नरसिंहपुराण अध्याय १९

नरसिंहपुराण अध्याय १९  

नरसिंहपुराण अध्याय १९ में विश्वकर्मा द्वारा १०८ नामों से भगवान् सूर्य का स्तवन का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १९

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १९  

Narasingha puran chapter 19

नरसिंह पुराण उन्नीसवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय १९    

श्रीनरसिंहपुराण एकोनविंशोऽध्यायः  

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

नरसिंहपुराण

अध्याय १९

भरद्वाज उवाच

यैः स्तुतो नामभिस्तेन सविता विश्वकर्मणा ।

तान्यहं श्रोतुमिच्छामि वद सूत विवस्वतः ॥१॥

भरद्वाजजी बोले - सूतजी ! विश्वकर्मा ने जिन नामों के द्वारा भगवान् सूर्य का स्तवन किया था, उन्हें मैं सुनना चाहता हूँ। आप सूर्यदेव के उन नामों का वर्णन करें ॥१॥

सूत उवाच

तानि मे श्रृणु नामानि यैः स्तुतो विश्वकर्मणा ।

सविता तानि वक्ष्यामि सर्वपापहराणि ते ॥२॥

सूतजी ने कहा - ब्रह्मन् ! विश्वकर्मा ने जिन नामों द्वारा भगवान् सविता का स्तवन किया था, उन सर्वपापहारी नामों को तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो ॥२॥

सूर्य १०८ नाम स्तवन

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् ।

तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्ड आशुगः ॥३॥

१. आदित्यः – अदिति के पुत्र, २. सविताः- जगत के उत्पादक, ३. सूर्यः- सम्पत्ति एवं प्रकाश के स्रष्टा. ४. खगः- आकाश में विचरनेवाले, ५. पूषाः- सबका पोषण करनेवाले, ६. गभस्तिमान्- सहस्रों किरणों से युक्त, ७. तिमिरोन्मथनः- अन्धकारनाशक, ८. शम्भुः- कल्याणकारी, ९. त्वष्टाः- विश्वकर्मा अथवा विश्वरुपी शिल्प के निर्माता, १०. मार्तण्डः- मृत अण्ड से प्रकट, ११. आशुगः- शीघ्रगामी ॥३॥

हिरण्यगर्भः कपिलस्तपनो भास्करो रविः ।

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शम्भुस्तिमिरनाशनः ॥४॥

१२. हिरण्यगर्भः- ब्रह्मा, १३. कपिलः- कपिलवर्णवाले अथवा कपिलमुनिस्वरुप, १४. तपनः- तपने या ताप देनेवाले, १५. भास्करः- प्रकाशक, १६. रविः- रव- वेदत्रयी की ध्वनि से युक्त अथवा भूतल के रसों का आदान (आकर्षण) करनेवाले, १७. अग्निगर्भः- अपने भीतर अग्निमय तेज को धारण करनेवाले, १८. अदितेः पुत्रः- अदितिदेवी के पुत्र, शम्भुः- कल्याण के उत्पादक, १९. तिमिरनाशनः- अन्धकार का नाश करनेवाले ॥४॥

अंशुमानंशुमाली च तमोघ्नस्तेजसां निधिः ।

आतपी मण्डली मृत्युः कपिलः सर्वतापनः ॥५॥

२०. अंशुमान्- अनन्त किरणों से प्रकाशमान, २१. अंशुमाली- किरणमालामण्डित, २२. तमोघ्नः- अन्धकारनाशक, २३. तेजसां निधिः- तेज अथवा प्रकाश के भण्डार, २४. आतपीः- आतप या घाम प्रकट करनेवाले, २५. मण्डलीः- अपने मण्डल या विम्ब से युक्त, २६. मृत्युः- मृत्युस्वरुप अथवा मृत्यु के अधिष्ठाता यम को जन्म देनेवाले, २७. कपिलः सर्वतापनः- भूरी या सुनहरी किरणों से युक्त होकर सबको संताप देनेवाले ॥५॥

