नरसिंहपुराण अध्याय १८

नरसिंहपुराण अध्याय १८  

नरसिंहपुराण अध्याय १८ में भगवान् सूर्य द्वारा संज्ञा के गर्भ से मनु, यम और यमी की, छाया के गर्भ से मनु, शनैश्चर एवं तपती की उत्पत्ति तथा अश्वारूपधारिणी संज्ञा से अश्विनीकुमारों का प्रादुर्भाव का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १८

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १८  

Narasingha puran chapter 18

नरसिंह पुराण अठारहवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय १८    

श्रीनरसिंहपुराण अष्टादशोऽध्यायः  

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १८

अध्याय १८

सूत उवाच

इति श्रुत्वा कथाः पुण्याः सर्वपापप्रणाशिनीः ।

नानाविधा मुनिश्रेष्ठाः कृष्णद्वैपायनात् पुनः ॥१॥

शुकः पूर्व महाभागो भरद्वाजो महामते ।

सिद्धैरन्यैश्च सहितो नारायणपरोऽभवत् ॥२॥

एवं ते कथित विप्र मार्कण्डेयादिकाः कथाः ।

मया विचित्राः पापघ्न्यः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३॥

सूतजी बोले - मुनिवरो तथा महामते भरद्वाज ! पूर्वकाल में श्रीकृष्णद्वैपायन से इस प्रकार नाना भाँति की पावन पापनाशक कथाएँ सुनकर महाभाग शुक अन्य सिद्धगणों के साथ भगवान् नारायण की आराधना में तत्पर हो गये । ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने आपसे पाप - नाश करनेवाली मार्कण्डेय आदि की विचित्र कथाएँ कहीं; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥१ - ३॥

भरद्वाज उवाच

वस्वादीनां तथा प्रोक्ता मम सृष्टिस्त्वया पुरा ।

अश्विनोर्मरुतां चैव नोक्तोत्पत्तिसन्तु तां वद ॥४॥

भरद्वाजजी बोले - सूतजी ! आपने पहले मुझसे वसु आदि देवताओं की सृष्टि का उस प्रकार वर्णन किया; परंतु अश्विनीकुमारों तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति नहीं कही; अतः अब उसे ही कहिये ॥४॥

सूत उवच

मरुतां विस्तरेणोक्ता वैष्णवाख्ये महामते ।

पुराणे शक्तिपुत्रेण पुरोत्पत्तिश्च वायुना ॥५॥

अश्विनोर्देवयोश्चैव सृष्टिरुक्ता सुविस्तरात् ।

संक्षेपात्तव वक्ष्यामि सृष्टिमेतां श्रृणुष्व मे ॥६॥

सूतजी बोले - महामते ! पूर्वकाल में शक्तिनन्दन श्रीपराशरजी ने विष्णुपुराण में मरुद्गणो की उत्पत्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तथा वायुदेवता ने वायुपुराण में अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति भी विस्तारपूर्वक कही हैं; अतः मैं यहाँ संक्षेप से ही इस सृष्टि का वर्णन करुँगा, सुनिये ॥५ - ६॥

