नरसिंहपुराण अध्याय १०
नरसिंहपुराण अध्याय १० में मार्कण्डेय
का विवाह कर वेदशिरा को उत्पन्न करके प्रयाग में अक्षयवट के नीचे तप एवं भगवान् की
स्तुति करना; फिर आकाशवाणी के अनुसार स्तुति
करने पर भगवान् का उन्हें आशीर्वाद एवं वरदान देना तथा मार्कण्डेयजी का क्षीरसागर
में जाकर पुनः उनका दर्शन करने का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १०
Narasingha puran
chapter 10
नरसिंह पुराण दसवाँ अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय १०
श्रीनरसिंहपुराण दशमोऽध्यायः
॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥
श्रीव्यास उवाच
जित्वैवमात्मनो मृत्युं तपसा
शंसितव्रतः ।
स जगाम पितुर्गेहं मार्कण्डेयो
महामतिः ॥१॥
कृत्वा विवाहं धर्मेण
भृगोर्वाक्यविशेषतः ।
स वेदशिरसं पुत्रमुत्पाद्य च
विधानतः ॥२॥
इष्ट्वा यज्ञैस्तु देवेशं
नारायणमनायम् ।
श्राद्धेन तु पितृनिष्टवा अन्नदानेन
चातिथीन् ॥३॥
प्रयागमासाद्य पुनः स्नात्वा तीर्थे
गरीयसि ।
मार्कण्डेयो महातेजास्तेपे वटतले
तपः ॥४॥
यस्य प्रसादेन पुरा जितवान्
मृत्युमात्मनः ।
तं देवं द्रष्टुमिच्छन् यः स तेपे
परमं तपः ॥५॥
वायुभक्षश्चिरं कालं तपसा
शोषयंस्तनुम् ।
एकदा तु महातेजा मार्कण्डेयो
महामतिः ॥६॥
आराध्य माधवं देव गन्धपुष्पादिभिः
शुभैः ।
अग्रे व्यग्रमनाः स्थित्वा हदये
तमनुस्मरन् ।
शङ्खचक्रगदापाणिं तुष्टाव
गरुडध्वजम् ॥७॥
श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस
प्रकार तपस्या द्वारा अपनी जीतकर प्रशंसित व्रतवाले महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी
पिता के घर गये । वहाँ भृगुजी के विशेष आग्रह से धर्मपूर्वक विवाह करके उन्होंने
विधि के अनुसार 'वेदशिरा' नामक एक पुत्र उत्पन्न किया । तत्पश्चात् निरामय ( निर्विकार ) देवेश्वर
भगवान् नारायण का यज्ञों द्वारा यजन करते हुए उन्होंने श्राद्ध से पितरों का और
अन्नदान से अतिथियों का पूजन किया । इसके बाद पुनः प्रयाग में जाकर वहाँ के
श्रेष्ठतम तीर्थ त्रिवेणी में स्नान करके महातेजस्वी मार्कण्डेयजी अक्षयवट के नीचे
तप करने लगे । जिनके कृपाप्रसाद से उन्होंने पूर्वकाल में मृत्यु पर विजय प्राप्त
की थी, उन्हीं देवाधिदेव के दर्शन की इच्छा से उन्होंने
उत्कृष्ट तपस्या आरम्भ की । दीर्घकालतक केवल वायु पीकर तपस्या द्वारा अपने शरीर को
सुखाते हुए वे महातेजस्वी महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी एक दिन गन्ध - पुष्प आदि शुभ
उपकरणों से भगवान् वेणीमाधव की आराधना करके उनके सम्मुख स्वस्थचित्त से खड़े हो गये
और हदय में उन्हीं शङ्ख - चक्र - गदाधारी गरुडध्वज भगवान् विष्णु का ध्यान करते
हुए उनकी स्तुति करने लग ए ॥१ - ७॥
मार्कण्डेय उवाच
नरं नृसिंहं नरनाथमच्युतं