हरिर्विश्वो महातेजाः सर्वरत्नप्रभाकरः ।

अंशुमाली तिमिरहा ऋग्यजुस्सामभावितः ॥६॥

२८. हरिः- सूर्य अथवा पापहारी, २९. विश्वः- सर्वरुप, ३०. महातेजाः- महातेजस्वी, ३१. सर्वरत्न प्रभाकरः- सम्पूर्ण रत्नों तथा प्रभापुञ्ज को प्रकट करनेवाले, ३२. अंशुमाली तिमिरहाः- किरणों की माला धारण करके अन्धकार को दूर करनेवाले, ३३. ऋग्यजुस्सामभावितः- ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद- इन तीनों के द्वारा भावित या प्रतिमादित ॥६॥

प्राणाविष्करणो मित्रः सुप्रदीपो मनोजवः ।

यज्ञेशो गोपतिः श्रीमान् भूतज्ञः क्लेशनाशनः ॥७॥

३४. प्राणाविष्करणः- प्राणों के आधारभूत अन्न आदि की उत्पत्ति और जल की वृष्टि करनेवाले, ३५. मित्रः- 'मित्र' नामक आदित्य अथवा सबके सुहृद, ३६. सुप्रदीपः- भलीभाँति प्रकाशित होनेवाले अथवा सर्वत्र उत्तम प्रकाश बिखेरनेवाले, ३७. मनोजवः- मन के समान या उससे भी अधिक तीव्र वेगवाले, ३८. यज्ञेशः- यज्ञों के स्वामी नारायणस्वरुप, ३९. गोपतिः- किरणों के स्वामी अथवा भूमि एवं गौओं के पालक, ४०. श्रीमान्- कान्तिमान्, ४१. भूतज्ञः- सम्पूर्ण भूतों के ज्ञाता अथवा भूतकाल की बातों को भी जाननेवाले, ४२. क्लेशनाशनः- सब प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाले ॥७॥

अमित्रहा शिवो हंसो नायकः प्रियदर्शनः ।

शुद्धो विरोचनः केशी सहस्त्रांशुः प्रतर्दनः ॥८॥

४३. अमित्रहाः- शत्रुनाशक, ४४. शिवः- कल्याणस्वरुप, ४५. हंसः- आकाशरुपी सरोवर में विचरनेवाले एकमात्र राजहंस अथवा सबके आत्मा, ४६. नायकः- नेता अथवा नियन्ता, ४७. प्रियदर्शनः- सबका प्रिय देखने या चाहनेवाले अथवा जिनका दर्शन प्राणिमात्र को प्रिय है, ऐसे, ४८. शुद्धः- मलिनता से रहित, ४९. विरोचनः- अत्यन्त प्रकाशमान, ५०. केशीः- किरणरुपी केशों से युक्त, ५१. सहस्त्रांशुः- असंख्य किरणों के पुञ्ज, ५२. प्रतर्दनः- अन्धकार आदि का विशेषरुप से संहार करनेवाले ॥८॥

धर्मरश्मिः पतंगश्च विशालो विश्वसंस्तुतः ।

दुर्विज्ञेयगतिः शूरस्तेजोराशिर्महायशाः ॥९॥

५३. धर्मरश्मिः- धर्ममयी किरणों से युक्त अथवा धर्म के प्रकाशक, ५४. पतंगः- किरणरुपी पंखों से उड़नेवाले आकाशचारी पक्षिस्वरुप, ५५. विशालः- महान् आकारवाले अथवा विशेषरुप से शोभायमान, ५६. विश्वसंस्तुतः- समस्त जगत् जिनकी स्तुति- गुणगान करता है, ऐसे, ५७. दुर्विज्ञेयगतिः- जिनके स्वरुप को जानना या समझना अत्यन्त कठिन है, ऐसे, ५८. शूरः- शौर्यशाली, ५९. तेजोराशिः- तेज के समूह, ६०. महायशाः- महान् यश से सम्पन्न ॥९॥

