,१५.९२ ॥

बालिश बत यूयं वै नास्या जानीत वै भुवः ।

अन्तरूर्ध्वमधश्चैव कथं सृक्ष्यथ वै प्रजाः ॥ १,१५.९३ ॥

ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव यदाप्रतिहता गतिः ।

तदा कस्माद्भुवो नान्तं सर्वे द्रक्ष्यथ बालिशाः ॥ १,१५.९४ ॥

ते तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतो दिशम् ।

अद्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ १,१५.९५ ॥

तदनन्तर वीर्यवान प्रजापति दक्ष ने सर्ग की वृद्धि के लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये || ९० || उन्हें प्रजा-वृद्धि के इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारद ने उनके निकट जाकर इसप्रकार कहा – || ९१ || “हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगों की ऐसी चेष्टा प्रतीत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो || ९२ || खेद की बात है, तुम लोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथ्वी का मध्य, ऊर्ध्व (ऊपरी भाग) और अध: (नीचे के भाग) कुछ भी नहीं जानते, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, तुम्हारी गति इस ब्रह्मांड में ऊपर नीचे और इधर उधर सब ओर अप्रतिहत है; अत: हे अज्ञानियों ! तुम सब मिलकर इस पृथ्वी का अंत क्यों नही देखते ?” || ९३ ९४ || नारदजी के ये वचन सुनकर वे सब भिन्न-भिन्न दिशाओं को चले गये और समुद्र में जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटती उसी प्रकार वे भी आजतक नही लौटे || ९५ ||

हर्य श्वेष्वथ नष्टोषु दक्षः प्राचेतसः पुनः ।

वैरुण्यामथ पुत्राणां सहस्रमसृजत्प्रभुः ॥ १,१५.९६ ॥

विवर्धयिषवस्ते तु शबलाश्वाः प्रजाः पुनः ।

पूर्वोक्तं वचनं ब्रह्मन्नारदेनैव नोदिताः ॥ १,१५.९७ ॥

अन्योन्यमूचुस्ते सर्वे सम्यगाह महामुनिः ।

भ्रतॄणां पदवी चैव गन्तव्या नात्र संशयः ॥ १,१५.९८ ॥

ज्ञात्वा प्रमाणं पृथ्व्याश्च प्रजाःसृज्यामहे ततः ॥ १,१५.९९ ॥

तेपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सर्वतोमुखम् ।

अद्यापि न निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ।

ततः प्रभृति वै भ्राता भ्रातुरन्वेषणे द्विज ।

प्रयातो नश्यति तथा तन्न कार्यं विजानता ॥ १,१५.१०० ॥

हर्यश्वों के इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने वैरुणी से एक सहस्त्र पुत्र और उत्पन्न किये || ९६ || वे शबलाश्वगण भी प्रजा बढाने के इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन ! उनसे नारदजी ने ही फिर पूर्वोक्त बाते कह दी | तब वे सब आपसमें एक-दूसरे से कहने लगे – ‘महामुनि नारदजी ठीक कहते है; हमको भी, इससे संदेह नहीं, अपने भाइयों के मार्ग का ही अवलम्बन करना चाहिये | हम भी पृथ्वी का परिणाम जानकर ही सृष्टि करेंगे |’ इसप्रकार वे भी उसी मार्ग से समस्त दिशाओं को चले गये और समुद्रगत नदियों के समान आजतक नही लौटे || ९७ ९९ || हे द्विज ! तबसे ही यदि भाईको खोजने के लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अत: विंझ पुरुष को ऐसा न करना चाहिये || १०० ||