दक्षकन्यादितिः । अदितेरादित्यः पुत्रः ।

तस्मै त्वष्टा दुहितरं संज्ञां नाम कन्यां दत्तवान ॥७॥

सोऽपि त्वाष्ट्री रुपवतीं मनोज्ञां प्राप्य तया सेहे रेमे ।

सा कतिपयात् कालात् स्वभर्तुरादित्यस्य

तापमहनी पितुर्गृहं जगाम ॥८॥

तामवलोक्यं सुतां पितोवाच किं पुत्रि तव

भर्त्ता सविता स्नेहात् त्वां रक्षत्युत परुष इति ॥९॥

एवं पितुर्वचनं श्रुत्वा संज्ञा तं प्रत्युवाच ।

दग्धाहं भर्तुः प्रचण्डतापादिती ॥१०॥

एवं श्रृत्वा तामाह पिता गच्छ पुत्रि भर्तुर्हहाम्ति ॥११॥

युवतीस्त्रीणां भर्तुः शुश्रूषणमेव धर्मः श्रेयान् ।

अहमपि कतिपयदिवसादागत्या

दिस्त्यस्योष्णतां जामातुरुद्धरिष्यामि ॥१२॥

प्रजापति दक्ष की एक कन्या अदिति नाम से प्रसिद्ध है । उनके गर्भ से 'आदित्य' नामक पुत्र हुआ । अदितिकुमार आदित्य को त्वष्टा प्रजापति ने अपनी संज्ञा नाम की कन्या ब्याह दी । आदित्य भी त्वष्टा की रुपवती एवं मनोरमा कन्या संज्ञा को पाकर उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगे । संज्ञा अपने पति के ताप को न सह सकने के कारण कुछ काल के बाद अपने पिता के घर चली गयी । उस कन्या को देखकर पिता ने कहा - ' बेटी ! तुम्हारे स्वामी सूर्यदेव तुम्हारा स्नेहपूर्वक पालन करते हैं या तुम्हारे साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार करते हैं ?' पिता को ऐसी बात सुनकर संज्ञा उनसे बोली - ' तात ! मैं स्वामी के प्रचण्ड ताप से जल गयी हूँ ।' यह सुनकर पिता ने उससे कहा - 'बेटी ! तुम पति के घर चली जाओ । पति की सेवा करना ही युवती स्त्रियों का परम उत्तम धर्म है । मैं भी कुछ दिनों के बाद आकर जामाता आदित्यदेव की उष्णता को उनके शरीर से कुछ कम कर दूँगा' ॥७ - १२॥

इत्युक्ता सा च पुनर्भर्तुर्गुहं प्राप्य कतिपयदिवसान्मनुं

यमीं यमं चापत्यत्रयमादित्यात् प्रासूत ।

पुनस्तदुष्णतामसहन्ती छायां भर्तुरुपभोगाय

स्वप्रज्ञाबलेनोत्पाद्य तत्र संस्थाप्य

गत्वोत्तरकुरुनधिष्ठायाश्वी भूत्वा विचचार ॥१३॥

पिता के यों कहने पर वह पुनः पति के घर लौट आयी तथा कुछ दिनों के बाद क्रमशः मनु, यम और यमी (यमुना) - इन तीन संतानों को जन्म दिया । किंतु पुनः जब सूर्य का ताप उससे नहीं सहा गया, तब संज्ञा ने अपनी बुद्धि के बल से स्वामी के उपभोग के लिये अपनी छाया ( प्रतिबिम्ब ) - स्वरुपा एक स्त्री को उत्पन्न किया तथा उसे ही घर में रखकर वह उत्तरकुरुदेश में चली गयी और वहाँ घोड़ी का रुप धारण करके इधर - उधर विचरने लगी ॥१३॥

