श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३"देवहूति को तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपद की प्राप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः त्रयस्त्रिंश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध तैतीसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मैत्रेय उवाच -

एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री

     सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।

विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य

     तुष्टाव तत्त्वविषयाङ्कित सिद्धिभूमिम् ॥ १ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! श्रीकपिल भगवान् के ये वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान् श्रीकपिल जी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं।

देवहूतिरुवाच -

अथाप्यजोऽन्तःसलिले शयानं

     भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।

गुणप्रवाहं सदशेषबीजं

     दध्यौ स्वयं यत् जठराब्जजातः ॥ २ ॥

स एव विश्वस्य भवान् विधत्ते

     गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।

सर्गाद्यनीहोऽवितथाभिसन्धिः

     आत्मेश्वरोऽतर्क्य सहस्रशक्तिः ॥ ३ ॥

स त्वं भृतो मे जठरेण नाथ

     कथं नु यस्योदर एतदासीत् ।

विश्वं युगान्ते वटपत्र एकः

     शेते स्म मायाशिशुरङ्‌घ्रिपानः ॥ ४ ॥

त्वं देहतन्त्रः प्रशमाय पाप्मनां

     निदेशभाजां च विभो विभूतये ।

यथावतारास्तव सूकरादयः

     तथायमप्यात्म पथोपलब्धये ॥ ५ ॥

यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्

     यत्प्रह्वणाद् यत् स्मरणादपि क्वचित् ।

श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते

     कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ६ ॥

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्

     यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।

तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या

     ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७ ॥

तं त्वामहं ब्रह्म परं पुमांसं

     प्रत्यक्स्रोतस्यात्मनि संविभाव्यम् ।

स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं

     वन्दे विष्णुं कपिलं वेदगर्भम् ॥ ८ ॥

देवहूति जी ने कहा- कपिल जी! ब्रह्मा जी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाह से युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है, ध्यान ही किया था। आप निष्क्रिय, सत्यसंकल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। अपनी शक्ति को गुण प्रवाहरूप से ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना आदि करते हैं। नाथ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपंच लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वट वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया।

विभो! आप पापियों का दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तों का अभ्युदय एवं कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से देह धारण किया करते हैं। अतः जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञान मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। भगवन्! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाये-इसमें तो कहना ही क्या है। अहो! वह चाण्डाल भी इसी में सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्थान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन-सब कुछ कर लिया।

कपिलदेव जी! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्तःकरण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेज से माया के कार्य गुण-प्रवाह को शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदर में सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ।

मैत्रेय उवाच -

ईडितो भगवानेवं कपिलाख्यः परः पुमान् ।

वाचाविक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सलः ॥ ९ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- माता के इस प्रकार स्तुति करने पर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेव जी ने उनसे गम्भीर वाणी में कहा।

कपिल उवाच -

मार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।

आस्थितेन परां काष्ठां अचिराद् अवरोत्स्यसि ॥ १० ॥

श्रद्धत्स्वैतन्मतं मह्यं जुष्टं यद्‍ब्रह्मवादिभिः ।

येन मां अभयं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विदः ॥ ११ ॥

कपिलदेव जी ने कहा ;- माताजी! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी। तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मत को नहीं जानते, वे जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं।

मैत्रेय उवाच -

इति प्रदर्श्य भगवान् सतीं तां आत्मनो गतिम् ।

स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोऽनुमतो ययौ ॥ १२ ॥

सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।

तस्मिन् आश्रम आपीडे सरस्वत्याः समाहिता ॥ १३ ॥

अभीक्ष्ण अवगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।

आत्मानं च उग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४ ॥

प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृम्भितम् ।

स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५ ॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।

आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६ ॥

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

रत्‍नप्रदीपा आभान्ति ललना रत्‍नसंयुताः ॥ १७ ॥

गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।

कूजद् विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥

यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।

वाप्यां उत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९ ॥

हित्वा तदीप्सिततमं अप्याखण्डलयोषिताम् ।

किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २० ॥

वनं प्रव्रजिते पत्यौ अपत्यविरहातुरा ।

ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१ ॥

तमेव ध्यायती देवं अपत्यं कपिलं हरिम् ।

बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२ ॥

ध्यायती भगवद्‌रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।

सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३ ॥

भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।

युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४ ॥

विशुद्धेन तदात्मानं आत्मना विश्वतोमुखम् ।

स्वानुभूत्या तिरोभूत मायागुणविशेषणम् ॥ २५ ॥

ब्रह्मण्यवस्थितमतिः भगवति आत्मसंश्रये ।

निवृत्तजीवापत्तित्वात् क्षीणक्लेशाऽऽप्त निर्वृतिः ॥ २६ ॥

नित्यारूढसमाधित्वात् परावृत्तगुणभ्रमा ।

न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७ ॥

तद्देहः परतः पोषोऽपि अकृशश्चाध्यसम्भवात् ।

बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८ ॥

स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।

दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९ ॥

एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम् ।

आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तं अवाप ह ॥ ३० ॥

तद्वीरासीत् पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।

नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥ ३१ ॥

तस्यास्तद्योगविधुतं आर्त्यं मर्त्यमभूत्सरित् ।

स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥ ३२ ॥

कपिलोऽपि महायोगी भगवान् पितुराश्रमात् ।

मातरं समनुज्ञाप्य प्राग् उदीचीं दिशं ययौ ॥ ३३ ॥

सिद्धचारण गन्धर्वैः मुनिभिश्च अप्सरोगणैः ।

स्तूयमानः समुद्रेण दत्तार्हणनिकेतनः ॥ ३४ ॥

आस्ते योगं समास्थाय साङ्ख्याचार्यैरभिष्टुतः ।

त्रयाणामपि लोकानां उपशान्त्यै समाहितः ॥ ३५ ॥

एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोऽहं तवानघ ।

कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्च पावनः ॥ ३६ ॥

य इदमनुशृणोति योऽभिधत्ते

     कपिलमुनेर्मतं आत्मयोगगुह्यम् ।

भगवति कृतधीः सुपर्णकेतौ

     उपलभते भगवत् पदारविन्दम् ॥ ३७ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेश कर श्रीकपिलदेव जी अपनी ब्रह्मवादिनी जननी की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये। तब देवहूति भी सरस्वती के मुकुट सदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योग साधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं।

त्रिकाल स्नान करने से उनकी घुँघराली अलकें भूरि-भूरि जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या से कारण दुर्बल हो गया। उन्होंने प्रजापति कर्दम के तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गार्हस्थ्य सुख को, जिसके लिये देवता तरसते थे, त्याग दिया। जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्या से युक्त हाथी-दाँत के पलंग, सुवर्ण के पात्र, सोने के सिंहासन और उन पर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नों की बनी हुई रमणी-मूर्तियों के सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलों से लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव और मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था, जहाँ की कमलगन्ध से सुवासित बावलियों में कर्दम जी के साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीड़ा के लिये प्रवेश करने पर उसका (देवहूति का) गर्न्धवगण गुणगान किया करते थे और जिसे पाने के लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं-उस गृहोद्यान की भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्र वियोग से व्याकुल होने के कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया। पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे आत्मज्ञान सम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करने वाली गौ।

वत्स विदुर! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान् हरि का चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न घर से भी उपरत हो गयीं। फिर वे, कपिलदेव जी ने भगवान् के जिस ध्यान करने योग्य प्रसन्नवदनारविन्द युक्त स्वरूप का वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयव का तथा उस समग्र रूप का भी चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गयीं। भगवद्भक्ति के प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित कर्मानुष्ठान से उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाले ज्ञान द्वारा चित्त शुद्ध हो जाने पर वे उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूप के प्रकाश से मायाजनित आवरण को दूर कर देता है। इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परमब्रह श्रीभगवान् में ही बुद्धि की स्थति हो जाने से उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द में निमग्न हो गयीं। अब निरन्तर समाधिस्थ रहने के कारण उनकी विषयों के सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही-जैसे जागे हुए पुरुष को अपने स्वप्न में देखे हुए शरीर की नहीं रहती।

उनके शरीर का पोषण भी दूसरों के द्वारा ही होता था, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक क्लेश न होने के कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैल के कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान् में ही चित्त लगा रहने के कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था।

विदुर जी! इस प्रकार देवहूति जी ने कपिलदेव जी के बताये हुए मार्ग द्वारा थोड़े ही समय में नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान् को प्राप्त कर लिया। वीरवर! जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में सिद्धपदनाम से विख्यात हुआ।

साधुस्वभाव विदुर जी! योग साधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार कि सिद्धि देने वाली है। महायोगी भगवान् कपिल जी भी माता की आज्ञा ले पिता के आश्रम से ईशानकोण की ओर चले गये। वहाँ स्वयं समुद्र ने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये योगमार्ग का अवलम्बन कर समाधि में स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं।

निष्पाप विदुर जी! तुम्हारे पूछने से मैंने तुम्हें यह भगवान् कपिल और देवहूति का परम पवित्र संवाद सुनाया। यह कपिलदेव जी का मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान् गरुड़ध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध:" के 33 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब चतुर्थ स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ का पूर्व भाग पढ़े-