तां श्चापि नष्टान् विज्ञाय पुत्रान् दक्षः प्रजापतिः ।

क्रोधं चक्रे महाभागो नारदं स शशाप च ॥ १,१५.१०१ ॥

सर्गकामस्ततो विद्वान्स मैत्रेय प्रजापतिः ।

षष्टिं तक्षोऽसृजत्कन्या वैरुण्यामिति नः श्रुतम् ॥ १,१५.१०२ ॥

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ।

सप्तविंशति सोमाय चतस्त्रोऽरिष्टनेमिने ॥ १,१५.१०३ ॥

द्वे चैव बहुपुत्राय द्वे चैवाङ्गिरसे तथा ।

द्वे कृशाश्वाय विदुषे तासां नामानि मे शृणु ॥ १,१५.१०४ ॥

अरुन्धती वसुर्जामिर्लङ्घा[१] भानुमरुत्वती ।

संकल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च तादृशी ।

धर्मपत्न्यो दशत्वेतास्तास्वपत्यानि मे शृणु ।

विश्वेदेवास्तु विश्वायाः साध्या साध्यानजायत ।

मरुत्वत्यां सरुत्वन्तो वसोश्च वसवः स्मृता ॥ १,१५.१०५ ॥

भानोस्तु भानवः पुत्रा मुहूर्तायां मुहूर्तजाः ॥ १,१५.१०६ ॥

लङ्घा[२]याश्चैव घोषोथ नागवीथी तु जामिता ॥ १,१५.१०७ ॥

पृथिवीविषयं सर्वमरुन्धत्याम जायत ।

संकल्पायास्तु सर्वात्मा जज्ञे संकल्प एव हि ॥ १,१५.१०८ ॥

महाभाग दक्ष प्रजापति ने उन पुत्रों को भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया || १०१ || हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान प्रजापति ने सर्गवृद्धि की इच्छा से वैरुणी में साथ कन्याएँ उत्पन्न कीं || १०२ || उनमें से उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस सोम (चन्द्रमा) को और चार अरिष्टनेमि को दी || १०३ || तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्व को विवाहीं | अब उनके नाम सुनो || १०४ || अरुंधती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा ये दस धर्म की पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रों का विवरण सुनो || १०५ || विश्वा के पुत्र विश्वेदेवा थे, साध्या से साध्यगण हुए, मरुत्वती से मरुत्वान और वसु से वसुगण हुए तथा भानु से भानु और मुहूर्ता से मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए || १०६ || लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुंधती से समस्त पृथ्वी विषयक प्राणी हुए तथा संकल्पा से सर्वात्मक संकल्प की उत्पत्ति हुई || १०७ १०८ ||

ये त्वनेकवसुप्राणदेवा ज्योतिः पुरोगमाः ।

वसवोष्टौ समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम् ॥ १,१५.१०९ ॥

आपो ध्रुवश्च सोमश्च धर्मश्चैवानिलोऽनलः ।

प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः ॥ १,१५.११० ॥

आपस्य पुत्रो वैतण्डः श्रमः शान्तोऽध्वनिस्तथा ।

ध्रुवस्य पुत्रो भगवान्कालो लोकप्रकालनः ॥ १,१५.१११ ॥

सोमस्य भगवान्वर्चो वर्चस्वी येन जायते ॥ १,१५.११२ ॥

धर्मस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा ।

मनोहरायां शिशिरः प्राणोथ रवणस्तथा ॥ १,१५.११३ ॥

नाना प्रकार का वसु (तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योंति आदि जो आठ वसुगण विख्यात है, अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ || १०९ || उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल (अग्नि), प्रत्युष और प्रभास कहे जाते हैं || ११० || आपके पुत्र वैतंड, श्रम, शांत और ध्वनि हुए तथा ध्रुव के पुत्र लोक-संहारक भगवान काल हुए || १११ || भगवान वर्चा सोम के पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी (तेजस्वी) हो जाता है और धर्म के उनकी भार्या मनोहर से द्रविण, हट एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए || ११२- ११३ ||

अनिलस्य शिवा भार्या तस्याः पुत्रो मनोजवः ।

अविज्ञातगतिश्चैव द्वौ पुत्रावनिलस्य तु ॥ १,१५.११४ ॥

अग्निपुत्रः कुमारस्तु शरस्तम्बे व्यजायत ।

तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेयश्च पृष्ठजाः ॥ १,१५.११५ ॥

अपत्यं कृत्तिकानां तु कार्त्तिकेय इति स्मृतः ॥ १,१५.११६ ॥

प्रत्यूषस्य विदुः पुत्रं ऋषि नाम्नाथ देवलम् ।

द्वौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ मनीषिणौ ॥ १,१५.११७ ॥

अनिल की पत्नी शिवा थी; उससे अनिल के मनोजव और अविज्ञातगति ये दो पुत्र हुए || ११४ || अग्नि के पुत्र कुमार शरस्तम्ब (सरकंडे) से उत्पन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओं के पुत्र होने कार्तिकेय कहलाये | शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे || ११५ ११६ || देवल नामक ऋषिको प्रत्युष का पुत्र कहा जाता है | इन देवल के भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए || ११७ ||

बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी ।

योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता विचरत्युत ।

प्रभासस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्य तु ॥ १,१५.११८ ॥

विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः ।

कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वार्धकिः ॥ १,१५.११९ ॥

भूषणानां च सर्वेषां कर्ताशिल्पवतां वरः ।

यः सर्वैषां विमानानि देवतानां चकार ह ।

मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ॥ १,१५.१२० ॥

अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्वष्टा रुद्रश्च वीर्यवान् ।

त्वष्टुश्चाप्यात्मजः पुत्रो विश्वरूपो महातपाः ॥ १,१५.१२१ ॥

हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः ।

वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दीरैवतः स्मृतः ॥ १,१५.१२२ ॥

मृगव्याधश्च शर्वश्च कपाली च महामुने ।

एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः ॥ १,१५.१२३ ॥

बृहस्पतिजी की बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्मचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त-भाव से समस्त भूमंडल म विचरती थी, आठवे वसु प्रभास की भार्या हुई || ११८ || उससे सहस्त्रो शिल्पों (कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओं के शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ || ११९ || जो समस्त शिल्पकारों में श्रेष्ठ और सब प्रकार के आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होंने देवताओं के सम्पूर्ण विमानों की रचना की और जिन महात्मा की [आविष्कृता ] शिल्पविद्या के आश्रय से बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते है || १२० || उन विश्वकर्मा के चार पुत्र थे, उनके नाम सुनो | वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरुषार्थी रूद्र थे | उनमें से त्वष्टा के पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे || १२१ || हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली ये त्रिलोकी के अधीश्वर ग्यारह रूद्र कहे गये है | ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रूद्र प्रसिद्ध है || १२२ १२३ ||

शतं त्वेकं समाख्यातं रुद्राणाममितौजसाम् ।

काश्यपस्य तु भार्या यास्तासां नामानि मे शृणु ।

अदितिर्दितिर्दनुश्चैवारिष्टा च सुरसा खसा ॥ १,१५.१२४ ॥

सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा ।

कद्रुर्मुनिश्च धर्मज्ञ तदपत्यानि मे शृणु ॥ १,१५.१२५ ॥

जो [ दक्षकन्याएँ ] कश्यपजी की स्त्रियाँ हुई उनके नाम सुनो वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, स्त्रसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु और मुनि थी | हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तान का विवरण श्रवण करो || १२४- १२५ ||

पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशासन्सुरोत्तमाः ।

तुषिता नाम तेऽन्योन्यमूचुर्वैवस्वतेन्तरे ॥ १,१५.१२६ ॥

उपस्थितेऽतियशसश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।

समवायीकृताः सर्वे समागम्य परस्परम् ॥ १,१५.१२७ ॥

पूर्व (चाक्षुष ) मन्वन्तर में तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे | वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर के पश्चात वैवस्वत-मन्वन्तर के उपस्थित होनेपर एक- दूसरे के पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे || १२६ १२७ ||

आगच्छत द्रुतं देवा अदितिं संप्रविश्य वै ।

मन्वन्तरे प्रसूयामस्तन्नः श्रेयो भवेदिति ॥ १,१५.१२८ ॥

एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।

मारीचात्कश्यपाज्जाता अदित्या दक्षकन्यया ॥ १,१५.१२९ ॥

तत्र विष्णुश्च शक्रश्च जज्ञाते पुनरेव हि ।

अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च ॥ १,१५.१३० ॥

विवस्वान्सविता चैव मित्रो वरुण एव च ।

अंशुर्भगश्चातितेजा आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ १,१५.१३१ ॥

चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासन्ये तुषिताः सुराः ।

वैवस्वतेऽन्तरे ते वै आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ १,१५.१३२ ॥

 हे देवगण ! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदिति के गर्भ से प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तर में जन्म लें, इसीमें हमारा हित है’ || १२८ || इस प्रकार चाक्षुष-मन्वन्तर में निश्चयकर उन सबने मरीचिपुत्र कश्यपजी के यहाँ दक्षकन्या अदिति के गर्भ से जन्म लिया || १२९ || वे अति तेजस्वी उससे उत्पन्न होकर विष्णु, इंद्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान, सविता, मैत्र, वरुण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये || १३० १३१ || इसप्रकार पहले चाक्षुष मन्वन्तर में जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तर में द्वादश आदित्य हुए || १३२ ||