प्रलम्बबाहुं कमलायतेक्षणम् ।
क्षितीश्वरैरर्चितपादपङ्कजं
नमामि विष्णुं पुरुषं पुरातनम् ॥८॥
मार्कण्डेयजी बोले - जो भगवान्
श्रेष्ठ नर, नृसिंह और नरनाथ (मनुष्यों के
स्वामी) हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी हैं, नेत्र
प्रफुल्ल कमलके समान विशाल हैं तथा चरणारविन्द असंख्य भूपतियोंद्वारा पूजित हैं,
उन पुरातन पुरुष भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ ।
जगत्पतिं क्षीरसमुद्रमन्दिरं
तं शार्ङ्गपाणिं मुनिवृन्दवन्दितम्
।
श्रियः पति श्रीधरमीशमीश्वरं
नमामि गोविन्दमनन्तवर्चसम् ॥९॥
जो संसार के पालक हैं,
क्षीरसमुद्र जिनका निवास- स्थान है, जो हाथ में
शार्ङ्गधनुष धारण किये रहते हैं, मुनिवृन्द जिनकी वन्दना
करते हैं, जो लक्ष्मी के पति हैं और लक्ष्मी को निन्तर अपने
हदय में धारण करते हैं, उन सर्वसमर्थ, सर्वेश्वर,
अनन्त तेजोमय भगवान् गोविन्द को मैं प्रणम करता हूँ ।
अजं वरेण्यं जनदुःखनाशनं
गुरुं पुराणं पुरुषोत्तमं प्रभुम् ।
सहस्त्रसूर्यद्युतिमन्तमच्युतं
नमामि भक्त्या हरिमाद्यमाधवम् ॥१०॥
जो अजन्मा,
सबके वरणीय, जन- समुदाय के दुःखों का नाश
करनेवाले, गुरु, पुराण- पुरुषोत्तम एवं
सबके स्वामी हैं, सहस्रों सूर्यों के समान जिनकी कान्ति है
तथा जो अच्युतस्वरुप हैं, उन आदिमाधव भगवान् विष्णु को मैं
भक्तिभाव से प्रणाम करता हूँ ।
पुरस्कृतं पुण्यवतां परां गतिं
क्षितीश्वरं लोकपतिं प्रजापतिम् ।
परं पराणामपि कारणं हरिं
नमामि लोकत्रयकर्मसाक्षिणम् ॥११॥
जो पुण्यात्मा भक्तों के ही समक्ष
सगुण- साकार रुप से प्रकट होते हैं, सबकी
परमगति हैं, भूमि, लोक और प्रजाओं के
पति हैं, 'पर' अर्थात् कारणों के भी
परम कारण हैं तथा तीनों लोकों के कर्मों के साक्षी हैं, उन
भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भोगे त्वनन्तस्य पयोदधौ सुरः
पुरा हि शेते भगवाननादिकृत् ।
क्षीरोदवीचीकणिकाम्बुनोक्षितं
तं श्रीनिवासं प्रणतोऽस्मि केशवम्
॥१२॥
जो अनादि विधाता भगवान् पूर्वकाल में
क्षीरसमुद्र के भीतर 'अनन्त' नामक शेषनाग के शरीररुपी शय्यापर सोये थे, क्षीरसिन्धु
की तरङ्गों के जलकणों से अभिषिक्त होनेवाले उन लक्ष्मीनिवास भगवान् केशव को मैं
प्रणाम करता हूँ ।
यो नारसिंहं वपुरास्थितो महान्
सुरो मुरारिर्मधुकैटभान्तकृत् ।
समस्तलोकार्तिहरं हिरण्यकं
नमामि विष्णुं सततं नमामि तम् ॥१३॥
जिन्होंने नरसिंहस्वरुप धारण किया
है,
जो महान् देवता हैं, मुर दैत्य के शत्रु हैं,
मधु तथा कैटभ नामक दैत्यों का अन्त करनेवाले हैं और समस्त लोकों की
पीड़ा दूर करनेवाले एवं हिरण्यगर्भ हैं, उन भगवान् विष्णु को
मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।
अनन्तमव्यक्तमतीन्द्रियं विभुं स्वे
स्वे हि रुपे स्वयमेव संस्थितम् ।