अध्याय 32   अध्याय 31   अध्याय 30   अध्याय 29  अध्याय 28

अध्याय 27  अध्याय 26   अध्याय 25    अध्याय 24  अध्याय 23

अध्याय 22   अध्याय 21    अध्याय 01

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 2

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 1

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् श्रीपद्मपुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२"धूममार्ग और अर्चिरादि मार्ग से जाने वालों की गति का और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः द्वात्रिंश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध बत्तीसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मातुः कुक्षौ प्रविष्टस्य जीवस्य देहप्राप्तिवर्णनं गर्भस्थजीवकृता भगवत्स्तुतिः,जीवस्य बाल्यादि अवस्था क्लेशवर्णनं च -

कपिल उवाच -

अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन्गृहे ।

काममर्थं च धर्मान् स्वान् दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥ १ ॥

स चापि भगवद्धर्मात् काममूढः पराङ्‌मुखः ।

यजते क्रतुभिर्देवान् पितॄंश्च श्रद्धयान्वितः ॥ २ ॥

तत् श्रद्धया क्रान्तमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।

गत्वा चान्द्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥ ३ ॥

यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।

तदा लोका लयं यान्ति ते एते गृहमेधिनाम् ॥ ४ ॥

ये स्वधर्मान्न दुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।

निःसङ्गा न्यस्तकर्माणः प्रशान्ताः शुद्धचेतसः ॥ ५ ॥

निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहङ्कृताः ।

स्वधर्माप्तेन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥ ६ ॥

सूर्यद्वारेण ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।

परावरेशं प्रकृतिं अस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥ ७ ॥

द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।

तावद् अध्यासते लोकं परस्य परचिन्तकाः ॥ ८ ॥

क्ष्माम्भोऽनलानिलवियन् मनैन्द्रियार्थ

     भूतादिभिः परिवृतं प्रतिसञ्जिहीर्षुः ।

अव्याकृतं विशति यर्हि गुणत्रयात्मा

     कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयम्भूः ॥ ९ ॥

एवं परेत्य भगवन् तमनुप्रविष्टा

     ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।

तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं

     ब्रह्म प्रधानमुपयान्ति अगताभिमानाः ॥ १० ॥

(अनुष्टुप्)

अथ तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।

श्रुतानुभावं शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥ ११ ॥

आद्यः स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।

योगेश्वरैः कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥ १२ ॥

भेददृष्ट्याभिमानेन निःसङ्गेनापि कर्मणा ।

कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥

स संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।

जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४ ॥

ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।

निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५ ॥

ये त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।

कुर्वन्ति अप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥

कपिलदेव जी कहते हैं ;- माताजी! जो पुरुष घर में रहकर सकामभाव से गृहस्थ के धर्मों का पालन करता है और उनके फलस्वरूप अर्थ एवं काम का उपभोग करके फिर उन्हीं का अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरह की कामनाओं से मोहित रहने के कारण भगवद्धर्मों से विमुख हो जाता है और यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरों की ही आराधना करता रहता है। उसकी बुद्धि उसी प्रकार की श्रद्धा से युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अतः वह चन्द्रलोक में जाकर उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में लौट आता है।

जिस समय प्रलयकाल में शेषशायी भगवान् शेषशय्या पर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियों को प्राप्त होने वाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं। जो विवेकी पुरुष अपने धर्मों का अर्थ और भोग-विलास के लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं-वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्ति धर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य पुरुष स्वधर्म पालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं। वे अन्त में सूर्यमार्ग (आर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं-जो कार्य-कारणरूप जगत् के नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने वाले हैं। जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे दो परार्द्ध में होने वाले ब्रह्मा जी के प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोक में ही रहते हैं। जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी अपने द्विपरार्द्ध काल के अधिकार को भोगकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मिक प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान् ब्रह्मा जी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हीं के साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान् में लीन नहीं हुए; क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष था। इसलिये माताजी! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदयकमल ही उनका मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है।

वेदगर्भ ब्रह्मा जी भी-जो समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों के आदिकारण हैं-मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योग प्रवर्तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्म को प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वभिमान के कारण भगवदिच्छा-से, जब सर्गकाल उपस्थित होता है, तब कालरूप ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होने पर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य को भोगकर भगवदिच्छा से गुणों में क्षोभ होने पर पुनः इस लोक में आ जाते हैं। जिसका चित्त इस लोक में आसक्त है और जो कर्मों में श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का सांगोपांग अनुष्ठान करने में ही लगे रहते हैं।

रजसा कुण्ठमनसः कामात्मानोऽजितेन्द्रियाः ।

पितॄन् यजन्ति अनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥ १७ ॥

त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।

कथायां कथनीयोरु विक्रमस्य मधुद्विषः ॥ १८ ॥

नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।

हित्वा शृण्वन्ति असद्‍गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥ १९ ॥