सप्तविंशति याः प्रोक्ताः सोमपत्न्योथ सुव्रताः ।

सर्वा नक्षत्रयोगिन्यस्तन्नाम्नश्चैव ताः स्मृताः ।

तासामपत्यान्यभवन्दीप्तान्यमिततेजसाम् ॥ १,१५.१३३ ॥

अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह षोडश ॥ १,१५.१३४ ॥

बहुपुत्रस्य विदुषश्चतस्त्रोविद्युतः स्मृताः ॥ १,१५.१३५ ॥

प्रत्यङ्गिरसजाः श्रेष्ठा ऋचो ब्रह्मर्षिसत्कृताः ॥ १,१५.१३६ ॥

कृशाश्वस्य तु देवर्षेर्देवप्रहरणाः स्मृताः ॥ १,१५.१३७ ॥

एते युगसहस्रान्ते जायन्ते पुनरेव हि ।

सर्वे देवगणास्तात त्रयस्त्रिंशत्तु छन्दजाः ।

तेषामपीह सततं निरोधोत्पत्तिरुच्यते ॥ १,१५.१३८ ॥

यथा सूर्यस्य मैत्रेय उदयास्तमनाविह ।

एवं देवनिकायास्ते सम्भवन्ति युगेयुगे ॥ १,१५.१३९ ॥

सोम की जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियों के विषय में पहले कह चुके है वे सब नक्षत्रयोगिनी है और इन नामों से ही विख्यात है || १३३ || उन अति तेज्स्विनियों से अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए | अरिष्टनेमिकी पत्नियों के सोलह पुत्र हुए | बुद्धिमान बहुपुत्र की भार्या [ कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता नामक ] चार प्रकार की विद्युत् कही जाती है || १३४ १३५ || ब्रह्मर्षियों से सत्कृत ऋचाओं के अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरा से उत्पन्न हुए है तथा शास्त्रों के अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्व की सन्तान कहे जाते है || १३६ || हे तात ! [ आठ वसु, ग्यारह रूद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ] ये तैतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले है | कहते है, इस लोक में इनके उत्पत्ति और निरोध निरंतर हुआ करते है | ये एक हजार युग के अनन्तर पुन: पुन: उत्पन्न होते रहते है || १३७ १३८ || हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोक में सूर्य के अस्त और उदय निरंतर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग-युग में उत्पन्न होते रहते है || १३९ ||

दित्या पुत्रद्वयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम् ।

हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षश्च दुर्जयः ॥ १,१५.१४० ॥

सिंहिका चाभवत्कन्या विप्रचित्तेः परिग्रहः ॥ १,१५.१४१ ॥

हिरण्यकशिपोः पुत्राश्चात्वारः प्रथितौजसः ।

अनुह्लादश्च ह्लादश्च प्रह्लादश्चैव बुद्धिमान् ।

संह्लादश्च महावीर्या दैत्यवंशविवर्धनाः ॥ १,१५.१४२ ॥

हमने सुना है दिति के कश्यपजी के वीर्य से परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचिती को विवाही गयी || १४० १४१ || हिरण्यकशिपु के अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्राद , ह्राद , बुद्धिमान प्रल्हाद और संह्राद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंश को बढ़ानेवाले थे||१४२||