योगेश्वरैरेव सदा नमस्कृतं
नमामि भक्त्या सततं जनार्दनम् ॥१४॥
जो अनन्त,
अव्यक्त, इन्द्रियातीत, सर्वव्यापी
और अपने विभिन्न रुपों में स्वयं ही प्रतिष्ठित हैं तथा योगेश्वररगण जिनके चरणों में
सदा ही मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान् जनार्दन को मैं
भक्तिपूर्वक निरन्तर प्रणाम करता हूँ ।
आनन्दमेकं विरजं विदात्मकं
वृन्दालयं योगिभिरेव पूजितम् ।
अणोरणीयांसमवृद्धिमक्षयं
नमामि भक्तप्रियमीश्वरं हरिम् ॥१५॥
जो आनन्दमय,
एक (अद्वितीय), रजोगुण से रहित, ज्ञानस्वरुप, वृन्दा (लक्ष्मी) - के धाम और योगियों द्वारा
पूजित हैं; जो अणु से भी अत्यन्त अणु और वृद्धि तथा क्षय से
शून्य हैं, उन भक्तप्रिय भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता
हूँ ॥८ - १५॥
श्रीव्यास उवाच
इति स्तोत्रावसाने तं
वागुवाचाशरीरिणी ।
मार्कण्डेयं महाभागं तीर्थेऽनु तपसि
स्थितम् ॥१६॥
किमर्थं क्लिश्यते ब्रह्मंस्त्वया
यो नैव दृश्यते ।
माधवः सर्वतीर्थेषु यावन्न
स्नानमाचरेः ॥१७॥
इत्युक्तः सर्वतीर्थेषु स्नात्वोवाच
महामतिः ।
कृत्वा कृत्वा सर्वतीर्थे स्नानं
चैव कृतं भवेत् ।
तद्वद त्वं मम प्रीत्या योऽसि सोऽसि
नमोऽस्तु ते ॥१८॥
श्रीव्यासजी कहते हैं - वत्स ! इस
प्रकार स्तुति समाप्त होनेपर उस तीर्थ में तपस्या करनेवाले उन महाभाग मार्कण्डेयजी
से आकाशवाणी ने कहा - 'ब्रह्मन ! क्यों
क्लेश उठा रहे हो, तुम्हें जो भगवान् माधव का दर्शन नहीं हो
रहा है, वह तभीतक जबतक तुम समस्त तीर्थो में स्नान नहीं कर
लेते 'उसके यों कहने पर महामति मार्कण्डेयजी ने समस्त
तीर्थों में स्नान किया (परंतु जब फिर भी दर्शन नहीं हुआ, तब
उन्होंने आकाशवाणी को लक्ष्य करके कहा - ) 'जो कार्य करने से
समस्त तीर्थो में स्नान करना सफल होता है, अथवा समस्त तीर्थो
में स्नान का फल मिल जाता है, वह कार्य मुझे प्रसन्न होकर आप
बतलाइये । आप जो भी हों, आपको नमस्कार हैं' ॥१६ - १८॥
वागुवाच
स्तोत्रेणानेन विप्रेन्द्र स्तुहि
नारायणं प्रभुम् ।
नान्यथा सर्वतीर्थानां फलं प्राप्स्यासि
सुव्रत ॥१९॥
आकाशवाणी ने कहा - विप्रेन्द्र !
सुव्रत ! इस स्तोत्र से प्रभुवर नारायण का स्तवन करो;
और किसी उपाय से तुम्हें समस्त तीर्थों का फल नहीं प्राप्त होगा
॥१९॥
मार्कण्डेय उवाच
तदेवाख्याहि भगवन् स्तोत्रं
तीर्थफलप्रदम् ।
येन जप्तेन सकलं तीर्थस्नानफलं
लभेत् ॥२०॥
मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! जिसका
जप करने से तीर्थस्रान का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है,
वह तीर्थफलदायक स्तोत्र कौन - सा है ? उसे ही
मुझे बताइये ॥२०॥
वागुवाच
जय जय देवदेव जय माधव केशव ।
जय पद्मपलाशाक्ष जय गोविन्द गोपते
॥२१॥
आकाशवाणी ने कहा - देवदेव ! माधव !