आदित्योऽपि संज्ञेयमिति मत्वा तस्यां

जायां पुनरपत्यत्रयमुत्पादयामास ॥१४॥

मनुं शनैश्चरं तपतीं च ।

स्वेष्वपत्येषु पक्षपातेन वर्तन्तीं छायां

दृष्ट्वा यमः स्वपितरमाह नेयमस्मन्मातेति ॥१५॥

पितापि तच्छुत्वा भार्यां प्राह ।

सर्वेष्वपत्येषु सममेव वर्ततामिति ॥१६॥

पुनरपि स्वेषपत्येषु स्नेहात् प्रवर्तन्तीं छायां

दृष्ट्वा यमो यमी च तां बहुविधमपीत्थमुवाच ।

आदित्यसंनिधानात् तूष्णीं बभूवतुः ॥१७॥

ततश्छाया तयोः शापं दत्तवती ।

यम त्वं प्रेतराजो भव यमि

त्वं यमुना नाम नदी भवेति ॥१८॥

ततः क्रोधादादित्योऽपि छायापुत्रयोः

शापं दत्तवान् हे पुत्र शनैश्चर त्वं ग्रहो भव

क्रूरदृष्टिर्मन्दगामी च पापग्रहस्त्वं च ॥१९॥

पुत्रि तपती नाम नदी भवेति ।

अथादित्यो ध्यानमास्थाय संज्ञा

क्व स्थितेति विचारयामास ॥२०॥

अदितिनन्दन सूर्य ने भी उसे संज्ञा ही मानकर उस अपनी जाया ( भार्या ) - रुपधारिणी छाया के गर्भ से पुनः मनु, शनैश्चर तथा तपती - इन तीन संतानों को उत्पन्न किया । छाया को अपनी संतानों के प्रति पक्षपातपूर्ण बर्ताव करते देखकर यम ने अपने पिता से कहा - ' तात ! यह हमलोगों की माता नहीं है ।' पिता ने भी जब यह सुना, तब उस भार्या से कहा - 'सब संतानों के प्रति समानरुप से ही बर्ताव करो ।' फिर भी छाया को अपनी ही संतानों के प्रति अधिक स्नेहपूर्ण बर्ताव करते देख यम और यमी ने उसे बहुत कुछ बुरा भला कहा, किंतु जब सूर्यदेव पास आये, तब वे दोनों चुप हो रहे । यह देख छाया ने उन दोनों को शाप देते हुए कहा - ''यम ! तुम प्रेतों के राजा बनो और यमी ! तू 'यमुना' नामक नदी हो जा ।'' छाया का यह क्रूरतापूर्ण बर्ताव देखकर भगवान् सूर्य भी कुपित हो उठे और उसके पुत्रों को शाप देते हुए बोले - '' बेटा शनैश्वर ! तू क्रूरतापूर्ण दृष्टि से देखनेवाला मन्दगामी ग्रह हो जा । तेरी गणना पापग्रहों में होगी । बेटी तपती ! तू भी 'तपती' नाम की नदी हो जा !'' इसके बाद भगवान् सूर्य ध्यानस्थ होकर विचार करने लगे कि 'संज्ञा' कहाँ है ॥१४ - २०॥

स दृष्ट्वानुत्तरकुरुषु ध्यानचक्षुषाश्वीभूय विचरन्तीम् ।

स्वयं चाश्वरुपेण तत्र गत्वा तया सह सम्पर्कं कृतवान् ॥२१॥

तस्यामेवादित्यादश्विनावुत्पन्नौ तयोरतिशयवपुषोः

साक्षात् प्रजापतिरागत्य देवत्वं यज्ञभागत्वं

मुख्यं च देवानां भिषजत्वं दत्त्वा जगाम ।

आदित्यश्चाश्वरुपं विहाय स्वभार्यां संज्ञां

त्वाष्ट्रीं स्वरुपधारिणीं नीत्वा स्वरुपमास्थाय दिवं जगाम ॥२२॥

विश्वकर्मा चागत्य आदित्यं नामभिः स्तुत्वा

तदतिशयोष्णतांशतामपशातयामास ॥२३॥

उन्होंने ध्यान – नेत्र से देखा, संज्ञा उत्तरकुरु में 'अश्वा' का रुप धारण करके विचर रही है । तब वे स्वयं भी अश्व का रुप धारण करके वहाँ गये । जाकर उन्होंने उसके साथ समागम किया । उस अश्वारुपधारिणी संज्ञा के ही गर्भ से सूर्य के वीर्य से दोनों 'अश्विनीकुमार' उत्पन्न हुए । उनके शरीर सब देवताओं से अधिक सुन्दर थे । साक्षात् ब्रह्मजी नें वहाँ पधारकर उन दोनों कुमारों को देवत्व तथा यज्ञों में भाग प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया । साथ ही उन्हें देवताओं का प्रधान वैद्य बना दिया । इसके बाद ब्रह्माजी चले गये । फिर सूर्यदेव ने अश्व का रुप त्यागकर अपना स्वरुप धारण कर लिया । त्वष्टा प्रजापति की पुत्री संज्ञा भी अश्वा का रुप छोड़कर अपने साक्षात् स्वरुप में प्रकट हो गयी । उस अवस्था में सूर्यदेव त्वष्टा की पुत्री अपनी पत्नी संज्ञा को आदित्यलोक में ले गये । तदनन्तर विश्वकर्मा सूर्य के पास आये और उन्होंने विविध नामों द्वारा उनका स्तवन किया तथा उनकी अनुमति से ही उनके श्रीअङ्गों की अतिशय उष्णता के अंश को कुछ शान्त कर दिया ॥२१ - २३॥

एवं वः कथिता विप्रा अश्विनोत्पत्तिरुत्तमा ।

पुण्या पवित्रा पापघ्नी भरद्वाज महामते ॥२४॥

आदित्यपुत्रौ भिषजौ सुराणां दिव्येन रुपेण विराजमानौ ।

श्रुत्वा तयोर्जन्म नरः पृथिव्यां भवेत् सुरुपो दिवि मोदते च ॥२५॥

महामते भरद्वाज तथा अन्य ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आपलोगों से दोनों अश्विनीकुमारों के जन्म की उत्तम, पुण्यमयी, पवित्र एवं पापनाशक कथा कह सुनायी । सूर्य के वे दोनों पुत्र देवताओं के वैद्य हैं । अपने दिव्यरुप से सदा प्रकाशित होते रहते हैं । उन दोनों के जन्म की कथा सुनकर मनुष्य इस भूतल पर सुन्दर रुप से सुशोभित होता है और अन्त में स्वर्गलोक में जाकर वहाँ आनन्द का अनुभव करता है ॥२४ - २५॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे अश्विनोरुत्पत्तिर्नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'दोनों अश्विनीकुमारों की उत्त्पत्ति' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१८॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 19

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