भ्राजिष्णुर्ज्योतिषामीशो विजिष्णुर्विश्वभावनः ।

प्रभविष्णुः प्रकाशात्मा ज्ञानराशिः प्रभाकरः ॥१०॥

६१. भ्राजिष्णुः- दीप्तिमान्, ६२. ज्योतिषामीशः- तेजोमय ग्रह- नक्षत्रों के स्वामी, ६३. विजिष्णुः- विजयशील, ६४. विश्वभावनः- जगत के उत्पादक, ६५. प्रभविष्णुः- प्रभावशाली अथवा जगत की उत्पत्ति के कारण, ६६. प्रकाशात्माः- प्रकाशस्वरुप, ६७. ज्ञानराशिः- ज्ञाननिधि, ६८. प्रभाकरः- उत्कृष्ट प्रकाश फैलानेवाले ॥१०॥

आदित्यो विश्वदृग् यज्ञकर्ता नेता यशस्करः ।

विमलो वीर्यवानीशो योगज्ञो योगभावनः ॥११॥

६९. आदित्यो विश्वदृक्- आदित्यरुप से जगत के द्रष्टा या साक्षी अथवा सम्पूर्ण संसार के नेत्ररुप, ७०. यज्ञकर्ताः- जगत को जल एवं जीवन प्रदान करके दानयज्ञ सम्पन्न करनेवाले, ७१. नेताः- अन्धकार का नयन अपसारण कर देनेवाले, ७२. यशस्करः- यश का विस्तार करनेवाले । ७३. विमलः- निर्मलस्वरुप, ७४. वीर्यवान् - शक्तिशाली, ७५. ईशः- ईश्वर, ७६. योगज्ञः- भगवान् श्रीहरि से कर्मयोग का ज्ञान प्राप्त करके उसका मनु को उपदेश करनेवाले, ७७. योगभावनः- योग को प्रकट करनेवाले ॥११॥

अमृतात्मा शिवो नित्यो वरेण्यो वरदः प्रभुः ।

धनदः प्राणदः श्रेष्ठः कामदः कामरुपधृक् ॥१२॥

७८. अमृतात्मा शिवः- अमृतस्वरुप शिव, ७९. नित्यः- सनातन, ८०. वरेण्यः- वरणीय- आश्रय लेनेयोग्य, ८१. वरदः- उपासक को मनोवाञ्छित वर देनेवाले, ८२. प्रभुः- सब कुछ करने में समर्थ, ८३. धनदः- धनदान करनेवाले, ८४. प्राणदः- प्राणदाता, ८५. श्रेष्ठः- सबसे उत्कृष्ट, ८६. कामदः- मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले, ८७. कामरुपधृक्- इच्छानुसार रुप धारण करनेवाले ॥१२॥

तरणिः शाश्वतः शास्ता शास्त्रज्ञस्तपनः शयः ।

वेदगर्भो विभुवीरः शान्तः सावित्रिवल्लभः ॥१३॥

८८. तरणिः- संसारसागर से तारनेवाले, ८९. शाश्वतः सनातन पुरुष, ९०. शास्ताः- शासक या उपदेशक, ९१. शास्त्रज्ञः- समस्त शास्त्रों के ज्ञाता, तपनः- तपनेवाले या ताप देनेवाले, ९२. शयः सबके अधिष्ठान या आश्रय, ९३. वेदगर्भः- शुक्लयजुर्वेद को प्रकट करनेवाले, ९४. विभुः- सर्वत्र व्यापक, ९५. वीरः- शूरवीर, ९६. शान्तः शमयुक्त, ९७. सावित्रिवल्लभः- गायत्रीमन्त्र के अधिदेवता ॥१३॥

ध्येयो विश्वेश्वरो भर्ता लोकनाथो महेश्वरः ।

महेन्द्रो वरुणो धाता विष्णुरग्निर्दिवाकरः ॥१४॥

९८. ध्येयः- ध्यान करनेयोग्य, ९९. विश्वेश्वरः- सम्पूर्ण जगत के ईश्वर, १००. भर्ताः- सबका भरण पोषण करनेवाले, १०१. लोकनाथः- संसार के रक्षक, १०२. महेश्वरः- परमेश्वर, १०३. महेन्द्रः- देवराज इन्द्रस्वरुप, १०४. वरुणः- पश्चिम दिशा के अधिपति 'वरुण' नामक आदित्य, १०५. धाताः- जगत का धारण पोषण करनेवाले अथवा 'धाता' नामक आदित्य, १०६. विष्णुः- व्यापक अथवा 'विष्णु' नामक आदित्य, १०७. अग्निः- अग्निस्वरुप, १०८. दिवाकरः- रात्रि का अंधकार दूर करके प्रकाशपूर्ण दिन को प्रकट करनेवाले ॥१४॥