केशव ! आपकी जय हो, जय हो ! आपके नेत्र
प्रफुल्ल कमलदले समान शोभा पाते हैं । गोविन्द ! गोपते ! आपकी जय हो, जय हो ।
जय जय पद्मनाभ जय वैकुण्ठ वामन ।
जय पद्म हषीकेश जय दामोदराच्युत
॥२२॥
पद्मनाभ ! वैकुण्ठ ! वामन ! आपकी जय
हो,
जय हो, जय हो । पद्मस्वरुप हषीकेश ! आपकी जय
हो ! दामोदर ! अच्युत ! आपकी जय हो ।
जय पद्मेश्वरानन्त जय लोकगुरो जय ।
जय शङ्खगदापाणे जय भूधरसूकर ॥२३॥
लक्ष्मीपते ! अनन्त ! आपकी जय हो । लोकगुरो
! आपकी जय हो, जय हो ! शङ्ख और गदा धारण
करनेवाले तथा पृथ्वी को उठानेवाले भगवान् वाराह ! आपकी जय हो, जय हो ।
जय यज्ञेश वाराह जय भूधर भूमिप ।
जय योगेश योगज्ञ जय योगप्रवर्त्तक
॥२४॥
यज्ञेश्वर ! पृथ्वी का धारण तथा
पोषण करनेवाले वाराह ! आपकी जय हो, जय
हो ! योग के ईश्वर, ज्ञाता और प्रवर्तक! आपकी जय हो, जय हो।
जय योगप्रवर्तक जय धर्मप्रवर्त्तक ।
कृतप्रिय जय जय यज्ञेश यज्ञाङ्ग जय
॥२५॥
योग और धर्म के प्रवर्तक! आपकी जय
हो,
जय हो। कर्मप्रिय ! यज्ञेश्वर! यज्ञाङ्ग! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।
जय वन्दितसदद्विज जय नारदसिद्धिद ।
जय पुण्यवतां गेह जय वैदिकभाजन ॥२६॥
उत्तम ब्राह्मणों की वन्दना करने-
उन्हें सम्मान देनेवाले देवता ! आपकी जय हो और नारदजी को सिद्धि देनेवाले परमेश्वर
! आपकी जय हो । पुण्यवानों के आश्रय, वैदिक
वाणी के चरम तात्पर्यभूत एवं वेदोक्त कर्मों के परम आश्रय नारायण ! आपकी जय हो,
जय हो ।
जय जय चतुर्भुज ( श्री ) जयदेव जय
दैत्यभयावह ।
जय सर्वज्ञ सर्वात्मन् जय शंकर
शाश्वत ॥२७॥
चतुर्भुज ! आपकी जय हो । दैत्यो को
भय देनेवाले श्रीजयदेव ! आपकी जय हो, जय
हो । सर्वज्ञ ! सर्वात्मन् आपकी जय हो ! सनातदेव ! कल्याणकारी भगवान् ! आपकी जय हो,
जय हो ।
जय विष्णो महादेव जय नित्यमधोक्षज ।
प्रसादं कुरु देवेश दर्शयाद्य
स्वकां तनुम् ॥२८॥
महादेव ! विष्णो ! अधोक्षज !
देवेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये और आज मुझे अपने स्वरुप का प्रत्यक्ष दर्शन
कराइये ॥२१ - २८॥
व्यास उवाच
इत्येवं कीर्तिते तेन मार्कण्डेयेन
धीमता ।
प्रादुर्बभूव भगवान् पीतवासा
जनार्दनः ॥२९॥
शङ्खचक्रगदापाणिः सर्वाभरणभूषितः ।
तेजसा द्योतयन् सर्वा दिशो विष्णुः
सनातनः ॥३०॥
तं दृष्ट्वा सहसा भूमौ
चिरप्रार्थितदर्शनम् ।
प्रयातः शिरसा वश्यो भक्त्या स
भृगुन्दनः ॥३१॥
निपत्योत्पत्य च पुनः पुनः साङ्गं
महामनाः ।
प्रबद्धसम्पुटकरो गोविन्दं पुरतः
स्तुवन् ॥३२॥
श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव !
आकाशवाणी के कथनानुसार जब बुद्धिमान् मार्कण्डेयजी ने इस प्रकार भगवन्नामों का
कीर्तन किया, तब पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन
वहाँ प्रकट हो गये । वे सनातन भगवान् विष्णु हाथों में शङ्ख चक्र और गदा लिये,
समस्त आभूषणों से भूषित हो अपने तेज से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित
कर रहे थे । भृगुवंश को आनन्दित करनेवाले मार्कण्डेयजी ने भगवान को, जिनका दर्शन चिरकाल से प्रार्थित था, सहसा सामने
प्रकट हुआ देख, भक्तिविवश हो, भूमि पर
मस्तक रखकर प्रणाम किया । भूमि पर गिर- गिरकर बारंबार साष्टांग प्रणाम करके खड़े हो,
महामना मार्कण्डेय दोनों हाथ जोड़ सामने उपस्थित हुए भगवान की इस
प्रकार स्तुति करने लगे ॥२९ - ३२॥
जनार्दन स्तवन
मार्कण्डेय उवाच
नमोऽस्तु ते देवदेव महाचित्त
महाकाय महाप्राज्ञ महादेव
महाकीर्ते
ब्रह्मेन्द्रचन्द्ररुद्रार्चिंत
पादयुगल श्रीपद्महस्त सम्पर्दितदैत्यदेह
॥३३॥
मार्कण्डेयजी बोले - महामना !
महाकाय ! महामते ! महादेव ! महायशस्वी ! देवाधिदेव ! आपको नमस्कार हैं । ब्रह्मा,
इन्द्र, चन्द्रमा तथा रुद्र निरन्तर आपके
युगलचरणारविन्दों की अर्चना करते हैं । आपके हाथ में शोभाशाली कमल सुशोभित होता है;
आपने दैत्यों के शरीरीं को मसल डाला है, आपको
नमस्कार है ।
अनन्तभोगशयनार्पितसर्वाङ्ग
सनकसनन्दनसनत्कुमाराद्यैर्योगिभि-
र्नासाग्रन्यस्तलोचनैरनवरतमभिचिन्तितमोक्षतत्त्व
।
गन्धर्वविद्याधरयक्षकिंनरकिम्पुरुषैर-
हरहोगीयमानदिव्ययशः ॥३४॥
आप 'अनन्त' नाम से विख्यात शेषनाग के शरीर की शय्या को
अपने सम्पूर्ण अङ्ग समर्पित कर देते हैं- उसी पर शयन करते हैं। सनक, सनन्दन और सनत्कुमार आदि योगीजन अपने नेत्रों की दृष्टि को नासिका के
अग्रभाग पर सुस्थिर करके नित्य निरन्तर जिस मोक्षतत्त्व का चिन्तन करते हैं,
वह आप ही हैं । गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष, किंनर और किम्पुरुष प्रतिदिन आपके ही दिव्य
सुयश का गान करते रहते हैं ।
नृसिंह नारायण पद्मनाभ
गोविन्द गोवर्द्धनगुहानिवास
योगीश्वर देवेश्वर जलेश्वर महेश्वर
॥३५॥
नृसिंह ! नारायण ! पद्मनाभ !
गोविन्द ! गिरिराज गोवर्धन की कन्दरा में क्रीड़ा- विश्रामादि के लिये निवास
करनेवाले ! योगीश्वर ! देवेश्वर ! जलेश्वर और महेश्वर आपको नमस्कार है।
योगधर महामायाधर विद्याक्षर
यशोधर कीर्तिधर त्रिगुणनिवास
त्रितत्त्वधर त्रेताग्निधर ॥३६॥
योगधर! महामायाधर ! विद्याधर !