तेषां मध्ये महाभाग सर्वत्र समदृग्वाशी ।

प्रह्लादः परमां भक्तिं च उवाच जनार्दने ॥ १,१५.१४३ ॥

दैत्येन्द्रदीपितो वह्निः सर्वाङ्गोपचितो द्विज ।

न ददाह च यं विप्र वासुदेव हृदि स्थिते ॥ १,१५.१४४ ॥

महार्णवान्तः सलिले स्थितस्य चलतो मही ।

चचाल चलता यस्य पाशबद्धस्य धीमतः ॥ १,१५.१४५ ॥

न भिन्नं विविधैः शस्त्रैर्यस्य दैत्येन्द्रपातितैः ।

शरीरमद्रिकठिनं सर्वत्राच्युतचेतसः ॥ १,१५.१४६ ॥

विषानलोज्ज्वलमुखा यस्य दैत्यप्रचोदिताः ।

नान्ताय सर्पपतयो बभूवुरुरुतेजसः ॥ १,१५.१४७ ॥

हे महाभाग ! उनमे प्रल्हादजी सर्वत्र समदर्शी और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान की परम भक्ति का वर्णन किया था || १४३ || जिनको दैत्यराजद्वारा दीप्त किये हुए अग्नि ने उनके सर्वांग में व्याप्त होकर भी, ह्रदय में वासुदेव भगवान के स्थित रहने से नही जला पाया || १४४ || जिन महाबुद्धिमान के पाशबद्ध होकर समुद्र के जल में पड़े पड़े इधर उधर हिलने डुलने से सारी पृथ्वी हिलने लगी थी || १४५ || जिनका पर्वत के समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवंचित रहने के कारण दैत्यराज के चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रों से भी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ || १४६ || दैत्यराजद्वारा प्रेरित विषाग्नि से प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वी का अंत नहीं कर सके || १४७ ||

शैलैराक्रान्तदेहोपि यः स्मरन्पुरुषोत्तमम् ।

तत्याज नात्मनः प्राणान् विष्णुस्मरणदंशितः ॥ १,१५.१४८ ॥

पतन्तमुच्चादवनिर्यमुपेत्य महामतिम् ।

दधार दैत्यपतिना क्षिप्तं स्वर्गनिवासिना ॥ १,१५.१४९ ॥

यस्य सशोषको वायुर्देहे दैत्येन्द्रयोजितः ।

अवाप संक्षयं सद्यश्चित्तस्थे मधुसूदने ॥ १,१५.१५० ॥

विषाणभङ्गमुन्मत्ता मदहानिं च दिग्गजाः ।

यस्य वक्षःस्थले प्राप्ता दैत्येन्द्रपरिणामिताः ॥ १,१५.१५१ ॥

यस्य चोत्पादिता कृत्या दैत्यराजपुरोहितैः ।

बभूव नान्ताय पुरा गोविन्दासक्तचेतसः ॥ १,१५.१५२ ॥

शम्बरस्य च मायानां सहस्रमतिमायिनः ।

यस्मिन्प्रयुक्तं चक्रेण कृष्णस्य वितथिकृतम् ॥ १,१५.१५३ ॥

दैत्येन्द्रसूदोपहृतं यस्य हालाहलं विषम् ।

जरयामास मतिमानविकारममत्सरी ॥ १,१५.१५४ ॥

समचेता जगत्यस्मिन्यः सर्वेष्वेव जन्तुषु ।

यथात्मनि तथान्येषां परं मैत्रगुणान्वितः ॥ १,१५.१५५ ॥

धर्मात्मा सत्यशौर्यादिगुणानामाकरः परः ।

उपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाभवत् ॥ १,१५.१५६ ॥

जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहने के कारण पुरुषोत्तम भगवान का स्मरण करते हुए पत्थरों की मार पड़नेपर भी अपने प्राणों को नहीं छोड़ा || १४८ || स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपर से गिराये जानेपर जिन महामति को पृथ्वी ने पास जाकर बीचही में अपनी गोद में धारण कर लिया || १४९ || चित्त में श्रीमधुसुदनभगवान् के स्थित रहने से दैत्यराज का नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीर में लगने से शांत हो गया || १५० || दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमण के लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजों के दाँत जिनके वक्ष:स्थल में लगने से टूट गये और उनका सारा मद चूर्ण हो गया || १५१ || पूर्वकाल में दैत्यराज के पुरोहितों की उत्पन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविंदासक्तचित्त भक्तराज के अंत का कारण नहीं हो सकी || १५२ || जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुर की हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्र के चक्र से व्यर्थ हो गयी || १५३ || जिन मतिमान और निर्मत्सरने दैत्यराज के रसोइयों के लाये हुए हलाहल विष को निर्विकार भाव से पचा लिया || १५४ || जो इस संसार में समस्त प्राणियों के प्रति समानचित्त और अपने समान ही दूसरों के लिये भी परमप्रेमयुक्त थे || १५५ || और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणों की खानि तथा समस्त साधू-पुरुषों के लिये उपमास्वरूप हुए थे || १५६ ||

इतिश्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥१५॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 16 

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