दक्षिणेन पथार्यम्णः पितृलोकं व्रजन्ति ते ।

प्रजामनु प्रजायन्ते श्मशानान्तक्रियाकृतः ॥ २० ॥

ततस्ते क्षीणसुकृताः पुनर्लोकमिमं सति ।

पतन्ति विवशा देवैः सद्यो विभ्रंशितोदयाः ॥ २१ ॥

तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।

तद्‍गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥ २२ ॥

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्‍ब्रह्मदर्शनम् ॥ २३ ॥

यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।

न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियं अप्रियमित्युत ॥ २४ ॥

स तदैवात्मनात्मानं निःसङ्गं समदर्शनम् ।

हेयोपादेय रहितं आरूढं पदमीक्षते ॥ २५ ॥

ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।

दृश्यादिभिः पृथग्भावैः भगवान् एक ईयते ॥ २६ ॥

एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।

युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यद् असङ्गस्तु कृत्स्नशः ॥ २७ ॥

ज्ञानमेकं पराचीनैः इन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।

अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८ ॥

यथा महान् अहंरूपः त्रिवृत् पञ्चविधः स्वराट् ।

एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यतः ॥ २९ ॥

एतद्वै श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।

समाहितात्मा निःसङ्गो विरक्त्या परिपश्यति ॥ ३० ॥

इत्येतत्कथितं गुर्वि ज्ञानं तद्‍ब्रह्मदर्शनम् ।

येन अनुबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३१ ॥

ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।

द्वयोरप्येक एवार्थो भगवत् शब्दलक्षणः ॥ ३२ ॥

उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं; बस, अपने घरों में ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरों की पूजा में लगे रहते हैं। ये लोग अर्थ, धर्म और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनिय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान् की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं।

हाय! विष्ठाभोगी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवत्कथामृत को छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं-वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करने वाले ये सकामकर्मी सूर्य से दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्ग से पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर अपनी ही सन्तति के वंश में उत्पन्न होते हैं।

माताजी! पितृलोक को भोग लेने पर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवता लोग उन्हें वहाँ के ऐश्वर्य से च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोक में गिरना पड़ता है। इसलिये माताजी! जिनके चरणकमल सदा भजने योग्य हैं, उन भगवान् का तुम उन्हीं के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से (मन, वाणी और शरीर से) भजन करो। भगवान् वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्काररूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। वस्तुतः सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है-उसी समय वह संगरहित, सब में समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।

सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना-बस, यही योगियों के सब प्रकार के योग साधन का एकमात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्यवृत्तियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मों वाले विभिन्न पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस-तीन प्रकार का अहंकार, पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया है और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर के योगाभ्यास के द्वारा एकाग्रचित्त और असंग बुद्धि हो गया है।

पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्म साक्षात्कार का साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। देवि! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग-इन दोनों का फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते हैं।

यथेन्द्रियैः पृथग्द्वारैः अर्थो बहुगुणाश्रयः ।

एको नानेयते तद्वद् भगवान् शास्त्रवर्त्मभिः ॥ ३३ ॥

क्रियया क्रतुभिर्दानैः तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।

आत्मेन्द्रियजयेनापि सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४ ॥

योगेन विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।

धर्मेणोभयचिह्नेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५ ॥

आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण दृढेन च ।

ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥ ३६ ॥

प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।

कालस्य च अक्तगतेः योऽन्तर्धावति जन्तुषु ॥ ३७ ॥

जीवस्य संसृतीर्बह्वीः अविद्याकर्म निर्मिताः ।

यास्वङ्ग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥ ३८ ॥

नैतत्खलायोपदिशेन् नाविनीताय कर्हिचित् ।

न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥ ३९ ॥

न लोलुपायोपदिशेत् न गृहारूढचेतसे ।

नाभक्ताय च मे जातु न मद्‍भक्तद्विषामपि ॥ ४० ॥

श्रद्दधानाय भक्ताय विनीताय अनसूयवे ।

भूतेषु कृतमैत्राय शुश्रूषाभिरताय च ॥ ४१ ॥

बहिर्जातविरागाय शान्तचित्ताय दीयताम् ।

निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥ ४२ ॥

य इदं श्रृणुयाद् अम्ब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।

यो वाभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥ ४३ ॥

जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेद विचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अंगों वाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्त्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य-इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।

माताजी! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुणभेद से चार प्रकार के भक्तियोग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल का स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ।

देवि! अविद्याजनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता। मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है-उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषों को नहीं सुनाना चाहिये।

जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तों से द्वेष करने वाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे। जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों में अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे।

मा! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कपिलेये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