एतैस्तु नामभिः सूर्यः स्तुतस्तेन महात्मना ।

उवाच विश्वकर्माणं प्रसन्नो भगवान् रविः ॥१५॥

उन महात्मा विश्वकर्मा ने उपर्युक्त नामों द्वारा भगवान् सूर्य का स्तवन किया । इससे भगवान् सूर्य को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे उन विश्वकर्मा से बोले ॥१५॥

भ्रमिमारोप्य मामत्र मण्डलं मम शातय ।

त्वद्वद्धिस्थं मया ज्ञातमेवमौष्ण्यं शमं व्रजेत् ॥१६॥

प्रजापते ! आपकी बुद्धि में जो बात हैं- आप जिस उद्देश्य को लेकर आये हैं, वह मुझे ज्ञात हैं । अतः आप मुझे शाणचक्र पर चढ़ाकर मेरे मण्डल को छाँट दें; इससे मेरी उष्णता कुछ कम हो जायगी ॥१६॥

इत्युक्तो विश्वकर्मा च तथा स कृतवान् द्विज ।

शान्तोष्णः सविता तस्य दुहितुर्विश्वकर्मणः ॥१७॥

संज्ञायाश्चाभवद्विप्र भानुस्त्वष्टारमब्रवीत् ।

ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य के यों कहने पर विश्वकर्मा ने वैसा ही किया । विप्रवर ! उस दिन से प्रकाशस्वरुप सविता विश्वकर्मा की बेटी संज्ञा के लिये शान्त हो गये तथा उनकी उष्णता कम हो गयी । इसके बाद वे त्वष्टा से बोले ॥१७१/२॥

त्वया यस्मात् सुतोऽहं वै नाम्नामष्टशतेन च ॥१८॥

वरं वृणीष्व तस्मात् त्वं वरदोऽहं तवानघ ।

अनघ ! चूँकि आपने एक सौ आठ नामों के द्वारा मेरी स्तुति की है, इसलिये मैं प्रसन्न होकर आपको वर देने के लिये उद्यत हूँ । कोई वर माँगिये ॥१८१/२॥

इत्युक्तो भानुना सोऽथ विश्वकर्माब्रवीदिदम् ॥१९॥

वरदो यदि मे देव वरमेतं प्रयच्छ मे ।

एतैस्तु नामभिर्यस्त्वां नरः स्तोष्यति नित्यशः ॥२०॥

तस्य पापक्षयं देव कुरु भक्तस्य भास्कर ॥२१॥

भगवान् सूर्य के यों कहने पर विश्वकर्मा बोले - देव ! यदि आप मुझे वर देने को उद्यत हैं तो यह मुझे वर प्रदान कीजिये - 'देव भास्कर ! जो मनुष्य इन नामों के द्वारा प्रतिदिन आपकी स्तुति करे, उस भक्तपुरुष के सारे पापों का आप नाश कर दें' ॥१९ - २१॥

तेनैवमुक्तो दिनकृत् तथेति

त्वष्टारमुक्त्वा विरराम भास्करः ।

संज्ञां विशङ्कां रविमण्डलस्थितां

कृत्वा जगामाथ रविं प्रसाद्य ॥२२॥

विश्वकर्मा के यों कहने पर दिन प्रकट करनेवाले भगवान् भास्कर उनसे 'बहुत अच्छा' कहकर चुप हो गये, तत्पश्चात् सूर्यमण्डल में निवास करनेवाली संज्ञा को निर्भय करके, सूर्यदेव को संतुष्टकर विश्वकर्मा अपने स्थान को चले गये ॥२२॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे एकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१९॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 20 

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