यशोधर ! कीर्तिधर ! सत्त्वादि तीनों गुणों के आश्रय ! त्रितत्त्वधारी तथा
गार्हपत्यादि तीनों अग्नियों को धारण करनेवाले देव ! आपको प्रणाम है ।
त्रिवेदभाक् त्रिनिकेत
त्रिसुपर्ण त्रिदण्डधर ॥३७॥
आप ऋक्,
साम और यजुष्-इन तीनों वेदों के परम प्रतिपाद्य, त्रिनिकेत (तीनों लोकों के आश्रय), त्रिसुपर्ण,
मन्त्ररूप और त्रिदण्डधारी हैं ऐसे आपको प्रणाम है।
स्निग्धमेघाभार्चितद्युतिविराजित
पीताम्बरधर किरीटकटककेयूरहार-
मणिरत्नांशुदीप्तिविद्योतितसर्वदिश
॥३८॥
स्निग्ध मेघ की आभा के सदृश सुन्दर
श्यामकान्ति से सुशोभित, पीताम्बरधारी,
किरीट, वलय, केयूर और
हारों में जटित मणिरत्नों की किरणों से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले
नारायणदेव! आपको नमस्कार है।
कनकमणिकुण्डलमण्डितगण्डस्थल
मधुसूदन विश्वमूर्ते ॥३९॥
सुवर्ण और मणियों से बने हुए कुण्डल
द्वारा अलंकृत कपोलोंवाले मधुसूदन ! विश्वमूर्ते आपको प्रणाम है।
लोकनाथ यज्ञेश्वर यज्ञप्रिय तेजोमय
भक्तिप्रिय वासुदेव
दुरितापहाराराध्य
पुरुषोत्तम नमोऽस्तु ते ॥४०॥
लोकनाथ यज्ञेश्वर यज्ञप्रिय !
तेजोमय! भक्तिप्रिय वासुदेव! पापहारिन् ! आराध्यदेव पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है ॥
३३–४० ॥
व्यास उवाच
इत्युदीरितमाकर्ण्य भगवांस्तु
जनार्दनः ।
देवदेवः प्रसन्नात्मा
मार्कण्ड्येयमुवाच ह ॥४१॥
श्रीव्यासजी बोले- इस प्रकार स्तवन
सुनकर देवदेव भगवान् जनार्दन ने प्रसन्नचित्त होकर मार्कण्डेयजी से कहा ।। ४१ ।।
श्रीभगवानुवाच
तुष्टोऽस्मि भवतो वत्स तपसा महता
पुनः ।
स्तोत्रैरपि महाबुद्धे नष्टपापोऽसि
साम्प्रतम् ॥४२॥
वरं वरय विप्रेन्द्र वरदोऽहं
तवाग्रतः ।
नाताप्ततपसा ब्रह्मन् द्रष्टुं
साध्योऽहमञ्जसा ॥४३॥
श्रीभगवान् बोले- वत्स! मैं
तुम्हारे महान् तप और फिर स्तोत्र पाठ से तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। महाबुद्धे ! इस
समय तुम्हारा सारा पाप नष्ट हो चुका है। विप्रेन्द्र ! मैं तुम्हारे सम्मुख वर
देने के लिये उपस्थित हैं; वर माँगो ब्रह्मन्
! जिसने तप नहीं किया है. ऐसा कोई भी मनुष्य अनायास ही मेरा दर्शन नहीं पा सकता ॥
४२-४३ ॥
मार्कण्डेय उवाच
कृतकृत्योऽस्मि देवेश साम्प्रतं तव
दर्शनात् ।
त्वद्भक्तिमचलामेकां मम देहि
जगत्पते ॥४४॥
यदि प्रसन्नो भगवन् मम माधव श्रीपते
।
चिरायुष्यं हषीकेश येन त्वां
चिरमर्चये ॥४५॥
मार्कण्डेयजी बोले - देवेश्वर ! इस
समय आपके दर्शन से ही मैं कृतार्थ हो गया । जगत्पते ! अब तो मुझे एकमात्र अपनी
अविचल भक्ति ही दिजिये । माधव ! श्रीपते ! हषीकेश ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो
मुझे चिरकालिक आयु दीजिये मैं चिरकालतक आपकी आराधना कर सकूँ ॥४४ - ४५॥
श्रीभगवानुवाच
मृत्युस्ते निर्जितः पूर्वे
चिरायुस्त्वं च लब्धवान् ।
भक्तिरस्त्वचल ते मे वैष्णवी
मुक्तिदायिनी ॥४६॥
इदं तीर्थ महाभाग त्वन्नाम्ना
ख्यातिमेष्यति ।
पुनस्त्वं द्रक्षसे मां वै
क्षीराब्धौ योगशायिनम् ॥४७॥
श्रीभगवान् बोले – मृत्यु को तो तुम
पहले ही जीत चुके हो, अब चिरकालिक आयु भी
तुम्हें प्राप्त हुई । साथ ही, मेरी मुक्तिदायिनी अविचल
वैष्णवी भक्ति भी तुम्हें प्राप्त हो । महाभाग ! यह तीर्थ आज से तुम्हारे ही नाम से
विख्यात होगा; अब पुनः तुम क्षीरसमुद्र में योगानिद्रा का
आश्रय लेकर सोये हुए मेरा दर्शन पाओंगे ॥४६ - ४७॥
व्यास उवाच
इत्युक्त्वा
पुण्डरीकाक्षस्तत्रैवान्तरधीयत ।
मार्कण्डेयोऽपि धर्मात्मा
चिन्तयन्मधुसूदनम् ॥४८॥
अर्चयन् देवदेवेशं जपन् शुद्धं
नमन्नपि ।
वेदशास्त्राणि पुण्यानि
पुराणान्यखिलानि च ॥४९॥
मुनीनां श्रावयामास गाथाश्चैव
तपोधनः ।
इतिहासानि पुण्यानि पितृतत्त्वं च
सत्तमः ॥५०॥
ततः कदाचित् पुरुषोत्तमोक्तं वचः
स्मरन् शास्त्रविदां वरिष्ठः ।
भ्रमन् समुद्रं स जगाम द्रष्टुं
हरिं सुरेशं मुनिरुग्रतेजाः ॥५१॥
श्रमेण युक्तश्चिरकालसम्भ्रमाद
भृगोः स पौत्रो हरिभक्तिमुद्वहन् ।
क्षीराब्धिमासाद्य हरिं सुरेशं
नागेन्द्रभोगे कृतनिद्रमैक्षत ॥५२॥
श्रीव्यासजी बोले - यों कहकर
कमललोचन भगवान् विष्णु वहीं अदृश्य हो गये । धर्मात्मा,
साधुशिरोमणि, तपोधन मार्कण्डेयजी भी
शुद्धस्वरुप देवदेवेश्वर मधुसुदन का ध्यान, पूजन, जप और नमस्कार करते हुए वहीं रहकर मुनियों को पवित्र वेदशास्त्र, अखिल पुराण, विविध प्रकार की गाथाएँ, पावन इतिहास और पितृतत्त्व भी सुनाने लगे । तदनन्तर किसी समय भगवान्
पुरुषोत्तम के कहे हुए वचन को स्मरण कर, वे शास्त्रवेताओं में
श्रेष्ठ उग्र तेजस्वी मुनि उन सुरेश्वर भगवान् श्रीहरि का दर्शन करने के लिये
घूमते हुए समुद्र की ओर चले । हृदय में भगवान की भक्ती धारण किये चिरकालतक
परिश्रमपूर्वक चलते- चलते क्षीरसागर में पहुँचकर उन भृगु के पौत्र ने नागराज के
शरीररुपी पर्यङ्क पर निद्रामग्र हुए सुरेश्वर भगवान् विष्णु का दर्शन किया ॥४८ -
५२॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे
मार्कण्डेयचरित्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'मार्कण्डेय के चरित्र' वर्णन के प्रसंग में दसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥१०॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 11